ज़िंदगी | Zindagi par Shayari
ज़िंदगी
( Zindagi )
ज़िंदगी अब दग़ा रोज़ करने लगी
मुफलिसी की यहाँ आह भरने लगी
जुल्म का ही मिला है निशाँ ऐसा है
आजकल ज़िंदगी रोज़ डरने लगी
जो नहीं है नसीब में यहाँ तो लिखा
आरजू प्यार की ज़ीस्त करने लगी
लौट आ ऐ सनम शहर से गांव को
ज़िंदगी रोज़ अब हिज्र सहने लगी
ऐ ख़ुदा मुफलिसी दूर कर दे ज़रा
अश्क़ आँखें यहाँ रोज़ बहने लगी
खूब आज़म यहाँ नफरतें झेल ली
प्यार की जुस्तजू रोज़ होने लगी