नदी | Nadi par Kavita
नदी
( Nadi )
आँधी आऍं चाहें आऍं तूफ़ान,
मैं सदैव ही चलती ही रहती।
और गन्दगी सारे ब्रह्माण्ड की,
समेट कर के बहा ले जाती।।
मैं किसी के रोके नहीं रुकती,
और कभी भी मैं नहीं थकती।
मैं नदी ख़ुद मन वेग से चलती,
अविरल सदैव बहती जाती।।
अपनें इस प्रवाह से धरती के,
कण- कण को साफ़ करती हूँ।
और इन हवाओं के साथ साथ,
प्रेम रस सभी को पिलाती हूँ।।
लेकिन आज मैं भी स्वस्थ नहीं,
क्योंकि गंदगी चारों और पड़ी।
शहरो के सभी नाले मल गंदगी,
से आखिर बिमार जो मैं पड़ी।।
मैं आई थी अपनों को छोड़कर,
भोले नाथ की ये बात मानकर।
कि सबके पापो को मैं धोऊॅंगी,
सब को स्वस्थ, निर्मल रखूँगी।।
लेकिन आज फेंक रहें है लाश,
और हो गई अब मैंं भी निराश।
पहले थी स्वच्छ साफ़ गंगानदी,
आज गंदगी से करते विनाश।।
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