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सिद्धांतों की लड़ाई | Vyang Hindi

 सिद्धांतों की लड़ाई

( Siddhanton ki ladai : Vyang )

लडाई सिद्धातों की थी । सिद्धांत न होते तो लड़ाई की कोई बात नही थी। चूंकि सिद्धांत थे इसलिये लड़ाई थी। लड़ाई के लिए दो सिद्वांत जरूरी थे, दोनो का एक ही सिद्धान्त होता तो लड़ाई का कोई मुद्दा ही नही था मगर सिद्धान्त तो एक ही था ।

एक ही सिद्धान्त पर दोनो लड़ रहे थे, बस उस एक सिद्धान्त के रंग दो थे । अतः वह सिद्वांतों की लड़ाई न होकर रंगो की लड़ाई थी।

खडे खडे लडने में दोनो थक गये थे अतः उन्हें बैठने के लिये कुर्सी चाहिए थी वह लड़ाई सिद्धान्तों से रंगो पर आई और रंगो से कुर्सियों पर आ गई। दरअसल वह लड़ाई कुर्सियों के लिए ही थी। मगर उसे सिद्धान्तों का रंग दे दिया था ।

कुर्सी चूंकि एक थी और बैठने वाले दो इसलिये लड़ाई हो रही थी। यदि दो कुर्सियां होती तो लड़ाई न होती । मगर उन्हें लड़ना था, अतः उन्होने एक कुर्सी हटा दी।

उन्हे मालूम थाकि वे कुर्सी के लिये लड़ रहे है । वे समझ रहे थे कि वे रंगो एवं रंगो के सिद्धान्तों के लिये लड़ रहे है। मगर वे कुर्सी के लिये ही लड़ रहे थे।

वे उस कुर्सी के लिये ही लड़ रहे थे कुर्सी आरामदायक थी । उस पर कुशन लगा हुआ था। उस कुर्सी के सामने एक डायनिंग टेबिल थी। उस डायनिंग टेबिल पर लजीज खाना रखा हुआ था। मगर उसे कुर्सी पर बैठने वाला ही खा सकता था ।

इसलिये वह लड़ाई लजीज खाने के लिये थी कुर्सी के लिये नहीं थी उन्हें लग रहा था कि वे सिद्धान्तों के लिए लड़ रहे हैं पर वे लजीज खाने के लिए लड़ रहे थे।

सूखी रोटी तो सूखे खेत से भी मिल जाती थी। मगर उसे निकालने के लिए सूखी जमीन को हाड़तोड़ मेहनत से तोड़ना पड़ता जिसमें पसीना बहता।

उन्हीे पसीने की बदबू से नफरत थी । इसलिये वे मेहनत करने के बजाय लड़ रहे थे। उनकी लड़़ाई मेहनत से बचने की लड़ाई थी और वे समझ रहे थे कि वे सिद्धान्तों की लड़ाई लड रहे थे।

लड़़ते-लड़ते वे गांवों से शहरों में आये और शहरो से विधानसभा पहुंच गये। वहां भी वे लजीज खाने के लिये ही लड़ रहे थे।

मगर अखबारों के जरिये वे बतला रहे थे कि वे जनता के हकों के लिए लड़ रहे है वे जनता को खुद के लजीज खाने के लिए लडा रहे थे जनता समझ नहीं पा रही थी कि वह आपस में क्यों लड़ रही है।

विधानसभा में लड़ने के लिए दो दल थे। सत्तादल और विरोधी दल। सत्ता दल का नेता मुचयमंत्री बनना चाह रहा था। विरोधी दल के नेता ने दहाड कर कहा कि नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना चाहिए ।

मुख्यमंत्री ने आगे देखा पीछे देखा, ऊपर देखा नीचे देखा दायें देखा बायें देखा किसी तरफ देखा सब तरफ देखा उसे नैतिकता नहीं दिखी ।

अतः उसका आधार भी नही दिखा। चूंकि इस्तीफा नैतिकता के आधार पर मांगा गया था और उसके पास नैतिकता नही थी अतः उसने सप्रसन्न इस्तीफा नही दिया।

मगर मुख्यमंत्री चुप नही रहा। वह बोला अगर तुम्हारे पास ही नैतिकता या उसका आधार हो तो तुम्ही इस्तीफा दे दो ।

नैतिकता इनके पास भी नही थी मगर उसके आधार पर इस्तीफा मांग रहे थे। नैतिकता के कटोरे में कोई भी भीख नही डाल रहा था । मुख्यमंत्री ने पूछा अगर मैं इस्तीफा नहीं दे रहा हॅू तो तुम आमरण अनशन क्यों नही करते।

पिछली बार इन्होने आमरण अनशन किया था। मगर क्रूर मुख्यमंत्री ने उन तक खाना न पहुंचाने के पुख्ता इन्तजाम करवा दिये थे ।

वे मरते मरते बाल बाल बचे। इन्हीे की पार्टी के लोगो ने मांगे पूरी न होने के बावजूद उन्हे फलों का रस पिला कर बचा लिया। आखिर अपने ही काम आते है । उसके बाद से आमरण अनशन के नाम से उनकी रूह कांप कर और अन्दर तक धसक जाती है।

उनका दल इस बार महामहिम के पास गया। महामहिम भी सत्ता दल ने बनाया था अतः सत्ता दल को सहारा देना महामहिम का दायित्व था।

फिर भी वे महामहिम के पास गये। उन्होेने शिकायत की कि मुख्यमंत्री नैतिकता के आधार पर इस्तीफा नही दे रहा । महामहिम ने सुझाव दिया तो तुम किसी और आधार पर मांग लो ।

हमने मांगा था । हमने पूछा बाढ़ में सैकड़ो आदमी और मवेशी मर गये तो सरकार क्या कर रही है मुख्यमंत्री ने जवाब दिया कि सरकार उद्घाटन कर रही है।

“हमने पूछा कि भुखमरी से सैकडो लोग मरे गये तो सरकार क्या व्यवस्था कर रही है।  मुख्यमंत्री ने जवाब दिया कि सरकार शिलान्यास कर रही है।

हमनें पूछा कि हजारो नौजवान बेरोजगार है सरकार उन्हें रोजगार देने के लिए क्या कर रही है ?” तो उन्होने जवाब दिया कि सरकार विधायको की खरीद फरोख्त कर रही है।

हमने पूछा कि “बिजली के हालात कैसे सुधरेंगे ?” तो उन्होने कहा कि उनके विदेशी  दौरे से बिजली के हालाल सुधर जायेंगे।

“हमने पूछा कि प्रान्त की कानून व्यवस्था कैसे सुधरेगी ?“ उन्होने जवाब दिया कि टेक्स लगाने और आश्वासन देने से कानून एवं व्यवस्था के हालत सुधर जायेंगे।

यह सब सुनकर महामहिम ने जवाब दिया ”हमारी सरकार इतना कुछ तो कर ही रही है आप लोग और क्या चाहते है ? आपकी सरकार होती तो वह भी यह करती।”

 

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लेखक : : डॉ.कौशल किशोर श्रीवास्तव

171 नोनिया करबल, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)

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