श्रीमती उमेश नाग की कविताएं

हास्य काव्य

करना है कुछ काम तो
कुछ ऐसा कार्य करो।
घर घर बैठे बैठे लम्बी लम्बी,
बात करो जिसका आदि- अन्त न हो।
हवा में बात उड़ाते जाओ,
झूठ भी सच लगे ऐसे बकबक करते जाओ।
करने धरने में क्या रखा है,
जो व्यर्थ बात बनाने में है।
होंठों को हिलाने में जो रस है,
वह हाथ हिलाने में कभी नही।
जीवन जागृति में क्या रखा है,
जो रखा है बात बनाने में।
सच्चे योगी वें ही है शायद,
जो बेफिक्री से घंटों सोते हैं।
अरे भाई!किस चक्की का आटा खाते हो,
तोंद अपनी काया से लाए हो।
क्या रखा है उपदेशों में,
दौड़ धूप में क्या रखा है मित्र;
आराम करो आराम करो।
आराम जीवन की कुंजी हो,
इससे तपेदिक नही होती।
विश्राम सुधा की बूंद बूंद,
मानव को क्षीण शरीर से – बचाती है।
आराम शब्द का ज्ञाता बन,
योगी होने में क्या रखा है।
जीवन तो क्षणभंगुर है,
आराम करो, स्वच्छंद रहो।
करना चाहते हो तो न उत्पात करो,
घर में बैठे बैठे लम्बी लम्बी – हांका करों।

खुशी हो या गम हो सब मंजूर है

अब तो ना खुशी का ग़म है,
ना ही गम में खुशी का एहसास।
बेहिसाब पागल बना चुकी है, यह जिंदगी मुझे।
जब हुआ जिक्र जमाने में मोहब्बत का,
मुझे कुछ खुशी कुछ गम ने रूलाया है।
अब तो ना खुशी का गम है, न गम में कोई खुशी।
बेहिसाब पागल बना चुकी है यह जिंदगी मुझे,
कभी सहर तो कभी शाम खुशी दे ग‌ई मुझे।
उनकी याद कोई काम दे ग‌ई है मुझे,
कभी खुशीयों भरी तराना गुनगुना रहा है:
कोई गम की गजल गा रहा है कहीं।
दिल तो दिल ही है जनाब,
कभी खुशी कभी गम के तराने
का माहौल बना गया कोई।

आध्यात्म क्या है?

अपने आत्म तत्व को पहचाना।
स्वयं को जानना एवं प्रेम का
अवलोकन करना।
पहचानने की पहली सीढ़ी,
और जब स्वयं को अध्ययन –
करने की ओर प्रथम कदम हम
बढ़ाते हैं।
तभी प्रेम एवं आध्यात्म मिलकर,
सत्य का जीवन दर्शन कराते हैं।
यही आत्मबोध का होता दर्शन,
आत्मबोध ही है आध्यात्मिक
जीवन का रहस्य।
जहां प्रेम की सीढ़ी पर रखते
ही पांव,
आध्यात्मिक प्रगति के
खुले द्वार।
स्व स्वरूप ही नजर आता है,
यही है आध्यात्मिकवाद।

” यादों में एक खत “

मुझे याद है,लिखे खत तुम्हें
कागज कागज शब्द सजाऐं,
दिल ने मेरे, तेरी याद में।
प्यार में गमजदा हूं मैं-
तेरी गैरहाजिरी में।
मेरे अरमान तो मेरे दिल में-
ही जल गयें,
याद तेरी दिल में ही दफन हो गईं।
कितनी भी खुश रहने की कोशिश –
करुं मैं,
सच कहूं तो बहुत रूलाती हैं यादें
मुझे दिन और रातों‌ में।
हर पल जब भी खुश होती हूं मैं
मेरी हर हंसी होती है यह सोचकर –
कि अभी भी हूं मैं तेरे साथ यादों में।
यही मानकर यादों को तेरी मैंने,
पनाह दे दी है अपने दिल जिगर में।
आखिर हमने मोहब्बत की थी,
तेरी मासूम शख्सियत से।

किट किट करते दांत

किट किट करते दांत,
शीत में जम जाते हाथ पांव।
ऊनी स्वेटर गरम कोट पहनने-
की रहती चाहत दिन रात।
गरम गरम चाय काफी ,
पीने की चाहत।
सनसनाती शीत हवा,
तन मन को सताती है।
रोजमर्रा के काम रूक जातें
दिल और दिमाग को दुखातीं।
दिन के उजाले वक्त में,
चहुं ओर अंधेरा घनेरा;
छाया है घना कोहरा।
बादल झूम झूम कर आतें
सर्दी का मल्हार गातें।
शिशिर में नहाने का नही,
है मन करता।
पर मौसम लगता है सुहाना,
जब सर्दी में जलते अलाव।
बनते घर घर में मेवे के लड्डू,
गोंद,बादाम और पिस्ते डालकर।
मीठी स्वादिष्ट पंजीरी,
मिलकर खाऐं साजन सजनी।
बच्चें पहने हैं स्वेटर टोपी
दिन ढलता है जल्दी – जल्दी।
रातें हो जातीं लम्बी – लम्बी।
सो जाते हैं सभी खींच,
कम्बल और रजाई।

घर


मेरा घर घर नही,
स्वर्ग की प्रतिमूर्ति है।
रिश्ते में इसमें सभी,
प्रेम व दायित्वों से जुड़े हैं।
बड़ा परिवार इन्द्रधनुष सा है,
सातों रंगों में रंगा पगा है।
कभी जश्न तो कभी ग़म ,
सभी मिलकर इसे करते सम्पन्न।
सच्चे एहसास व प्रेम की
कहानी है,
सभी मिलजुल कर करते
घर में अनुभव।
घर मेरा माटी गारा का महल,
परन्तु समस्त परिवार इसमें –
समा जाता है।
आंगन कच्ची मिट्टी का ,
तुलसी, गेंदा, चम्पा चमेली से
महकता।
घर छोटा पर सम्पूर्ण सदस्यों से,
हंसी ठहाकों से गूंजता रहता।
मेरा मन तो फूला नही समाता,
पिता छत हैं घर के
माता हैं अन्नपूर्णा देवी।
खिलखिलाते रहते सब,
क्योंकि घर मेरा है धूप प्रकाश,
रातें हैं इसमें चंदनिया।

जाड़े की धूप सुहाती है

जाड़े की धूप सुहाती है
ठीठुरती काया को आराम देती है।
गरम नरम धूप निकली
सभी सुगबुगाऐं,
हटाकर रजाई- कम्बल,
चले सभी धूप खाने।
भोर की गरम नरम धूप में,
चलों सभी हम तुम इसमें नहायें।
जूटे हैं धूप में यहां सभी जैसे लगा मेला,
कठीन ठंड से यह सबकों बचाती,
न‌ई नवेली दुल्हनिया की भांति- शर्माती।
रखती तन को सम्पूर्ण स्वस्थ,
मन को हर्षित करती जाड़े – की धूप।
जब बादल के पीछे चंद्र की
भांति छुप जाती जाड़े – की धूप।
कंपकंपाती झकझोर देती,
निश्चल काया को जाड़े की – सुहाती धूप।
रोग व आलस्य लाती है वहीं,
जहां नही आती है जाड़े – की धूप।
है सुखदायी व मंगलदायनी,
यह जाड़े की धूप।

” क्या खूब लिखा है “


आहिस्ता चल जिंदगी, अभी
केई कर्ज चुकाने बाकी हैं।
कुछ दर्द मिटाना बाकी है,
कुछ फर्ज निभाना बाकी है।
रफ़्तार में तेरे चलने से
कुछ छूट ग‌ए कुछ रूठ गए,
रूठो को मनाना बाकी है,
रोतों को हंसाना बाकी है।
कुछ रिश्ते बनकर टूट गयें,
कुछ जुड़ते जुड़ते छूट ग‌ए।
उन टूटे-छूटे रिश्तों के ज़ख्मों
को मिटाना अभी बाकी है।
कुछ हसरतें अभी अधूरी हैं
कुछ काम और जरूरी है।
जीवन की उलझ पहली को
पूरा सुलझाना बाकी है।
जब सांसो को थम जाना है,
फिर क्या खोना, क्या पाना है।
पर मन के जिद्दी बच्चे को –
यह बात बताना बाकी है।
आहिस्ता चल जिंदगी अभी
केई कर्ज चुकाना बाकी हैं,
केई दर्द मिटाना बाकी है।
कुछ फर्ज निभाना बाकी हैं।
भारत मां को समृद्ध खुशहाल
बनाना बाकी है।
जरा आहिस्ता चल जिंदगी
अभी केई कर्ज -फर्ज चुकाना –
निभाना बाकी है।
देश में छाई अराजकता व,
संवेदनहीनता का उन्मूलन –
करना बाकी है अभी।
जरा आहिस्ता चल जिंदगी
अभी केई कर्ज चुकाने – बाकी है।
कुछ फर्ज कर्ज बाकी हैं,
कुछ दर्द मिटना बाकी है।
जरा आहिस्ता चल ऐ! जिंदगी,
अभी केई कर्ज चुकाने बाकी है।
खुशहाली का जशन मनाना – बाकी है,
रामराज लाना बाकी है।

रीति गागर लें चलो सखीयों

रीति गागर लें चलो सखीयों,
पनघट पर मिलेंगे गिरधर।
पानी भरने आईं लें मटकी हाथ ,
राह अकेले में डर लागे है,
सखी तू भी चल साथ।
बात मानकर सभी सखीयां,
चलीं पनघट की ओर।
उत मन‌ में हर्षित हो बंसी,
बजा रहे मनमोहन श्याम।
ग्वालों को छुपने को बोला,
नही मचावें शोर।
पानी भरके सभी ने अपनी
गागर शीश पर धर ल‌ई।
चली सभी संखीयां गातीं हुईं,
संग राधा के बतियातीं।
पहुंची कुछ दूरी पर गोपीयां,
नटखट मोहन ने फोड़ द‌ई –
मटकीयां कोरी कोरी।
खट्टी-मीठी यादों वाला है,
यह पनघट अलबेला।
घड़ा उठाए छोटी सी वह,
हम से नयन मिलायें है।
होंठ सभी सीले थें परन्तु ,
नैनों से सभी बातें कह जाते हैं।

नारी

इनमें इतनी क्षमता
आंधी को पी जाऐं।
तूफानो में भी मुस्कराना
आता है इनको।
युगों युगों से नव निर्माण का
सृजन करती हैं वों।
इन हाथों का कौशल दिखाना
है हमकों।
नारी बिना विकास है अधूरा
संसार में,
जैसे पति-पत्नी पूरक होते हैं
जीवन में।
नारी समाज का उध्दांग है,
आधे अंग से विश्व अस्वस्थ व
अविकसित रहता।
यदि नर शिव है तो नारी शक्ति,
यदि पुरुष विश्वास है तो हैं
श्रद्धामयी।
नर यदि पौरूषमय है तो
नारी लक्ष्मी, शारदा व दुर्गा है।
किसी भी दृष्टि से कम नहीं,
यही शाश्वत सत्य है।

ख्वाहिश

सौ सौ ख्वाहिशे होती है
दिलों मे,
इनके भी चरित्र होते हैं ।
चाह नही आकाश में
उड़कर जाऊँ मैं-
चाँद पर अपना घर बनाऊँ मैं।
तारों के संग अठखेलियाँ-
कर आऊँ मैं।
चाह नहीं पंछियों के संग संग-
दूर क्षितिज तक घूम आऊँ,
डाल डाल पर फुदक फुदक कर
नृत्त्य करूँऔर मीठे मीठे —
फलों का रसस्वादन कर
आऊँ मैं ।
चाह नही मंगल ग्रह की
सैर कर आऊँ मैं ।
चाह नहीं पहाड़ों पर बैठकर
तप कर आऊँ मैं ।
ख्वाहिश हैं तो बस यही
जरूतमंदो की सेवा मे-
काम आऊ मैं ।
भूखे-प्यासे, अर्थ-हीन ,पैदल-
हजारों मील चलकर जाने वालों,
की हर सुविधाओं का भंडार;
बन जाऊँ मैं ।
चाह है आपदा की घड़ी में,
हर समाधान बन जाऊँ मैं ।

गुरू

सच्चिदानंद घन करने आते,
पुनः पुनः भक्तों का उद्धार करने;
गुरू रूप में लेते श्री हरि अवतार।
ओंकार स्वरूप,अखंड मंडलाकार- रूप में,
पृथ्वी पर हैं, गुरु रूप भगवान।
गुरू ही ब्रह्मा, सृष्टि कर्ता करते पावन धरती को।
गुरू ही विष्णु,पालन‌ करते शिष्यों का।
गुरू ही शिव हैं, करते संहार – दुर्जनों का।
होते भक्तवत्सल ‘ श्री गुरू ‘महान।
कृपा कर, श्री गुरू देव देते जब -दृष्टि दिव्य दान।
सूक्ष्म रूप आत्मा के दर्शन तभी हो जाते हैं आसान।
वेदों के समुदाय शिरोमणि वेदांत -रूप कमल के दिनकर।
पूज्य श्री श्री १००८श्री सदगुरु को,शत शत, कोटि कोटि नमन।
भोग व मोक्ष प्रदाता श्री गुरूदेव को
भूषित करते चौबीस तत्वमाला-अलंकार।
चरणोंदक गुरू का करता भव-सागर पार।
सप्तसागर, साढ़े तीन करोड़ तीर्थ के स्नान,
श्री गुरु के चरणोंदक देता फल-समान।
गुरू ही पूजा, गुरू ही तप , गुरू से
स्मरण से ही, जीवन नैया होती पार।
गुरू चरण कमल में आश्रित चारों धाम,
गुरू सेवा सब तीर्थ समान।
गुरू पद पूजा,श्री हरि पूजा समान।
शिष्य नही कर पाता गुरू की- तलाश,
सद्गुरु स्वयं करते अपने शिष्य का चुनाव।
ईश‌ रूठे तो गुरू शरण जाइए,
गुरू रूठे तो नही है ठिकाना।

विश्व शांति बहुत जरूरी है

विश्व शांति बहुत जरूरी है,
वरन् आजकल बढ़ी दूरी है।
हर किसी को जग में मोह,
जमीन से अति‌ बढ़ी है।
भले ही जिंदगी चार दिन की है,
फिर भी बढ़ी भूख मजबूरी है।
शांति नही मिलती जब तक,
धरा का थोड़ा सा भी कब्जा –
मिल जाए।
स्वार्थ की तो बात दूसरी है,
हवस ज्यादा की बढ़ती जाती है।
भूमाफियाओं को जैसे हर क्षण,
ज़मीं की हर पल रहती है हवस।
कारण तब विश्व युद्ध का बन-
जाता है,
चहुं दिशाओं में अशांति और
हिंसा का आलम बन जाता है।
माया मोह के कारण अशांति एवं
हिंसा छा जाती है,
शांति रखने के लिए जन मानस
में संयम नियम का हो आगाज।

नारी, नदी समान

नारी नदी सी हैं दो किनारे,
एक किनारा ससुराल दूजी ओर- होता मायका।
दोनों ही मेरे अपने फिर भी
जायेके हैं अलग-अलग।
एक ओर मां जिसकी कोख का मैं हिस्सा,
दूजी ओर सास जिनके ‘ लाल ‘
के संग जुड़ा मेरा जीवन भर – का नाता।
एक ओर पिता, जिनसे है अपनत्व की रेशमी धाक।
दूसरी ओर ससुर जी,जिनकी हैं सम्मान की साख।
मायके का आंगन जन्म की- किलकारी,
सुसराल का आंगन, बच्चों की
किलकारी।
मायके में भाई बहन‌ हमजोली,
ससुराल में ननदें, शक्कर सी- मीठी गोली।
मायके में मामा,काका हैं पिता सी मुस्कान,
ससुराल में देवर जेठ हैं तीखे में मिष्ठान।
मायके में भाभी है ममता की चाबी,
ससुराल में देवरानी जेठानी होतीं
बहती नदी का पानी।
मायके में भैय्या एक आस जो,
बनेगा दुख में नैया।
ससुराल में प्राणप्रिय सैंया,
जो हैं जीवन नैया के खेवैया।
मायका – ससुराल हैं नदी के किनारे,
एक नारी के हृदय में समाकर,
बनाती उसको सागर सा – शीतल सौम्य गहरा।

गणपति

गणपति राय: ने जब माता पिता की
चारों दिशाओं से परिक्रमा लगाया,
सकल ब्रम्हांड को नाप लिया।
विश्व को मिला यह ईश्वरीय संदेश,
माता पिता ही हैं मानव का -संसार।
प्रथम पूज्ये गुरु, माता पिता,
तत्पश्चात-किजिऐं सर्वधर्म सर्वकाज।
माता पिता ही होते हैं भगवान,
जीवन हमारा सुधारते देकर –
ईश्वरीय लाड़ दुलार।
नही होने देते हमें हताश,
भोर उठ सर्व प्रथम नमन करें हम;
माता पिता को, तत्पश्चात करें – दूजे काज।
” गंगगणपतियै नमः”

प्रेम क्या, क्यों और कैसे

प्रेम क्या है यह हमने
तुम्ही से जाना।
दिल का एहसास है,
कोई तो है अपना।
पहले हम थे अजनबी,
मित्र बन बन गये प्रेमी बाद में।
ऐसा क्यों होता है,
जाना हमने स्वार्थवश बनाया
सम्बन्ध प्यार में।
कैसे पहचाना हमने जब क्षमा
किया इक दूजे की गलती – अनजाने में।
प्रेम के खातिर ‘ अहम ‘ एवं
स्वाभिमान को त्याग दिया है हमने।

सखा

है! सखा इतने दिन से तुमने,
न मेरी सुध ली न अपना ही बताया।
बचपन की मित्रता की याद में तुम्हारी,
मैं सदा रो लेता था।
आज तुम आए धन्य हैं भाग्य हमारे,
बाहों में अपनी भर कंठ से लगाया।
बिठा ऊपर दीवान पर सखा को ,
स्वयं बैठे धरती पर कान्हाई।
उल्हाना देते हुए मित्र को,
छुपा न पाये टीस अपने आत्मा की।
देख घाव पांव के अश्रु न रोक –
सके रघुवीर।
धोते धोते पग सखा से बोले कृष्ण
काहे आयें तुम पैदल कटीले-
पथ‌ से।
मोहे खबर देते मैं आ जाता-
तुम से मिलने।
आलिंगनबद्ध हो दोनों सखा,
अपनी अपनी गाथा सुनाई।
भेंट में लायें भूनें चने सुदामा,
मित्र‌ श्याम को खिलायें।
दोनों सखा मिल आजीवन,
परम निहाल हुऐं ।

गुफ्तगू

फूलों को कांटों पर चलना पड़ता है,
इश्क में जीना इश्क में मरना पड़ता है।
औरत बनकर जीना कोई – खेल नही,
सूरज बनकर रोज निकलना पड़ता है।

बातचीत में लोग अक्सर क्या से‌ क्या कह जाते हैं।
शब्द ही तो होते हैं मायने क्या से क्या निकल – जाते हैं।
शब्द गूंगे नही होते सुनने वालों के दिलों में, अक्सर शोर कर जाते हैं।

कुछ प्रशंसा और‌ कुछ, आलोचना कर जाते हैं।
प्रशंसा उत्साहित कर जाती है, आलोचना सुधार कर जाते हैं।
बातचीत में लोग अक्सर, कैसे कैसे लाभ दे जाते हैं।
जमाने में लोग अक्सर क्या से क्या कह जाते हैं।

नारी

नारी तू महान है,
भगवान नही जहां,
तू उसका पर्याय है –
नारी तू महान है।
वृक्ष की भांति ठंड छांव है,
छांव की तेरी,हर इंसान लेता-
सुख शांति की सांस है।
हैं नारी गुरु,मित्र और संरक्षिका,
अभाव में इनके हैं इंसान अधूरा।
सिखा है इसने वृक्ष की भांति,
सुख की छांव वाला दुलार।
ज्यूं धूप व वर्षा सहना है
वृक्ष की प्रकृति,
कष्ट पाकर भी सब कुछ सहना
है इसकी नियति।
हैं! नारी अपार शक्ति,
बेटी,बहू मां और पत्नी;
हर स्वरूप में रिश्ते निभाती है।
सखी रूप में अत्यंत कल्याणी,
नही है इसका कोई सानी।
नारी है जहां, भगवान है वहां,
दिव्य शक्ति,रखती दूर दृष्टि –
पुज्यनीय और सम्मानित है।
परिवार, समाज एवं संसार की,
आन,मान व शान‌ है।
नारी तू महान है,
भगवान नही जहां,
है उसका पर्याय वहां।

जमी चल रही है आसमां चल चल रहा है

जमी चल रही है आसमां चल चल रहा है,
ये किसके इशारे, जहां चल रहा है।
चली जा रही है, जमाने की नैया,
नज़र से न देखा, किसी ने खेवैया।
न जाने ये चक्कर, कहां चल रहा है,
ये किसके इशारे, जहां चल रहा है।
जमीं चल रही, आसमां चल – रहा है।
ये हंसना ये रोना,ये आशा निराशा
समझ में न आए क्या है तमाशा।
ये रात दिन कांरवा चल रहा है,
ये किसके के इशारे जहां चल रहा।
अजब है यह महफिल,अजब दास्तां है,
न मंजिल है कोई,न कोई निशांं है।
तो फिर क्यों कारवां चल रहा है।
ये किसके इशारे पर जहां चल – रहा है,
ज़मीं चल रही है, आसमां चल चल रहा है।
भटकते तो देखे हजारों सयाने,
मगर राज कुदरत का कोई भी – न जाने,
ये सब सिलसिला बेनिशां चल रहा है।
ये किसके इशारे पर जहां चल चल रहा है,
जमीं चल रही है, आसमां चल रहा है।

मन की आंखें

दुनिया सबसे खूबसूरत पौधा है,
मन की आंखों से देखो हर दिल में उगता है।
हृदय के आईने में है तस्वीर माशूका की,
मन की आंखों से देखों, विसाले मीत मिल ही जायेगा।
ख्वाबों में नही हकीकत में देखा
मन की आंखों से मैंने उनको।
बेहिसाब है रोनक चेहरे पर उनके,
देखते ही मन की आंखें चकाचौंध-हो ग‌ईं।
कोई हूर हैं या कोई फरिश्ता,
मन की आंखों से ही इबादत -हमने करतीं।
सुगंधित लाल गुलाब हैं वो,
रागों में राग मल्हार हैं वो।
बागों में सावन की बहार हैं वो,
कागजों में शब्द बना उतारू ।
मन की आंखों ने बना दी पूरी,
हुस्नें किताब उनकों।
मन की आंखों ने बैठाया है,
हृदय में ईश बनाकर उन्हें।

विचारों का जाल

हृदय में बुनती हूं,
विचारों का जाल।
खुद ही उलझ जाती हूं
इस उधेड़बुन में।
कभी पाती हूं खुद को दोषी,
कभी बरी कर लेती हूं उधेड़बुन में।
कुछ लोग कहते हैं सब कुछ
निश्चित होता है,
परन्तु इसी उधेड़बुन में उलझ जाती हूं मैं।
विधी का विधान कहा है कि
क्या सही है क्या गलत है,
इसी उधेड़बुन में रह जाती हूं।
हमारे कर्म उचित हों,
ऊपर वाले पर‌ छोड़ दें क्या?
उसके हाथों की कठपुतली है हम
इसी उधेड़बुन में रह जाती हूं।
जग है खेल-तमाशा प्रभु का,
अपने अपने किरदार निभाना है हमें।
क्या सही है क्या गलत है,
इसी उधेड़बुन में रह जाती हूं।
किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती हूं,
जब समस्याओं में घिर जाती हूं मैं।
किसी की पराजय किसी की जीत है,
इसी जुगत में फसा है समस्त संसार।
सोच सोच कर हो रही नित,
उधेड़बुन की शिकार।
नदी की भांति बह रही हूं,
पर्वत के भांति जीवन हुआ स्थिर ।
उधेड़बुन की शिकार हुई मैं,
जिंदगी की हकीकत नही – समझी मैं।
सारे विश्व की सभ्यताऐं,
मार्ग दर्शक बनी हुई हैं।
किसे अपनाओं किसे छोड़ू,
इसी उधेड़बुन में फसी- रहती हूं।

संविधान नही यह है हमारा


विधी एवं विधान का ग्रंथ हमारा।
अति पावन व अमूल्य दस्तावेज है,
करता जो देश की अराजकता से रक्षा।
समूचे राष्ट्र को एकता में है बांधा,
वरन् विश्व में एकसूत्र में है बंधा।
स्वतंत्रता व समानता का विधाता
न्याय और नैतिकता का अनन्य पुजारी।
सभी मानव हैं राष्ट्र में एक समान
नही है इनमें कोई भेदभाव।
जात पात, धर्म व रीति-रिवाज
में नही होता इसमें कोई – भेदभाव।
संविधान हमारा नही सिखाता
आपस में बैर रखना,
हिन्द हैं हम हिन्दोस्तान हमारा।
अधिकार सभी को समान – दिये हैं,
कोई ऊंच नीच नही हैं यहां, चाहे हों नर नारी।
सर्व धर्म और संस्कृति का है इसमें सम्मान,
विश्व में सर्वोच्च है हमारा संविधान।

जय हनुमान

जय हनुमत,जय कपीस गुणसागर,
जय तीनों लोक उजागर।
अथाह ही हृदय में हर्षाऐं,
स्वागत श्रीराम के लाने आऐं।
हाथ जोड़ करें यह विनती,
विश्व के समूचे पापाचार मिट जायें।
सजी अयोध्या नगरी दुल्हन जैसी
अवध पुरी में सैंकड़ों दीप जगमगाऐं
घर घर आज बनी हैं स्वर्ग लोक जैसी।
बाजे ढोल, शहनाई ताशे,
केसरिया हो गई है अयोध्या –
अवध पुरी सारी।
जनकपुरी भी सज गई सारी,
दीपोत्सव से जैसे मन रही दिवाली।
जनक दशरथ और तीनों माताऐं,
स्वागत में नैन‌ पांवड़े बिछाए।
झुक झुक लेत बल्लियां,
करत आरती माताऐं अनुपम – सीयाराम की।
प्रिय हनुमत जी भी साथ पधारे,
सेवक और अंग रक्षक बन आऐं।
जय जय हनुमान गोसाईं,
कृपा करो सब पर गुरुदेव – की नाई।

हर हर शम्भु

हर हर शम्भु ,जय जय शम्भु।
बेलपत्र और गंगा जल से करुं-
अभिषेक हर हर शम्भु।
याद करें हम अपना गौरव,
याद करें हम त्वं वैभव।
अजर अमर है मृत्युंजया,
हर हर शम्भु ,हर हर महादेव।
आदि सृष्टि के तुम निर्माता,
वेद उपनिषद के तुम दाता
तुम ही भारत के विधाता,
तुम भविष्य के स्वर्णोंदय।
हर हर शम्भु, हर हर महादेव।
कोटि कोटि कंठो का गर्जन,
कोटि कोटि प्राणों का अर्चन,
कोटि कोटि शीशों का अर्पण।
हर हर शम्भु , हर हर महादेव।
खड़ी आज भी शंका अविचल,
खड़ी आज भी लंका अविचल।
बजे तुम्हारा डंका अविचल,
रामराज्य हो पुनः उदय।
हर हर शम्भु , हर हर महादेव।

आवाज का जादू

आवाज का जादू सिर पर चढ़कर बोलता है।
सुरीली आवाज कर देती है मंत्रमुग्ध,
मीठी बोली आकर्षकित करती है -सभी को।
आवाज का जादू हर नर को ले
जाता इच्छित लक्ष्य तक पहुंचाता-है।
मीठी वाणी करती है जादूई असर,
कर्कश आवाज बना देती है शत्रु।

जिनके हृदय श्रीराम बसे

जिनके हृदय श्रीराम बसे,
वे औरों को नाम लियो-
या न लियो।
मांगें चाहे कंचन सी काया,
चाहे मांगें असिमित माया।
जिन कृपा का दान दियो,
हृदय जिनके श्री राम बसें,
उन औरों को नाम लियो-
न लियो।
राम ही सब हृदय में समाया,
तिन औरों को नाम लियो-
न लियो।
कोई घर‌ बैठा नमन करें,
हरि मंदिर में बैठ भजन करें।
या गंगा यमुना में जा स्नान करें,
काशी जाकर ध्यान करें।
जिनके हृदय श्रीराम बसे,
उन लोग राम को नाम लियो-
के न लियो।
रघुनंदन व्यापक है नाम अनन्त,
उन नारायण को नाम लियो-
न लियो।
हृदय जिनके श्री राम बसें,
वे औरों को नाम लियो-
न लियो।

जीवन में साहित्य का महत्व

जीवन है तो साहित्य भी है और जहां साहित्य है वहां जीवन है। मानव जीवन में साहित्य का महत्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। साहित्य ही मनुष्य के जीवन में ज्ञान व अच्छाईयों का दर्पण है। युगों से साहित्यिकारों द्वारा साहित्य लिखा जा रहा है। साहित्य के माध्यम से ही हमें विज्ञान, साहित्य, इतिहास पत्र पत्रिकाओं का गद्दा पद्द के माध्यम से हमें विषयों पर जानकारी प्राप्त होती हैं। साहित्य के अनेक विधाऐं
हैं: –
१.खंड काव्य
२. कहानी, कथायें
३. नाटक
४. महाकाव्य आदि आदि।


साहित्य के अभाव में मानव जीवन अधूरा है। साहित्य से लोगों के जीवन की खुशीयां, विषाद और कष्ट से आच्छादित होता है। साहित्य के माध्यम से ही व्यक्ति अच्छा बोलना और लिखना सिखता है।

वार्तालाप में भी मानव साहित्य के माध्यम से निपुण होता है।सही ग़लत का ज्ञान भी साहित्य से ही प्राप्त होता है।
व्यक्ति का अनुभव एवं ज्ञान की नींव भी साहित्य के स्तम्भ पर टिकी हुई है।


साहित्य द्वारा मनुष्य के विकारों का क्षीण होना सम्भव होता है और सदभावनाऐं मजबूत होती हैं। अनेक साहित्यिकारों का मानना है कि साहित्य ही समाज को संस्कार, सभ्यता का जानकारी देता है।

साहित्य के माध्यम से ही हमें हमारी पौराणिक एवं प्राचीनकाल की घटित घटनाओं को पढ़ने व सीखने का अवसर मिलता है। समाज में साहित्य का प्रतिबिंब दिखाई देता है। जातिवाद, भेदभाव जैसी कुरीतियों को समाप्त करने में भी साहित्य का अभूतपूर्व योगदान रहा है।

विगत समस्याओं विकारों के कटु अनुभवों से साहित्य में गद्द-पद्द के माध्यम से सुधारा जा सकता है।
साहित्य में हमें समाज का प्रतिबिंब नजर आता है। साहित्य के माध्यम से हम हमारी संस्कृति, सभ्यता को
रूढ़िवादिता से आसानी से बचा सकते हैं। साहित्य के माध्यम से ही

हम आधुनिकरण जीवन में व समाज में लाकर एक सुंदर वातावरण बना सकते हैं। साहित्य का मानव जीवन में अटूट विश्वास एवं महत्व है।

कवि क्या है जानिए

कवि क्या है जानिए ,
कर्म उसके भरमार हैं।
कवि एक राज है
भावों का शिल्पकार है।
साहित्य का द्वार है,
कल्पनाओं की खिड़की बेशुमार हैं।
ज्ञान का भंडार है,
कवि आसमान है,
वह कलम की उड़ान है।
कवि के कर्म खेत में जैसे,
बीज डालकर पौध विकसित –
होता है,
वैसे ही भावनात्मक क्षण को,
अपनी कल्पना से रचना को
विकसित कर्म करता है।
कवि हर्षित भाव में कविता,
रचता है,
जब रोता है उदवेग में होता है,
तब भी कविता रचता है।
कर्म ही इनकी कविता है,
चाहे विद्रोह की हों या
समाविष्ट की हों।
कवि का कर्म है काव्य,
के माध्यम से राष्ट्र का उत्थान,
विकास एवं भावनात्मक –
एकता व समानता का संदेश दें।
मेहनत व लगन से कार्य करे,
इंसान तो क्या काम है मुश्किल।
कर्म पथ पर चलें तो भाग्य तो,
क्या हाथों की लकीरें बदल-
जायेंगी।
कवि का कर्म जग को अपने,
रचनाओं के माध्यम से जन जन
में राष्ट्रीय भक्ति के भाव –
जागृत करें।

गणपति

गणपति राय: ने जब माता पिता की
चारों दिशाओं से परिक्रमा लगाया,
सकल ब्रम्हांड को नाप लिया।
विश्व को मिला यह ईश्वरीय संदेश,
माता पिता ही हैं मानव का –
संसार।
प्रथम पूज्ये गुरु, माता पिता,
तत्पश्चात-
किजिऐं सर्वधर्म सर्वकाज।
माता पिता ही होते हैं भगवान,
जीवन हमारा सुधारते देकर –
ईश्वरीय लाड़ दुलार।
नही होने देते हमें हताश,
भोर उठ सर्व प्रथम नमन करें हम;
माता पिता को, तत्पश्चात करें –
दूजे काज।
” गंगगणपतियै नमः”

दिल का रिश्ता

दिल तो दिल है जनाब,
प्यार और वियोग उसे-
सहना आता है।
कैसा है यह दिल का रिश्ता,
ना पूरा ना अधूरा,
ना सम्बन्धों का बन्धन;
ना ही कोई वादा।
फिर भी सुख दुख का है साथी,
बनाता है मन का मीत।
ना ही कोई जीवन मेरा,
ना ही कोई मन का मीत।
फिर भी ना जाने क्यों बना,
हमारे दिल का रिश्ता।
मिलता फिर भी तुम से,
मुझे बेशुमार प्रीत।
पढ़ना लिखना तुम से सिखा,
विकट समय से लड़ना सिखा।
दिल से दिल की रिश्ता जोड़ा,
अपना दम भरना सिखा।
समय पर चलना सिखा,
दिल का रिश्ते को मित्र बना बैठा।
गुरु ही बना दिल का रिश्ता,
माता पिता और ईश्वर सम ही-
मैंने दिल के रिश्ते को बना बैठा।
दिल का रिश्ता ही है मेरे,
जीवन की संवेदना, करूणा
और ममता का आधार।
दिल के रिश्ते से ही किऐं,
जीवन सागर में नैया पार।

तुम क्या हो

तुम क्या हो, कौन हो तुम
जरा तो मुझे बतलाओ।
कोई हूर या फरिश्ता या
इंसानों में कोई देव‌ स्वरूप हो।
करूं तुम्हारी पूजा या इबादत
जरा तो मुझे बतलाओ।
रागों में तुम राग मल्हार हो-
पुष्पों में सुगंधित लाल गुलाब हो,
साजों‌ में तुम सारंगी सी सरीले हो।
बागों में जैसे सावन की बहार हो
जरा तो बताओ तुम क्या हो।
कागजों में तुम्हें शब्द बना उतारूं
तो तुम पूरी किताब हो।
जीवन में बेहिसाब जवानी –
हो तुम
इत्र में मेरे लिए तुम केवड़े
को खुशबू हो।
बताओं तुम क्या हो।
ख्वाबों में मेरे ईश्वर के भेजे हुए
दिलरूबा फरिश्ते हो।
तुम क्या हो जनाब!
तुम जो भी मेरे लिए खुदा से
कम नही हो।

भगवान होते हैं

जो बुद्धि, वाणी, इन्द्रियों से परे है,
अजन्मा, माया, मन और गुणों के पार है।
वहीं सच्चिदानंदघन ईश हमारा,
भगवान का अवतार है।
सृष्टि का नायक, ब्रम्हांड को चलाता है,
हमारे चक्षु व मस्तिष्क के परे- अज्ञात है।
वही तो भगवान होते हैं,
कहीं मुरली बजाता है व-
कहीं पर नृत्य करता है।
सोलह कलाओं को बादशाह,
सभी रूपों में सुशोभित वो ही-
हमारा भगवान होता है।
भगवान तो स्फटिक मणि समान है,
सभी जीवों की आत्मा में – वास करता है।
कहीं चींटी के रूप में तो कहीं, हाथी के रूप में;
प्रतिबिम्ब अपना देता है – वही भगवान होता है।
वह अलक्ष्य है उसकी ही,
कांति अप्रत्यक्ष हम हर जीव – में देखते हैं।
कण कण में है उस‌का वास,
ईश रूप अप्रत्यक्ष है उसमें।
क्यूं बिना ईंधन के पत्थर में – आग है,
वैसे ही भगवान का प्राग्यट सर्वत्र व्याप्त है।
यदि भगवान नही होते तो,
सातों समंदर में अपार जल,
पृथ्वी पर कण और नभ
पर सूरज, चांद सितारे ना होते।

श्री गुरू


बिना ज्ञान जियूं कैसे,
अथाह ज्ञान हैं जग में।
बिन गुरु ज्ञान पाऊं कैसे,
दियो ज्ञान मोहे गुरु –
हरि गुण गाऊं मैं।
पाया ज्ञान गुरु से मैंने,
कहलाई मैं ज्ञानी।
ज्ञान मिला धर्म -कर्म करने का,
लक्ष्य बनाया अपने जीवन में –
कहलाई ज्ञानी मैं।
बंधी नही मैं प्राचीन परंपराओं से
दिखावा व झूठी संवेदनाओं से,
भ्रान्ति की डोरी से,
निरंकुश मानसिकता से,
एवं सामाजिक रूढ़िवादिता से।
हैं संस्कार मुझ में शालिनता के,
अतः मैं ज्ञानी हूं।
जो ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं,
मैं वो ज्ञानी हूं,बंधी नही मैं –
किन्हीं भ्रामक विचारों से।
दीन दुखियों के कष्टों-पीड़ाओं
का सहज और प्रेम से,
सेवा करती हूं।
उनके दिलों में बसने की –
तमन्ना रहती हैं मेरे मन में।
असहाय लोगों को सेवा देती हूं,
मैं अपने दिल व दिमाग में;
कभी अंहकार आने नही देती-
क्योंकि मैं ज्ञानी हूं।
ग्रंथो के संग्रहालयों की,
खुशबू रिझाती है मुझे।
ज्ञान का भंडार ढूंढती हूं उनमें
क्योंकि मैं ज्ञानी हूं।
ध्यान व परिश्रम से ज्ञान,
पाया है मैंने उसी ज्ञान से;
सम्पूर्ण जीवन बिताया मैंने।
मैं ज्ञानी हूं यह समझ अतिशय,
ज्ञात है मुझे,
बिना संसाधन के ही साधक
हो जाती हूं मैं।
राह असम्भव या दुर्गम हो,
उसे आसान बना लेती हूं मैं;
क्योंकि मैं मैं अज्ञानी नही,
ज्ञानी‌ हूं मैं।

चाचा नेहरू

फूल गुलाब खिलेगा बागों में जब जब,
जिन्दा रहेगा चाचा नेहरू नाम तुम्हारा।
जब तक है धरती पर चंदा सूर्य का उजियारा,
अमर रहेगा तब तक नाम तुम्हारा।
चाचा नेहरू तुम्हें सलाम,
अमन, शांति का जग को दिया – पैगाम।
जग को जंग से बचाया,
बच्चों का दुलार से साथ निभाया।
जन्मदिन बच्चों के नाम‌ किया,
चाचा नेहरू तुम्हें सलाम।
प्रगति को दिया तुमने इनाम,
चाचा नेहरू तुम्हें करते सलाम।

परिवर्तन

समय का चक्र घूमता रहता है,
तीव्र गति से निरंतर।
पीछे छूटे पदचिन्हों को,
आकुलता होती है मन को।
निकल गया एक बार जो समय,
कभी लौटकर नही आता।
परिवर्तन सार्वभौमिक है,
पल पल क्षण क्षण समय चक्र –
बदलता रहता है।
निकल गया जो एक बार समय
लौटकर कभी वह कभी नही आता।
करके आवाजें सभी अनसुनी,
दूर कहीं खो जाता है।
चलता रहता है समय चक्र,
करता रहता है जड़ चेतन में -परिवर्तन।
ज्यों नदियों का जल ठहरता नही एक जगह,
वैसे ही समय नही ठहरता एक सा जीवन में।
समय है परिवर्तनशील,
जैसे आयु बढ़ती है क्षण क्षण।
जीवन में खुशियों का होता है आलम,
कभी कभी दुखों का होता -है झमेला।
कभी अकेला जीता जीवन में,
कभी होता है लोगों का मेला।
जगत है एक सफर हम उसके हमराही,
लगी रहती है इंसानो की आवा- जाही।
बनते हैं सम्बन्ध नये नये,
छूट जाते सम्बन्ध कभी पुराने
कभी नयों में परिवर्तित हो हो जातें हैं।
परिवर्तन समय कभी ऐसा भी आता है,
छूट जाते हैं जन्म जन्म के – नाते।
बचपन से यौवन और यौवन से बुढ़ापा आता है,
मानव जीवन व प्रकृति में
आजीवन परिवर्तन का – नाता है।
दृश्यमान सभी हैं इक दिन – सभी को जाते हैं,
शाश्वत सत्य तो यही है समझे इसे सभी,
जग तो परिवर्तनशील है मिल जुलकर रहें‌ सभी।

चंद्रयान 3

इसरो का शुक्रिया,
पहुंचाया हमें चांद पर।
चंद्रयान 3 ने यह सम्भव कराया,
ऊंचा कर शीश हम जगत में –
कर रहे हैं स्वाभिमान से।
अंतरिक्ष में गूंज उठा है आज,
विजयी गान चंद्रयान के –
सम्मान में।
हम भी गायेंगे जन गण मन,
इसके अप्रतिम सम्मान में।
चंद्र भी रंग जाएगा तिरंगे –
के रंग में,
राष्ट्र ध्वज का स्वरूप लिए।
शीश ऊंचा किये हम देशवासी
खड़े हैं हम स्वाभिमान से।
हृदय हर्षित हुआ असीम,
चांद अब हमारा हुआ।
पास उसके जाकर अब देखेंगे-
घूर कर,
अब नही कहेंगे हम –
चंदा मामा दूर के।
कहेंगे मामा अब रहेंगे हम,
तेरे स्थल पर अपना घर –
बनाकर।
हमारे देश के वैज्ञानिकों
आप सभी हो गौरव हो –
हमारे राष्ट्र के।
शीश ऊंचा कर हम सब ,
खड़े हैं आज स्वाभिमान से।
जय हिन्द जय भारत
श्रीमती उमेश नाग

श्रीमती उमेश नाग

जयपुर, राजस्थान

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One Comment

  1. बहुत सुंदर कविताएँ है। आपकी रचनाधर्मिता समसामयिक है।

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