स्वर्ग- नर्क
( Swarg – Narak )
स्वर्ग है या नर्क है कुछ और है ये।
तूं बाहर मत देख तेरे ठौर है ये।।
तेरे मन की हो गयी तो स्वर्ग है।
मन से भी ऊपर गया अपवर्ग है।
आत्मतत्व संघत्व का सिरमौर है ये।। तूं बाहर०
मन की अभिलाषा बची तो नर्क है।
गहन घन सघनन में आया अर्क है।
तेरे द्वारा आग्रहित नित कौर है ये।। तूं बाहर०
कार्य कारण कर्ता ही आधार है।
स्वर्ग नर्क की कल्पना तो विचार है।
करनी जैसी वैसी श्यामल गौर है ये।। तूं बाहर०
अर्द्ध जल का भार घट कब तक सहे।
असह्य छलकन हूक से पीड़ित रहे।
शेष तूं भी सम्भल जा जग चौर है ये।। तूं बाहर०
लेखक: शेष मणि शर्मा “इलाहाबादी”
प्रा०वि०-बहेरा वि खं-महोली,
जनपद सीतापुर ( उत्तर प्रदेश।)
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