मज़बूर | Ghazal Majboor
मज़बूर
( Majboor )
जिस्म से तो नहीं, सोच से मा’ज़ूर हुए हम,
आख़िर नफ्स के आगे क्यों मज़बूर हुए हम,
इन दुनियावी आसाईशों से, यूँ मुतासिर हुए,
कि…..अपने रब्बे-इलाही से ही दूर हुए हम,
आख़िर क्यों ख़ुशियाँ दस्तक देगी दर पे मेरे,
कि..खुद ही ग़मों के अंधेरे से बे-नूर हुए हम,
रोज़ शाम से ही इंतज़ार की शमा जला लेते,
उसके न आने से रोज़ ज़ख़्म से चूर हुए हम,
खुद ही खुदके ख़्वाहिशों का गला घोंट दिए,
फिर बताओ कैसे खुद के बेकसूर हुए हम??
आश हम्द
( पटना )