Sawan mein

तुम आ जाते सावन में घर | Sawan mein

तुम आ जाते सावन में घर

( Tum aa jate sawan mein ghar )

 

सच कहती हूॅं तेरे बिन मुझे कुछ अच्छा न लगता,
तुम आ जाते सावन में घर तो सावन यह लगता।
मन में आशाएं बड़ी-बड़ी थी कमी तुम्हारा लगता,
इस जीवन में सफ़र तेरे बिन अब अधूरा लगता।।

आपसे अच्छा हम-दर्द हमारा कोई ना हो सकता,
चाॅंद बिना है चकोर अधूरी क्या तुम्हें ना दिखता।
दिन-महिनें साल बीत गया अब याद तेरा खलता,
कब आवोंगे सच बता-दो मन हमारा ना लगता।।

कहता है मुझे वक़्त नहीं ये कविता रोज़ लिखता,
तू सोचता मुझे पता नहीं मैं रोज़ाना जिसे पढ़ता।
क्यों तड़पाते मुझको साजन ना दया थोड़ा आता,
मोबाइल की बातों से क्या किसका दिल भरता।।

हमें पता है ख़ुश तू भी न होगा मन हमारा कहता,
ऑंसुओ की बारिश में भीगकर होगा तू भी रोता।
दोनों तड़प रहें सावन में जैसे‌ मछली खाता गोता,
रातभर काली घटा छाई रहती नहीं तू भी सोता।।

हिम्मत तो कर निकल आएगा छुट्टी का यह रस्ता,
बिना तुम्हारे श्रृंगार अधूरा गहना भी नहीं जचता।
कैसा इम्तिहां तू ले रहा क्या दिल तेरा न धड़कता,
तुम आ जाते सावन में घर तो सावन यह लगता।।

 

रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )

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