शीशा-ए-दिल पे जमी है धूल शायद
शीशा-ए-दिल पे जमी है धूल शायद

शीशा-ए-दिल पे जमी है धूल शायद

( Shisha-e-Dil Pe Jami Hai Dhool Shayad )

 

शीशा-ए-दिल पे जमी है धूल शायद।
देखने  में  हो  रही  है  भूल शायद।।

 

आरजू होती नहीं सब दिल की पूरी।
हर दुआ होती नहीं मक़बूल शायद।।

 

एक साया-सा नज़र आया है हम को।
दूर  अब  तो  है नही मस्तूल शायद।।

 

बात दिल पे आ लगी कुछ ऐसी उनकी।
चुभ गया है दिल में कोई सूल शायद।।

 

कत्ल करके खुद ही अपनी हसरतों का।
हम थे कातिल बन गए मक़तूल शायद।।

 

कर्ज़ बढता ही रहा सांसों का दिल पर।
ग़म  उठा  के  दे  रहे महसूल शायद।।

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कवि व शायर: Ⓜ मुनीश कुमार “कुमार”
(M A. M.Phil. B.Ed.)
हिंदी लेक्चरर ,
GSS School ढाठरथ
जींद (हरियाणा)

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