Vivash
Vivash

विवश

( Vivash ) 

 

उम्मीदों के टूट जाने पर
शोर तो नहीं होता
बस, उठती है टीस एक हृदय मे
और ढलक जाते हैं दो बूंद आंसू
पलकों के कोने से
जो सूख जाते हैं चेहरे पर ही

उम्मीदें भी किसी गैर से नही होती
हर रिश्ते भी
उम्मीद के काबिल नही होते
दर्द तो और अधिक तब बढ़ जाता है
जब अपने ही
किसी और की उम्मीद बन जाते हैं

भीतर की आग भी
न जमकर बर्फ बनती है
न उसकी लौ ही निकलती है
कतरा कतरा खून मे
फैलने लग जाती है सड़ांध
और आदमी
खामोशी मे हंसता हुआ भी
गलने लग जाता है

खुद से खुद की उम्मीद भी
रख तो सकती थी उसे जिंदा
कुछ और दिन
किंतु,अपनों की चाहत में विवश
आदमी कुछ नही कर सकता

 

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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