सब को अपना नहीं कहा जाता | Sab ko Apna Nahi Kaha Jata
सब को अपना नहीं कहा जाता
( Sab ko Apna Nahi Kaha Jata )
सब को अपना नहीं कहा जाता
हद से आगे नहीं बढ़ा जाता
मंज़िलें दूर जा निकलती हैं
रास्तों में रुका नहीं जाता
घटते बढ़ते हुए यह साये हैं
इन का पीछा नहीं किया जाता
रास्ते ख़ुद बनाये जाते हैं
सब के पीछे नहीं चला जाता
वक़्त लगता है ज़ख़्म भरने में
इतनी जल्दी नहीं गिला जाता
मिलने आ जायें गर ख़िज़ायें भी
बे – रुख़ी से नहीं मिला जाता
पूछते हैं वो दास्तान ए वफ़ा
हम से कुछ भी नहीं कहा जाता
यह जो तस्वीर ए इश्क़ है इस में
रंग काला नहीं भरा जाता
सच कहेंगे यह उन की फ़ितरत है
आइनों से नहीं लड़ा जाता
लफ़ज़ो- मा’नी में पड़ गये तुम भी
इश्क़ ऐसे नहीं किया जाता ।।
मुन्हरिफ़ क्यूँ हो तुम क़बीले से
सच सभी से नहीं सुना जाता ।।
निकहते- गुल यह हमसे कहती है
बन्दिशों में नहीं रहा जाता ।।
हादसे भी सबक़ सिखाते हैं
हादसों से डरा नहीं जाता ।।
दिल के रिश्ते भी टूट जायें कशिश
इतना सच भी नहीं लिखा जाता ।।
शायर: कशिश होशियारपुरी
( शिकागो )
ख़िज़ाँ =पतझड़
मुन्हरिफ़ = विमुख, रुष्ट
निकहत = सुगंध