बूंद जो सागर से जा मिली | Prem ki Kahani
सायंकल का वक्त गोधूलि बेला में सूरज की लालिमा वातावरण में मिलकर चलने की तैयारी में है। फूलों की सुगंधों से चारों ओर का माहौल मदमस्त हो रहा है। ऐसे में पवन देव ने भी कृपा की मंद मंद मधुर हवाएं चलने लगी तो साथ ही वर्षा की टप टप करती बूंदे भी पड़ने लगी ।
बुंदों का प्रभाव जब बढ़ा तो वे जागे -” अरे !इतना समय हो गया ! यह तो सांझ ढल आई। समय का तो पता ही नहीं चला । मैं कहां खो गया। अरे मेरे मन सपने देखना छोड़ वास्तविकता समझ ।तू किसके बारे में सपना देख रहा है।
जानता है कि वह कौन वह मेरी शिष्या है शिष्या ।हम उम्र है तो क्या हुआ? परंतु रिश्ते तो रिश्ते होते हैं ! लोग क्या कहेंगे? तूने इसके बारे में कभी सोचा है! फिर दूसरा विचार है कि क्या जैसा मैं सोचता हूं वह विचार जाने कोई निर्णय लेना बेईमानी होगी । जहां तक लोगों की बात है तो लोग अच्छा करो या खराब वे तो कहने से बाज थोड़े आने वाले !
समय का प्रवाह कहां रुकने वाला था । वह तो अपनी गति से बढ़ता ही जा रहा था । लोगों की जुबान को कैसे रोका जाए ? गलत बात तो हवा की तरह बढ़ती ही जाती थी । इधर वह भी परेशान हो रही है कि लोगों को जैसे कोई काम ही ना हो। इधर-उधर की चर्चा करने में लोगों को न जाने कौन सा रस मिलता है।
एक दिन दोनों की नजरे मिल गई । लगातार अफवाहों के बीच तो जैसे मिलना ही दुर्लभ हो गया है। आज इच्छा हो रही है कि अपने दिल की बात कह ही देनी चाहिए। ऐसे मन में ही रखे रहने से समस्या का समाधान थोड़े मिलने वाला है।
दुआ सलाम के बाद दोनों ओर से नीरव शांति छा गई । कौन क्या बोले? फिर भी गुरु जी ने कहां – “कहो क्या हो रहा है ,पढ़ाई लिखाई ठीक-ठाक चल रही है ना।”
मन में कुछ और ही हलचल हो रही है । मुख से कुछ और ही वाणी निकल रही है। मन की बातें कहीं मन में ही ना रह जाए इसलिए आज हिम्मत करके फैसला कर ही लेना चाहिए। ऐसा सोच विचार कर उन्होंने कहा-” आजकल लोगों के मुख से जो सुना जा रहा है उसके बारे में क्या ख्याल है । ”
वह कुछ नहीं बोली जमीन की ओर ऐसी देखतीं जा रही है जैसे धरती से धसी जा रही हो। मुख से कोई आवाज नहीं आ रही । गला रूंधा जा रहा । आंखें भर आईं ।
वह सिसकियां लेने लगी तो उन्होंने कहा -” अरे तुम रो रही हो पगली ! रोते नहीं इसमें तेरी ही नहीं मेरी भी तो गलती है। जो मैं तुझे समझ नहीं पाया तू तो गंगा समान पवित्र हो। आओ हम सब सपने को सच में बदल दे । ” एक नीरव शांति चारों ओर व्याप्त हो गई।
वह सोचने लगी । पहली दफा हम कब मिले थे । अच्छा याद आया। जब मैंने विद्यालय परिसर में प्रवेश लिया था एक लड़का धोती -कुर्ता पजामा पहने मस्त चाल से चला आ रहा था तो मुझे हंसी आ गई । तो वह पीछे मुड़कर देखें तो मैं शर्म से डूब गई । अगले दिन जब मैं पहली क्लास में गई तो पता चला यह तो हमारे गुरु जी हैं।
कभी-कभी मैं मजाक में कुछ कह देती तो वह कुछ भी नहीं बोलते । कभी वह दिल में जगह बना लिये कहा नहीं जा सकता। प्यार तो कोई पूछ कर थोड़े ही होता है। यह तो दो दिलों का मामला है । कहते हैं प्यार अंधा होता है। क्या सचमुच में प्यार अंधा होता है ।
अब विश्वास होने लगा है कि सचमुच प्यार अंधा होता है और एक दिन वह शुभ घड़ी आ ही गई जब दोनों प्रेमी सारे बंधन तोड़कर एक होने का पक्का इरादा बना ही लिए । पूरा विद्यालय प्रशासन नाराज हो गया कि इससे समाज में गलत परंपरा का विकास होगा।
लोग क्या कहेंगे कि वहां ऐसे ही होता है? परंतु जब एक बार फैसला कर लिया तो पीछे नहीं हटूंगा जिसको जो कहना या करना है करें ! दोनों प्रेमी शादी की पवित्र बंधन में बंध कर दो दिल एक जान हो गए । सारी परंपराएं बंधन कोई भी बाधा मिलन से रोका ना सके। आज वह दोनों बहुत खुश हैं अपने फैसले से आखिर बूंद जो सागर से जा मिली।
नोट – यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है। अपनी प्रतिक्रिया जरुर दें।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )
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