उसके इज़हार पे | Uske Izahaar Pe
उसके इज़हार पे
( Uske Izahaar Pe )
उसके इज़हार पे दो घड़ी चुप रही
मुझ पे लाज़िम था मैं लाज़िमी चुप रही
लब पे पहरा लगा था तमद्दुन का जो
ख़ामुशी ही रही सरकशी चुप रही
ज़ुल्म करता रहा ये जहाँ हम पे और
हर बशर चुप रहा आश्ती चुप रही
साँस थमसी गई नब्ज़ भी रुक गयी
आ गयी जब क़ज़ा ज़िन्दगी चुप रही
हुस्न को देखकर बाम पर यक ब यक
खो गया चाँद भी चाँदनी चुप रही
यूँ सितम जब अमीरों के बढ़ते गये
झोपड़ी झुक गयी मुफ़लिसी चुप रही
जब कली कोई मसली गई है यहाँ
मौत हँसने लगी ज़िन्दगी चुप रही
जब लगे दोष उसके ही किरदार पर
जाने क्या सोचकर जानकी चुप रही
लाज रखनी थी मीना बुज़ुर्गों की जो
तंज़ सहती रही बेबसी चुप रही
कवियत्री: मीना भट्ट सिद्धार्थ
( जबलपुर )
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