sant ganga das
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कहा जाता है कि संतों का राजकाज से क्या नाता? परंतु कुछ विरले संत ऐसे भी होते हैं जो अपने कार्यों के द्वारा राजसत्ता को भी पलट सकते हैं । संत गंगा दास जी ऐसे ही संत थे।

जिन्होंने जहां एक तरफ जनमानस को अपनी वाणी के द्वारा जागृति प्रदान की वहीं अपनी लेखनी के माध्यम से भी उनमें खत्म हो गए पौरुष को जगाने का प्रयास भी किया ।

उन्होंने दर्शन एवं भारतीय लोक संस्कृति का गौरवपूर्ण व्याख्यान के माध्यम से देशवासियों में व्याप्त भय और निराशा की भावना को भी दूर करने का प्रयास किया ।

ऐसे महान संत का जन्म वाणी की देवी सरस्वती के पूजन वसंत पंचमी के दिन 1823 ईस्वी में गाजियाबाद उत्तर प्रदेश के दिल्ली मुरादाबाद मार्ग पर बाबूगढ़ छावनी के कुचेसर फोर्ट से जाने वाले मार्ग पर स्थित रसूलपुर बहलोलपुर गांव में हुआ था।

इनके पिता चौधरी सुखीराम एक बहुत बड़े जमीदार एवं माताजी कुशल गृहिणी थी। अभी शैशवास्था को पूर्ण भी नहीं कर पाए थे कि उनके माता-पिता का देहांत हो गया।

इन घटनाओं से उनको संसार की असारता का बोध हो गया और 11 वर्ष की अवस्था में ही गृह का त्याग कर दिया ।फिर उन्होंने उदासीन संप्रदाय के संत विष्णु दास से दीक्षा लेकर बैरागी बन गए। सन्यास लेने के पश्चात उनका नाम गंगादास रखा गया।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा भी विष्णु दास जी के संरक्षण में हुई। शिक्षा में रुचि को देखते हुए उन्हें उच्च शिक्षा हेतु वाराणसी भेजा गया जहां उन्होंने लगभग 20 वर्षों तक संस्कृत के धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया।

शिक्षा समाप्ति के पश्चात 1855 ईसवी में मध्यप्रदेश के ग्वालियर नगर के पास सोनरेखा नाम के नाले के निकट कुटी बनाकर वह रहने लगे ।

कहां जाता के वहीं इन्होंने 18 जून 1858 को झांसी की महारानी का दाह संस्कार किया था ।उपर्युक्त वक्तव्य का उल्लेख वृंदावन लाल वर्मा के उपन्यास झांसी की रानी में मिलता है ।

उन्होंने लिखा है _’एक बार लक्ष्मी बाई अपनी अंतरंग सखी मुंदर के साथ संत गंगा दास की कुटी पर ग्वालियर गई थी । वहां रानी ने स्वराज्य स्थापना हेतु संत गंगा दास से विस्तृत चर्चा की थी ।

पहले तो संत गंगा दास ने टालने का प्रयास किया फिर उन्होंने रानी से कहा यह मत सोचो कि हमारे जीवन काल में ही स्वराज की प्राप्ति हो जाएगी आप नींव के पत्थर बन जाओ देशभक्त भी बनते रहेंगे। तब नीव भरने के पश्चात स्वराज का महल उन्नत होगा ।

(झांसी की रानी वृंदावन लाल वर्मा पृष्ठ 322 ) कहा जाता है कि उन्होंने जीवन को भरपूर जिया था । वे बहुत पवित्र और नियमित्त जीवन व्यतीत करते थे । व्रत पूजा पाठ बहुत करते थे ।बिना स्नान किए भोजन नहीं करते थे और भोजन करते हुए बोलते नहीं थे ।

वे प्रायः अपने हाथ का बना भोजन 24 घंटों में केवल एक बार करते थे और यह नियम उनका अंत तक चलता रहा ।ऐसे महान संत कवि का निर्वाण संवत 1970 (सन 1913 ,की जन्माष्टमी को प्रातः 6:00 बजे गढ़मुक्तेश्वर में हो गया। वे एक संत कवि थे ।

उनका कवि हृदय जब उदवेलित होता था तो कलम सहज में चलने लगती थी। उन्होंने लगभग 50 रचनाएं की जिनमें से 45 प्राप्त हो गई । कहा जाता है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक काल का श्रेष्ठ कवि इसलिए मान लिया जाता है कि उस समय तक गंगा दास की रचनाएं प्राप्त नहीं हो सकी थी। देखा जाए तो राष्ट्रीय भावना एवं शासन का विरोध सर्वप्रथम संत गंगा दास के काव्य में ही उपलब्ध होता है। उन्होंने सर्वप्रथम बिटिश शासन की खुली चुनौती दी थी।—-।

नीतहीन राजा अन्यायी। वेद विरोधी सठ दुखदाई ।। ब्रिटिश शासन की व्यवस्था का विरोध करते हुए लिखा था —-चोरों के इस वक्त पर बरत रहे तप तेज ।भूप दंड देते नहीं, भई पाप की मेज़।। गंगा दास कह मुख काले रिश्वतखोरी के।। हाकिम लोभी करै बरी दावे चोरों के ।।

इस प्रकार से देखा जाए तो आधुनिक भारत में राष्ट्रीय भावना को जागृत करने वालों में संत गंगा दास जी भारतेंदु हरिश्चंद्र से श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं।

 

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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