तेरी सुंगध को | Teri Sugandh ko
तेरी सुंगध को
( Teri sugandh ko )
तेरी सुगंध को लालायित ,हर सुमन यहाँ अकुलाता है।
अधरों पर मेरे नाम अगर ,तेरा जब-जब आ जाता है
जब खिलते हैं सुधि के शतदल,जब उड़ता दृग-वन में आँचल ।
हर निशा अमावस की लगती ,हर दिवस बजी दुख की साँकल।
यह प्रेम नगर का द्वार मुझे, कैसे परिदृश्य दिखाता है।।
तेरी सुगंध को——
प्यासे चातक मन-अधरों पर , पूनम भी किंचित खिली नहीं ।
अंतस में ज्वाला भड़का कर, फिर साँझ दिवस से मिली नहीं ।
रह-रह कर मेरे अंतर का , हर कमल पुष्प कुम्हलाता है ।।
तेरी सुगंध को——
आशायें अमर लता बनकर ,वट-यौवन भी डस जाती हैं ।
कुछ पता नहीं इच्छाओं का ,किसको क्या स्वाद चखाती हैं।
यह मलय पवन भी अब प्राय: ,ज्वाला को और बढ़ाता है।।
तेरी सुगंध को——-
घिर आये फिर नभ में बादल,फिर दूर बजी कोई पायल।
फिर कोई मेरे जैसा ही ,हो जायेगा दुखिया घायल।
यह सोच सोच कर अब मेरा ,पागल मन भी घबराता है।।
तेरी सुगंध को—-
यह सावन आग लगाते हैं ,व्याकुल मन को तड़पाते हैं।
मेरे नव-चेतन पर साग़र , सुधियों के चित्र बनाते हैं।
यह सावन मुझको तड़पा कर, क्या जाने क्या सुख पाता है।।
तेरी सुगंध को—–
अधरों पर मेरे——-