Virah Vedna
Virah Vedna

विरह वेदना

( Virah Vedna ) 

 

सोहत सुघर शरीर
नीर अखियन से बहे
आतुर अधर अधीर
पीर विरहन के कहे।

चित में है चित चोर
शोर मन में है भारी
सालत शकल शरीर
तीर काम जब मारी ।

शीतल सुखद समीर
शरीर तपन जस जारे
दाहत प्रेम की पीर
हीर बिन कौन उबारे।

मन को नहीं कुछ भात
रात अब कैसे बीते
हर पल मन अकुलात
बिरह को कैसे जीते।

कवि :  रुपेश कुमार यादव ” रूप ”
औराई, भदोही
( उत्तर प्रदेश।)

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