वह छुपे पत्थर के टूटने पर मीर ही ना हुई
( Vah chhupe patthar ke tootne par meer na huee )
वह छुपे पत्थर के टूटने पर मीर ही ना हुई
खामोशी से क़ुबूल हुआ, तफ़्सीर ही ना हुई
बिछड़ कर भी वह सुलह करना चाहती है
जुर्म नहीं किया उसने कोई तो वज़ीर ही ना हुई
दिलकश नहीं है जितना होना चाहिए था
ये तो फिर यक़ीनन तुम्हारी तस्बीर ही ना हुई
ये आशिक़ी भला क्या आशिक़ी हुई
जो किसी के ज़ीस्त का जागीर ही ना हुई
बिछड़ कर अब भी थोड़ी सी आस है
के दीवानी प्यार में फ़क़ीर ही ना हुई
कभी वस्वसे ना उड़े, कभी रायेगानी ना हुई
इस जाबिये से देखो तो ये जागीर ही ना हुई
खुल कर रक़्स में हो रही है वह शक्श शामिल
लोहा की बेड़िया भी उसके लिए ज़ंजीर ही ना हुई
‘अनंत’ बड़े दुशवारी से कुछ लिख रहा है
शिकायत ना करे की उससे तदबीर ही ना हुई
शायर: स्वामी ध्यान अनंता