बिल्लू
( Billu )
“मक्खी आया है पहले बैटिंग हम करेंगे” रवि ने कहा। हम अपने होम ग्राउंड बाबा मैदान में अगले मैच के लिए तैयार थे। एक मैच हम पहले ही जीत चुके थे चूंकि विपक्षी टीम मैच और ₹101 गंवा चुकी थी इसलिए वह फिर से एक मैच खेलने की जिद कर रहे थे ताकि अपने पैसे वसूल सकें।
“इस बार टीम से 7-7खिलाड़ी खेलेंगे , मैच 8 ओवर का होगा।सिर्फ एक बॉलर ही 3 ओवर फेंक सकता है, वाइड/नोबॉल के रन नही माने जाएंगे न ही थ्रो बाई के रन होंगे”हमारी टीम के मुख्य सदस्य जीतू ने विपक्षी कप्तान को सारे नियमो से अवगत करवाया।
(गांव के मैंचों में नियम, खेल शुरू होने से ठीक पहले डिक्लेयर किये जाते हैं). हम लोग चर्चा करने लगे कि ओपेनिंग में कौन जाएगा पिछले मैच में हमारी ओपनिंग जोड़ी फ्लॉप हो गयी थी और टीम पूरे ओवर भी नही खेल पायी थी।
मध्यक्रम में सिर्फ जीतू और वीरू ही चले थे । इसबार हम लोगों ने तय किया था कि अनुभवी खिलाड़ी ओपनिंग नही जाएंगे ताकि अगर जल्दी विकेट गिर जाते हैं तो अनुभवी खिलाड़ी टीम को संभाल लेंगे।
हम लोगों ने पहले खेलते हुए 6.5ओवर में आलआउट होकर 70 रन बनाये । ओपनिंग फिर से नही चली लेकिन मध्यक्रम और पुछल्ले बल्लेबाजों ने टीम को संभाल लिया। मैंने 12,वीरू ने 10,रवि ने 7 और सबसे अधिक बिल्लू ने विपक्षी टीम को चौंकाते हुए नाबाद 30 रन बनाए। बिल्लू ने एक छोर पर खूंटा गाड़ दिया ।
ऊपर वह मैली बनियान जबकि पैरों में अंगोछा लपेटे हुए था।गांव में रहते हुए उसका यही पहनावा था। विपक्षी टीम ने उसे आउट करने के लिए पूरा जोर लगा दिया लेकिन जब वो सफल नही हो सके तो उसे उकसाने के लिए चिढाने लगे। मैंने उसे शांत रहकर खेलते रहने के लिए कहा।
जब वो उसे आउट करने में कामयाब नहीं हो सके तो उन्होंने उसके शरीर को निशाना बनाना शुरू कर दिया।पूरी पारी में बिल्लू ने कई तेज गेंदें अपने शरीर मे खायीं लेकिन वो डटा रहा।
वैसे आमतौर पर वह गेंदबाज है और उसके अजीब एक्शन की वजह से हम लोगों ने उसे मलिंगा नाम दिया था लेकिन आज बैटिंग उसने बिल्कुल द्रविड़ स्टाइल में करके हम लोगों का दिल जीत लिया। उसको अंत तक वो लोग आउट नही कर पाए।
मैं जानता था कि 70 रन हम लोग आराम से बचा लेंगे क्योंकि विपक्षी टीम के शुरुआती 2-3 खिलाड़ी ही ठीक-ठाक थे।बस उन्ही को जल्दी निपटाना था। गेंदबाजी की शुरूआत मैंने की । वो लोग मेरी गेंदबाजी से डरते थे क्योंकि तब मैं काफी अच्छी गेंदबाजी करने लगा था।
वह मेरी गेंदबाजी का सामना करते समय साजिशन क्रीज से हट जाते और अंपायर से शिकायत करते कि मैं अद्धा (Jerk ball) फेंक रहा हूँ। वो ऐसा इसलिए करते ताकि अंपायर मुझे गेंदबाजी करने से रोक दे। उनको मेरे 3 ओवर झेलने थे ।
जब उनका स्कोर 5 ओवर में 3 विकेट खोकर 22 रन था और अंतिम 3 ओवर में 48 रन बनाने थे और ये निश्चित था कि वो हार जाएंगे तो उन्होंने बेईमानी शुरू कर दी।
चूंकि अंपायर उन्ही का था इसलिए अच्छी गेंद को भी वाइड/नो बॉल दे देता (गांव के मैचों में अंपायर बैटिंग करने वाली टीम से ही होता है और वो अपने टीम के खिलाड़ियों को रन आउट/स्टम्पिंग कभी आउट नही देते) ।
हम लोग सहते रहे । अन्ततः जब उन्हें लगा कि मैच और ₹101 फिर से हाथ से निकले जा रहे तो उन्होंने पैर की नो बॉल देनी शुरू कर दी और झगड़े पर उतर आए। और बाद में मैच अधूरा छोड़ कर चले गए।यह गांव के मैचों में आम बात है।जब हारने लगो तो बेईमानी पर उतर आओ।
मेरा और बिल्लू का साथ
हम लंगोटिये यार रहे हैं। हम बचपन से ही साथ पढ़े और खेले। पहले उसे
क्रिकेट खेलने का शौक नही था वो हम लोगों को खेलते हुए देखा करता था लेकिन धीरे धीरे उसे क्रिकेट का ऐसा रंग चढ़ा कि एक समय पर उसने हम लोगों को भी पीछे छोड़ दिया।
उसको पढ़ने से अधिक चीजों को इधर उधर करने में मजा आता था और इस मामले में वह पूरे गांव में प्रसिद्ध रहा है।वह क्लास 8 तक मेरे साथ पढ़ा उसके बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी और कुछ काम-धंधा करने लगा ताकि घर का खर्च चलाया जा सके।हम बाबा मैदान में साथ ही खेलते थे ।
मुझे याद है जब बालिंग करने के लिए गेंद उसके हाथ मे होती तो उसकी आँखों में चमक आ जाती थी । वो तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों के बीच गेंद फँसाता और देर तक उसी ग्रिप में गेंद को यूं कसने की कोशिश करता मानो साक्षात लसिथ मलिंगा गेंदबाजी कर रहा हो।खेलते समय जब गेंद फट जाती तो सबसे अधिक पैसे वही मिलाता क्योंकि तब हम लोग पढ़ रहे थे जबकि वह हमारी उम्र का होते हुए भी कमा लेता था।
मुझे याद है जब दूसरे गांव की टीमों से मैच होता तब हम लोग लगभग पूरे गांव के अच्छे प्लेयर्स के साथ खेलने जाते।बिल्लू भी हमारे साथ जाता। जब उसे प्लेइंग इलेवन में शामिल नही किया जाता तो वह निराश हो जाता था और चुपचाप गुमसुम बैठा मैच देखता रहता।
कभी कभी मैच खेलने के लिए वह मुझे बुलाने घर आता और क्रॉस लेग करके खड़ा हो जाता(उसका खड़े होने का यही स्टाइल था।इस पोज मे वह घण्टों खड़ा रह सकता था) ।
मेरे घरवाले उसे 500 बातें सुनाते वह चुपचाप खड़ा सुनता रहता । जैसे ही हम दोनो घर से बाहर निकलते वह फिर से हंसने बोलने लगता मानो कुछ हुआ ही न हो।
आम/अमरूद/जामुन आदि उसकी वजह से हमे आसानी से खाने को मिल जाते। वह पेड़ पर चढ़ जाता और देखते ही देखते हमारी जेबें और पेट दोनो भर जाते।
वैसे तो वह किसी को चिढाता नही था लेकिन अगर किसी को चिढाना शुरू करता तो फिर बार बार एक ही शब्द से इतनी अजीब स्टाइल में चिढ़ाता कि हम लोगों का हंस -हंस के पेट फूल जाता।हालांकि इसके लिए उसे गालियां भी खानी पड़ती।
उसका हंसने का भी अपना स्टाइल है। उसका हंसने के समय सिर्फ मुंह खुलता है आवाज नही आती। जब हम क्लास 4-5th में थे तब हमारे टीचर जो पास ही के गांव से थे और उनका खौफ प्रदूषण की भांति चारो ओर फैला हुआ था।
वह छोटे बच्चों के लिए”राक्षस”थे।वह अक्सर शराब पीकर पढ़ाने आते थे।जिस दिन वह स्कूल न आते वह दिन हम लोगों के लिए “दीवाली” होता।
उनकी एक आदत थी वह अपने ही तरीके से बच्चों के नाम change कर देते थे। बिल्लू को भी उन्होंने “बोधन नारायण” नाम दिया।जब हम लोगो को उसका ये नाम पता चला तो हम लोगों ने उसकी खूब मौज ली।
फिर हम लोगों ने तय किया कि बिल्लू का हम लोग अलग से नाम रखेंगे और 2 मिनट के भीतर ही उसका नाम”बोधन नारायण”से बदल के “पौधा नारायण”कर दिया गया। हालांकि यह सिर्फ हंसने के लिए ही था वह हम सबके लिए बिल्लू ही रहा और हमेशा रहेगा।
मिस्टर मॉनिटर vs मिसेज मॉनिटर
मैं 8th में था। एक लड़की पास ही के गांव से थी उसका नाम———था।वह 7th में थी। वह दिखने में सुंदर थी माथे पर छोटी गोल बिंदी लगाकर स्कूल आती थी । रंग तो ज्यादा साफ नही था लेकिन छवि अच्छी थी।
एक दिन उसने मुझसे पेन मांग लिया।दुर्भाग्यवश मेरे आवारा दोस्तों ने उसे मुझसे पेन मांगते हुए देख लिया।फिर तो बिल्लू सहित मेरे दोस्तों को मसाला मिल गया और उसका नाम लेकर उन सबने मुझे चिढ़ाना शुरू कर दिया और यह कई सालों तक जारी रहा।
मेरे ही सहपाठी और दोस्त———जिसकी राइटिंग सम्भवतः हमारे क्लास के लड़कों में सबसे अच्छी थी (लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की राइटिंग ज्यादा अच्छी होती है और इसमे उनका कोई मुकाबला नही कर सकता)। उसे क्लास का मॉनीटर बनाया गया।क्लास का मॉनीटर होना गौरवपूर्ण बात है।यह खास था लेकिन दिक्कतभरा भी था।
खास इसलिए क्योंकि स्कूल की चाबियां,चाक, डस्टर आदि महत्वपूर्ण चीजें मॉनीटर के पास ही रहती थीं और उसे यह विशेषाधिकार प्राप्त था कि वह किसी की भी शिकायत प्रधानाचार्य से कर सकता था।
दिक्कतभरा इसलिए था क्योंकि चाबियां पास होने के नाते उसे स्कूल सबसे पहले आना पड़ता और सबसे बाद में जाना पड़ता तथा काफी अनुशासित रहना पड़ता जबकि हम लोग इस समस्या से दूर थे।जब स्कूल आने की इच्छा होती थी तो आते थे इच्छा नही होती तो नही आते थे।
और कभी कभी इंटरवल में 1-2 पीरियड “गोल”करके पीछे खेतों में शहतूत/अमरूद/आम/जामुन आदि खाने चले जाते साथ ही कभी कभी CD देखने भी जबकि मॉनीटर को खूंटे में बंधे हुए बैल की भांति वहीं रहना पड़ता। (तब CD PLAYER नई टेक्नोलॉजी थी और गांव में इक्का-दुक्का लोगों के पास ही यह सुविधा थी)।
उन दिनों
अध्यापक कम थे इसलिए एक ही अध्यापक को कई विषय पढ़ाने पढ़ते थे । छोटी बहन जी इतिहास, भूगोल,English के अलावा रेखागणित भी पढ़ाते थे जबकि साइंस मास्टर साहब सामाजिक विज्ञान, गणित ,विज्ञान आदि पढ़ाते थे।
साइंस मास्टर साहब का पीरियड था और जब वह सामाजिक विज्ञान पढ़ा रहे थे तब हमने देखा कि मिस्टर मॉनीटर मिसेज मॉनीटर को “ताक” रहे हैं।
क्लास में लड़कों की भांति लड़कियों का भी मॉनीटर होता था।हमारी क्लास की सम्भवतः सबसे सुंदर लड़की———— को लड़कियों का मॉनीटर बनाया गया। फिर क्या हम लोगों ने अपने दोस्त ————-की मौज लेना शुरू कर दिया।
मिस्टर मॉनीटर और मिसेज मॉनीटर को हम लोग एक फ्रेम में रखकर देखने लगे। यहां तक कि मिसेज मॉनीटर अब”भाभीजी”का दर्जा प्राप्त कर चुकी थीं। वैसे उन दोनों के बीच कुछ खास नहीं चल रहा था।एक तरफ मेरा दोस्त बेहद शर्मीला, अल्पभाषी और संस्कारी था जबकि दूसरी तरफ”भाभीजी”बड़ी चंट थीं और खूब सज-संवर कर स्कूल आती थीं और सुंदर तो थीं ही वह।
“यह अन्याय है” साइंस मास्टर साहब ने कहा।
वह हमें सामाजिक विज्ञान के अंतर्गत गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों द्वारा गरीब भारतीयों पर ढाए जा रहे जुल्म के बारे में पढ़ा रहे थे (साइंस मास्टर साहब पास ही के गांव से थे उनका वास्तविक नाम तो याद नहीं लेकिन हम उन्हें साइंस मास्टर ही कहते थे। उनकी आवाज काफी चिड़चिड़ी थी जब वो चिल्लाते तो ऐसा लगता जैसे 90 के दशक का कोई दर्दभरा गीत गा रहे हों)
हम लोगों की उम्र तब 12-13 वर्ष भले ही थी लेकिन हम लोग अच्छे से जानते थे कि इन दोनों की जाति में बड़ा GAP है और समाज इन्हें मिलने नही देगा (दुनिया में जातियां न होतीं तो जीवन कितना आसान हो जाता)।
खैर 8th के बाद हममें से कई की राहें जुदा हो गईं। मिसेज मॉनीटर भी किसी और स्कूल में चली गईं और धीरे धीरे पनप रही “प्रेमकहानी” का भी THE END हो गया।
फिर शायद दोबारा वह कभी नही मिल सके। बहुत समय बाद अपने दोस्त से मैंने इस बारे में बात की तो उसने कहा”जिंदगी इसी का नाम है राह में कई लोग मिलते हैं और खट्टी मीठी यादें दे जाते हैं उनके साथ कुछ पल जीने को जी चाहता है लेकिन एकाएक तेज झोंका आता है और जिंदगी सब कुछ बहा ले जाती है और आगे बढ़ जाती है।”
हां शायद ऐसी ही है जिंदगी!!
है न!!!!!
CD कांड
उस दिन का CD कांड आज भी याद है।वह सर्दियों के दिन थे। इंटरवल को मैं, वीरू और बिल्लू खाना खाने घर आये लेकिन पड़ोस में ही CD चल रही थी जिसमें ‘सौगंध’ लगी थी।
हम लोगों का मन वहीं रम गया। स्कूल का ध्यान तब आया जब चौधरी सारंग ने खुद को गोली मार ली और फ़िल्म खत्म हो गयी।हम लोगों को उसी समय स्कूल आ जाना चाहिए था लेकिन तुरंत ही “कितने दूर कितने पास”लग गयी। देर तो वैसे भी हो गयी थी इसलिए हम लोगों ने तय किया कि लगे हाथ ये फ़िल्म भी निपटा के ही जायेंगे।
जैसे तैसे फ़िल्म खत्म करके हम लोग स्कूल जाने के लिए उठे। मैंने अंदाजा लगाया कि दिन का लास्ट पीरियड चल रहा होगा ।तब लगा नही कि वहां हमारा बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है। किसी खुराफाती से हमारी खुशियां देखी नही गयीं और उसने हमारे प्रधानाचार्य छोटी बहन जी को हमारे बारे में बता दिया (छोटी बहन जी वास्तव में महिला नही बल्कि पुरुष हैं।
मुझे पता नही उनका ये नाम क्यों पड़ा लेकिन हम उन्हें छोटी बहन जी मास्टर साहब ही कहते थे)।
हम चिंता और भावी खतरे का अनुमान लगाते हुए स्कूल की तरफ बढ़ने लगे।विद्यालय के सारे छात्र-छात्रायें ग्राउंड पर ही बैठे थे।सबकी अलग -अलग क्लास चल रही थी। पूरे ग्राउंड से सिर्फ अध्यापकों के पढ़ाने की आवाज आ रही थी।
छोटी बहन जी ने हम लोगों को आते हुए देखा।
“आओ..चले आओ, तुमको फ़िल्म दिखाते हैं” बहन जी ने दोनों हाथ लहराते हुए हम लोगों को ऐसे बुलाया जैसे कसाई मुर्गे को हलाल करने से पहले पुचकारता है। हम समझ गए कि किसी ने खुराफात कर दी है।बचने का कोई उपाय नजर नही आ रहा था।
अब हमको कुछ नही करना था जो भी करना था बहनजी को करना था।यह मेरे लिए बिल्कुल नई स्थिति थी जबकि बिल्लू यही सब करते हुए बड़ा हुआ है। बिल्लू आगे चल रहा था जबकि मैं और वीरू उसके पीछे।
पूरे स्कूल की 400 आंखे उत्सुकतावश हम लोगों पर ही टिकी हुई थीं और आगामी “पीठ पूजन समारोह”को देखने के लिए लालायित थीं। मैं सोच रहा था कि हमारे पहुंचने से पहले ही कोई छुट्टी वाली घण्टी बजा दे या फिर हमारे और छोटी बहनजी के बीच मौजूद जमीन ही फट जाए।
खैर!! हम वहां पहुंचे।हमको खड़ा रखा गया।बहनजी ने एक लड़के को हम बेशर्मों की खातिरदारी के लिए एक बेशरम का डंडा लाने भेजा।हम रुआंसे हो रहे थे।मुझे ऐसा लग रहा था जैसे बैकग्राउंड में कुछ देर पहले सुने हुए गाने की पंक्तियां
“हमको कयामत ढूंढ रही थी, नाम पता सब पूछ रही थी..
तेरी कसम हम पकड़े गए हैं, हथकड़ियों में जकड़े गए हैं।”
बज रही हों।
“कौन सी फ़िल्म देख कर आये हो” बहनजी ने मुझसे पूछा।
हम तीनों में से किसी ने जवाब नहीं दिया। अगर यह किसी और समय पर कोई पूछता तो उसे चौधरी सारंग और गंगा के बीच चल रहे”शीत युद्ध” की कहानी शुरू से लेकर अंत तक सुना देते।
चाहे हमारी किस्मत कह लो या उस लड़के की भलमनसाहत, वह लड़का 15-20 मिनट बाद डंडा लेकर आया।तब तक छुट्टी की घण्टी बज चुकी थी।
सबक
हमलोग पिटाई से बच गए लेकिन उतने समय तक हम तीनों पूरे स्कूल के सामने सिर झुकाए खड़े रहे। यह बहुत शर्मिंदगी भरा था शायद पिटने से भी अधिक ।
उसके बाद मैंने तय कर लिया कि अब कभी क्लासेस बंक नही करूँगा और तब से लेकर आज तक मैं पढ़ाई को पहले नम्बर पर ही रखता आ रहा हूँ।
#समर्पण – मेरे प्यारे अध्यापकों को समर्पित जिनकी वजह से आज मैं लिख-पढ़ पा रहा हूँ।
लेखक : भूपेंद्र सिंह चौहान