” स्त्री “

( Stree ) 

 

स्त्री – वो नहीं
जो तुम्हारी कल्पनाओं में है
और स्त्री वो भी नहीं
जिसे जानते हो तुम!

एक स्त्री को
जानने -समझने की शक्ति
किसी पुरुष में
कैसे हो सकती है भला।

पति हो या प्रेमी
पढ़ सकता नहीं
किसी स्त्री के मन को
वह ढाल नहीं सकता
किसी मनचाहे सांचे में
कोरे कागज जैसी
उसकी मूरत को।

स्त्री – नहीं होती
कोई काठ की हांडी,
और मिट्टी की प्रतिमा भी
नहीं होती वह।

स्त्री – होती है लिए
स्वयं में पुरुष की संपूर्णता
और अस्तित्व उसका,
होता है एक पूरा परिवार ।

स्त्री -रखती है नींव
पीढ़ी दर पीढ़ी
संस्कार और संस्कृति की
नई पीढ़ियों के लिए
उसे संचित और परिपूर्ण कर।

स्त्री का स्वाभिमान है –
अपने स्त्रीत्व की रक्षा करना
किंतु – यह सरल नहीं होता
पुरुषवादी मानसिकता के आगे
नियंत्रण में रहते हुए भी
अपनी पवित्रता
स्त्रीत्व की रक्षा करना।

किसी भूखे भेड़िए सा
पवित्र स्त्री का
देह नोच नोच कर
खाने वाला
उसके कोमार्य को भंग कर
बेशर्मी से दांत निपोरने वाला,
उसकी पवित्रता पर
लांछन लगाने वाला
यह पुरुष!
जिसे जानकर भी
स्वीकार करने को बाध्य है।

लाचारी है,विवशता है
प्राकृतिक बंधन है, इसलिए ….
.या वह एक असहाय है
नाम एकअबला स्त्री से इसलिए
जवाब दो!

 शायर: मोहम्मद मुमताज़ हसन
रिकाबगंज, टिकारी, गया
बिहार-824236

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