योग के वैज्ञानिक स्वरूप का अनुसंधान जिन महान पुरुषों ने किया उनमें स्वामी शिवानंद जी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है । स्वामी जी ने ऐसा दिव्य पथ का निर्माण किया जिस पर चलकर प्रत्येक मानव अपने जीवन का सफल बना सकता है। यही कारण है कि उन्होंने अपनी संस्था का नाम दिव्य जीवन संघ रखा ।

एक ऐसा संघ जहां के लोगों के जीवन में दिव्यता सहज में झलकने लगती है। सत्पुरुषों का जीवन स्वयं में स्वयं में बंदिनीय होता है । आराधनीय होता है। उन्हें आत्म प्रशंसा करना नश्वर जीवन की नश्वर विलासता से प्रलोभित होना उनके जैसे आत्म सम्मानित व्यक्ति को तुच्छ सा लगता है ।

सत पुरुषों का जन्म ही मानव कल्याण के लिए होता है । उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य ही होता है पीड़ित मानवता की सेवा। वे सदैव भलाई का कार्य करते रहते हैं ।स्वामी जी की मुख्य शिक्षा ही थी -भला करो -भले बनों।

स्वामी जी अपने शिष्य से यही कहा करते थे कि सेवा कार्य के लिए वे सदैव तत्पर रहे। जब कभी भी सेवा का अवसर मिले आवश्यक सेवा करें ।सेवा का कार्य करने से ही बल्कि स्वयं सेवा का अवसर ढूंढने के लिए वह एक दूसरे को प्रेरित करते रहते थे।

वह कहा करते थे कि हमें इस ताक में नहीं बैठे रहना चाहिए की सेवा का अवसर मिलेगा तो सेवा करेंगे। बल्कि सेवा का अवसर स्वयं ढूंढते रहना चाहिए। स्वामी जी सेवा को प्रेम का अभिव्यक्त करना मानते थे । वह मातृ सेवा के लिए दूसरों को शिक्षा ही नहीं देते थे बल्कि स्वयं भी उस शिक्षा को जीवन में उतारने का प्रयास करते थे।

सेवा के प्रतिमूर्ति ऐसे दिव्या महापुरुष का जन्म दक्षिण प्रांत स्थित पत्र बड़े नामक गांव में ग्राम से 20 मिल दूर 18 87 ई के सितंबर माह की आठवीं तिथि को हुआ था। जो कि तमिलनाडु राज्य का एक छोटा सा भाग है। उनके जन्म के साथ ही जैसे प्रात कालीन उषा की किरणें चारों दिशाओं में खेलने लगी हो। प्रकृति स्वयं को श्रृंगारित महसूस कर रही हो।

कहां जाता है कि दिव्य कुल में ही श्रेष्ठ संतानों का जन्म हुआ करता है। स्वामी जी के दादाजी संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान थे। जिन्होंने 104 ग्रंथों की रचना की ।

स्वामी जी के पिताजी श्री पी एस वेणु अय्यर अति गुणवान शुद्धातम तथा ज्ञानी पुरुष थे। उनके बारे में लोग कहां करते थे की वह महापुरुष है ।उनकी मां श्रीमती पार्वती अम्माल शिव भक्त थीं । स्वामी जी का पूरा परिवार शैव था ।

ऐसे दिव्य शिव अवतारी कुल में शिवानंद ने जन्म लिया । स्वामी शिवानंद में ऐसा लगता है कि शिव की भक्ति का प्रभाव था कि उनका नाम कुप्पू स्वामी होने के पर भी दीक्षा के पश्चात उनके नाम शिवानंद रखा गया ।
होनहार व्यक्तित्व की झलक उनमें बचपन से ही दिखलाई देने लगी थी ।

उनकी रुचि खेलों में विशेष थी । इसी के साथ में एक अच्छे लेखक भी थे ।’ मलय टाइम्स’ नामक पत्रिका में वे लेख भेजते थे और छपते भी थे । इसी के साथ उन्होंने ‘अम्बोसिया’ नामक चिकित्सा पत्र भी निकालते थे।उन्हें पुस्तक पढ़ने का भी शौक था । सन्यासी बनने के पश्चात भी अक्सर वे पुस्तक खरीद लाते थे और उसे पढ़ कर आश्रम के योग वेदांत अरण्य अकादमी को जमा करवा देते थे। उन्हें भोजन बनाने का भी शौक था ।लंबे समय तक उन्होंने भोजन अपने हाथ से बनाया था।

स्वामी जी को संसार की अनित्यता का बोध बचपन से ही हो गया था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है – “क्या जीवन में नित्य कार्यालय जाने तथा खाने-पीने के अतिरिक्त अन्य कोई उच्चतर लक्ष्य नहीं है । क्या इन परिवर्तनशील तथा भ्रामक सुखों से बढ़कर नित्य सुख का कोई उच्चतर रूप नहीं है। 4 जनवरी 1929 को एक ज्योतिर्मय महात्मा ने उन्हें परमहंस परंपरा में दीक्षित किया। इस प्रकार उनकी संन्यास दीक्षा संपन्न हुई ।

स्वामी जी को जो पैसे मिलते थे उसे वह 20 आध्यात्मिक नियम, शांति एवं आनंद का मार्ग, 40 उपदेश पुस्तक छापने में किया करते थे । स्वामी जी दिव्य जीवन संघ का उद्देश्य बताते हुए कहा है-” मानव के अंतर में दिव्यत्व को जगाना तथा उसे दिव्या बनाना ही सच्चे अर्थों में मानव सेवा है । शेश सभी इसी सेवा के अंग मात्र हैं ।

स्वामी जी ने पुरुषों को ब्रह्मचर्य पालन करते समय स्त्रियों से दूर रहने की बात कही है। परंतु फिर भी कभी स्त्रियों से घृणा नहीं की ।वह उन्हें मां जगदंबा का स्वरूप मानते थे।

इस प्रकार से हम देखते हैं कि स्वामी जी के शिक्षाएं सहज हैं। कहते हैं परमात्मा सहज व्यक्ति को प्रिय होते हैं परंतु सहज होना अति कठिन है । मनुष्य ने आज अपनी जिंदगी में इतनी कठोरता धूर्तता,

मक्कारी अपना लिए कि उसे सहज प्रकृति का व्यक्ति मूर्ख लगता है । सारे संसार में मात्र चालाकी सिखाई जा रहे हैं ।शिक्षा संस्थान भी बच्चों को मात्र चालक बना रहा है।

इस प्रकार से अनवरत कार्य से उनका शरीर शिथिल पड़ने लगा था और 14 जुलाई ,1964 ई को शुभ क्षण में उन्होंने स्वयं को ईश्वर में लीन कर लिया। देखते ही देखे यह महापुरुष महाप्रभु की गोद में समाहित हो गया।

 

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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