ये सावन के अंधे हैं

( Ye sawan ke andhe hai )

 

सूझ रही है बस हरियाली ,
ये सावन के अंधे हैं .

कोलाहल की आड़ लिए नित ,
मिला चीखता सन्नाटा .
कंगाली ने तरस दिखा कर ,
दिया जिन्हें गीला आटा .
आग बुझा कर गई हताशा ,
सपने कुछ अधरंधे हैं .

गुत्थी को उलझा कर करते ,
बातें हर संभव हल की .
सदियाँ खोकर परख करें ये ,
आते- जाते हर पल की .
दया धर्म की करें हिमायत ,
क़त्ल सरीखे धंधे हैं .

सदा पराई विपदाओं में ,
केवल अपना सुख खोजा .
माल मुफ्त का मिला कहीं जो ,
झट खोला अपना रोजा .
दिल की चाह निरंतर ढ़ोते ,
आहत इनके कंधे हैं .

Rajpal Singh Gulia

राजपाल सिंह गुलिया
झज्जर , ( हरियाणा )

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