Jidhar dekhta hoon

जिधर देखता हूं,उधर तू ही तू है | Jidhar Dekhta hoon

जिधर देखता हूं,उधर तू ही तू है

( Jidhar dekhta hoon, udhar tu hi tu hai) 

 

धरा चाहे घूमूं

गगन चाहे छू लूं

पवन बनकर चारो

दिशाओं में ढूढूं

कण कण में जलवा,तेरा हू -बहू है

जिधर देखता हूं,उधर तू ही तू है।

 

इधर चाहे ढूढ़ूं

उधर चाहे ढूढ़ूं

मैं अनजान राही

सा भटका हुआ हूं

करुं बंद आंखें,तो दिखता ही तू है,

जिधर देखता हूं,उधर तू ही तू है।

 

धरा नभ दिशाएं

दिवस सब निशाएं

छटी चांदनी की

फैली   सीमाएं

जहां तुमको देखूं, वहां तू ही तू है,

जिधर देखता हूं,उधर तू ही तू है,

 

रगो रग में देखा

कि सांसों में देखा

समझना था मुस्किल

कहां जो ना देखा

तन मन के अंदर, धड़कता ही तू है ,

जिधर देखता हूं,उधर तू ही तू है।

 

झरनो की झर-झर

नदियों की कल-कल

हवाएं सदा जो

बहती हैं सर-सर

सृष्टि का आधार,हर वरदान तू है,

जिधर देखता हूं,उधर तू ही तू है।

 

मंदिर में ढूंढ़ा

मस्जिद में ढूंढ़ा

जगह है कौन वह

जहां मैं न ढूढ़ा

दिखा अंत में कि,बसा मुझमें तू है,

जिधर देखता हूं,उधर तू ही तू है।

 

रचनाकार रामबृक्ष बहादुरपुरी

( अम्बेडकरनगर )

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