रॉंग नंबर
रॉंग नंबर

 रॉंग नंबर (PART-3 ) 

 

बम-बम भोले और हर हर महादेव के जयकारे लगाते हुए हम मेला परिसर में दाखिल हुए। यहां लाई, खील बेचने वाले दुकानदार अपनी दुकानों के पीछे भोले भक्तों के ठहरने हेतु तिरपाल बिछा देते हैं।
यह यहां का अघोषित नियम ही है कि जो जिस तिरपाल के नीचे ठहरेगा वह वहीं से प्रसाद खरीदेगा। कुछ देर आराम करने के बाद वरिष्ठ सदस्यों ने हमसे शिवनार कुंड(पाण्डवकुप्प) में स्नान करने को कहा।
सुबह के सात बजे हमने उस ठंडे जल के कुंड में स्नान किया। मान्यता है किमहाभारतकालीन पाण्डवकुप्प में स्नान करने से बीमारियों से मुक्ति मिल जाती है।
अब इसके बाद पवित्र शिवलिंग पर जल चढ़ाने का दुष्कर कार्य हमारे सामने था। हम उस लाइन में लग गए जो कई K.M. लम्बी थी।मैं और रवी आगे पीछे ही थे।
अनुभवी सदस्यों ने हमे आगाह कर दिया था कि लाइन में धक्का-मुक्की बहुत होगी लेकिन अड़े रहना, हटना नही।अगर हट गए तो फिर से पीछे से लगना पड़ेगा।
बात उनकी पक्की थी। पीछे से कोई बम भोले का जयकारा लगाता और तेज धक्का आता, हम गिरते गिरते बचते लेकिन हमने लाइन नही छोड़ी।
# अन्ततः 
अन्ततः करीब 1.30 घण्टे लाइन में लगने के बाद हमने लोधेश्वर धाम में स्थित पवित्र शिवलिंग में जल चढ़ाया। लोग कहते हैं कि पहली बार जाने पर ही भोले बाबा के दर्शन मिल जाना शुभ होता है।
लेकिन अगर मैं सच कहूं तो जल चढ़ाते वक्त मुझे पवित्र शिवलिंग नही दिख सका। दरअसल मंदिर के भीतर जगह कम थी जबकि भीड़ इतनी ज्यादा थी कि पुलिस किसी को 5 सेकेंड भी रुकने नही दे रही थी।
जल चढ़ाते ही पुलिस खींच के पीछे कर देती थी हालांकि तब भी कुछ गठीले शरीर के ढीठ युवकों ने डंडे पड़ने के बावजूद काफी देर तक जाली में सर झुकाए रहे। न तो मेरा शरीर गठीला था न ही मैं ढीठ था इसलिए जाली के अंदर जल/फूल चढ़ाकर मैं बाहर आ गया।
★★★
हम लोग उस जगह आ गए जहां हमारा समान रखा था। अब हमें यहां रुकना था ताकि बचे हुए लोग दर्शन करने जा सकें।उनके जाने के बाद समय का सदुपयोग करते हुए हमने सभी के बैग टटोले।
बैग टटोलना एक अनिवार्य औपचारिकता थी क्योंकि हमारी अनुपस्थिति में उन्होंने हमारे बैग टटोले थे यद्यपि वह मेरे बैग में रखे पेड़े नही पा सके।
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उनके वापस आने के बाद हम सबने खाना खाया।कुछ देर बाद विवाहित गुट मेला घूमने निकल गया।करीब 2 घण्टे बाद वह वापस लौटे और वहीं पसर गए।हमे पता नही था कि उनका यह आराम कई घण्टे चलने वाला है।
इस बीच मैंने आसपास नजर दौड़ाई। 90%लोग गांव-देहातों से दर्शन करने आये हुए थे।कुछ लोग आराम फरमा रहे थे तो कुछ खरीदारी करने में व्यस्त थे।हमसे थोड़ी ही दूर पर पुरुषों की एक टोली श्रृंगार करने में व्यस्त थी।
अपनी मान्यताओं के अनुसार उन्होंने पैरों में रंग लगाया,घुंघरू बांधे, होंठों में लाली,आंखों में काजल और माथे पर बिंदी लगाई।
वह अपने आराध्य भगवान शंकर जी को स्त्री का रूप धरकर प्रसन्न करना चाहते थे। उनकी आस्था देखने लायक थी।वह निस्वार्थ भाव से सजने में लगे थे मानो कोई स्त्री सोलह श्रृंगार कर अपने प्रेमी/इष्ट को रिझाना चाहती हो।
उन्होंने ढोलक की थाप पर घुंघरू बांधकर नृत्य किया।उनके गीत तो मुझे समझ नही आ सके क्योंकि वह किसी और जिले की भाषा मे गीत गा रहे थे लेकिन उनकी तन्मयता और समर्पण भाव मन मोह गया।वह सैकड़ों k.m.दूर साइकिल से यहां आए थे तब भी उनके चेहरे में शिकन तक नही थी।
उनको देखकर हम अपने को छोटा महसूस करने लगे।वह इतने प्रेम और समर्पण भाव से नाच-गा रहे थे मानो भगवान शंकर उनके आसपास ही मौजूद हों।क्या वास्तव में भगवान वहां मौजूद नही थे ??
नृत्य के बाद उन सबने पंक्ति में खड़े होकर भगवान शिव की आरती की।
 ★★★
चलने से पहले हमने खरीदारी की। मैंने लाई , खील, मिश्री, कलावा, वंदन, बिंदी, महावर, लॉकेट,  ब्रेसलेट आदि चीजों को खरीदा।
अब हमारा यहां से प्रस्थान करने का समय था।
# दम मारो दम
शाम होते होते बम भोले के जयकारे लगाते हुए गाड़ी खोल दी गयी। हम अपनी पुरानी सीटिंग व्यवस्था के अनुसार ही लोडर में बैठे। यद्यपि हम एक-दूसरे से अधिक घुल मिल गए थे तब भी छींटाकशी जारी थी।
लोडर अब सड़क पर दौड़ रहा था। मैंने देखा वरिष्ठ सदस्यों में से एक ने जेब से लाल रंग की चमचमाती चिलम निकाली। यह चिलम कुछ देर पहले मेले से खरीदी गई थी।
चिलम पीने के इच्छुक भक्त मन ही मन खिलखिलाते हुए एक-दूसरे से सटकर बैठ गए। मैंने देखा उनमें से एक ने जेब से सफेद पुड़िया निकाली और उसमे से सूखा हरा पदार्थ निकाल चिलम में इतनी सावधानी से भरने लगा मानो जंग के लिए तैयार तोप में गोले भर रहा हो।
चिलम सुलगाने में कई तीलियाँ व्यर्थ चली गईं।तपस्वी एक टक देखे जा रहे थे। आशा मय विलम्ब आनंद को और बढ़ा देता है।
थोड़ी ना-नुकुर के बाद चिलम भक्क से जल पड़ी। सारे तपस्वियों की आंखे जुगनू की मानिंद चमक उठीं।तपस्या पूर्ण हुई अब कर्मफल प्राप्त करने का समय था।
चिमनी ठीक से सुलग जाने के बाद मुखिया ने चिलम के पैर छुए , बम भोले का जयकारा लगाया और प्रसाद बंटना शुरू हो गया।
उन्होंने बारी बारी से चिलम के फूंक मारे। 1-2 शॉट मारने के बाद जब कोई खांसने लगता तो मुखिया अभिभावक की भांति उसकी पीठ सहला देता।
काफी देर धुंआ धक्कड़ चलता रहा। यद्यपि उनमें से कोई भी चिलम पीने का अभ्यस्त नही था ; यह ऐसी चीजें हैं जो इस यात्रा में लोग मौजवश करते हैं और इन्हें जायज व बाबा का प्रसाद मानते हैं।
चिलम का दौर समाप्त होने के बाद एक निहायत ही रसिक सदस्य ने मेले से खरीदी हुई ढोलक निकाली।उन्होंने सुरूरी में भजन, आल्हा, फिल्मी गाने और अचरी भी गाई।
एक गा रहा था जबकि बाकी कोरस में गीत के शब्दों को बिना समझे लय में दोहरा रहे थे। मेरे दाहिने  बैठा एक रंगरूट आनंद में आंखे बंद किये ताली पीटने में लगा था।
उसने भी चिलम के  3-4 राउंड में  सक्रिय हिस्सेदारी निभाई थी। उसके मुंह से गांजे की बू आ रही थी।
# रात्रि में
हम लखनऊ पहुंचने को थे। बारिश अब भी जारी थी ।जैसे जैसे रात्रि बढ़ती गयी वरिष्ठ सदस्य पूर्ण आनंद की अनुभूति करते हुए निद्रा में लीन हो गए। रात्रि के अंतिम पहर में हम कानपुर सेंट्रल स्टेशन पहुंचे। यहां से वरिष्ठ सदस्यों को चित्रकूट के लिए ट्रेन पकड़नी थी।
उन्हें उतारकर कर लोडर कालपी रोड पर दौड़ने लगा। सुबह होने वाली थी।शहर धीरे धीरे जाग रहा था।अखबार वाले शाल/कम्बल लपेटे तेजी से चले जा रहे थे।कोहरा घना नही था परंतु हल्की धुंध अवश्य छाई हुई थी।
इससे पहले मैने इस शहर को जागते हुए नही देखा था। भीड़भाड़ और शोरगुल से भरा रहने वाला यह शहर अभी बिल्कुल शांत और मौन था।
हम सुबह होते-होते गांव पहुंच गए।
#CONTINUED………

लेखक : भूपेंद्र सिंह चौहान

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