कर्मों का खेल | Kahani Karmo ka Khel
उम्र लगभग 80 पार हो चुकी थी। कमर झुकी हुई थी फिर भी बैठे-बैठे वह बर्तन धुल रहे थी। उसके इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वह बर्तन उठाकर रख सके बस वो धूल दे रही थी। धुलने के बाद वह बूढ़ी अम्मा अपनी नाती को बुलाकर कहती है -“बर्तन थोड़ा घर में रख दो। मुझसे उठा कर चला नहीं जा रहा है।”
उसका नाती सुजीत बर्तन को रख दिया करता है। बूढ़ी अम्मा उसे बहुत मानती थी। जब भी उसे किसी वस्तु की जरूरत होती तो वह उसे ही बुलाया करती। जिसके कारण उसके अन्य नाती पोते कहा करते कि माई केवल सुजीत को ही बुलाया करती है हमे नहीं बुलाया करती हैं।
ऐसा नहीं है कि बूढी मां के और कोई नहीं है। उसका भरा पूरा परिवार है तीन-तीन बहुएं हैं लेकिन सारा कर्मों का खेल है। बूढ़ी मां ने बहुत हसरत के साथ अपने बच्चों की शादी की थी कि बहू आएगी तो हमें एक लोटा पानी देगी बनाकर खिलाएंगी लेकिन यह सुख उसके भाग्य में कहा लिखा था।
जब कोई उसे यह कहता कि आपके तीन-तीन बहुएं हैं फिर आप भोजन क्यों बना रही है। तो वह कहां करती- -” सब कर्मों का खेल है बेटा। जब भाग्य में लिखा कर नहीं आएं थें तब कैसे बहूं का सुख मिलता।।”
ऐसा नहीं है कि उनकी बहुएं कहीं दूर देश में रहती हों। सभी वही रहा करती है। न जाने कौन सा ऐसा कारण है कि एक स्त्री को अपनी मां तो प्रिय लगती है लेकिन वह सासू के साथ नहीं रहना चाहती । शादी के बाद उसकी यही इच्छा होती है कि पति पत्नी दो रोटी बनाएं तान के खाकर के सोए।
इन बुड्ढा बुड्ढी को कौन खिलाएं। अक्सर बूढ़े लोग इसलिए भी कुछ बोल दिया करते है कि उन्हें आपसे प्रेम है। कोई अजनबी को तो बोलने नहीं जाएंगी।
वर्तमान समय में बढ़ते पारिवारिक विघटन का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि लोग अपनी तरह मौज मस्ती करना चाहते हैं। अक्सर देखा गया है कि सामूहिक परिवार में कोई बाहर का व्यक्ति यदि आता है तो सबसे पहले वह बड़े बुजुर्गों के पास ही बैठेगा। चाहे बहू का कितना ही नजदीकी क्यों ना हो ? फिर भी सामूहिक परिवारों में एक डर भय बना रहता है।
बूढ़े सास ससुर कितने भी बूढ़े हो लेकिन घर में यदि अच्छा खराब हो रहा है तो वह कहेंगे जरूर। यही कारण है कि बहूएं रोज किच-किच किया करतीं रहतीं हैं। रोज की किच- किच से परेशान होकर सांस ससुर भी कह देते हैं कि बेटा यदि बहूं को साथ में रहना अच्छा नहीं लग रहा है तो तू अलग क्यों नहीं रह लेता।
ऐसी स्थिति में लड़कों की मजबूरी हो जाती है कि पत्नी के साथ अलग होकर के रहे। ना चाहते हुए भी वह अलग रहने लगता है।
अलग बाहर रहने में औरतों की मौज हो जाती है। वह एक प्रकार से स्वछंद हो जाती हैं। मायके में कम से कम माता-पिता का डर था । ससुराल आने पर सास ससुर का लेकिन अब सारे भय समाप्त हो जाता है।
आदमी की मजबूरी है कि उसे कमाने जाना है। स्त्रियों को कुछ दिन तो यह अकेलापन अच्छा लगता है बाद में वही काटने दौड़ता है। स्वछंद विचरण करने वाली स्त्रियों के लिए कोई समस्या नहीं होती है।
बूढ़ी अम्मा तीन तीन बहुएं होते हुए भी बहुत अकेलापन अनुभव करती थी। एक ही जगह रहते हुए भी चार-चार चूल्हे जालना पड़ रहा था। यह देखकर उन्हें अपार कष्ट होता था।
उन्होंने बहुत प्रयास किया की परिवार में एकता बनी रहे लेकिन सारा प्रयास असफल हुआ। बहूं थी कि एक दूसरे में पटती ही नहीं थी। एक दूसरे को खार खाए रहती थी ।
अंत में जब देख कि परिवार में अब एक साथ रहना बड़ा मुश्किल है तो अम्मा ने सभी को अलग कर दिया।
अलग होकर उनकी ब
ड़ी बहू खुश नहीं थी। उसकी इच्छा थी कि हम सब साथ में रहे। लेकिन साथ में रहना बड़ा मुश्किल हो गया था।
अम्मा को आज वर्षों बाद अलग भोजन बनाना बहुत अखर रहा था। इसलिए जो कुछ था वही खाकर सो गई। आज पति-पत्नी बहुत निराश दिखाई दे रहे थे। कितने ख्वाबों से उन्होंने अपने बच्चों की शादी की थी।सारे ख्वाब आज मिट्टी में मिल गए।
उन्हें लग रहा था कि बच्चे ना हो तो उनके लिए दर-दर भटको। बच्चे हो जाए तो बुढ़ापे में साथ छोड़ देते हैं।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )