Prem par kavita
Prem par kavita

प्रिय ! आ जाना

( Priye aa jaana )

 

 

यह प्रेम छिपाए ना छिपता

जब पास प्रिय ना होती हो

दिल दर्द सहे कितना पूछो?

अधमरा मरा कर देती हो,

 

        कुछ अजब गजब हरकत मुझमें

        तुम यादों में दे जाती हो

        फिर प्यार छिपाए कहां छिपे

        उल्टा मुझको समझाती हो,

 

तू  है  मेरी मै  हूं   तेरा

ना और मुझे कुछ दिखता है

कमजोर  प्यार  का डोर नहीं

यह जनम जनम का रिस्ता है,

 

         तुम नदी किनारों सी गोरी

         फिर दूर दूर क्यों रहती हो?

         हो मगन गगन सा कर वर्षा

         ना प्रेम नीर सा बहती हो?

 

पक्षी के पंख सा हम दोनों

उड़ नभ में जीवन के जाएं

सुदूर दूर दुःख जहां नहीं

हम दोनों खुद में खो जाएं,

 

          रह जाए ना अब बहुत हुआ

          प्रिय आ जाना,प्रिय आ जाना

          हम दोनों मिलकर एक बनें

          सुप्रीति की रीति निभा जाना,

 

है धन घटता है मन बढ़ता

पर प्रेम अमर हों जाता है

प्रिय प्रेम  सुपावन रिस्ता है

खुद जिसमें खुद खो जाता है,

 

          है प्रेम निभाना सरल नहीं

          मिटते मिटते मिट जाना है

          प्रिय प्रेम है कोई खेल नहीं

          ना हार जीत लुट जाना है,

 

कुछ को देखा अंधा होते

कुछ कहते प्यार कि धोखा है

पर प्यार प्रेम का वह बन्धन

अंधा भी जिसको देखा है,

 

          रसपान करूं अब ओंठो का

          उर उर का चाहूं मिल जाना

          रह जाए ना अब बहुत हुआ

          प्रिय आ जाना,प्रिय आ जाना।

 

रचनाकार -रामबृक्ष बहादुरपुरी
( अम्बेडकरनगर )

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