रात पूस की!
रात पूस की!
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पवन पछुआ है बौराया,
बढ़ी ठंड अति-
हाड़ मांस है गलाया!
नहीं है कोई कंबल रजाई,
बिस्तर बर्फ हुई है भाई।
किट किट किट किट दांत किटकिटा रहे हैं,
कांपते शरीर में नींद कहां?
निशा जैसे तैसे बिता रहे हैं।
चुन बिन कर लाए हैं कुछ लकड़ियां-
वहीं सुनगा रहे हैं,
निकली ज्वाला से तन मन को तपा रहे हैं।
फटी हुई धोतियों को सिलकर-
लेवा एक बना रहे हैं,
इस निर्दयी सर्दी से बचने का-
उपाय अंतिम कर रहे हैं।
फूस की झोपड़ी , पूस की रात-
बगल रखी बोरसी में बची कुछ आग,
यही गरीब की पूंजी है आज।
शुक्र है बीती कल रात,
जिंदा बचे , यही इत्मिनान की बात।
सुबह हुई कुछ धूप खिली,
तब जाकर राहत की सांस मिली।
पर चैन कहां?
एक और रात की चिंता माथे पर लिए-
सड़क पर आ डटे हैं,
कुछ चुन बिन जलावन का इंतजाम कर रहे हैं।
ताकि गरीब की बोरसी धधक सके,
जिसकी आग से हम गरीबों के दिल हैं धड़क रहे!
दिसंबर जनवरी बस किसी तरह गुजर जाए,
तो संक्रांति पर जा गंगा नहा आएं?
तिल लड्डू खाकर,ठंड को कहें अलविदा,
बस इतना दया दिखाना या खुदा!
?
लेखक-मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
सलेमपुर, छपरा, बिहार ।
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