योगाचार्य धर्मचंद्र जी की कविताएँ | Yogacharya Dharmachandra Poetry
रक्षाबंधन
मूहूर्तवाद के चक्कर में
होते त्योहार फीके फीके,
डर से बहना ने नहीं बांधा
भाईयो के कलाई में राखी,
डर का साम्राज्य खड़ा कर
समाज को भयभीत करते हैं
धर्म एक धंधा है,
जिसमें पढ़ा लिखा भी अंधा है
जनता समझने लगीं हैं
मूहूर्तवाद के कारोबार को।
परमात्मा का बनाया हुआ,
हर क्षण होता है शुभ।
फिर मूहूर्तवाद के चक्कर में
मत फंसो हे प्यारी बहना।
बहन भाई के प्यार से ज्यादा,
क्या और शुभ कार्य हो सकता हैं।
डर भय के सहारे ही खड़ा है
दुनिया में धर्म का साम्राज्य।
दुनिया को भयभीत करकें
चलाते हैं वे अपनी दुकाने।
प्रेम, अपनत्व, करूणा की जगह,
फैल रहा है घृणा,द्वेष,नफरत।
सभी धर्मों की बुनियाद,
भय डर पर टिकी हुई है।
आओ बहनों स्नेह की डोर से,
भाई की कलाई राखी से सजाएं।
कैसी स्वातंत्रता ? किसकी स्वातंत्रता ?
जिस देश में ,
आज भी,
संतुलित आहार तो दूर ,
करोड़ों लोग भूख से,
तड़प कर दम तोड़ देते हो, किसान आत्महत्या,
करने को मजबूर हो,
युवा उच्च शिक्षित होते हुए भी दर-दर भटकने को मजबूर हो,
दिन-रात काम करने के बावजूद करोड़ लोग फुटपाथ पर,
सोने को मजबूर हो ,
जहां अपनी आवाज,
उठाने वालों की आवाज को,
आज भी,
कुचल दिया जाता हो!
यह स्वातंत्रता मात्र,
एक प्रतिशत अमीरों के लिए है, 99% जनता ,
कल भी भूखी नंगी थी,
आज भी भूखी नंगी है।
भारत की आम जनता ,
कल भी न्याय के लिए
दर दर भटकटी थी,
आज भी,
दर-दर भटकती है।
यह विकास मात्र ,
कुछ अमीरों के लिए हुआं है संतुलित भोजन क्या होता है? करोड़ों लोगों को ,
आज भी पता नहीं ,
न्यायालय , पुलिस पूरा तंत्र, अमीरों की सुरक्षा में लगा है।
जो की परतंत्र भारत में,
अंग्रेजों की सुरक्षा में लगा था। गरीब ,किसान, मजदूर ,
कल भी असहाय था
और आज भी असहाय है।
अमीरों और गरीबों के लिए,
कल भी अलग-अलग न्याय थे, और आज भी,
अलग-अलग न्याय हैं ,
कल भी ,
एक कमजोर असहाय व्यक्ति को, फांसी पर चढ़ा देता था ,
और आज भी चढ़ा देता है। है अमीर कल भी,
पैसे के बल पर ,
गंभीरतम अपराध में भी,
शान से बच निकलता था ,
और आज भी बच निकलता है। यह कैसा न्याय है?
गरीब असहाय कल भी था, न्याय के लिए दर-दर भटकता था और आज भी भटक रहा है।
बेरोजगारी से त्रस्त युवको को रोजगार मांगने पर,
कल भी,
प्रताणित किया जाता था ,
और आज भी,
प्रताणित किया जा रहा है।
यह कैसी स्वातंत्रता है,
जो अपना हक ना मांग सके,
हम गुलाम कल भी थे ,
गुलाम आज भी हैं।
कल भी उच्च शिक्षा ,
अमीरों के पास थी ,
आज भी अमीरों के पास है। बुनियादी जरूरतों से महफूज कल भी,
गरीब बेबस जनता थी,
आज भी है।
शिक्षा के नाम पर,
अमीरों के लिए ,
स्कूलों का निजीकरण, बाजारीकरण किया जा रहा जिसके पास पैसा होगा,
वही शिक्षा प्राप्त कर सकेगा, गरीब का बच्चा,
कल भी शिक्षा से वंचित था, आज भी वंचित है।
कर्ज में डूब कर ,
कल भी,
गरीब ,बेबस मजदूर,
आत्महत्या कर लेता था ,
आज भी आत्महत्या कर लेता है।
अमीर कल भी,
कर्ज में डूबने पर,
विदेश भाग जाता था ,
आज भी विदेश भाग जाता है ।
ये बैंक ,ये सरकारें ,
उसका कुछ नहीं कर पाती है ।
सारा न्याय, सारा कानून,
गरीबों के लिए,
कल भी था,
आज भी है।
अमीर तो उसे ,
कल भी खरीद लेता था ,
आज भी खरीद ले रहा है।
ये कैसी आज़ादी है?
ये किसकी स्वातंत्रता है?
मैथिलीशरण गुप्त
कलम के द्वारा जगाई जिसने,
सोये हुए राष्ट्र की प्रसुप्त चेतना।
जिनकी जादुई कलम ने उन्हें,
साहित्य जगत के दद्दा कहलाया।।
बचपन से ही उनकी लेखनी में, सरस्वती विराजित हो गई थी।
12 वर्ष की बालावस्था में , कनकलता कविता रच डाला।
दादा कोरे कवि नहीं थे,
बल्कि वंचितों की पीड़ा थे।
लेखनी से उनकी सदैव ,
झलकती पतितो की पीड़ा।।
नारियों के दुर्दशा देख उनका मन, कराहते हुए कह उठा ।
अबला जीवन तुम्हारी यही कहानी,
आंचल में है दूध और आंखों में पानी।।
राम रहीम बुद्धि ईसा,
सब ही ईश्वर के रूप हैं।
नहीं किसी में कोई अंतर,
बता गए थे तुम दद्दा।।
साकेत जैसा महा ग्रंथ रच ,
अमर हो गए तुम दद्दा।
प्रेमचंद
तुम थे सचमुच प्रेम के सागर,
जगत को प्रेममय बना गए,
दीन दुखियों की आवाजो को,
अपनी कलम का आधार बनाया।
लमही गांव हुआ पवित्र,
३१ जुलाई,१८८० को जब,
मां आनंदी की पवित्र गोद में,
एक शिशु ने जब जन्म लिया।
बचपन बीता आर्थिक तंगी में,
तरसे छोटी छोटी वस्तु के लिए,
जिंदगी का अभाव हीं उनके,
बने कहानियो उपन्यासो के पात्र।
मातृत्व सुख से वंचित पात्र,
निर्मला , कर्मभूमि में गढ़ डाला।
सौतेली मां, गृहदाह आदि पात्र,
स्वयं को ही बनाकर रच डाला।
साहित्य को साधना समझकर,
घोर गरीबी में भी उन्होंने,
सतत् साहित्य साधनारत हो,
सदैव के लिए अमर हो गए।
प्रकृति
संपूर्ण प्रकृति है,
परमात्मा का दिव्य स्वरूप,
उसी की सत्ता जो,
चहुं दिशाओं में व्याप्ती,
संपूर्ण चराचर जगत में ,
अपना आभास दिलाती ,
आत्मा बिना जैसे यह काया, मृतक समान है,
वैसे ही पुरुष ,
इसके सहयोग के बिना ,
मृतक समान है।
प्रकृति जड़वत है,
पुरुष का सहयोग जब मिलता, इसमें चैतन्यता आ जाती,
वेदांत की मान्यता है कि ,
सृष्टि रचना में,
ईश्वर की स्वाभाविक इच्छा,
की सहायिका है यह,
कालिदास तो यह कह गए, समस्त संसार का बीज है यह,
प्रसवधर्मी होने के कारण,
समस्त जगत की उत्पत्ति रूप है।
महत् ,बुद्धि ,अहंकार के साथ,
पंचमहाभूत पंचतन् मात्राओं के जैसे,
पांच-पांच ज्ञानेंद्रिय व कर्मेंद्रिय मिलकर,
प्रकृति 24 तत्वों की कहलातीं ।
प्रकृति पुरुष का मिलन ही,
सृष्टि रचना का आधार बनता।
जिंदगी के स्वप्न
कहते हैं कि,
जिंदगी और सपने ,
एक हो जाए तो ,
खुशहाली आया करती है,
लेकिन कभी सोचा है हमने,
जिंदगी को अपनी तरह,
जीने कहां दिया जाता है।
समाज जैसा चाहता है ,
हम भी उसी के समान,
जिए जाते हैं।
जिंदगी बस स्वप्न देखते-देखते ,
खो सी गई है,
लगता है कि,
स्वप्न ही जिंदगी हो गई हैं ।
बचपन में कितने ख्वाब,
कितने-कितने उमंगे ,
हुआ करती थी जिंदगी में,
फिर भी न जाने कहां,
खो सी जाती है जिंदगी ,
कुछ तो ,
धर्म एवं संस्कार के नाम पर,
बलि चढ़ा दी जाती है,
कुछ स्वप्न बस स्वप्न बनकर रह जाती है,
ना जाने क्यों यह समाज इतना,
मेरे ख्वाबों को ,
मिटाने पर तुला हुआ है ।
मिटा रहा है 45 वर्षों से,
लेकिन पूर्णतया मिटा ना पाया, कहीं ना कहीं कुछ अंश ,
छोड़ देता है जो फिर ,
अंकुरित होकर,
पल्लवित-पुष्पित होने लगती है।
मैं सोचता हूं ,
क्या यही तो नहीं हैं,
जिंदगी का फल सफा ,
गिर कर उठना,
उठकर गिरना,
फिर जिंदगी की दौड़ में,
पुनः शामिल हो जाना।
जिंदगी क्या है?
जिंदगी क्या है ,
एक सपना,
जिसमें सुख के सागर,
लहराते हैं तो,
कभी दुखों का सैलाब ,
इन सुख-दुख के,
थपेड़ों के बीच ,
जीते जाना ही ,
जिंदगी का मकसद है ,
खुशी में इतना ना खो जाए कि वह बीमारी बन जाए ,
अपनी खुशियों के दामन को,
यूं ही आंसू बनकर,
बह जाने दे ,
उन्हें संभाले ,
हिफाजत करें ,
बस यही है मुफलसा ,
जिंदगी जीने का।
जिंदगी
जिंदगी है,
गुलाब के पुष्प की तरह,
कांटों के बीच ही,
गुलाब खिलता है,
उसी तरह से ही ,
दुख परेशानियों के बीच,
जिंदगी खिलती है,
मुस्कुराती है।
जिंदगी है,
नदी की भांति,
जो पहाड़ी रास्तों के बीच भी अपना मार्ग खोज लेती हैं,
और दुनिया को ,
शीतलता एवं शांति देती है।
जिंदगी है,
जोक की तरह,
जो जीवन के रक्त को,
पीने के बाद भी,
जीने की चाह बनायें रखतीं हैं।
जिंदगी है ,
एक फिल्म की तरह,
जिसमें नायक है तो,
खलनायक भी है,
राम है तो,
रावण भी है,
प्रेम है तो,
जुदाई का गम भी है।
जिंदगी है ,
सुख-दुख के बीच की कड़ी,
जहां अथाह दुख है तो ,
सुख के कण भी है ,
जिसे पाने के लिए,
असीम दुखों को सहे जा रहे हैं।
जिंदगी को जो,
कृष्ण की तरह,
आसक्ति रहित होकर जीता है,
वही मानव जीवन में,
परमात्म तत्वों का अनुभव,
कर पाता है।
आखिर कब तक
आखिर कब तक लोग अंधविश्वासों में,
जान गंवाते रहेंगे,
श्रद्धा के नाम पर ,
उनके जीवन को ,
दांव पर ,
लगाया जाता रहेगा ।
कौन है जो ,
उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी,
अंधविश्वासों में ,
जकड़े रहना ,
देखना चाहता है।
कब तक लोग ,
अंधविश्वासों और पाखंड की,
दुकान चलाते रहेंगे ।
कब तक लोग,
धर्म के नाम पर,
जनता को मूर्ख ,
बनाया जाता रहेगा ।
कौन है वे लोग ,
जो जनता को,
मूढ़ बने रहना,
देखना चाहते हैं ।
जनता की मौत पर,
आखिर कब तक,
कोई उन्हें मूढ़ बनाकर,
उनके जान माल का ,
दुश्मन बना रहेगा ।
कैसे कोई रोड छाप बाबा,
जनता को ठग करके,
अरबों का साम्राज्य ,
खड़ा कर लेता है ।
आखिर कब तक ,
मौत के मंजर देखकर भी,
चार दिन आंसू बहाकर,
फिर पुनः अंधविश्वासों में ,
जकड़ने लगेंगे ।
क्यों पीढ़ी दर पीढ़ी?
अंधविश्वास है कि,
खत्म होने की जगह,
और बढ़ता जा रहा है ।
आखिर क्यों?
यह जानते हुए भी कि,
यह सब करना,
मुड़ता है ,पाखंड है,
फिर भी लोग हैं कि,
मानते जाते हैं ।
लोग क्यों?
हर गली मोहल्ले में,
पीपल का पेड़ दिखा नहीं कि,
पूजा शुरू कर देते हैं ।
तंत्र-मंत्र ,भूत प्रेत ,
मजार दरगाह पर,
किसने बताया उन्हें कि ,
इन सब पर विश्वास करो,
तुम्हारे दुःख दूर होंगे ।
क्यों साईं बाबा जैसे व्यक्ति को, भगवान मानकर ,
अपने मंदिरों में,
स्थापित कर रहे हैं लोग ।
क्यों ?
पाखंड और अंधविश्वासों में, अनपढ़ ही नहीं,
पढ़ा लिखा भी अंधा है।
यादें जो भुलाए न भूलें
न जाने क्यूं,
अम्मा याद आई,
डांटते हुए बोली-
तूं अब भी,
यहां वहां घूमता रहता है,
तेरी अभी तक भी यह,
वही पुरानी आदतें ,
नहीं छोड़ा,
अरे बेटा,
अब तो जिम्मेदारी समझ,
कब तक यूं ही भटकता रहेगा,
पंछी कितना भी ऊपर उड़ जाए,
अंत में उन्हे अपने,
बसेरा पर ही आना पड़ता है,
कैसे समझाता मां को,
जब से तू गई है,
पता नहीं जिंदगी क्यूं?
वीरान सी लगती है।
हर बूढी महिला में,
तेरा ही रूप नजर आता है,
मां,
मैं चाहता हूं ,
जिम्मेदारियां निभाऊ,
लेकिन बच्चों के साथ ही,
समाज एवं राष्ट्र की ,
जिम्मेदारी से,
कैसे मुंह मोड़ सकता हूं?
मां,
हमारे सोचने से क्या होता है?
जो कुछ होता है ,
सब प्रभु की मर्जी से होता है,
हम चाहते हुए भी,
कुछ नहीं कर सकते हैं,
क्योंकि उनकी इच्छा के बिना,
एक पत्ता भी नहीं हिलता है।
मां,
मैं चाहकर भी,
जैसी बच्चों की परवरिश ,
करनी चाहिए,
वैसी नहीं कर पा रहा हूं ।
मां,
बाबू भी अक्सर,
जब आपकी चर्चा होती है,
तो खोजता फिरता है।
मां,
मुझे भी तेरी याद,
अत्यधिक आती है।
जिंदगी में जब दुख बढ़ जाता है,
बस यही सोचता हूं कि,
अम्मा होती तो,
इसका समाधान कैसे करतीं,
फिर सहज में ,
उसका समाधान मिल जाता है।
मां आज,
सब-कुछ होने पर भी,
नहीं है तो तूं और,
तेरा प्यार भरा आंचल।
मां,
भाग्य में जिसके,
जो लिखा होता है ,
वही मिलता है,
मनुष्य कितना भी,
पुरुषार्थ कर ले ,
परंतु कभी-कभी,
भाग्य के आगे,
मजबूर हो जाता है।
यह भाग्य का खेल नहीं तो क्या है?
दिन भर काम करने के बाद भी, व्यक्ति को ,
खाने को नहीं मिलता है,
वही कोई व्यक्ति ,
खा खा कर मर रहा है।
मां,
पिताजी के न रहने पर,
सभी भाई बहनों को,
कितने प्यार से,
पालन पोषण किया,
कभी किसी चीज की,
कमी न होने दी।
तेरे हाथ की बनी,
नमक रोटी भी खाकर,
कितने मोटे तगड़े थे हम ,
भैया से तो कोई ,
हाथ मिलाने की कोशिश,
नहीं कर सकता था।
लोग कहते कि,
न जाने क्या ?
अपने बच्चों को खिलाती हैं,
देखते नहीं सबको ,
कोल्हू हैं कोल्हू।
मां,
तू एक रोटी जब बनातीं,
तभी बुलाती कि,
आ जाओ खाने को।
फिर एक-एक रोटी,
बनाती जाती और उसे,
परोसती जाती,
कभी-कभी तो,
आधा-आधा बांट करके खाते।
बचपन के वह दिन,
अब एक सपना जैसे लगते।
मां,
तुम कहां चली गई,
क्यों अब दिखाई नहीं देती है,
यह आंखें तो बस,
आपके दीदार को तरसती हैं।
मां,
कहते हैं कि ,
कीचड़ में भी कमल खिलते हैं,
आपके संस्कारों के ही कारण,
मैं बच सका हूं अब तक ,
संसारी कीचड़ों से,
जब भी ऐसा वक्त आया,
तू खड़ी मिली सामने ,
कदम हों गए पीछे,
आपके जाने के बाद भी,
सदा आपकी ,
सिखावनो के कारण,
बचता रहा हूं ,
गलत मार्गो से ,
न जाने कितनी बार,
गिर गिर कर उठा हूं,
फिर गिरा हूं ,
फिर उठा हूं।
तनाव
हमारी आधुनिकता,
अवसाद बन गई है,
हमारी आकांक्षाएं ,
हमारी महत्वाकांक्षाएं,
हमें अनायास ही ,
दुख दर्द देती हैं।
हमने कभी सोचा भी ना था,
यह महत्वाकांक्षाएं ही ,
हमारी भावनाओं से जुड़कर,
हमें ही सुखा डालेंगी ।
धीरे-धीरे इच्छाएं बढ़ीं,
आवश्यकताएं बढ़ी ,
सब कुछ होने पर भी,
और पाने की इच्छा,
जिंदा हीं हमें,
मार रहीं हैं।।
मनुष्य को आज,
तनाव से मुक्ति,
कौन दिलायेगा।
नागफास बनीं तनाव से,
उसे कौन निकालेगा,
यह यक्ष प्रश्न,
सम्पूर्ण मानवता के लिए,
बन गया है।
जिम्मेदार कौन?
आखिर पीढ़ी दर पीढ़ी,
कौन भारत की महिलाओं को बता रहा है?
गंडे ताबीज बच्चों को बांधों?
सदियों से आखिर कौन?
झाड़-फूंक के जंजालो में,
महिलाओं को कौन फंसा रखा है?
आखिर कौन बना रहा है अंधविश्वासी ?
आखिर कौन है जिम्मेदार?
हाथरस जैसे घटनाओं का,
क्यों लोग,
ऐसे पाखंड फैलाने वाले के पास,
इस वैज्ञानिक युग में भी,
अमृत बूंद पाने के लिए,
जान गंवा रहे हैं,
सैकड़ों महिलाओं बच्चों की मौत का,
आखिर कौन ज़िम्मेदार हैं?
भारत में ही आखिर क्यों?
इतना अंधविश्वास फैला हुआ है?
क्यों लोग दुखों का कारण,
दैवीय शक्ति को मानते हैं?
अंधविश्वासों को आखिर कौन बढ़ावा दे रहा है?
क्यों लोग अपने को अंधविश्वासों से मुक्त होना नहीं चाहते हैं?
आखिर भारत में ऐसा क्यों होता है कि,
यहां अंधविश्वासो को मानने वाले की संख्या बढ़ती जा रही है,
इन यक्ष प्रश्नों का उत्तर कौन देगा?
नकाब
हर मानव आज,
नकाब लगाए हुए हैं ,
सामने से वह हंसता है ,
वाह वाह भी करता है,
फिर भी न जाने क्या ?दर्द छुपाए रखता है ,
उसके आंसू बहना चाहते हैं, लेकिन सभ्यता की आड़ में,
खो जाता है।
दूसरी ओर ,
ऐसे भी इंसान है,
जिनकी शरीर पर ,
मांस चढ़ती है तो ,
हजारों की मांस उतर जाती है। इन मांसल सी मुस्कुराहटों ने,
न जाने कितनों के,
मांस उतार लिए ।
सभ्यता जितनी बढ़ी ,
मनुष्यता मरने लगी ,
मनुष्य रूप में बन गया दानव, जिसका आंचल अब ,
पड़ोसी के दुख से,
नहीं होता दुःखी ,
इस अपनों के चक्कर में ,
न जाने कितने घर बर्बाद किया, सारे संसार को यदि ,
मान सके हम अपना,
तब फिर होगी,
चारों ओर,
खुशियां ही खुशियां ,
सब होंगे अपने,
और हम होंगे सबके।
ख्वाब
रात दिन,
दिन रात,
हर पल ,
हर छड़ ,
आंखों के सामने ,
एक ख्वाब गूंजता,
काश !
वो मेरी होती,
बस मेरी होती ,
सपनों में,
नींदों में ,
उसका ही चेहरा दीखता ।
पढ़ने बैठता,
किताबों के पन्नों से,
जैसे उसकी ही खुशबू,
बिखराती ।
हर शब्द में जैसे,
उसकी आवाज गूंजती ।
शब्दों में,
निशब्द बनकर,
मन के अंधेरे गलियारे में,
कोई चुपके से,
कहता ?
वह तो कण-कण में ,
समाहित हो,
प्रेम की खुशबू बिखेरने ,
बिखर गई !
और मेरे ख्वाब ,
ख्वाब ही रह गए।
ये कैसा स्वाभिमान?
स्वाभिमान के नाम पर,
काटी जा रहे हैं बेटियां,
प्रेम तो बस बहाना है,
गाजर मूली जैसे ,
कट रही हैं- बेटियां !
बाप अपने स्वाभिमान में,
बेटी को काट डाला तो,
भाई ने बहन की चमड़ी उधेड़ दी,
स्वाभिमान का नाम देकर,
भरी पंचायत में,
नग्न नचाई जा रही हैं -स्त्री,
न जाने कब तक यूं,
स्वाभिमान के नाम पर,
प्रेम का गला घोंटा जाता रहेगा,
पिलाया जाता रहेगा ,
घृणा द्वेष नफरत का प्याला, स्वाभिमान है या अभिमान ,
जो निरीह प्रेमियों को,
मौत के घाट उतार दिया जाता है, आखिर कब तक,
प्रेम के नाम पर ,
लाखों बहने कटती रहेंगी ,
क्यों समाज इतना है ?
प्रेम के खिलाफ ,
थोड़ा ठहरे सोचें ,
क्या इसीलिए?
प्रेम के अवतार कृष्ण ने,
जन्म लिया था ,
कृष्ण राधा के नाम की,
बंसी बजाने वालों,
छोड़ दो यह सब नाटक बाजी, प्रेम के पुष्प को,
खिलने दो प्यारे !
क्यों कली बनने से पहले ही, तोड़ लेना चाहते हो।
घड़ी
घड़ी की टिक टिक जैसे,
जिंदगी भी टिक टिक करते,
खत्म हो रही है,
हमें हर टिक टिकाना घड़ी का, यह बोध कराता है,
अभी भी सभल जा,
नहीं तो ऐसे ही जिंदगी,
खत्म ना हो जाए।
जिंदगी के हर पल को ,
आओ खेलें ,मुस्कुराए ,
नाचे, गाएं धूम मचाएं,
हर श्वास में ले प्रभु का नाम,
हर छड़ याद रखें,
यह शरीर नश्वर है,
शाश्वत है -हमारे सत्कर्म,
इसलिए किसी को ,
सुख नहीं दे सकते तो,
दुख भी ना दें ,
बस घड़ी की सुइयां की भांति चरैवेति- चरैवेति,
चलते रहे चलते रहें,
अंतिम मंजिल,
प्रभु से मिलन ,
जब तक ना हो जाए।
दर्पण
दर्पण में चेहरा देखते देखते,
बीत गई सारी उमर,
देखा भी तो बस यही देखा,
मेरे बाल कैसे हैं ?,
मेरे गाल कैसे हैं?
मैं कितना सुंदर हूं?
कितना जवान हूं ?
परंतु स्वयं को,
कभी नहीं देखा।
अपने स्वरूप को नहीं निहारा, परमात्मा की तरह मैं भी हूं, निर्विकार, शुद्ध, शाश्वत,
जो करता है अपने स्वरूप का, असली नकली चेहरे की पहचान, काश! कभी हम दर्पण में,
देख पाए !
दर्पण में छिपे,
स्वयं के अस्तित्व को!
जो स्वयं परमात्मामय है, परमात्मा स्वरुप है,
तब नहीं सर रगड़ना होगा,
मंदिर मस्जिद चर्चों में ,
आओ हम सब मिलकर ,
दर्पण साधना करें ,
स्वयं को निहारें ,
अपनी अच्छाइयों एवं कमियों का, बयान करें स्वयं,
तब बन सकेंगे,
परमात्मा जैसे पवित्र,
क्योंकि दर्पण झूठ नहीं बोलता।
फेसबुक
यह कुर्सी नहीं यारों,
माया का बंधन जानों ,
दिन रात कुर्सी से चिपके रहते,
शांति स्थिर पत्थरों की तरह,
बुत बनकर रहना,
है हमारी जिंदगी ।
मुस्कुराना, हंसना,मस्ती करना,
इसके शब्दकोश में नहीं है।
जीवित होकर भी हम जैसे,
मृतक समान रहते।
पत्थर और मुझमें ,
है क्या अंतर?
समझ ना पाते ।
वह स्थिर रहकर भी,
कलाकार की कला द्वारा,
जीवंत मूर्ति बनकर,
प्रभु समान पूजा जाता।
हम जीवंत होकर भी,
पाषाण बनने को,
अभिशप्त किए जाते हैं ।
सोचता हूं,
पत्थरों को पूजते पूजते ,
मनुष्य भी पत्थर जैसा,
क्यों बनने लगा है,
आखिर संगत का असर,
पड़ना ही था ।
कुर्सी मोह
यह कुर्सी नहीं यारों,
माया का बंधन जानों ,
दिन रात कुर्सी से चिपके रहते,
शांति स्थिर पत्थरों की तरह,
बुत बनकर रहना,
है हमारी जिंदगी ।
मुस्कुराना, हंसना,मस्ती करना,
इसके शब्दकोश में नहीं है।
जीवित होकर भी हम जैसे,
मृतक समान रहते।
पत्थर और मुझमें ,
है क्या अंतर?
समझ ना पाते ।
वह स्थिर रहकर भी,
कलाकार की कला द्वारा,
जीवंत मूर्ति बनकर,
प्रभु समान पूजा जाता।
हम जीवंत होकर भी,
पाषाण बनने को,
अभिशप्त किए जाते हैं ।
सोचता हूं,
पत्थरों को पूजते पूजते ,
मनुष्य भी पत्थर जैसा,
क्यों बनने लगा है,
आखिर संगत का असर,
पड़ना ही था ।
मजबूरी
आजकल उनको,
रातों को नींद नहीं आती,
दिन- रात ,
एक ही चिंता सताती,
कैसे होगा प्रोजेक्ट पूरा। कभी-कभी लगता है,
छोड़ दूं ऐसी नौकरी,
किसलिए दिन रात की,
चैन खो रहा हूं।
लेकिन तभी ,
आंखों के सामने,
नाचने लगता है ,
मां की सूनी आंखें,
भूखे बच्चों की चीखें ,
फिर विचारों में डूब जाता,
सिगार के कश पे कश,
उड़ाता जाता,
पूरा कमरा भर गया है ,
सिगार के धुएं से,
जिंदगी भी धुएं जैसी ,
उड़ती जा रही है ।
जीने के लिए,
करनी होगी नौकरी,
और नियत मानकर ,
काम में स्वयं को,
डूबो देता है ।
संधि वेला
प्रिय आत्मन्
इस संधि बेला में ,
नव युग का प्रभात ,
उगने को है बेताब,
तुम्हें उसका,
बनना है सहयोगी,
स्वागत करना है,
सृष्टि के पुनरुत्थान का,
होने को है,
सतयुग की वापसी।
फिर बंद हो जाएगा ,
कलयुग का नग्न तांडव,
आतंक, हिंसा, अराजकता,
जैसे शब्द मिटने को है,
शब्दकोश से ,
प्रेम, दया, सत्य, करुणा, क्षमाशील जैसे शब्द ही ,
गढ़े जाएंगे अब,
नए शब्दकोश में ।
जिसके जीवन में होंगे,
सत्य, प्रेम, न्याय ,
वही बन सकेगा,
प्रभु का दुलारा,
जिसे प्रभु लेंगे आलिंगन ।
खोजो,
तुम कहां हो ,
प्रभु के उस,
दिव्य साम्राज्य में।
सुख की चाहत
छोड़ दो,
दूसरों से सुख पाने की इच्छा,
कोई दूसरा तुम्हें,
नहीं कर सकता सुखी,
सुख तो तुम्हें,
स्वयं की अनुभूति में ही मिलेगी, डूबो,
उतारो ,
और गहराई में,
जितनी तुम्हारी,
स्वयं के प्रति जागृति बढ़ेगी ,
यह सांसारिक रिश्ते नाते,
सुख दुख को भूलकर,
परमानंद की प्राप्ति,
सहज होने लगेगी।
क्योंकि,
सच्चा सुख तो,
परमात्मा के चरणों में,
ही मिलती है।
सांसारिक सुख तो है,
पानी के बुलबुले,
जो क्षण भर में,
फूट जाते हैं,
और हमें, दुख शोक में,
डूबो जाते हैं।
सफल इंसान
उनको आजकल,
एक ही धुन स्वर है,
चाहे कुछ भी करना पड़े,
परंतु सफल इंसान ,
बनकर के रहूंगा ।
इस सफलता को पाने के लिए,
उन्होंने त्याग दिए घर बार,
दोस्ती यारी को भी भुला दिया,
सोचने लगे,
मशीनों की तरह,
सोचना छोड़ दिया है,
सामाजिक रिश्तों के बारे में,
बना लिया है अपने को,
मशीनों जैसा,
जो ना सोचती,
ना विचार करती ,
बस स्विच ऑन किया,
चलने लगती है सरपट।
उनकी जिंदगी भी,
मशीनों के भांति,
सरपट भागी जा रही है।
जिंदगी की स्विच भी,
धीरे से बंद हो गई ।
लोगों ने कहा कि,
वह कितना सफल इंसान था,
देखो उसके त्याग को ,
अपने लक्ष्य के लिए ,
घर परिवार सबको त्याग दिया,
बीच चौराहे पर,
लगाई गई उसकी भव्य मूर्ति, जिसके नीचे लिखा था….
यह दुनिया का सफल इंसान है लेकिन मशीनों की तरह ठूंठ।
सफलता
सफलता नहीं है,
दूसरों को पछाड़कर ,
आगे बढ़ जाना।
दूसरों को बढ़ाकर,
फिर स्वयं भी बढ़ना ,
है असली सफलता ।
लोगों को सताकर ,
मिली सफलता ,
खत्म कर देती हमारी,
रातों की नींद और चैन ।
आज शत प्रतिशत व्यक्ति,
जी रहा है तनाव में,
रातों की नींद हो गई है गायब।
बिस्तर पर करवटें बदलते,
हो जाती है सुबह ।
भूल गया है वह,
मीठी-मीठी ,
प्यार भरी नींद को ।
बच्चा भी आज,
कहता है कि,
मैं तनाव में हूं।
सोचो,
क्या यही है सफलता ,
जिसके लिए,
अनमोल मानव जीवन ,
खत्म कर दिया हमने।
कैसी भक्ति?
घर में मां-बाप की ,
एक न सुनी बात,
भोजन पानी को तड़पाए,
तू रोज करता रहा अपमान।
जिस मां पिता आज्ञा हेतु,
चौदह बरस घूमे रघुराई,
वो मां-बाप रोटी को तरसे,
यें कैसी भक्ति है रे भाई।
रामराज स्थापना हेतु,
स्वयं राममय बनना होगा ,
राम जी के गुणो को,
जीवन में अपनाना होगा।।
भाई भाई इंच इंच के लिए,
खून के प्यासें बन बैठे,
यह कैसा भातृप्रेम है जो,
अपनों से दुश्मनी कर बैठे।।
संकल्प
संकल्प है तो,
विकल्प कैसा?
संकल्पवान के लिए ,
पहाड़ों ने रास्ता छोड़ा है ।
दशरथ मांझी की ,
संकल्प शक्ति के सामने,
विशाल पहाड़ को भी,
रास्ता देने को मजबूर हुआ।
गूंगी बहरी अंधी,
हेलन केलर संकल्प से ,
अंधों के जीवन में,
रोशनी को जलाया है।
बहरा विथोवन बन गया,
संगीत का सम्राट ।
अंधा मिल्टन भी,
अनुपम कवि कहलाया।
संकल्प दृढ़ हो तो,
शारीरिक अक्षमता को भी,
मात देकर ,
विद्वान बना जा सकता है ।
कठिन से कठिन,
परिस्थितियों को भी,
परास्त होना पड़ता है।
प्रेम
संसार की ज्योति है ।
ईश्वर के अनुभूति,
प्रेमी ही कर सकता है।
प्रेम और ईश्वर,
एक ही है ।
जहां जहां प्रेम है,
वहां वहां ईश्वर है ।
ईश्वर के सच्ची अभिव्यक्ति,
प्रेम ही है।
प्रेम भाव का विकास करके, ईश्वर की अनुभूति,
मनुष्य सहज में कर सकता है। प्रेम ही योग है,
प्रेम भी जोड़ता है,
योग भी जोड़ता है,
दोनों जोड़ते हैं ,
प्रभु से मिलान करवाते हैं।
योग मार्ग से जायें ,
या फिर प्रेम मार्ग से,
अंत में मिलेगा वही,
मार्ग अलग-अलग है ,
लेकिन प्राप्ति एक ही है,
ईश्वरत्व की।
मां की यादें
मां ही चंपा चमेली थी ,
मां ही तुलसी केसर थी ,
मां के ही पूजा पाठ से ,
महकता घर आंगन था ।
मां ही काशी मथुरा थी,
मां ही भोले भंडारी थी,
मां ही कृष्ण कन्हैया थी,
मां ही मंदिर की मूरत थी।
मां ही घर की खुशियाली थी,
मां थी तो घर मंदिर था,
वो मां ही थी जो हमको,
हर गलती पर डाटा करतीं थीं।
हम भाई बहन की लड़ाई,
प्यार से सुलझाया करतीं थीं।
घर में सबसे छोटा था मैं,
इसलिए कुछ ज्यादा दुलार वो करतीं थीं।
तेरे संग बिताए गए पल,
मेरे लिए हीरे मोती हैं।
तेरी यादें जब आती हैं तो,
अक्सर आंखें छलक जाती हैं।
पगली और माडल
गांव की गलियों में,
बेतरतीब कपड़े पहने,
वह पगली टहल रही है।
गवई बच्चे ठेले फेंकते तो,
हां -हां , ही -ही करती पगली, उन्हें दौड़ा लेती ।
एक मॉडल आज,
निर्वस्त्र होने की,
सरकार से इजाजत मांगतीं, सार्वजनिक नंगी होने का।
इस खबर को सुनकर ,
उसके चहेतों की संख्या बढ़ गई, जिससे रातों-रात वह ,
मशहूर हो गई ।
पगली का नंगापन,
पागलपन कहलाया,
तो मॉडल का नंगापन ,
क्या कहलायेगा?
इस प्रश्न का उत्तर,
कौन देगा? या यह प्रश्न ही अनुत्रित ही रह जाएगा!
एक मासूम सी लड़की
एक मासूम सी लड़की,
जो बोल नहीं पाती ,
इशारों ही इशारों से ,
सब कुछ समझती ।
एक दिन मैंने,
उसके भाई को मारकर,
घर भाग जाने को कहां ,
भाई को जाते देखा तो ,
जोर-जोर से लगी रोने ।
भाई को जब रोका ,
तो वह चुप हो गई ,
फिर लगीं मुस्कुराने ।
परमात्मा की अद्भुत लीला,
वही जाने,
किन कर्मों की सजा,
उसे भुगतना पड़ रहा ,
उसको देखकर ,
सोचने लगता ,
प्रभु उसे इतनी सुंदर काया दी
क्यों नहीं आवाज भी दे दी,
तू इतना निष्ठुर क्यों बन गया।
नहीं तेरी रचना में,
मैं क्यों दखल दूं ,
मैं तो इसी जन्म को जानता,
तू तो जन्मो जन्मों के ,
कर्मों का ज्ञाता है ,
और वैसे ही करता है,
जैसा जिसका कर्म होता।
पूजा पाठ
वे बहुत बड़े भक्त हैं ,
रखते हैं नवरात्रि व्रत ,
और करते हैं पूजन ,
कुंवारी कन्याओं की ।
लेकिन पुत्र प्रेमी भी है ,
पुत्र प्रेम में वे ,
पुत्रियों को गर्भ में ही ,
मरवा डालते हैं ,
उन्हें नहीं चाहिए लड़कियां ,
किस काम की है यह लड़कियां,
जिंदगी भर कमा कमा कर,
इन्हें खिलाओ पहनाओं ,
शादी में भी नेक दहेज दो,
इससे तो अच्छा लड़का होता है,
जो सुबह शाम चाहे,
मारता हो चार लात,
फिर भी उसे भी वें प्रसाद समझकर,
खा पी जाते हैं ,
कभी डकार नहीं लेते,
वाह पुजारी जी,
तेरी पूजा महान है ।
जब तक तुम यह ,
लड़का लड़की में,
भेदभाव रखते रहोगे,
सुखी नहीं रह पाओगे।
कुत्ता और मनुष्य
अपने भाग्य भाग्य की बात,
कुत्ते रहते महलों में,
खाते रस मलाई,
वही मानव होकर भी,
किसी किसी को मिलता नहीं,
खाने पीने को जूठन भी।
कुत्ते के भाग्य सराहें या,
मनुष्य के कर्म को,
कुत्ता और मनुष्य में ,
है कौन श्रेष्ठ,
बन गई है एक अबूझ पहेली।
संतजन और सद्ग्रंथ,
मानव की महानता बताते,
परंतु आज कल के कुत्ते को देख,
लगता है कि,
बदलनी होगी परिभाषा।
लिखना होगा,
बढ़े भाग्य से हमें मिला,
कुत्ते का जन्म।
पगली और माडल
( Pagli aur model )
गांव की गलियों में,
बेतरतीब कपड़े पहने,
वह पगली टहल रही है।
गवई बच्चे ठेले फेंकते तो,
हां -हां , ही -ही करती पगली, उन्हें दौड़ा लेती ।
एक मॉडल आज,
निर्वस्त्र होने की,
सरकार से इजाजत मांगतीं, सार्वजनिक नंगी होने का।
इस खबर को सुनकर ,
उसके चहेतों की संख्या बढ़ गई, जिससे रातों-रात वह ,
मशहूर हो गई ।
पगली का नंगापन,
पागलपन कहलाया,
तो मॉडल का नंगापन ,
क्या कहलायेगा?
इस प्रश्न का उत्तर,
कौन देगा? या यह प्रश्न ही अनुत्रित ही रह जाएगा!
विधवा
अभी-अभी तो उसके,
सिंदूर के रंग भी नहीं छूटे थे ,
घर की खुसर फुसर को लेकर, वह कुछ चौकन्नी हो गई।
अरे क्या हुआ? क्या हुआ? इतना बड़ा हादसा कैसे हुआ? उनको तो कुछ नहीं हुआ?
अरे क्या वह मारे गए?
क्या यह सच है रानी मां!
बेटा भाग्य को कौन टाल सकता था,
लगता था इतने दिनों का ही मिलना था,
संतोष करो मेरी लाडो ,
सब ठीक हो जाएगा।
वह सोचती–
अब यह काल कोठरी ही,
उसका जीवन है।
जन्म-जन्म भर के लिए,
अब घुट घुट कर जीना होगा।
कभी मन में विचार कौंधता, पुरुषवादी समाज की देन,
सदा से यही है कि —
यदि पत्नी मर जाए तो ,
तुरंत लार टपकने लगती है।
एक तरफ अर्थी जाती ,
दूसरी तरफ नई नवेली बहू आती।
क्यों स्त्री को ?
नहीं दिए गए यह अधिकार
युग युगांतर से लेकर, आज भी स्त्री पूछ रही है यह सवाल!
कुंजड़िन
मैं बाज़ार से,
लौट रहा था ,
देखा,
कुछ कुंजड़िन,
बेच रही थी लोहा के बर्तन,
मैं रूक गया,
खड़े खड़े ही मोल भाव करने लगा,
उसने कहा कि,
थोड़ा बैठोगे भी तो,
और उसने,
बैठने को मजबूर कर दिया।
वह भोजन खाएं जा रही थी,
मोल भाव भी करती जाती ,
मैंने कहा —
खा लो फिर बात करना,
मैं बैठ गया ,
वह भी खा चुकी,
उसकी प्रेमपूर्ण वाणी ,
दिल को छू गई,
और आखिर उसने ,
एक तवा खरीदने को,
मुझे मजबूर कर दिया।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )
यह भी पढ़ें:-