जिंदगी की पगडंडियों
जिंदगी की पगडंडियों
कांटों से भरी, ऊ उबड़ खाबड़ जिंदगी की पगडंडियां
कहां तक साथ चलेंगी क्या जानूं।
कष्टकर हैं बोझिल सी फिर भी मेरी,
जिंदगी में उम्मीद की किरण लातीं ,
कहीं तो मंजिल मिलेगी मुझे चलते चलते अविराम डगर पर।
मै हूं कि कभी कभी निराश हो जाती हूं,
थक जाती हूं खुद को अकेला पाती हूं
ऐसे में ये पगडंडियां जीने का सहारा बनती हैं,
चलने की प्रेरणा देती हैं आगे ही आगे मुझे जाना है मंजिल की ओर,
नापना है सब इन्हीं सुकुमार पैरों से,
दिखाना है जग को,कितनी मजबूत हूं मैं,
आखिर इन पगडंडियों के सहारे बढ़ना है मुझे आगे ही आगे।
डा. रमा शर्मा
होशियारपुर ( पंजाब )