ज़ुल्मत से ये रूह डर रहा है | Zulamt se ye rooh dar raha hai | Ghazal
ज़ुल्मत से ये रूह डर रहा है
( Zulamt se ye rooh dar raha hai )
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ज़ुल्मत से ये रूह डर रहा है
ख्वाब मेरे शौक़ से उतर रहा है
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वही नदिना जी रहा है मुझमें
जो मुझे हर रोज मार रहा है
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नचाहते हुए तुझे मैंने चाहा है
मेरी चाहत मुझसे ये हट कर रहा है
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ख्याल-ए-सफर के चौखट पे
हर रोज इंसान मर रहा है
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मुहब्बत के बुलंद को आवाज़ दे
सदा से उसका तुझपे नज़र रहा है
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में बिखर रहा हूँ या सवर रहा हूँ
ये बात अब तक असरार रहा है
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बिखर ही जाने दे तू खुदको ‘अनंत’
इन्तिज़ार की क़रार अगर रहा है
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शायर: स्वामी ध्यान अनंता
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