कैसी बहार पर है वतन | Watan ke Halat par Ghazal
कैसी बहार पर है वतन
( Kaisi bahar par hai watan )
किस तरह के निखार पर है वतन
भुखमरी की कगार पर है वतन
जिनके लहज़े भरे हैं नफ़रत से
वो ये कहते हैं, प्यार पर है वतन
इतनी महंगाई बढ़ गई हर सू
हर घड़ी बस उतार पर है वतन
मुल्क के नोजवां उठो,जागो
इन्क़लाबी पुकार पर है वतन
कोई कहता लिया किराए पर
कोई कहता उधार पर है वतन
मुल्क को लूटकर किया कंगाल
डाकुओं के सवार पर है वतन
काम जो मिल गया है दंगों का
इस तरह रोज़गार पर है वतन
बन गया एक चोर चौकीदार
उसके दारोमदार पर है वतन
पांचवां आदमी नहीं कोई
एक दो तीन चार पर है वतन
प्यार का कम हुआ है पारा अब
हिंदू मुस्लिम बुखार पर है वतन
नफ़रतें है बहुत यहां फ़ैसल
हाय! कैसी बहार पर है वतन