जख़्म के हर निशान से निकला
जख़्म के हर निशान से निकला
जख़्म के हर निशान से निकला
दर्द था वो अज़ान से निकला
लोग जो भी छिपा रहे मुझसे
बेजुबां की जुबान से निकला
इश्क़ के हो गये करम मुझ पर
तीर जब वो कमान से निकला
आँख भर ही गई सुनो मेरी
आज जब वो दुकान से निकला
आज सब कुछ लिवास से ढ़क कर
बा अदब मैं मकान से निकला
यार जो छोड़ गया है अब तू
आज वो सब समान से निकला
लोग छलते गये प्रखर तुमको
और तू ही जहान से निकला

महेन्द्र सिंह प्रखर
( बाराबंकी )
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