जयमाला की रस्म | Jayamala ki rasm kavita
जयमाला की रस्म
( Jayamala ki rasm kavita )
सुबह से ही सजने लगा जयमाल का मंच,
यह विवाह की रस्म है या धन का प्रपंच।
शाम तक सज धज के मंच तैयार हुआ,
निर्जीव फूलों से सजीवता का कार्य हुआ।
अब लगने लगा है स्वर्ग का यह सिंहासन,
इससे सुंदर नहीं बैठने का कोई आसन।
मंच सज गया अब दुल्हन सजा रहे हैं ,
बाहर भी बाराती बाजा बजा रहे हैं।
तभी द्वार पूजा की होने लगी तैयारी,
महिलाएं भी गाने लगी स्वागत में अब गारी।
द्वारचार खत्म हुआ जयमाल की आई बारी,
दूल्हा भी जाकर कर लिया मंच पर सवारी।
परी सी सजी दुल्हन धीरे-धीरे आ रही है,
टकटकी लगाए नजरें अति सुख पा रही है।
सकुचाती घबराती नजरों को कुछ झुकाए ,
देखकर दूल्हा मंच से मंद मंद मुस्कराए।
दुल्हन ने दूल्हे की तरह जैसे हाथ बढ़ाया,
मिलन की पहली सीढ़ी पर दूल्हे ने चढ़ाया।
दुल्हन ने दूल्हे की तरफ कुछ पल देखा ,
बदलेगी जीवन की आज हमारी रेखा।
दुल्हन ने दूल्हे की फिर आरती उतारी ,
साथ में सुरु हुई जीवन की नई पारी।
जैसे ही दुल्हन ने वरमाला को पहनाया ,
दूल्हे ने मन ही मन दुल्हन को अपनाया।
मेनका सी खड़ी बगल में दूल्हे की साली ,
मंद मंद मुस्कुरा रही पुष्प की लिए थाली ।
आशीर्वाद का कार्यक्रम फिर शुरू हुआ,
पहले मम्मी पापा आए फिर फूफा और बुआ ।
बारी बारी से फिर रिश्तेदार आने लगे ,
हाथ में पुष्प लेकर यह रस्म निभाने लगे ।
हर पल कैमरे में कैद हो रही थी तस्वीर,
काफी देर से बैठी दुल्हन हो रही थी अधीर।
कहां आता है जीवन में ऐसा दिन रोज,
तभी तो हुई जय माल की फिर से खोज।
आशीष देने की सबको होड़ लगी थी,
बारी कब आए अपनी जोड़-तोड़ लगी थी।
तभी किसी ने कहा बंद करो अब झांकी ,
अभी बहुत सी रस्म है,फेरे लेना है बाकी।
मैं समझ नहीं पाया विवाह है की रस्म है,
केवल आशीर्वाद देने में इतना रुपया भस्म है।