जिंदगी का सफरनामा ( एक शिक्षक की आत्मकथा )
भाग : 1
मैं बचपन से अंत: प्रवृति का व्यक्ति रहा हूं। जिसने बोल दिया तो बोल दिया मैं तो चुप रहना मैं ज्यादा धमाचौकड़ी भी नहीं करता था। हां लेकिन जब मुझे कोई परेशान करता था तो मैं उसकी धुनाई करने से भी बाज नहीं आता था ।
गांव में उस समय तक एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव बहुत था। आपस में लोग एक दूसरे के सहयोगी थे ।पड़ोस में यदि कहीं कोई वारदात को भी जाती थी तो सभी आपस में मिलकर उसे निपटाने का प्रयास करते थे। गांव में पंचायत थी जिसका एक सरपंच चुना जाता था ।
जिसे चौधरी कहते थे ।एक प्रकार से ही वह गांव का मुखिया होता था ।गांव के छोटे-छोटे झगड़े वह खुद निपटा देते थे ।कोर्ट कचहरी बहुत कम लोग जाते थे।
शहरों में जहां यह भी नहीं मालूम के पड़ोस में कौन रहता है जबकि लोग वर्षों से रह रहे होते हैं ।वही गांव में लोगों को एक दूसरे की पूरी खबर रखते थे । कुछ भी बात हो जाए पूरा गांव उमड़ पड़ता था कि क्या बात हुई बच्चे बड़े का आदर करते थे गांव के बड़े बुजुर्ग यदि किसी को गलत रास्ते पर जाते देखते थे तो उसे रोकते थे । वे इसे अपनी जिम्मेदारी समझते थे ।अपने और पराएपन में ज्यादा भेदभाव नहीं वर्त्तते थे।
मैं अब अपने जन्म के समय की घटना बताता हूं ।जैसा कि मैंने मां एवं दीदी के मुख से कहते सुना था। मेरे जन्म के समय घर के हालात बहुत खराब थे। मेरा जब जन्म हुआ था तो मां को भूखे रह जाना पड़ा था । मैं भी सूखकर कांटा हो गया था ।मां को जब खाने को कुछ मिलता ही नहीं था तो दूध कहां से होता ।
मां अपनी चिंता को भुलाकर हर पल मेरी चिंता ही किया करती थी ।जबकि वह भी भूख के मारे तड़प रही थी । लेकिन भारत की माताओं की महानता को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता बल्कि केवल अनुभव किया जा सकता है।
पिताजी भी बीमार चल रहे थे तो कैसे कमा कर लाते ।
जब भी वे स्वस्थ होते थे तो गांव में गल्ले अनाज की खरीदारी करके अच्छी कमाई कर लेते थे। गांव में उन्हें सभी महिलाएं बड़कू कहती थी । जो कि गांव में यह शब्द श्रद्धा का सूचक था। मेरी बड़ी बहन सीता दीदी एक दिन घर के बाहर चुपके से रो रही थी।वह भी भूख के मारे तड़प रही थी ।
वैसे कुछ होता तो गांव में ही कोई मजदूरी करके कुछ कमा लातीं लेकिन घर में ऐसे हालात में सब को छोड़कर व कैसे जा सकती थीं । उस समय उनकी शादी हो चुकी थी । मुझे कहने में कोई शर्म नहीं महसूस होती कि मेरी बहन गांव में कटाई बुनाई करके घर का पालन पोषण करती रही ।
जब कभी घर में मेरे जन्म के समय के हालात की चर्चा होती थी तो सुनकर ही आंखों में आंसू आने लगते हैं। दीदी को जब सीसकते हुए गांव के मगरू काका ने देखा तो उससे पूछा कि बिटिया तू रो क्यों रही है । उनके प्रेम भरे इस पर से दीदी की शिसकिया और बढ़ गई ।
फिर रोते-रोते उन्होंने घर के हालात बताएं । दीदी की बातों को सुनकर मगरू काका ने दीदी को अपने घर से अनाज लाकर दिया। उनसे यह भी कहा कि आगे भी कभी जरूरत हो तो ले जाना।
इस प्रकार से दीदी उस अनाज को घर की चकिया में पीसकर रोटी बनाई। घर में सभी को खिलाई स्वयं खाईं ।लेकिन मेरी तबीयत ठीक नहीं हो रही थी। मां बताती है कि तेरे जन्म के समय मैंने कितने दुःख झेले तू क्या समझेगा ? मां के दुखों को समझा नहीं जा सकता केवल अनुभव किया जा सकता है ।
धीरे-धीरे महीना हो गए फिर भी मेरी आंख खुली नहीं। शरीर तो सूखकर कांटा हो गया था । लोगों ने आशंका जताई कि कहीं लड़का अंधा तो नहीं हो गया । कौन से देवी देवता पीर मजार नहीं होगी जहां मां पिताजी ने मनौतियां न मांगी होगी कि यह ठीक हो जाएगा तो मैं तेरा दर्शन करूंगी।
मेरे पिताजी घर के कुल देवता के रूप में गाजी मियां बड़े पुरुष की पूजा किया करते थे। मेरे गांव के अधिकांश इलाकों में कुल देवता के रूप में यही पूजें जातें हैं । उनकी मजार घर से 20 किलोमीटर की दूरी पर सिकंदरा में स्थित है। मुख्य मजार बहराइच जिले में हैं जहां भी वर्ष में एक बार विशाल मेला लगता और बड़ी संख्या में लोग जाते हैं।
पिताजी के शरीर पर जब गाजी मियां प्रकट होते थे तो कहते थे-‘ तेरे बच्चे को कुछ नहीं होगा तुम लोग घबराओ मत उसकी आंख भी सही सलामत है वह ठीक हो जाएगा ” । बाद में मैं धीरे-धीरे ठीक होने लगा । मेरी आंखों को कुछ नहीं हुआ । मैं वैसे तो टुकुर-टुकुर ताक रहा था परंतु दीदी बताती है कि तू इतना कमजोर हो गया था कि लोग देखना पसंद नहीं करते थे ।
गोद में लेने में भी परेशानी होती थी। मां तो बीमार थी इसलिए दोनों बहने ही झाड़-फूंक कराने ले जाते। लोग कहते बच्चे को जन्म लेते ही मर जाता तो अच्छा था । आज सब को परेशान कर रहा है। पता नहीं कैसी दुष्ट आत्मा पैदा हो गया ।कैसे कर्म किए होंगे ।
मेरे माता-पिता मुझे प्रभु का प्रसाद मानते हैं । विशेष रूप से कुलदेवता गाजी मियां पीर बाबा की और आज भी बड़ी शिद्दत के साथ उनकी पूजा की जाती है । बड़े भैया अक्सर जाते रहते हैं। उनकी मजार पर उनके प्रति गांव में अजीब किस्से मशहूर हैं कि वह जब खुश हो जाते हैं तो पानी के दीए जला देते हैं वह मालामाल हो जाता है यदि नाराज हो जाए तो उसे नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता।
गांव की महिलाएं विशेष रूप से यह सब घटनाएं सुनाते रहते हैं कि कैसे उनके घर में खाने को भी नहीं थी लेकिन आज देखो तो मोटर गाड़ी बनकर क्या नहीं है उनके पास।
मेरे शरीर में बचपन को इस बीमारी का सर आज भी दिखाई देता है मुझे कुछ कमजोरी अक्सर बनी रहती है मैं चाहे कितना भी अच्छा से अच्छा भोजन करो कहावत है कि दुख के चलते व्यक्ति भूल जाता परंतु अपने दुखों के छोड़ो को बड़ा सजो कर रखता है । मेरा परिवार आज भी संकट से गुजर रहा है बस संतोष इसी बात का है कि प्रभु प्रेम से एक रोटी दे देता है भूखे पेट सोने की नौबत जल्दी नहीं आती।
भाग : 2
जैसा कि मैंने बताया है मैं परिवार में अंतिम संतान के रूप में हूं ।इसलिए कुछ ज्यादा प्यार दुलार मिला ।मेरी प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही तालाब के किनारे बगीचे में हुई है। वहां कोई कमरे नहीं बने थे बल्कि एकदम खुले में ही पढ़ाई होती थी ।मास्टरजी दूसरे गांव से आते थे। एक प्रकार से यह बगीचा दोनों गांव के मध्य में पड़ता था। ।
मेरे गांव का नाम नरई है। नरई एक प्रकार की घास होती है जो जल में उगती है । पतली सी सीक की भांति । उसके अंदर पानी पाया जाता है। मेरा गांव पूरी तरह से चारों ओर से तालाब पोखरो से घिरा है । बीच में गांव है । एक प्रकार से वह टीला है।बरसात के समय गांव के चारों तरफ जल ही जल दिखता है।
उस समय का नजारा कुछ ऐसा खुशनुमा बन जाता है कि जैसे लगता है कि कश्मीर की वादियां यहां आ गई हो। मेरा फोटो संसदीय क्षेत्र प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का माना जाता है यहीं से जीतकर पंडित जी प्रधानमंत्री बने थे । द्वितीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी फूलपुर से ही सांसद रह चुके हैं।
पंडित जी का एक वाक्या मैं सुनाना चाहूंगा जो कि मैंने लोगों के मुख से सुना है। जब पंडित जी फूलपुर से चुनाव लड़ रहे थे तो उनके विरोध में प्रयागराज के सुप्रसिद्ध संत प्रथम पूज्य प्रभु दत्त ब्रह्मचारी जी महाराज खड़े हो गए । हालांकि उनको राजनीति से कुछ लेना नहीं था । बस उनकी जिद थी कि भारत में गौ हत्या का प्रतिबंध लगाना होगा नहीं तो तुम्हें मैं जीतने नहीं दूंगा ।बाद में वे चुनाव हार गए परंतु पंडित जी भी उनका बहुत सम्मान करते थे ।
उनकी शर्तों को उस समय मान तो लिया लेकर राजनीति के गलियारे में लगता है उसे भूल से गए। आज भी गोवंश बड़ी मात्रा में काटे जा रहे हैं । एक दिन मैं मेरठ के कमीलो की बस्ती से गुजर रहा था तो देखा कि रक्त की धार जो नाले में बह रही है। उसे देखकर ह्रदय जैसे चीत्कार सा उठा । यह कैसा देश है कि जिस गोवंश की रक्षा के लिए स्वयं प्रभु कृष्ण ने अवतार लेकर गोवंश के साथ खेलें खाए उस की ऐसी दुर्दशा उनके देश में हो रही है ।
गोहत्या बंदी के न जाने कितने आंदोलन हुए परंतु नेताओं ने कुर्सी के लालच में हिंदुओं की भावनाओं की कद्र नहीं की ।सदा दोगली नीति अपनाई । शक्ति के साथ कानून पास कर दिया जाता तो कोई कारण नहीं कि गौ हत्या रुक ना जाती। अब हम फिर लौटते हैं अपने गांव की स्कूल की ओर ।
मुझे तो लगता है कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सपनों का था मेरा प्यारा बगीचे में बना स्कूल। गुरुदेव को कभी बंद कमरों में बैठकर पढ़ना अच्छा नहीं लगा । कमरों के अंदर उन्हें घुटन सी होती थी। यही कारण रहा है कि अपने सपनों को साकार करने के लिए उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना प्रकृति के सानिध्य में किया।
जहां अध्ययन करने दुनिया की महान हस्तियां स्वयं आकर रहीं। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शांतिनिकेतन में रहकर पढ़ाई की थी । संसार में एक से एक विद्यालय रहे होंगे परंतु शांतिनिकेतन जैसा दूसरा नहीं था । प्रकृति के सानिध्य में रहकर जो संस्कार हमारे अंदर आ सकता है उसे बंद कमरों में नहीं पाया जा सकता ।बगीचे के पास ही तालाब था ।
बरसात में अक्सर पानी भर जाता था तो मास्टर जी को बहुत घूम कर आना पड़ता था ।वहां पढ़ने का आनंद कुछ और था। उस सुख को घुटन भरे गाड़ियों की कड़वाहट के बीच पढ़ने वाले बच्चे केवल कल्पना भर कर सकते हैं ।
मेरे गांव में मुस्लिम भाई भी बहुत बड़ी संख्या में रहते हैं परंतु हिंदू और मुसलमानों के बीच कभी दंगे फसाद नहीं हुए। सभी बहुत मिलकर रहते हैं हमारे घर के पास ही हजारों वर्षों पुरानी बड़ी मस्जिद है जहां पर हर शुक्रवार को नमाज पढ़ने मुस्लिम भाई आते हैं ।
अब तो मस्जिद को तोड़ कर नए सिरे से उसका निर्माण करवा दिया गया है। ईद का त्यौहार हो या फिर होली का सभी मिलकर मनाते हैं। मैं भी में ताजिया मोहर्रम के समय मेला देखने जाया करता था । ताजिया निकालने के पहले दुलदुल घोड़ा निकलता था उसमें मुस्लिम बच्चों के साथ बड़ी मात्रा में हिंदू बच्चे भी शामिल होते थे ।
कभी ऐसा नहीं लगा कि हम सब अलग-अलग कौम के हैं। गांव में सब्बर मियां के यहां मुख्य रूप से ताजिया का निर्माण होता था। वह बहुत नेक दिल इंसान थे । अभी दो-तीन वर्ष पहले उनका देहांत हो गया । उनके अच्छे कर्मों की चर्चा आज भी गांव में होती है। उनका छोटा लड़का ज़ो कि मेरे साथ ही लेकिन दूसरे स्कूल में पढ़ता था ।
वह पढ़ने में बहुत तेज था। मैं भी कम नहीं था परंतु मेरे कभी ज्यादा नंबर नहीं रहे। मैंने कभी ज्यादा रटा नहीं बल्कि विषय को समझने का प्रयास किया। उसी के साथ मैंने भी इंजीनियरिंग की तैयारी की थी। परमात्मा को लगता है मुझसे और कुछ काम कराना था इसलिए वह सब छुड़वा दिया । आज भी गांव वालों को इस बात का मलाल है कि देखो फलाना का लड़का इंजीनियर हो गए ।
एक यह है कि पंडितों के चक्कर में पड़कर द्वारे द्वारे किताब बांटते फिरता है । मां आज भी अफसोस जताती है लेकिन होनी को कौन टाल सकता है जो होनी होती है वह होकर रहती है। जब मां मुझसे कहती है तो कि मैं यही उन्हें समझाने का प्रयास करता हूं कि देखो अम्मा! आज भले हमारे पास कुछ ज्यादा पैसा नहीं है परंतु उनको पहचानता कौन है? खाना-पीना पैसा कमाना फिर सब छोड़कर मर जाना क्या यह मात्र यही है जीवन का लक्ष्य। नहीं ना फिर ज्यादा सोक संताप करने से क्या फायदा?
भाग : 3
मुझसे बड़ी बहन अनीता और मैं एक ही क्लास में पढ़ते थे दीदी को पढ़ने लिखने की अपेक्षा चित्रकारी, कढ़ाई बुनाई ,सिलाई ज्यादा पसंद था। मेरी चारों बहनों में केवल अनीता दीदी मात्र आठवीं तक पढ़ सकीं हालांकि उनकी पढ़ने की बहुत इच्छा थी लेकिन परिस्थित बस उनकी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी।
गांव के स्कूल में पढ़ने के पश्चात प्राथमिक विद्यालय बाबूगंज में अपना नाम लिखवाया। गांव के बगीचे में जो पढ़ाई चल रही थी वह आगे सही तरह से प्रबंध नहीं होने के कारण बंद हो गई थी। बिना दूरदृष्टि के विद्यालय खोलकर चलाना बच्चों की जिंदगी से खिलवाड़ ही करना है।
मेरे पड़ोसी मनोज भाई ने तो कई जगहों से सरस्वती शिशु मंदिर खोले बच्चे भी आए फिर कमाई अच्छी ना होने के कारण यह किसी ने बताया कि वहां चल जाएगी तो वहां भी खोल दिया लेकिन सफल नहीं हुए। वैसे मनोज व्यक्तिगत रूप से बहुत ही नेक दिल इंसान हैं। पिछले तीन-चार वर्षो से उन्हें लकवा मार गया है जिसके कारण वे ठीक से बातचीत भी नहीं कर पा रहे हैं। अब वे कहीं आते-जाते नहीं हैं घर पर ही रहते हैं।
स्कूल खोलने में उनकी कोई कमी नहीं थी। बात यह है कि आजकल स्कूल खोलना दुकानदारी हो गई है । जिसमें प्रबंधक का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना होता है । बच्चों की पढ़ाई लिखाई दूसरे नंबर पर आती है। जिनके पास पैसा है थोड़ी जमीन है उस पर छप्पर डालकर स्कूल खोल ले रहा है ।
चल गई तो ठीक नहीं चले तो उनका क्या जाता है बंद कर दो विद्यालय। ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा नुकसान बच्चों के भविष्य का होता है जिसके कारण उनकी वर्षों का मेहनत मिट्टी में मिल जाती है।
मेरी जानकारी में ऐसे ना जाने कितने विद्यालय खोले और बंद किए गए। किसी का घर किराए पर लेकर कोई चला रहा है तो यदि विद्यालय चल गया तो मकान मालिक उसे कब्जियाने का प्रयास करता है । यदि प्रधानाचार्य प्रबंधक के पास कोई उचित व्यवस्था नहीं है तो विद्यालय बंद करने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता।
इस प्रकार से खुलने वाले विद्यालयों में सबसे बड़ी दिक्कत बच्चों को होती है । अभिभावक भी परेशान की कहां पढ़ायें । किताबें जो खरीद ली गई हैं वह भी रद्दी की टोकरी में डाल दी जाने वाले हैं। क्योंकि उसे कोई नहीं पूछता। इसका कारण यह है कि प्राइवेट विद्यालयों की पुस्तकों के पाठ्यक्रम का कोई मापदंड नहीं है ।
सभी अपनी मनमर्जी से किताबें चलाते हैं। सभी विद्यालय प्रबंधन उसी की पुस्तक लगाने का प्रयास करता है जो ज्यादा कमीशन दे । बच्चों के हित की बात को सारा नजरअंदाज कर दिया जाता है। मुझे भी कुछ लोगों ने सलाह दी कि आप भी विद्यालय खोलकर प्रधानाचार्य बन जाइए। मैंने कहा इतने कम पैसे में खर्च कैसे चलेगा। तब उन्होंने सारा कमीशन खोरी का तामझाम समझाया फिर मैंने मना कर दिया है कि मुझसे नहीं होगा यह सब।
इंग्लिश मीडियम की स्कूलों की हालत तो पूछो ही मत। कुछ उंगली पर गिने जा सकने वाले विद्यालयों को छोड़कर सभी मात्र इंग्लिश के नाम पर खुलेआम लूट रहे हैं।
अभिभावकों को इंग्लिश मीडियम पढ़ाने का जो पागलपन सवार है उसकी भरपूर कीमतें इंग्लिश मीडियम के स्कूल वसूलते हैं। इंग्लिश मीडियम पढ़ने वाले बच्चे अधिकांश ट्रांसलेटर ही बनकर के रह जाते हैं। विषयों की समझ उनमें नगण्य मात्र होती है।
इसका नतीजा यह हुआ कि बच्चों को दो कैटेगरी में बांट दिया गया है ।एक तो सामान्य प्राइमरी विद्यालयों में पढ़ने वाले जहां के अध्यापक /अध्यापिका के बच्चे । मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई प्राइमरी की स्कूल का शिक्षक नहीं चाहेगा उसका बच्चा प्राइमरी में पढ़े।
हो सकता है कि हमारी बातें शत प्रतिशत सही ना हो लेकिन यही है भारतीय सरकारी विद्यालयों की सच्चाई। इसमें सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक की सभी सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय के अध्यापकों के बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के लिए बाध्य ना किया जाए।
इसका दूसरा कारण यह भी है कि प्राइमरी अध्यापकों से ही सरकार कभी वोटिंग तो कभी जनगणना ना जाने क्या से क्या कार करा रही है अब तो मिड डे मील ने तो विद्यालय को आश्रम बना दिया ।
जहां बच्चे मुफ्त का भंडारा खाने आते हैं। यह एक प्रकार से सरकारी कुटीर चाल है जिसे गरीबों के बच्चों को उनके शिक्षा के अधिकार का हनन किया जाता है ।दूसरी और प्राइवेट विद्यालय हैं जहां अध्यापकों से तो खूब काम लिया जाता लेकिन वेतन के रूप में कुछ पैसे देकर टरका दिया जाता है।
यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था की विडंबना ही कही जाएगी कि प्राइवेट सरस्वती शिशु मंदिर या पब्लिक स्कूल के अध्यापकों के दुख को सुना जाए तो हृदय कांप जाएगा। यह बच्चों को ज्ञान देने वाले शिक्षकों को अपनी जरूरतों को पूरा करने तक के लिए जब पैसे नहीं है तो वह घर परिवार की आवश्यकता की पूर्ति कैसे करेगा?
ऐसे अध्यापकों को सारी जिंदगी कलम घिस्ते घिस्ते खत्म हो जाती है लेकिन अंत में लगता है कि जहां से शुरू किया था जिंदगी अभी वही की वही है। ऐसी स्थिति भारत के कुछ विद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो सभी प्राइवेट विद्यालयों की है। जहां का शिक्षक अपनी आवश्यकता की पूर्ति अपने वेतन से कभी नहीं कर सकता।
सरकार को चाहिए कि प्राइवेट पब्लिक स्कूलों के अध्यापकों के लिए भी वेतन की एक स्कीम तैयार की जाए। जिस प्रकार से मजदूरों के लिए भी एक न्यूनतम मजदूरी निर्धारित है अध्यापकों को तो उससे भी कम गई गुजरी स्थित में वेतन मिल रहा है। आर्थिक रूप से कमजोर अध्यापक बच्चों को कैसे श्रेष्ठ शिक्षा दे सकता है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है।
शेष अगले अंक में
नोट – इस आत्मकथा में जो भी बातें कहीं गई है वह सार्वजनिक हैं। कोई भी शिक्षक व्यक्तिगत रूप से ना लें। शिक्षक समाज का दर्पण है। यदि कोई शिक्षक न्यूनतम वेतन में भी शिक्षण कार्य श्रेष्ठ तरीके से करा रहा है उससे महान इस दुनिया में कोई व्यक्ति नहीं हो सकता। इस देश की विडंबना ही कही जाएगी कि आज भी हजारों अध्यापक दैनिक मजदूरों से भी कम वेतन में शिक्षण कार्य करने को मजबूर हैं।
भाग : 4
प्राथमिक शिक्षण किसी भी व्यक्ति को जीवन निर्माण की नींव तैयार करता है। नींव जितनी कमजोर होगी तो भवन का निर्माण कैसे मजबूती से हो सकेगा? भारत सरकार उच्च शिक्षा पर तो अत्यधिक जोर दे रही है परंतु प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षण का स्तर इतना घटिया दर्जे का है कि उसे भुक्तभोगी ही समझ सकता है।
विद्यालयों का कोई नियम ही नहीं होता । यदि ऐसा विद्यालय पिछड़ी तपको में है तो उसकी हालत और भी खस्ताहाल होगी। एक तो छोटे-छोटे बच्चे ज्यादा विरोध तो कर नहीं पाते हैं इसलिए ऐसे विद्यालयों में अध्यापकों की और मौज हो जाती है।
यही प्राथमिक कक्षाओं में जो बच्चे सताए जाते हैं वही बड़े होने पर अध्यापकों से जमकर बदला लेते हैं । ऐसे में बच्चों को यही कहा जाता है कि वह नालायक है, जो किसी की नहीं सुनते परंतु अध्यापकों को नहीं लगता कि इसकी जड़ कहीं न कहीं हमने ही बचपन में बोई थी जो आज जाकर फल फूल रही हैं। मैंने हैदर पब्लिक स्कूल, मेरठ में अध्ययन के दौरान अनुभव किया कि बड़े बच्चों को कितना भी मारा जाए वह किसी की नहीं सुनते।
शिक्षा पद्धति की यह बहुत बड़ी खामी है कि बच्चों को आज भी डंडे के बल पर हांका जा रहा है । कुछ अध्यापक तो बच्चों को पीटना अपना अधिकार समझते हैं। हाथ से तो ज्यादा नहीं मारते हैं क्योंकि चोट आ जाने का डर है परंतु मारने के लिए विशेष तौर से डंडा रखते हैं।
शहरी क्षेत्र की अपेक्षा गवई क्षेत्र में ज्यादा बच्चों की पिटाई होती है। उन्हें ऐसा मारा जाता है जैसे जानवरों को भी नहीं मारा जाता होगा। जो विद्यालय दादा टाइप के हैं उनकी तो पूछो ही मत। ऐसे विद्यालय में छात्र कितनी भी शिकायत करता रहे परंतु उसकी कोई नहीं सुनता ।यदि माता-पिता से कहता भी है, तो यही कहकर अभिभावक अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि तेरी ही गलती रही होगी और बच्चों को ही ऊपर से डांटते हैं ।
मैंने अनुभव किया है कि जो अध्यापक अपने घर परिवार के समस्याओं से ज्यादा परेशान होते हैं वही बच्चों को खूब मारते हैं। घर का सारा गुस्सा बच्चों पर उतार देते है।
मेरी प्राइमरी कक्षा के कुछ अध्यापक बच्चों को मारने में बहुत एक्सपर्ट थे । सभी का नाम तो नहीं पता लेकिन चेहरे जरूर याद है। एक थे- सत्यम मास्टर । गुस्सा आने पर पूछो ही मत । ऐसी धुनाई करते थे कि बच्चों की जान लेकर ही छोड़ते थे। दूसरे थे पंडित जी (नाम याद नहीं ) वह मारते तो कम थे , लेकिन जब पारा चढ़ जाता था तो वह भी आगे पीछे नहीं देखते थे और पिल पड़ते थे फट्टा लेकर । फिर बिना बच्चों का कचूमर निकल नहीं छोड़ते थे।
एक हरिजन जाति के गुरुजी थे ।वह एक दिन वह हम सब को समझाने लगे कि -“देखो बच्चों! सभी का शरीर चमड़ी से ही तो बना है इसलिए सभी चमार हैं । ना कोई ऊंचा है ना नीचा बल्कि परमात्मा ने सभी को सामान बनाकर ही इस दुनिया में भेजा है। इसलिए भेदभाव हमें नहीं कभी किसी से नहीं करना चाहिए। भेदभाव बरतना परमात्मा का अपमान करना है।
निम्न जाति का होने के कारण अक्सर उनका मजाक उड़ाया जाता लेकिन वह सबको नजर अंदाज करके अपने काम में लगे रहते । मानवीय एकता का पाठ पढ़ाना जैसे उनका एकमात्र उद्देश्य हो।
बड़े होने पर अनुभव करता हूं कि उनकी मार में भी प्रेम छुपा होता था। माता-पिता एवं गुरुजनों की मार जो व्यक्ति सह लेता है वही जीवन में एक महान इंसान बनता है।
आज हमारे सभी प्राथमिक विद्यालयों के अधिकांश शिक्षक नहीं है लेकिन उनके डांट डपट मार का प्रभाव है कि हम जीवन की सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचा दिया ।
विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का विशेष महत्व है। अनुशासित विद्यार्थी जीवन की सफलता प्राप्त कर सकता है।योग का प्राथमिक सूत्र भी अनुशासन है। जिस बच्चे को बचपन में अनुशासन बद्ध रखा जाता है उसका प्रभाव उसके संपूर्ण जीवन पर पड़ता है। अनुशासन के बिना जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता पाना मुश्किल है।
इसके बाद हमारा नाम कक्षा चार में अशर्फीलाल जायसवाल जूनियर हाई स्कूल में जो बाबूगंज बाजार के अंत में स्थित है लिखाया गया । वास्तव में देखा जाए हमारी शिक्षा का श्री गणेश यहीं से हुआ क्योंकि गांव के प्राथमिक विद्यालय में एक प्रकार से मेरा समय ही बर्बाद हुआ। मुझे ठीक से अक्षर ज्ञान भी नहीं हो पाया था।
यहां के एक अध्यापक थे श्री राम बहादुर गुरुजी जो की गणित पढ़ाते थे। वह गणित को खेल-खेल में ही समझा देते थे। उनका वरद हस्त आज भी हमें प्राप्त हो रहा है । जब भी घर जाता हूं तो उनसे जरूर मिलने का प्रयास करता हूं । वे ऐसी बातचीत करते हैं जैसे एक मित्र हों । वह हमारे एक अच्छे मार्गदर्शक की भांति थे । कोरोना काल में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन उन्होंने जो प्रेम अपनत्व दिया वह आज भी हृदय की गहराइयों में अनुभव करता हूं।
राम सिंह गुरु जी संस्कृत पढ़ाया करते थे । वह एक छोटी सी छड़ी रखते थे ।नहीं आने पर पिटाई कर देते थे । मैं संस्कृत में बहुत कमजोर था। श्लोक वगैरा मुझे रटा नहीं जाते थे इसलिए अक्सर मैं पीट जाता था। लेकिन वह संस्कृत बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे ।
वह कहते हैं -“हमें संस्कृत भाषा का ज्ञान अवश्य करना चाहिए। जितने भी हमारे प्राचीन साहित्य हैं सभी संस्कृत में ही लिखे गए हैं ।मंत्र भी सभी संस्कृत में है। यदि तुम लोग संस्कृत नहीं पढ़े हुए हैं तो कैसे अपने प्राचीन धरोहर को बचा सकोगे।
बेटा जिस देश के नागरिक को अपनी संस्कृति सभ्यता से प्रेम नहीं होता उसे नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता । हमें संस्कृत पढ़ने लिखने एवं बोलने पर गर्व होना चाहिए।
आज सोचता हूं कि कितनी सत्य थी उनकी बात । आज पछताता हूं की कास अगर अच्छी तरह से संस्कृत पढ़ा होता तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सुर लय ताल के साथ वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर पाता। गीता पाठ थोड़ा-थोड़ा कर लेता हूं।
महेंद्र प्रताप गुरु जी भूगोल पढ़ाते थे । वे स्कूल से सात आठ किलोमीटर साइकिल से आते थे। मैंने देखा कि आज भी साइकिल से ही आते हैं । वहीं के अधिकांश अध्यापक अब रिटायर हो चुके हैं ।
प्रधानाचार्य जी बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे । वे जीवन की अंतिम समय तक प्रधानाचार्य रहे ।कुछ वर्षों पूर्व उनका देहांत हो जाने के पश्चात राम जियावन गुरु जी प्रधानाचार्य बने , उसके पश्चात राम बहादुर मास्टर साहब प्रधानाचार्य बने, उसके बाद राम सिंह मास्टर साहब प्रधानाचार्य बने वर्तमान समय में सभी अध्यापक रिटायर्ड हो चुके हैं।
प्रधानाचार्य जी द्वारा बताया गया अंधविश्वासों के प्रति एक किस्सा आज भी याद आता है ।वह एक बार बच्चों से कहने लगे कि -“आज मैं भूत प्रेत पैदा करने की दवाई बताता हूं ।”
फिर वह कहने लगे -“देखो जिस रास्ते से स्त्रियां प्रातः काल शौच जाती हैं उसी चौराहे पर तुम एक लोटा में जल लेकर उसमें फूल माला डाल दो और वहीं पर जल डालकर ऊपर से फूल चढ़ा दो माला चढ़ा दो नींबू काट दो तो तुम देखोगे कि सुबह 10:20 औरतें भूत से ग्रसित मिलेंगी ।जिस भी स्त्री का पैर उस पर पड़ेगा वह बीमार हो जाएगी।”
उन्होंने बताया कि ऐसा इसलिए होता है कि -“उनके मन में एक भय बैठ जाता है कि कोई निकारी कर दिया है ।इस डर से वह बीमार पड़ जाती हैं।”
उन्होंने आगे बताया कि -“भूत प्रेत नाम की कोई चीज नहीं होती है । जब कोई व्यक्ति वहां से निकलता है तो उसके मन-मस्तिष्क भय व्याप्त हो जाता है। यदि बच्चों को बचपन से ही इस प्रकार के वहम से दूर रखा जाए तो वह एक स्वस्थ नागरिक बन सकते हैं।
विद्यालय में शौकत अली गुरुजी थे जो की बहुत अच्छा पढ़ाते थे ।मुस्लिम होते हुए भी वे हनुमान जी के भक्त हैं और हर रविवार को अपने घर में छुआ मंतर भी करते हैं ।जिसमें बहुत सी स्त्री पुरुष उनके यहां भूत प्रेत उतारने के लिए आती हैं ।ऐसा वे बहुत सालों से कर रहे हैं।
विद्यालय में एक चपरासी राम आधार यादव जी थे जो की अंतिम समय तक वहां चपरासी थे ।वह भी एक बहुत दिल नेक इंसान थे।
इस विद्यालय को कोई सरकारी अनुदान नहीं मिलता था। प्रबंधक भी कभी विद्यालय के विकास के बारे में नहीं सोचा। यही कारण रहा है कि जिस प्रकार से पिछले 25- 30 वर्षों पूर्व विद्यालय था आज भी उसी हालत में है । एक भी कमरे का निर्माण नहीं हो सका है आज तक।
सच्चे अर्थों में देखा जाए तो इसे कहते हैं तपस्वी का जीवन। जीना । घर परिवार छोड़कर घने जंगल में तपस्या करने की अपेक्षा अभाव में रहते हुए बच्चों को जीवन निर्माण की कला सीखलाना क्या किसी तपस्या से कम है।
एक दिन राम जियावन गुरुजी चर्चा करते हुए बताया कि -“मेरी पत्नी रोज लड़ती की कौन सा स्कूल में फूल चुवत है जो तुम छोड़ नहीं देते । सारी जिंदगी कलम घिस्ते बीत गए। सर के सारे बाल सफेद हो गए लेकिन क्या मिला तुम्हें ।तो पढ़ाने का नशा सवार है ।कभी इन बाल बच्चों का भी ख्याल रखा होता।”
उन्होंने बताया कि घर में खेती बाड़ी का काम कर लेने के कारण जिंदगी कट जा रही थी। हालांकि आज जाकर विद्यालय को सरकारी अनुदान मिलने लगा है परंतु सारी जवानी तो खत्म हो गए।
आज की व्यावसायिक विद्यालयों को सीख लेनी चाहिए कि दुनिया में आज भी त्यागी तपस्वी शिक्षक हैं जिनकी बदौलत शिक्षा की गरिमा बनी हुई है।
भाग-5
हमने गांव में रहते हुए अनुभव किया कि महिलाएं पुरुष की अपेक्षा ज्यादा व्रत- उपवास रखती हैं । मेरी मां भी कई वर्षों से मंगलवार रखती रहीं । इसके अलावा पूर्णिमा ,एकादशी, अमावस , नवरात्रि आदि भी वह बहुत नियम से रखती।
अक्सर वह दिन भर भूखी रह जाती है। दिनभर काम भी घर के सारे करतीं ।यदि बड़े भैया फल नहीं ले तो चाय पीकर ही सो जाती परंतु किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं करती।
मां के संस्कारों का ही प्रभाव है कि हम सभी भाई-बहन कोई ना कोई व्रत उपवास करते रहे हैं। सद्गुरु ओशो कहते हैं कि मनुष्य को समृद्धशाली होना चाहिए । जिस व्यक्ति के मन में धन के उपभोग के प्रति वितृष्णा उत्पन्न नहीं हो जाती है उसे कोई महान वस्तु साधना उपासना से नहीं मिलने वाली। वह भगवान से मांगेगा भी तो धन दौलत बेटा बेटी ही मांगेगा।
मां भी भगवान के सामने यही कामना करती कि घर में सुख शांति हो, आर्थिक समृद्धि हो, घर में आर्थिक अभाव सदैव बना रहा। घर में कमाई का कोई बड़ा जरिया नहीं था । रोज कुआं खोदो और रोज पानी पियो जैसी स्थिति रही ।
भैया जो अनाज खरीदते थे उसे तुरंत बेच देते थे। उसी से जो भी पैसा मिला बाजार से सब्जी वगैरह लाने में खर्च हो जाते थे । भैया का बैंक में खाता खुलवाने के पश्चात भी उसमें एक पैसा नहीं जमा कर सके आखिर जब बचे तब तो जमा करें ना।
बचपन से गरीबी क्या होती है इसका अनुभव मैं बहुत नजदीक से किया। मेरा घर मिट्टी एवं खपरैल का बना बहुत पुराना था । बरसात में पानी टपकने से घर पानी से भर जाता। कभी-कभी दीवारें फट जाती ।एक दिन बरसात में तो घर की दीवार का पिछला हिस्सा गिर गया सारा पानी पूरे घर में भर गया। किसी तरह बरसात रुकने पर पानी को बाहर फेंका जा सका।
घर की दीवार क्या गिरना शुरू हुई कि धीरे-धीरे पूरा घर ही गिर गया । घर में तो बचत के कोई पैसे थे नहीं की अपना नया घर बनाया जा सके इसीलिए भैया ने एक बास को काटकर प्लास्टिक के पनियों द्वारा छोटी सी मढ़िया बना दिया ।
अब वही परिवार के सारे लोगों के आराम गाह बन गए। प्रभु की क्या लीला है वही जाने। कहते हैं विपत्ति जब आती है तो चारों ओर से आती है । इसी बीच मझले भैया ने बैंक से कुछ कर्ज ले लिया था । कर्ज लेते समय उन्होंने किसी को घर में नहीं बताया।
पैसे को जहां भी लगाया सारा का सारा डूब गया। कुछ लोगों ने ले लिया तो दिया ही नहीं। उन्होंने कर्ज की कोई किस्त भी नहीं भरी थी । उसकी जब इंक्वारी आए तो घर की इज्जत बची रहे भैया को दिक्कत ना हो खेत को गिरवी रखकर सारे कर्ज चुका दिए गए।
खेत का एक हिस्सा मेरे हरिद्वार में अध्ययन के दौरान पैसा ना रहने पर रखा जा चुका था ।अब तो सारा खेती गिरवी हो चुका था। खेत था तो इस बात की चिंता नहीं करनी पड़ती थी कि क्या खाया जाएगा। खाने की चीज खेत में उगा ली जाती थीं ।साथ ही मां भाभी लोग उसी में व्यस्त रहती थीं।
गरीब आदमी हर तरफ से मारा जाता है।
अमीरों को कुछ नहीं कहता। लाखों करोड़ों करोड़ रुपए अमीर डकार कर विदेश भाग जाते हैं और सरकारें भी अमीरों का ही साथ देते हैं । एक प्रकार से देखा जाए तो सरकारें अमीरों की गुलाम होती हैं। उन्हें डिफॉल्ट दिखाकर अधिकांश उनका कर्ज माफ भी कर दिया जाता है।
वही गरीबों की जान की आफत आ जाती है । यही कारण है कि बहुत से किसान , मजदूर आदि कृषि में घाटा लगने पर आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में मां के धैर्य को दाद देनी पड़ेगी। किस प्रकार से इतनी विपरीत परिस्थितियों के बीच परिवार को चला रही थी यह उन्हीं से सीखा जा सकता है।
मुझे लगता है कि मां जरूर पूर्व जन्मों की कोई दिव्य आत्मा रही है। उनका तो संपूर्ण जीवन ही जैसे दुखों की कहानी है । जिंदगी का सुख क्या होता है जैसे उन्होंने जाना ही नहीं। पिताजी की मृत्यु के बाद उनको सुख की एक रोटी कभी नहीं मिल सकीं।
अब सोचिए जिसका सारा खेत गिरवी पड़ा हो, घर गिर गया हो, मढ़ैया बनाकर उसमें वह यायावर की तरह सरण लिया हो उसकी सुख क्या मिल सकता है? कभी-कभी तो उन्हें घर पर अकेले रह जाना पड़ता था । मन में आया तो बना कर खा लिया नहीं तो वैसे ही सो गई।
प्रभु का शुक्रगुजार है कि घर के पास ही प्राथमिक विद्यालय है। जब कोई मेहमान आता तो उन्हें स्कूल में ही रोकना पड़ता। कभी-कभी तो नए मेहमान आना चाहते हैं उन्हें घर पर बुलाने में शर्म सी महसूस होती है ।उन्हें कैसे बुलाए।
अधिकांश लोगों को कोई न कोई बहाना बता कर टाल दिया जाता। बच्चे भी बड़े हो रहे थे । बड़े भैया जहां रहते थे वहां पत्थर तोड़ने वाले बाहर के घुमंतू लोग रहते थे। वह दिन रात लड़ते झगड़ते थे ।गंदी-गंदी गाली भी बकते थे। उनके बच्चे भी उसी प्रकार हैं महिलाएं भी नशेड़ी है पुरुष तो नशा करते ही हैं।
उस समय बड़े भैया की बेटी की शादी नहीं हुई थी। भैया को बेटी की शादी की चिंता सताए जा रहे थी। भगवान का शुक्रगुजार है क्या एक अच्छा रिश्ता मिला और बेटी की शादी एक अच्छे परिवार में हो गई। जो आज एक खुशहाल जिंदगी जी रही हैं।
भाग-6
मेरे गांव में मेरा सबसे प्रिय दोस्त धर्मेंद्र था । जो केवल मुझसे दो दिन ही बड़ा है। वह रविवार को पैदा हुआ तो हम मंगलवार को। उसके घर वाले से मेरे घर वालों में खूब पटती है। मेरी मां और उसकी मां बहुत अच्छी सहेली भी हैं । दोनों सहेलियां भी अक्सर समय मिलने पर अपने सुख-दुख की बातें करने लगते हैं। वर्तमान समय में दोनों की माताएं स्वर्गवासी हो चुकी है। अब उनकी केवल स्मृति सेष ही है।
अक्सर उसके घर में ही मैं पढ़ता था और कभी-कभी तो वही सो भी जाता था । मेरे घर में बिजली नहीं थी । मां बिजली का तार नहीं खींचते देती थी।वह कहती थी कि कच्चे घरों में करंट उतरने का डर रहता है । बचपन से ही मैं किताबी कीड़ा था जो कि आज भी हूं । किताबों से मित्रता हमारे बचपन से ही रही ।
मेरी बहन शकुंतला दीदी के घर में बाल योगेश्वर जी महाराज की लिखित किताबें एवं मासिक पत्रिका ‘शब्द ब्रह्म’ आती थी। जिसे मैं छठवीं आठवीं कक्षा से ही पढ़ता रहा हूं । उनकी बातें मुझे बहुत ही अच्छी लगती हैं।
महाराज जी का मुख्य संदेश है कि ज्ञान तुम्हें कहीं बाहर नहीं मिलेगा जितना तुम बाहरी दुनिया में भटकोगे उतना ही उलझ और जाओगे। सच्चा ज्ञान पाने के लिए तुम्हें हृदय के द्वार को खोलना पड़ेगा। पानी पानी कहने से प्यास नहीं बुझेगी बल्कि पानी पीने से बुझेगी ।
तुम्हें इतनी प्यास होनी चाहिए कि बस पानी का ख्याल रह जाए । यह ना रहे की बर्तन साफ है कि जूठ ,किस जाति का है ,बस पानी पीने की तड़प हो यदि हृदय से इतनी तड़प होगी तो अवश्य पानी बहुत मीठा लगेगा इसी प्रकार ज्ञान पाने की तड़प होनी चाहिए।
महाराज जी बहुत ही सादे कपड़ों में रहते हैं। कभी भी उन्होंने गेरूआ वस्त्र धारण नहीं किया । उनके बड़े भाई हैं सतपाल जी महाराज सभी संत हैं। सभी अपना अपना प्रवचन देते हैं। बचपन में महाराज जी पर बहुत श्रद्धा थी ।परंतु बाद में देखा कि सब दुकानदारी है । आखिर सभी भाइयों को महाराज बनने की क्या जरूरत थी।
लेकिन महाराज गिरी का धंधा भी भारत में बहुत चोखा है। जिसको थोड़ा बोलना आता है। जनता को बरगलाने की कला आती है ।वह बन जाता है महाराज । विभिन्न प्रचार के साधन उपलब्ध होने से बाबागिरी बहुत फलने फूलने लगी है ।
सुबह यदि किसी चैनल को खोलो तो कोई ना कोई आपके भविष्य का निर्णय करते जरूर दिखेगा की ऐसा करो तो यह हो जाएगा । आज का दिन ऐसा होगा वैसा होगा बस केवल दुकानदारी ही कर रहे हैं। जिनको अपने ही भविष्य का नहीं पता वे संसार का भविष्य बताने लगते हैं।
आप फिर लौट कर चलते हैं गांव की ओर। मैं अपने गांव में बचपन से ही है अच्छा बच्चा माना जाता रहा हूं क्योंकि मैं शांत प्रवृत्ति का रहा हूं। कभी ज्यादा किसी से लड़ाई झगड़े में भाग नहीं लेता था । कभी-कभी मेरे सीधेपन का गलत फायदा उठाया जाता रहा है जो कि आज भी लोग नहीं चूकते।
मेरी मां तो कहती है कि मुझसे तो अच्छे अनपढ़ गवार हैं देखो कितने चालाक हैं । क्या मजाल उनको कोई वस्तु तुम्हें दें दें।लेकिन एक तू है कि घर की चीज भी लुटाया फिरता है। मुझे बचपन से ही फकीरीपन की आदत पड़ गई थी । कोई भी वस्तु खाने पीने की यदि घर के लिए लाना चाहे परंतु रास्ते में बच्चों की टोली मिल जाए तो घर के लिए बचाना मुश्किल होता है।
यही कारण है कि आज भी मैं एक भी पैसा नहीं बचा सका । मेरा बैंक बैलेंस शून्य है । बैंक में एक बार खाता खोला भी था परंतु उसमें पैसा नहीं डालने के कारण लगता है बंद हो गया है क्योंकि वर्षो से उसको पता भी नहीं किया ।
मेरे पिताजी दो भाई थे लेकिन उनके छोटे भाई का देहांत बिना बाल बच्चों के ही हो गया था पड़ोस के बद्री चाचा जी के एक लड़का एवं एक लड़की है जिनके दो बच्चों की शादी हो गई है। लड़के का नाम राजेंद्र प्रसाद जो मुझे 6 –7 वर्ष छोटा है उसके चार लड़के हैं।
हमारे दूसरे पड़ोसी के तीन लड़के एवं दो लड़कियां हैं । उनके पिताजी बचपन में गुजर गए थे सभी की शादी विवाह हो चुकी है। पड़ोस के गुलाब भाई की मां को सफेद दाग था। जिसके कारण शादी विवाह में दिक्कते होती थीं ।आज भी सफेद दाग को समाज में अच्छा नहीं माना जाता है। जिसके घर में किसी को सफेद दाग की बीमारी हो जाती है उसकी कई कई पीढियां को फजीहत उठाने पड़ती है।
मेरा परिवार उनसे आनुवंशिक रूप से भी अलग होते हुए भी कई बार शादी विवाह में दिक्कतें आए मेरे मजले भईया की शादी पक्की होने के बाद भी टूट गई छोटी-मोटी दिक्कतें आती रहे।
गांव में वैसे सभी मिलकर रहते हैं। मेरे गांव में 90 के दशक तक कोई विद्यालय नहीं था। इसलिए अधिकांश बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते थे । इस्लामिक बस्ती में तो शिक्षा का स्तर बहुत ही कमजोर है। पूरी मुस्लिम बस्ती में एक दो लोग एम.ए. किए हैं ।जो कि शहर में रहते हैं लेकिन गांव में स्कूल खुलने से उनके भी बच्चे पढ़ने लगे हैं।
अब तो शिक्षा के प्रति जागरूकता बड़ी हैं। हमारे क्षेत्र में तीन चार डिग्री कॉलेज भी खुल गए हैं । छोटे मझले विद्यालयों की कमी ही नहीं है । परंतु दुख इस बात का है कि शिक्षा तो बढ़ रही है लेकिन संस्कार खत्म हो रहे हैं। जिसका परिणाम समाज में उडनडता के रूप में दिखलाइ पड़ रहा है।
भाग-7
मेरे पड़ोस में एक सालिकराम चाचा हैं जो कि अपने समय के कक्षा 8 तक पढ़े हैं। वे अक्सर तर्क करते रहते हैं कि आज की पढ़ाई भी कोई पढ़ाई है। ना आज का इंटर, बी ए, ना हमारे जमाने का जूनियर हाई स्कूल । विशेष कर बच्चों से वें गणित के कठ बैठी सवाल पूछते यह सवाल बड़े उलझन भरें होते थे । जिनका किताबों से कोई सरोकार नहीं होता।
यदि आप उनके सवालों को बता लिए तो ठीक नहीं तो कहते देख लिया ना, चलो हम तुम्हें बताते हैं और फिर उनकी गणित निकल आती । उनको गांव में पंडित भी कहते हैं। वैसे वो पटेल है।
वह किसी पंडित के यहां पत्रा पूछने नहीं जाते बल्कि स्वयं देखते हैं । पूरे गांव के लोग उनसे शाइत , शुभ दिन , वार भी पूछने आते हैं । हमारी बस्ती में पंडित नहीं रहते इसलिए गांव की माताएं बहने उन्हीं से पूछ लेती हैं।
वैसे वह बहुत अच्छे इंसान हैं। हमारी उनसे बहुत पटती भी है। वे कर्म पर विश्वास रखने वाले इंसान हैं । आज भी लगभग 80 वर्ष के होने के पश्चात भी बाजार से सब्जी बेचकर अपना खर्च स्वयं चलाते हैं।
मेरे पड़ोस में लाला भाई और रमाकांत भाई हैं । दोनों में खूब पटती है परंतु दोनों लोग जमकर शराब पीने वाले रहे । लेकिन बचपन में मैं देखता था कि वह बहुत अदब के साथ बोलते थे। कभी ज्यादा गाली गलौज नहीं करते थे परंतु लाला भाई अपनी पत्नी को गुस्सा चढ़ने पर मार दिया करते थे । उनके बच्चे छोटे थे जिससे ज्यादा विरोध नहीं कर पाते थे।
एक बार उनका एक्सीडेंट हो गया जिससे उनके शरीर में बहुत गहरी चोट आई। लंबे समय तक प्लास्टर चढ़ा रहा परंतु पिछले कुछ सालों पूर्व उनका देहांत हो गया। इसी प्रकार रमाकांत भाई को भी पेट में जल भर जाने के कारण आज वह भी जीवित नहीं बचे।
मैने पड़ोस में देखा था कि किसी की चिट्ठी आतीं थी तो उन्हें पढ़वाने ले जाते थे। मेरे बड़े भैया जब कमाने के लिए जाते थे तो अम्मा चिट्ठी उन्हीं से लिखवाती थी और चिट्ठी आने पर अक्सर उन्हीं से पढ़वाती थी।
भाग्य के थपेड़ों ने उनको आजीवन ठोकर मारता रहा। कभी ठेकेदारी, कभी पुलिस में नौकरी परंतु कहीं स्थाई नहीं हो सके। शराब ने उनका जीवन बर्बाद कर दिया । शराब है ही ऐसी डायन जो बड़े-बड़े की बुद्धि को नष्ट कर देती है।
बचपन में मैं मिट्टी के खिलौने खूब बनाता था । तालाब से मिट्टी लाकर उससे मोटर गाड़ी, चिड़िया, हाथी, तोता, गणेश, लक्ष्मी आदि बनाया करता था। दिवाली में छोटा सा घर बनाता था। उसे अच्छी प्रकार से सजाता था । कुछ गांव के उजड्ड बच्चे घरों के अंदर पटाखे फोड़ देते थे। जिससे घर टूट कर तहस-नहस हो जाता था। मैं उन्हें खूब बिगड़ता था। लेकिन मां लड़ने से मना करती।
जो सुख और आनंद हमें मिट्टी के खिलौने एवं घर बनाने में आता था वह सुख महगे -महगे खिलौने से हमें नहीं प्राप्त हो सकेगा। अपने हाथों द्वारा बनाए वस्तु का आनंद ही कुछ और होता है उसका आनंद बनाने वाला ही जानता है।
अब तो शहरों के डॉक्टर भी बंगले में रहने वाले बच्चों को बीमार होने पर हिदायत के तौर पर कहने लगे हैं कि यदि आपको अपने बच्चों को स्वस्थ रखना है तो उसे मिट्टी में खेलने दीजिए।
मिट्टी में खेलने से उसकी इम्युनिटी पावर बढ़ेगी जिससे वह अंदर से मजबूत होगा । देखा गया है कि ज्यादा सुख सुविधा में पलने वाले बच्चे अत्याधिक बीमार होते हैं । जबकि खुले आसमान में नंगे बदन टहलने वाले गरीब घरों के बच्चे उतना बीमार नहीं होते । ऐसे मां-बाप जो बच्चों को खुली हवा में प्राकृतिक रूप से खेलने नहीं देते वें उनके बहुत बड़े दुश्मन है ।बच्चों का स्वस्थ विकास प्रकृति के सानिध्य में ही होता है।
बचपन में बिताए मस्ती के छणों को यदि एक-एक कर लिखने लगू तो उसके लिए अलग ग्रंथ ही बनाना पड़ेगा। घर में सभी मुझे बाबा कहकर बुलाते थे। जिससे लगता है कहीं ना कहीं बाबापन का संस्कार हमारे मन में बहुत गहरा गया है ।
गांव में गुल्ली -डंडा खूब पहले खेला जाता रहा। प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी ‘गुल्ली डंडा’ प्रसिद्ध है उसे कमरे में बैठकर वीडियो गेम खेलने वाले बच्चों से उसकी तुलना नहीं की जा सकती।
इन खेलों से जहां शरीर स्वस्थ और मजबूत होता था वही मन में प्रसन्नता आती है । कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही शांत मन का वास होता है । परंतु कमरे में बैठकर वीडियो गेम खेलने या टीवी देखने से जहां एक ओर शरीर बीमार हो जाता है। वहीं सर में तनाव बढ़ जाता है । मन बोझिल व गुस्सैल हो जाता है। टीवी पर अश्लील चित्र देखने से भाव में उत्तेजक विचार आने लगते हैं।
यही कारण है कि आज भी युवा पीढ़ी में हताशा निराशा के लक्षण स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। बच्चों के बीच जो आज इतनी हिंसा बढ़ रहे हैं । उसमें से एक बहुत बड़ा कारण बच्चों का हिंसक फिल्में देखना, वीडियो गेम खेलना, गंदी नेट की साइड देखना है । जाने अनजाने कितना उनका इससे नुकसान होगा यह वे नहीं जानते।
मेरे गांव में राम अचल जी जो की सर्व समाज जूनियर हाई स्कूल में प्रधानाचार्य थे । उनसे मेरी खूब पटती थी । वैसे हमारे सामान उनके बच्चे थे। परंतु हम लोग मित्रों जैसे ही बातें करते थे। उन्हें अपनी ससुराल में जायज़ाद मिले हुए थे इसलिए वह अक्सर वही रहते थे।
बाद में उन्हें हृदय रोग हो गया जिससे वे अब अपने गांव में आकर रहने लगे थे ।वह इतने सरल इंसान थे कि बाद में उन्होंने मुझसे ही गुरु दीक्षा लिया । इस प्रकार से हमारे गुरु भाई बन गए।
वे अपने जीवन से असंतुष्ट थे।
इसका एक प्रमुख कारण था कि उनके पिताजी ने उनकी शादी धन के लालच में ऐसी लड़की से कर दिया था जिसको कोई भाई नहीं था । उन्हें ससुराल में रहना रास नहीं आया । जिसके कारण बड़े-बड़े दाढ़ी बाल बढ़ाकर बाबा जी की तरह रहने लगे थे । इसी गम ने उन्हें हृदय रोगी बना दिया।
बच्चों को पढ़ाने का उन्हें अच्छा अनुभव था। एक दिन हृदयाघात हो जाने के कारण अचानक उनकी मृत्यु हो गई । उनके मरने के बाद में मुझे गांव जैसे सूना सूना सा लगने लगा है । मैं गांव में जाता भी हूं तो थोड़ी देर टहल घूम कर लौट आता हूं।
उनके मरने के बाद हमने उनकी जीवनी भी लिखी लेकिन उसकी छपाई के लिए ना तो उनके भाई तैयार हुए ,ना ही बीवी बच्चे। जिस स्कूल में प्रधानाचार्य थे उन्होंने भी पल्ला झाड़ लिया। दुनिया कितनी खुदगर्ज है इसका आभास मुझे हुआ ।
उन लोगों को लग रहा था कि इसमें मेरा कोई स्वार्थ है ।धीरे-धीरे वर्षों प्रयास करने के पश्चात भी उसे छपा नहीं सका। लेकिन मैं उसे छपा करके ही रहूंगा । वह पुस्तक मेरी मित्रता की मिसाल होगी।
भाग-8
मैंने हाईस्कूल सीताराम सिंह इंटर कॉलेज बाबूगंज बाजार से किया। सीताराम सिंह जी आटा गांव के ठाकुर परिवार के थे। पहले विद्यालय का नाम महाराणा प्रताप इंटर कॉलेज था जो कि उनकी मृत्यु के पश्चात बदलकर उनके नाम पर कर दिया गया । वे आजीवन प्रधानाचार्य रहे । लेकिन जब मैं पढ़ रहा था तो श्री वंश बहादुर सिंह प्रधानाचार्य थे। ठाकुर परिवार के होने के कारण किसी से डरते नहीं थे । विद्यालय में बहुत सख्त पहरा था।
किसी की गलती होने पर फट्टो से पिटाई करते थे । कभी कभी तो घंटों मुर्गा बना कर धूप में खड़ा करवा देते और उस पर ईंट रखवा देते थे। कोई ज्यादा इधर-उधर करता तो पीठ पर फट्टो से सोटे लगाते थे। मैं उनसे बहुत डरता था । उनसे बात करते हुए थर-थर कांपने लगता था।
परंतु अनुशासन को डंडे के बल पर नहीं सिखाया जा सकता। भयभीत बालक और गलतियां करता है । मार खा खा कर कुछ दोस्त पक्के हो गए थे । जिन्हें कितना भी मारा जाए कुछ असर ही नहीं होता था।
किसी लड़के को यदि लड़की से बातचीत करते देख ले तो पूछो ही मत। लड़कियां तो बच जाती थी । लेकिन लड़कों की तो जान आफत में पड़ जाती थीं । उसको मार- मार कर हड्डी पसली एक कर देते थे।
हाई स्कूल की कक्षा में आते-आते लड़के लड़कियों में किशोरावस्था आ जाती है। विपरीत लिंग के प्रति सहज में आकर्षण बढ़ने लगता है । लड़कों और लड़कियां में सहज में आकर्षण बढ़ने लगता है। लड़के तो अपनी इच्छाएं व्यक्त कर देते थे लेकिन लज्जाशील स्वभाव के कारण लड़कियां व्यक्त नहीं कर पाती थी।
बाबूगंज बाजार का एकमात्र इंटर कॉलेज था इसलिए छात्राएं भी बड़ी मात्रा में पढ़ने आती थी । लड़के तो और भी जगह पढ़ने चले जाया करते थे । सह शिक्षा के अपने लाभ भी हैं हानियां भी हैं। मेरी समझ से प्रेम पर इतना प्रबंध न लगाया जाता तो समाज में इतनी दुश्चरित्रता न फैलती।
कहते हैं जिसका विरोध किया जाता है । प्रतिबंध जिस पर लगाया जाता है वह और बढ़ता है। प्रेम पर प्रतिबंध लगाने का ही परिणाम है कि दुनिया में जो भी फिल्में प्रेम पर बनती हैं उनमें भारत सबसे आगे है।
भारत में तो बिना प्रेम के कोई फिल्म भी हो सकती है इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती हैं।मनोविज्ञान के जन्मदाता फ्रायड के जीवन की एक घटना है। जो इस प्रकार है —
एक बार उनका लड़का खो गया। बहुत खोजबीन के पश्चात भी नहीं मिला तो उनकी पत्नी ने उनसे कहा कि-” कितने निर्दयी बाप हो, बच्चा कब से ग़ायब है तुम खोज नहीं सकते।”
तब फ्रायड ने पूछा कि -“बताओ क्या तुमने उसे कहीं जाने के लिए रोका तो नहीं था “। उनकी पत्नी ने कहा-” रोका तो था। पीछे फाल के पास जाने के लिए।”
फ्रायड ने कहा -“फिर जाकर देखो बच्चा वही होगा।”
अंत में जब उनकी पत्नी खोजने गई तो बच्चा उनको वही मिला।
फिर पत्नी ने पूछा कि-” आखिर तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि बच्चा वही होगा , जबकि तुम यहां काम में व्यस्त थे।”
फ्रायड ने कहा कि -” मैं जान लिया कि तुमने बच्चों को जहां मना किया है वहीं गया होगा। क्योंकि बच्चों का यह स्वभाव है कि उन्हें जिस काम के लिए रोका जाता है उसी को और करते हैं।”
मेरी क्लास में एक मोटा ताजा लड़का आता था। उनकी बाजार में परचून की दुकान थी ।वह सबसे पहले आकर सबसे आगे सीट पर बैठता था लेकिन वह पढ़ने लिखने में बहुत कमजोर था। जिसके कारण खूब मार खाता था।
मेरी कक्षा में तेज तर्राक लड़कों में हिंदी वाले गुरुजी मुन्नी लाल यादव का लड़का अजय था। उसकी राइटिंग गजब की थी।
पूरी क्लास में फर्स्ट अधिकांशत वही आता था। बाद में वह अमेरिका में साइंटिस्ट भी हुआ। लेकिन कुछ वर्षों पूर्व किसी हादसे में उसकी मृत्यु हो गई। कहते हैं परमात्मा जिन्हें ज्ञान देता है उनकी उम्र भी कम कर देता है। अजय यदि आज होता तो भारत के महान वैज्ञानिकों में उसका भी नाम होता।
अन्य दोस्तों में जो पढ़ने में तेज थे वह थे धर्मेंद्र ,आनंद, सतीश, सच्चिदानंद आदि। कमजोर छात्रों में एक रामपाल था ।जिसकी बचपन में ही हाई स्कूल में शादी हो गई थी । वह बहुत मजाकिया भी था । बहुत से दोस्तों का नाम याद नहीं आ रहा है ।कमलेश कुमार भारतीय जो हमारे अच्छे दोस्त तो में रहे जिनके साथ आज भी खूब अच्छी दोस्ती है।
लड़कियों में किसी का नाम याद नहीं आ रहा। चेहरे तो यादों के झरोखे में कुछ-कुछ झलक रहे हैं । मेरी पता नहीं क्या बचपन से ही आदत रही की लड़कियों से ज्यादा बात नहीं करता था। मैं झेंपू टाइप का था। मैं इतना पढ़ने में तेज तर्राक भी नहीं था की लड़कियां मेरे पीछे पड़ती । एक तरह से प्रेम के मामले में मैं फिसड्डी सिद्ध होता था।
यदि किसी से किया भी होगा तो एकांगी प्रेम करना रहा। उनके मन में क्या है कभी सोचा नहीं। यही कारण है कि हमारे जीवन में प्रेम कभी परवान नहीं चढ़ सका। इसका एक कारण मुझे यह भी लगता है कि मेरे परिवार की अति मर्यादा। मेरी मां अक्सर हिदायत देती रहती कि किसी के द्वार पर मत बैठा करो।
जिनके घरों में हम उम्र लड़कियां होती थी तो उनसे बात करने पर डाटा करती थी। आज भी मैं प्रेम के मामले में असफल हूं । कभी ज्यादा बातचीत नहीं करता । किसी से कोई कभी बोल दिया तो ठीक नहीं तो चुप बैठा रहता हूं । कुछ लिखता पढ़ता रहता हूं।
कहते हैं संसार में जितनी श्रेष्ठ रचनाएं हैं वह सब प्रेम में असफल प्रेमियों ने की है। प्रेम ऊर्जा है, शक्ति है, प्रेम की ऊर्जा जहां भी होती है वही अपना सौंदर्य बिखेरती है । हिटलर जैसा तानाशाह शासक को कहा जाता है कि यदि उसे उसकी प्रेमिका का सानिध्य मिल गया होता तो इतना क्रुर नहीं होता।
ऊर्जा नष्ट नहीं होती बल्कि केवल उसके रूप में परिवर्तन किया जा सकता है ।प्रेम रूपी ऊर्जा को नष्ट करने की मूर्खता का ही दुष्परिणाम है कि यह दुनिया रहने लायक भी नहीं रही ।यदि प्रेमी प्रेमिकाओं को मिलने दिया जाता तो क्यों वह छुप-छुप कर मिलते ।
पुरुष की अपेक्षा स्त्री का शरीर जल्दी विकसित होता है। हाई स्कूल की कक्षा में पहुंचते हुए लड़कियां युवा हो जाती हैं लेकिन लड़के इतनी परिपक्व नहीं हो पाते। पहले के जमाने में तो इतना टीवी, मोबाइल, इंटरनेट आदि का प्रचलन गांव में नहीं था जिससे वह कुछ ना कुछ ऐसे दुष्प्रभाव से बचे रहते थे । मेरे बाबूगंज में आज भी टॉकीज नहीं बना है।
आज कल बच्चों में बढ़ती दुष्ट प्रवृत्तियों के कारण को देखा जाए तो वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रमुख दोषी है। दिन रात टीवी के सामने बैठकर आपका बच्चा लूट, हत्या, बलात्कार ,झूठ, फरेबी, मारधाड़ देख रहा है तो हम कैसे कल्पना कर ले कि हमारा बच्चा सच चरित्र बन जाएगा।
अब पुनः चलते हैं विद्यालय की ओर। विज्ञान में भौतिक विज्ञान संतोष कुमार जायसवाल सर पढ़ाते थे। जो कि बाद में प्राथमिक विद्यालय में सरकारी अध्यापक हुए। रसायन विज्ञान श्री कृष्णा राम मौर्य सर पढ़ाते थे। जो कि इफको में साथ ही ट्यूशन भी पढ़ाते रहे । आज उन्होंने अपना स्वयं का डिग्री कॉलेज, इंटर कॉलेज, पॉलिटेक्निक कॉलेज आदि खोल लिया है।
वे इस बात के उदाहरण है कि व्यक्ति के पास लगन और कुछ करने की चाहत हो तो एक न एक दिन वह मंजिल पाकर ही रहता है। पुरुषार्थ करना हमारा कर्तव्य है जिसे हमें हर संभव तरीके से करने का प्रयास करना चाहिए।
उनके विद्यालयों में आज 10000 की संख्या में बच्चे अध्ययन करते हैं । उनके सफल होने में एक बड़ा कारण यह भी रहा है उनके स्वयं की बहुत सी जमीन थी। राजनीतिक रूप से भी उनकी अच्छी पकड़ थी । भाग्य भी अनुकूल चल रहा था जिसके कारण वह सफल इंसान बन सके।
जीव विज्ञान उमाशंकर मौर्य सर पढ़ाते थे । बचपन में एक दो बार मैंने मेंढक का चीर फाड़ भी किया परंतु बाद में बंद कर दिया । इंटर में मैथ लेने के कारण सब छूट गया। वह बहुत अच्छा पढ़ाते रहे स्कूल छोड़ने के पश्चात वे राजनीति में आ गए । वह अपने गांव चिलौडा के प्रधान भी रहे।
सामाजिक विज्ञान शारदा प्रसाद शुक्ला जी सर पढ़ाते थे। वे दुबले पतले थे। वे बच्चों को कान बहुत उमेठते थे।
एक बार पढ़ाते हुए उन्होंने बताया कि एक बार क्या होता है कि एक बच्चे को चिट्ठी पढ़ने को दी ।चिट्ठी में लिखा था कि पिताजी अजमेर गए और उसने पढ़ा कि पिताजी आज मर गए । अब क्या होता है सारे घर में रोना पीटना मच जाता है। आज के बच्चों का यही हाल है।
इंग्लिश राम प्रताप पटेल सर पढ़ाते थे। वह इंग्लिश बहुत अच्छी प्रकार से पढ़ाते थे। पढ़ाते पढ़ाते अक्सर वह कुछ कहानियां भी बताने लगते थे जिससे कि बच्चे ऊबे ना।
हिंदी मुन्नी लाल यादव सर पढ़ाते थे। जिनका बेटा अजय भी हमारे ही क्लास में पढ़ता था। वह हिंदी को बहुत समझा करके पढ़ाया करते थे।
गणित को रामराज पांडे सर पढ़ाते थे। उन्हें गणित में महारत हासिल थी। सैकड़ो निरमेय प्रमेय उन्हें जबानी याद थे। रिटायर्ड होने के पश्चात उन्होंने योग साधना का मार्ग अपनाया और आज भी पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं।
उसे समय भले हम बहुत डरते रहे हो परंतु अब जब भी विद्यालय जाता हूं या जब भी अपने गुरुजनों से मुलाकात होती है तो बहुत सम्मान पूर्वक बात करते हैं।
भाग-9
यादों का प्रवाह है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा है । मैं वहां से हाई स्कूल करने के पश्चात इंटरमीडिएट गोमती इंटर कॉलेज फूलपुर से किया। गंगापार क्षेत्र का कहा जाता है कि वह सबसे पुराना विद्यालय है।
वहां पर मात्र लड़के ही पढ़ते थे लड़कियों को राजकीय बालिका इंटर कॉलेज अलग से बना हुआ था। यहां मैंने पहले तो जीव विज्ञान विषय लिया था । बाद में गणित बदलवा दिया।
मेरे गणित के अध्यापक राय साहब थे । वह गुलाब जैसे गौढ बदन के बहुत ही सुंदर थे। कुछ-कुछ नाटे कद के शरीर से थुल थुल थे। उनकी आदत पढ़ते पढ़ते बीच-बीच में कोई ना कोई चुटकुले सुनाने की थी । गणित जैसे नीरस विषय को पढ़ाते हुए जब देखे कि बच्चे अब पढ़ नहीं रहे हैं तो कहानी चुटकुलों का दौर शुरू हो जाता था।
जहां सीताराम सिंह इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य का वर्चस्व था। उनके नाम से बच्चे थर-थर कांपते थे । वहीं यहां के प्रधानाचार्य एलपी मिश्रा की बात को कोई नहीं सुनता था । वह एक ओर चिल्लाते रहते थे तो दूसरी और बच्चे निकल भागते थे। स्कूल के अध्यापक भी उनका कोई सम्मान नहीं करते थे । सब अपनी मर्जी के मालिक थे।
विद्यालय में कोई ज्यादा सख्ती नहीं थी। इसी बीच मुझे फिल्म देखने का चस्का लग गया था । मैं उपन्यास भी खूब पढ़ने लगा था। कोई भी फिल्में नहीं छोड़ता था। घर में छोटी सी किराने की दुकान थी । कभी-कभी मैं दुकान पर बैठता था ।
थोड़े बहुत पैसे चुराने से कभी नहीं बच पाया । एक तो घर से विद्यालय सात आठ किलोमीटर दूर था । हमारे गांव का दूसरा सहपाठी नहीं पढता था कि जो मेरी शिकायत कर दे। इसलिए फिल्मों के प्रति दीवानगी बढ़ती ही जा रहे थी।
इसी बीच उपन्यास पढ़ने का चस्का लग चुका था। एक-एक दिन में दो-दो उपन्यास पढ़ डालता था । उपन्यास मैं अर्धरात्रि में पढ़ता था या जब भैया नहीं रहते थे। मां को तो मालूम नहीं कि मैं क्या पढ़ रहा हूं क्या नहीं? भाभी भी अनपढ़ थी इसलिए मेरी ललक बढ़ती ही जा रही थी।
एक दिन सुबह के समय दिन चढ़ आया फिर भी मैं उपन्यास पढ़ता रहा। पीछे के घर की कोठरी में । भैया ने बाहर द्वार से बुलाया की जो पढ़ रहे हो लेकर आ। मैं छुपाना चाहता था लेकिन उन्होंने देख लिया। फिर मैं उपन्यास को लेकर बाहर आया भैया ने गुस्से में उपन्यास फाड़कर टुकड़े-टुकड़े करके मां के सामने फेंक दिया।
फिर गुस्से में कहने लगे कि देख ली क्या पड़ता है यह रात रात भर । फिर दो तीन थप्पड़ जड़ दिए गाल पर । मेरी आंखों से आंसू झरने लगे , फिर भी डर के मारे रो नहीं पा रहा था।
वैसे भैया जल्दी मुझे मारते नहीं थे उसका कारण था कि लोग कहेंगे कि देखो बिना बाप का है इसलिए मार रहा है। मां का मैं दुलारा बेटा था । इसलिए मार खाने से बच जाता था।
उस दिन के बाद मेरे बैग की तलाशी होने लगी जिससे उपन्यास नहीं पढ़ने में ही भलाई समझी। मैं उपन्यास खरीदता नहीं था बल्कि किराए पर लाता था । ऐसे बाजारू उपन्यासों से होता जाता कुछ नहीं बस टाइम पास की रहस्यात्मक कहानी गढ़ी रहती हैं।
अब तो चाह कर भी ऐसे उपन्यास पढ़ने की इच्छा नहीं होती । मैं ऐसे कई उपन्यास लेखक से मिल भी चुका हूं । कई ऐसे लेखक जिनका एक बार नाम चल गया फिर उनके नाम से दूसरों से लिखवा कर प्रकाशक एवं पूर्व लेखक नाम और शोहरत कमाते हैं । लेकिन लूटता है तो गरीब लेखक जो मजबूरी बस पैसे के खातिर अपनी कलम को बेचने के लिए उसे अभिशप्त होना पड़ता है।
भाग-10
मेरे बड़े भैया की जब शादी हुई थी तो मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था । उन्हीं के दो-तीन दिन के अंतर पर मझली बहन तीजा की भी शादी हुई। मेरे गांव में लड़कियों की शादी १५ -१६ वर्षों में कर दिया जाता था।
अभी भी गांव में बाल विवाह की स्थिति व्याप्त थी। जिसमें लड़के लड़की की शादी तो बचपन में कर देते थे परंतु गौना छः सात वर्ष बाद लाते थे। भैया की शादी में मैं बलहा बना था। उस समय पिताजी जीवित थे चूंकि घर में बड़े लड़के की बहू आ रही थी इसलिए रौनक ज्यादा थी।
उस समय गांव में शादी विवाह के पहले महीनों तक रात्रि में महिलाएं लोकगीत गाती थी ।जो कि सुनने में बहुत मधुर होते थे । कुछ महिलाएं गाने बजाने में बहुत माहिर होती थी। कुछ तो गाते गाते नाचने भी लगती थी।
उनकी वह सरलता अल्हड़पन की मस्ती देखते ही बनती थी। लेकिन धीरे-धीरे शहरों की हवा जैसे गांव को भी लग गई हो । गांव में अब धीरे-धीरे गाने बजाने की परंपराएं खत्म होने लगी है।
अब तो बस डीजे की धुन पर गला फोड़ू संगीत रह गया है। उसमें अल्हड़पन कैसे आ सकती है । आधुनिक लड़कियां तो ऐसे गीतों को पुराने जमाने की कहकर मुंह बिचकाने लगी हैं। उन्हें केवल डीजे की धुन पर कमर मटकाना ही दिखाई देता है।
मेरे बड़े भैया का बदन बहुत गठीला था । 100 किलो का वजन उठाकर फेंक देते थे । भैया को देखकर गांव की औरतें मां से कहती कि पता नहीं महजइनिया क्या अपने लड़कों को खिलावत है की मोटाई के कोल्हू जैसे होइ गंवा है। लेकिन मैं बचपन से शारीरिक रूप से बहुत कमजोर रहा।
मेरे भैया खाने-पीने के बहुत शौकीन रहे हैं। घर में भैंस थी। वह कभी ग्वाले को दूध नहीं बेचने देते थे । कहते थे कि मैं मेहनत करता हूं तो दूध भी पीने को ना मिले तो सब बेकार है।
कहते हैं कि परिस्थितियां बड़े बड़ों को तोड़ देती हैं। आज बड़े भैया में वह ताकत नहीं रही।
भैया की शादी में तांगा गया था बारात में । क्या बांका घोड़ा था कि पूछो ही मत। बारात घर से 40 कमी के लगभग दूरी पर जाने थे। बांका जवान एक बार दौड़ लगाई तो दुल्हन के घर पर ही जाकर रुका।
भारत में हिंदूओं की शादी होने के पहले महीना तक लड़के लड़कियों को सरसों को पीस कर सारे बदन पर मालिश की जाती थी । विशेष तौर पर लड़कों को ज्यादा । एक माह की मालिश के बाद लड़कों का मुरझाया चेहरा भी खिल जाता था। चेहरे के दाग, धब्बे, झुर्रियों का तो पता ही ना चलता था।
कभी-कभी हल्दी भी मिलाकर लेपन किया जाता है। हल्दी शादी विवाह में बड़ा ही शुभ माना गया है। स्त्री के प्रसव के उपरांत भी हल्दी के दूध के साथ गर्म करके अन्य मेवे वगैरा मिलकर दिया जाता है । कहा जाता है कि इससे बच्चे पैदा होते समय जो स्त्री के शरीर में खून की कमी आई है वह दूर हो जाती है।
वैसे लड़कों की मालिश उसकी बुआ करती हैं। लेकिन हमारी बुआ नहीं होने के कारण बड़ी दीदी ने भैया की मालिश की थी। बड़ी दीदी भैया से 10 वर्ष बड़ी होने के बाद भी आज तक अदब रखती हैं।
शादी विवाह के अवसर पर गांव में कुल देवता की पूजा की जाती है। मेरे घर में कुल देवता के रूप में गाजी मियां और बड़े पुरुष के रूप में पूज्य थे। उनकी पूजा कहां से कैसे प्रारंभ हुई इसके इतिहास में न जाते हुए हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि भारत देश श्रद्धालुओं का देश है। कहते हैं कि मेरे पिताजी को वाणी सिद्धि थी ।
जब उनके शरीर पर देवता प्रकट होते थे तो जो भी पूछिए बता देते थे। गाजी मियां को लोग बकरा बकरी मुर्गा आदि की बलि चढ़ाया करते हैं।
कहते हैं कि किसी झूठ को यदि हजारों बार बोला जाए तो वह सत्य होने लगता है। यही बात हिंदू समाज का मजारों दरगाह आदि की पूजा करना है। हमारे गांव में हिंदुओं में कोई भी व्यक्ति ऐसा मिलना मुश्किल होगा जो कभी न कभी गाज़ी मियां की मजार पर नहीं गए हों।
हिंदूओं में जितना लोगों में मूढ़ता व्याप्त है उतना दूसरे किसी समाज में व्याप्त हो। बचपन में कहां जाता है कि मेरी एक महीना तक आंख नहीं खुली। बीमारी से पूरा शरीर सूखकर कांटा हो गया था ।
अम्मा बताती थी कि जब पिताजी के शरीर पर ऐसे देवता प्रकट होते थे तो कहते थे कि बच्चे को कुछ नहीं होगा । इसकी आंख खुलेगी और कुछ दिनों बाद मैं ठीक हो गया। बचपन की इस बीमारी का प्रभाव हमारे शरीर पर आज भी देखा जा सकता है।
भाग 11
शादी विवाह के पूर्व गांव में कुल देवता की पूजा की जाती है। मेरे घर में कुल देवता के रूप में गाजी मियां की पूजा की जाती रही। इनकी पूजा कहां से कैसे आरंभ हुई इसके इतिहास में न जाते हुए हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि भारत देश श्रद्धालुओं का देश है।
कहते हैं मेरे पिताजी को वाणी सिद्ध थी। जब उनके शरीर पर यह देवता प्रकट होते थे तो जो भी पूछिए बता देते थे । इनको लोग बकरा ,बकरी, मुर्गा आदि की बलि चढ़ाया करते हैं।
पिताजी जब वर्ष में एक बार विशेष पूजा करते थे तो बकरा बकरी मुर्गा सभी की बलि देते थे, शराब भी चढ़ाते थे । हम भाई-बहनों में कोई भी मांस नहीं खाता था। अम्मा भी नहीं खाती थी। इसके लिए नाते रिश्तेदारों को बुलाया जाता था।
एक प्रकार से यह अंध परंपरा है जो कि गांव में आज भी चली आ रही है । पिताजी के पश्चात वैसे घर में कभी मांस मछली का प्रयोग नहीं किया गया। बड़े भैया ने पूजा करने का प्रयास भी किया लेकिन वह उनके शरीर पर नहीं आए । कहते हैं कि पिताजी तुम्हारे उनकी बलि देते थे तो तुम भी दो लेकिन भैया कहते हैं कि यदि मैं नहीं खाता हूं तो कैसे चढ़ाऊं।
कुल देवता के पूजन के उपरांत बारात गई । मेरे पिताजी के चेहरे पर खुशी देखते ही बनती थी । वह धोती कुर्ता पहनते थे ऊपर से सदरी (एक प्रकार की कोट) पहनते थे।
शादी में पुराने तरीके के बाजे वाले गए थे जो नाच नाच कर गाया करते थे । कभी-कभी विशेष कलाबाजियां भी दिखाया करते हैं। दुबराचार के पश्चात सभी ने भोजन किया।
हिंदू विवाहों में शादियों के कर्मकांड दो-तीन बजे रात्रि से शुरू होते हैं जो की तीन-चार घंटे तक चलते रहते हैं। पहले के पुरोहित बहुत शांत मन से पूजा पाठ करते रहे हैं । जजमानों के प्रति बहुत आत्मीयता रखते थे। वर और कन्या दोनों से संकल्प बुलाया जाता है ।
जिसका मुख्य सूत्र है कि अपने मन में कोई दुराव छिपाव नहीं रखेंगे । जो भी बात होगी पति-पत्नी आपस में उसे सुलझाने का प्रयास करेंगे। लड़की के लिए उसकी ससुराल ही अब उसका घर है । जो भी बात होगी पति-पत्नी आपस में ही सुलझाने का प्रयास करेंग। लड़की के लिए उसकी ससुराल ही अब उसका घर है । इसलिए मायके से मोह त्याग कर पति के घर में ही मन लगाना चाहिए।
सुबह नाश्ते के बाद मुंह दिखाई का कार्यक्रम हुआ। जिसमें घर की महिलाएं सीसे कंघी,तौलिया माला आदि दूल्हे को देती हैं। उसको विभिन्न प्रकार के इतर आदि लगाते हैं। दूल्हा किसी किसी महिला को आंचल पकड़ लेता था मुख्य रूप से सलहज का फिर कुछ बिना दिए नहीं छोड़ता है। यह परंपराएं मुख्य रूप से दोनों परिवारों में हंसी एवं आत्मिता को बनाए रखने के लिए किया जाता है।
इन क्रियाओं को विस्तार पूर्वक इसीलिए बता रहा हूं कि धीरे-धीरे जितना हम पाश्चात्य संस्कृत की ओर बढ़ रहे हैं वही हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को भूलते जा रहे हैं। जो मिट्टी की खुशबू परंपरागत शादी विवाहों में आती थी वह सुगंध जैसे खोती जा रही हैं। यदि उन परंपराओं को जैसे लगता है कि यदि बचाया नहीं गया तो भारत का मूल अस्तित्व ही समाप्त होकर निश्प्राण हो जाएगा।
मेरी भाभी गौर वर्ण की दुबली पतली कद की बहुत सुंदर हैं। वे अनपढ़ हैं अक्षर भी नहीं पहचान पाती लेकिन दिल में चलने वाले अक्षरों को बखूबी पहचान लेती हैं।
उस समय मैं बहुत छोटा था। वह बच्चों जैसा प्यार करती थी। वह भोजन बनाती रहती और मुझे पास में बैठा कर दुनिया भर की कहानी सुनाया करती। अधिकांश बेतुकी बातें होती थी। मैं कुछ समझता कुछ नहीं लेकिन हूं , हां करता जाता।
मां डाटती के पढ़े लिखेगा भी की वहीं बैठा रहेगा। लेकिन भाभी बिना भोजन खिलाई नहीं आने देती । कैसे-कैसे वे बचपन में अपनी सहेलियों के साथ हठखेलियां करती थी सब बतातीं थी । कोई भी बात मन में नहीं छुपाती थी।
उनके आने से घर में जैसे रौनक आ गई हो। वह सब को खुश रहे ऐसे ही काम करती थी।मेरे भैया भाभी से बहुत प्रेम करते थे। यदि भाभी मायके चली जाती तो भैया दो-तीन दिन में ही पहुंच जाते क्योंकि पास में मझली दीदी का भी घर है जिससे उनकी चोरी छुप जाती थी।
बड़े भैया और मझली दीदी में खूब पटती थी। दीदी कहती है कि मेरे भाई भले गरीब हैं परंतु उनके जैसा दुनिया में ढूंढे नहीं मिलेगा। बड़े भैया भी सभी बहनों को कुछ भी बात हो तुरंत उनके ससुराल जाते हैं। उनका अधिकांश समय बहनों के सुख-दुख के कामों में ही खर्च हो जाता है।
जब मैं छोटा था तो तीनों भाई एक ही चारपाई पर लेटते थे ।दोनों भाइयों के बीच में मैं घुस जाता था । उस समय कितना प्यार था भाइयों में जिसकी कल्पना नहीं कर सकते। मां जब भोजन बनाती तो जैसे ही एक रोटी भी बनाई की बुला लेती थीं खाने के लिए। एक-एक रोटी बनाती जाती थी और परोसती जाती थी ।वह स्वर्गिक सुख काश एक बार फिर लौटा आता।
मां के हाथ की बनाई गरमा गरम रोटियां का स्वाद हम पांच सितारा होटल में हजारों रुपए खर्च करने के बाद भी नहीं पा सकते । प्रभु सबको मेरी जैसी मां दें। मां का प्यार ही वह औषधि है जो शोक संतप्त मानव को रोगों से मुक्ति दिला सकता है।
आज हम भाइयों के पास सब कुछ है लेकिन कुछ नहीं है तो मां। अम्मा जब से गई है जैसे जीने की सुगंध ही खत्म हो गई हो। जिंदगी में आनंद तभी तक रहते हैं जब तक मां-बाप का साया सिर पर होता है। उसके बाद तो जिंदगी बस काटनी पड़ती है। जिंदगी का रस जैसे खो सा जाता है।
भाग -१२
मैं विद्यालय के किसी भी कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेता था बचपन में मुझे मंच पर जाने पर डर लगता था मुझे याद नहीं है कि मैं कभी कोई वार्षिक उत्सव में भाग लिया हो परंतु पढ़ने लिखने में औसत था कभी ज्यादा नंबर आए इसके लिए परेशान नहीं हुआ स्वयं तो मैं गाने नहीं गए पता लेकिन दूसरों से सुना बड़ा अच्छा लगता था।
जिस व्यक्ति में जो कमी होती है उसे वह दूसरों में खोजने का प्रयास करता है मेरे क्लास में आनंद अजय बहुत अच्छा गाते थे छात्राओं में एक किरण चौधरी थे उसका स्वर इतना सुरीला था कि पूछो ही मत उसके गए गए जीत के बोल मुझे अब तक याद हैं। मेरे भारत माता की शान निराली है हर तरफ खुशियों के बारिश होने वाली है गाड़ी हो या नेहरू हो या सुभाष चंद्र वरदानी हो।
सीताराम सिंह इंटर कॉलेज में पिकनिक कार्यक्रम की यादें तो फिल्म की भांति जैसे आंखों के सामने नाच रहे हैं पिकनिक का कार्यक्रम पास के चीलोदा गांव में उसर क्षेत्र में था गांव की ओर से मैं अकेला था परंतु फिर भी साइकिल में खाने बनाने के सारे बर्तन लेकर पहुंच गया वहां का नजारा देखते ही बनता है जिधर देखो उधर चुल ही फुके जा रहे थे किसी की सब्जी कच्ची रह गए तो किसी में नमक ज्यादा हो गया लेकिन सभी बनाने में जुटे हैं पानी गुट हुए मेरे आते में पानी ज्यादा गिर गया अब सारे पाइथन रूप में बचाए आते मिलने के बाद भी अशोक नहीं रहा था।
2 से लेकर किसी तरह बनाया मेरे साथ में किसी लड़की की कोई टोली नहीं थी जिनके साथ लड़कियां थी वह बहुत अच्छी तरह से बना रहे थे मेरी तरह जिनके साल लड़कियों की टीम नहीं थी सभी में कुछ ना कुछ कमी रही जाती थी।
परंतु जो लड़कियां खाली थी वह किसी न किसी की मदद में लग जाते थे मेरा आटा गीला होने के कारण सर हथेली में लपट गया था पूरी भी नहीं बन पा रहे थे मन में आ रहा था कि कोई सहायता कर दे तो अच्छा रहे।
मुझे परेशान देखकर एक बहन को जैसे दया आ गई वाइफ को की कॉलोनी से आई थी उसके साथ उसका भाई भी पड़ता था दोनों पढ़ने में बहुत होशियार थे उसकी सहायता किसी प्रकार भोजन बना उसकी हेल्प करना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था अब मेरी सारी रसोई पर उसने कब्जा जमा लिया था वह इतनी सतर्कता से जल्दी-जल्दी पूरियां काट रहे थे कि मैं उसकी पूर्ति देखता रह गया।
मेरे मन में है विचार आ रहे थे कि काश ऐसी पिकनिक का प्रोग्राम रोग होता तो मैं आते जिला रोज करता और यह मेरी सहायता करते वह भोजन बनाती जाती थी और डांटती भी जाती थी तुम लड़कों को आखिर क्या करना आता है ठीक से भोजन भी नहीं बना सकते।
उसकी डांट भी इतनी प्यारी लग रही थीकि जैसे भजन सुना रहे हो अध्यापकों का भजन कुछ तो जिन बच्चों ने अच्छा बनाया था वहां से आया और कुछ अलग से भी बना लिया था।
बच्चों में बोर्ड मचे थे कौन-कौन गुरु जी लोगों को खिला है सभी अध्यापक थोड़ा-थोड़ा लेकर छोड़ देते थे उसे तो कल सुख की कल्पना करना कटनी है वह आनंद वह मस्ती फिर कभी जीवन में मिल पाएगी कि नहीं कहना मुश्किल है ताश पिकनिक रोज मनाई जाती तो क्या बात होती।
भाग -१३
इंटरमीडिएट करने के पश्चात घर वालों की इच्छा थी कि मैं इंजीनियरिंग की तैयारी करूं परंतु पारिवारिक परिस्थित ऐसी थी कि ठीक से खाने रहने को व्यक्ति को उपलब्ध हो जाए यही बहुत था। दोनों बड़े भाई पढ़ाई छोड़कर काम धंधे में लग गए थे । उनकी इच्छा थी कि चाहे जैसा भी हो बाबा (मेरा घर का प्रिय नाम )को पढ़ाया जाए। एक दिन मां से बड़े भैया ने पूछा कि बताओ क्या करें ।
मां ने कहा -“देखो जैसे हिम्मत हो करो अब मैं क्या जानू मुझे तो कमा कर देना नहीं है कामना तो तुम ही लोगों को है।”
भैया ने कहा -“सबका अपना-अपना भाग्य होता है। यदि बाबा के जीवन में पढ़ाई लिखी है तो उसे कोई रोक नहीं सकता । ऐसा करते उसका एडमिशन शहर में करवा दिया जाए।
अब तक मैं गांव में रहा था। अब शहर में कमरा लेकर रहने लगा। मुझे भोजन बनाना तो आता नहीं था। पड़ोस के एक भाई के रिश्तेदार विजय कुमार पटेल को पार्टनर बनाया। वह बहुत अच्छे इंसान थे।
वह मेडिकल की तैयारी करते थे और मैं इंजीनियरिंग का। इसलिए भौतिक और रसायन विज्ञान विषय दोनों के मिलते थे। अक्सर वे मुझे पढ़ाते थे । कमरे का किराया ₹400 था ₹30 बिजली का बिल लेते थे । इस प्रकार 430 रुपए में से आधा ₹215 देना पड़ता था।
इसके अलावा भी शहर में रहने के अनेकों खर्च थे। गांव में जहां बहुत सी चीज वैसे ही मिल जाती थी वहीं शहर में पग -पग पर पैसों की जरूरत होती थी। सबसे ज्यादा खर्च दैनिक भोजन में होता था।
हम लोग जो भी सामान आदि खरीदते थे उसे एक डायरी में नोट करते जाते थे। महीने के अंत में उसका हिसाब कर लिया जाता था । जिसका ज्यादा निकलता उसको बकाया दे दिया जाता।
मेरा कमरा शोहबतिया बाग मोहल्ले में था । जहां से घूमने के लिए संगम तट की तरफ आराम से जाया जा सकता है । मेरी आदत प्रकृति के खुले आसमान में टहलने घूमने की ज्यादा थी।जब भी मौका मिलता जरूर जाते थे।
संगम तट तक प्रतिदिन नहीं जाया जा सकता परंतु उसके नजदीक ही बहुत बड़ा खुला क्षेत्र है, जहां शहर के लोग प्रातः भ्रमण के लिए आते हैं। शहर में पढ़ने वाले विद्यार्थी के मन को थोड़ा पढ़ाई लिखाई से सुकून मिल सके इसलिए टहलना स्वभाव बना लिया था।
वैसे भी प्रातः भ्रमण स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद होता है। ऑक्सीजन शुद्ध मिलती है जिससे दिन भर ताजगी के साथ बिताया जा सकता है।
मैं इंजीनियरिंग की कोचिंग करना चाहता था इसलिए लोगों की सलाह थीं कि रेगुलर किसी जगह प्रवेश न लिया जाए । कई लोग इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्राचार विभाग से बीए बीकॉम कर रहे थे । मैंने भी बी ए में प्रवेश ले लिया । हमारे विषय थे – हिंदी, शिक्षा शास्त्र और दर्शनशास्त्र।
पत्राचार कार्यालय से नोट मिल जाया करता है। जिसे पढ़कर परीक्षा दिया जा सकता है। जो विद्यार्थी किसी कंपटीशन की तैयारी करते हैं उनके लिए पत्राचार द्वारा पढ़ाई करना सुविधाजनक होता है क्योंकि मार्कशीट इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ही मिलती है। जिसमें रेगुलर ही लिखा होता है।
इलाहाबाद में मेडिकल इंजीनियरिंग के साथ ही अन्य राजकीय सेवा की परीक्षाओं जैसे आइएएस पीसीएस रेलवे बैंक आदि के लिए भी अनुकूल है। बड़ी मात्रा में अन्य जिलों से विद्यार्थी आकर यहां रहकर तैयारी करते हैं।
देश के अलावा प्रमुख रूप से बिहार राज्य के विद्यार्थी यहां बड़ी संख्या में रहते हैं। इलाहाबाद शहर के लोग जिन्होंने दो चार कमरा बना लिए हैं एक दो कमरे किराए पर उठाकर घर का खर्चा आराम से चला सकते हैं।
विश्वविद्यालय में हॉस्टल भी है परंतु इतनी बड़ी संख्या में तो लोग वहां रह नहीं सकते इसलिए कमरा लेकर रहना ही पड़ता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के आसपास जैसे तेलियरगंज, कीटगंज ,बघाड़ा, अल्लापुर ,दारागंज सोहबतिया बाग आदि हर मोहल्ले में विद्यार्थी रहते हुए मिल जाएंगे।
भाग -१४
शहर में रहने की जो सबसे बड़ी समस्या थी वह तो हल हो चुकी थी । अब थी पढ़ाई लिखाई की। बीए में प्रवेश ले लिया था। इंजीनियरिंग के लिए यह विचार किया गया कि किसी बड़े इंस्टिट्यूट में प्रवेश लेने से पहले किसी ट्विटर से पढ़कर सेल्फ स्टडी कर लिया जाए तो अच्छा रहेगा।
इसलिए सेल्फ स्टडी करने लगा। अब विद्यालय तो जाना नहीं रहता था आखिर कोई पढ़ें तो कितना पढ़ेगा परंतु यहां और तो कोई काम ही नहीं था। पढ़ाई करो , भोजन बनाओ खाओ।
जहां हॉस्टल में विद्यार्थियों पर एक नियम होता था परंतु कमरे में रहने वालों के लिए तो स्वयं में नियम कानून बनाने पड़ते हैं कि कैसे क्या कब करना है ?
वैसे कमरा लेकर रहने में जो आनंद है वह प्रतिदिन के आने-जाने में नहीं है।
वैसे मेरा घर शहर से नजदीक ही है । बहुत से विद्यार्थी प्रतिदिन पढ़ाई के लिए आते हैं। और सायं काल अध्ययन कर लौट जाते हैं। उनका अधिकतर समय यात्रा में ही खर्च हो जाता है। कमरा लेकर रहने के एक बढ़ा फायदा होता है कि आपको सारी जानकारियां होती रहती हैं। विभिन्न प्रकार के दोस्तों के साथ बातचीत आप अपने विषय को लेकर कर सकते हैं।
लेकिन कमरे लेकर रहने के नुकसान भी कम नहीं हैं। एक तो यहां आपको कोई रोकने टोकने वाला नहीं होता है। घर में तो कम से कम यह तो घर वालों को खबर रहती है कि आप क्या कर रहे हैं? कहां आ जा रहे हैं? परंतु यहां ऐसी तो कोई बंधन रहता नहीं।
कई बार विद्यार्थी कभी-कभी गलत सोहबत में पड़कर बिगड़ भी जाते हैं। नशा की लत पकड़ना सामान्य सी बात है। दोस्तों के साथ मटरगश्ती करना गपबाजी में समय गवाना , पार्टी बाजी में मां-बाप के मेहनत की कमाई को फूकना सामान्य बात है।
मेरा पार्टनर कुछ अजीब प्रकार का था । जब उसकी मौज आती थी तो पढ़ता था। नहीं तो बातचीत ही करता रहता। वे गुटखा पान भी खाते थे। सिगरेट भी पीते थे लेकिन कभी मुझे दबाव नहीं बनाया कि मैं भी पीयू । बल्कि वहीं इसके नुकसान ही बताया करता कि कितना पैसा फालतू में खर्च हो जाता है।
मैं नशा तो नहीं किया परंतु फिल्म देखने का शौक बना रहा। अब घर से तो सीमित पैसे ही मिलते थे। शहर की टाकीजो के टिकट महंगे होते थे । इसलिए कभी कभार ही देखते थे।
मेरे पड़ोस में तीन सगे भाई रहते थे। जो कि तीनों लोग आईएएस पीसीएस की तैयारी करते थे। सबसे बड़े भाई के तो बालों में सफेदी ही आने लगे थे। उनकी उम्र 30- 32 वर्ष रही होगी उनके सामने मैं बच्चा था।
लाल बत्ती का ख्वाब बड़ा आकर्षण होता है। हो सकता है कि इस बार हो जाए इसी इंतजार में वर्ष के वर्ष बीतते जाते हैं? जब तक अंतिम चांस भी समाप्त नहीं हो जाता लगे रहते हैं तैयारी में।
एक प्रकार से यह किसी योग साधना से कम नहीं है । आखिर विद्यार्थी तप ही तो करता है। जिसमें असीम धैर्य चाहिए ।जीवन लक्ष्य पाने में अधिकांश विद्यार्थियों का जिनका जीवन लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता वह भटकते रहते हैं।
जिसने जो भी सलाह दी उस तरफ अपने को मोड़ देते हैं । कभी यह किया तो कभी वह किया । लेकिन सफलता का असली स्वाद वही चख पाता है जो एक दिशा में ही अपनी सारी ऊर्जा को लगा देता है।
इसमें विद्यार्थियों की भी ज्यादा गलती नहीं है । भारतीय सामाजिक ढांचा ही ऐसा बनाया गया है कि यहां बच्चों की मर्जी से जीवन लक्ष्य नहीं निर्धारित किए जाते बल्कि पड़ोस में देखकर किया जाता है कि यदि पड़ोस का लड़का इंजीनियर डॉक्टर की तैयारी कर रहा है तो तुम क्यों नहीं करते।
ऐसी स्थिति में बच्चों की सारी रुचियों अभिरुचियों को नजर अंदाज कर दिया जाता है। ऐसे में बालक अभिभावकों के ख्वाब को पूर्ण करने के लिए मात्र बंधुआ मजदूर बनकर रह जाता है। जिसका एकमात्र जीवन का उद्देश्य रहता है कि अभिभावक जिसमें खुश रहे वह कार्य करना।
ऐसे में बालकों की प्रतिभा भी कभी-कभी कुंठित हो जाती है । मैं अपने जीवन में आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो यही दिखाई पड़ता है कि मेरे व्यवहार को न कभी यह नहीं जानने का प्रयास किया कि मैं क्या करना चाहता हूं। उन्हें आज भी इस बात का मलाल है कि मैं इंजीनियर नहीं बन पाया।
मैं अपनी अभिरुचि के बारे में आपसे चर्चा करना चाहूंगा ।जिससे यह समझा जा सके कि मेरे जीवन में इतने मोड़ कैसे आए कि आज भी मंजिल की खोज में भटक रहा हूं ? 10 वर्षों पूर्व जिस स्थिति में था उसी में आज भी हूं। हालांकि सोच , विचार , अनुभव आदि जरूर बढ़े हैं।
मेरी बचपन से ही रुचि आध्यात्मिक साहित्य पढ़ने की रही है । जिसे मैं बहुत लगन से पढ़ता था । जैसा कि पूर्व के विषयों पर चर्चा कर चुका हूं कि शब्द ब्रह्म जैसी अध्यात्मिक पत्रिका नवी कक्षा से ही पढ़ रहा हूं। ऐसी जो भी पुस्तक मिलती मैं पढ़ता रहता।
वैसे इसमें बड़े भैया की भी गलती नहीं है । वह तो ज्यादा जानते नहीं थे कि क्या पढ़ाई होती है? बस लोगों ने जैसा बताया वैसे ही सलाह देते गए इसलिए उनको ही मात्र दोषी नहीं मान सकता।
मुझे तो लगता है की बचपन से ही विशेष रूप से इंटरमीडिएट की कक्षाओं के बाद कोई अच्छा सलाहकार मिला होता तो जो अंदर छुपी हुई प्रतिभा को समझ सका होता तो आज मैं ऐसी स्थिति में ना होता।
लेकिन कहते हैं कि ना व्यक्ति को ठोकर खाने के बाद भी यदि समझ आ जाए तो अच्छी बात है। मैं आज भी अपनी मर्जी से नहीं जीवन गुजार पा रहा हूं। मैं वही कर रहा हूं जैसा समाज के लोग चाहते हैं । बल्कि ऐसा नहीं की जैसा मैं स्वयं को बनाना चाहता हूं।
मैं अभिभावकों को यही सलाह देना चाहूंगा कि वह अपने बच्चों को समझने का प्रयास करें। उनकी रुचियां को समझें और इस दिशा में उसे बढ़ाने दे । हालांकि उसे बताते रहे की रुचियां के साथ जीवन में बेसिक पढ़ाई भी जरूरी है जिसे पढ़ने के बाद अपनी रुचि की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।
भाग- १५
मनुष्य के जीवन में अन्न का विशेष प्रभाव पड़ता है। हराम की कमाई खाने वाला इंसान दुनिया में कोई श्रेष्ठ कार्य नहीं कर सकता है।
मुझे गर्व है इस बात का की मेरे भाइयों ने मुझे हाड़ मांस तोड़कर कड़ी मेहनत की पसीने की कमाई ही मुझे खिलाएं । आज मैं हमारे अंदर जो पवित्रता का दिव्य भाव है वह सब उसी का नतीजा है।
एक घटना आंखों के सामने नाच रही है । एक बार मुझे पैसे की सख्त जरूरत थी परंतु घर में भैया के पास उस समय नहीं थे।
उन्होंने कहा कि दो-चार दिनों में व्यवस्था कर दूंगा। परंतु मैंने आव देखा न ताव क्रोध में जो बनियान पहने था उसको टुकड़ों में चीड़ फाड़ कर फेंक दिया।
मेरे भाई ने मुझे मारा तो नहीं परंतु अफसोस के साथ कहा कि अभी तू नहीं जानता कि पैसा कैसे कमाया जाता है जब तू कमायेगा तो पता चलेगी की कैसे आता है पैसा।
भैया की बातें आज भी याद आती है कि पैसा कमाने के लिए सामान्य मनुष्य को कितना पापड़ बेलने पड़ता है तब जाकर उसकी जेब में कुछ पैसे इकट्ठे हो पाते हैं।
भैया गल्ले का व्यवसाय करते थे। गांव से अनाज खरीद कर उसे बाजार में बेचते थे। उससे जो भी कुछ पैसे मिल जाते हैं उसी से घर का खर्च चलता। उसी में से मेरी पढ़ाई के लिए भी कुछ पैसे बचाकर मां को दे देते।
आजकल किसान भी चालाक हो गए हैं। वे बाजार भाव का पता किए रहते हैं। इसलिए आप उन्हें ज्यादा बेवकूफ नहीं बना सकते । चार पैसे ज्यादा बच जाए इसलिए भैया अनाज को ट्राली में न लादकर साइकिल से ही बाजार में ले जाकर बेचते।
कभी-कभी तो दो कुंतल 200 किलोग्राम भी रख लेते थे साइकिल में । हमारे भैया का शरीर हमारी तरह कमजोर नहीं बल्कि बहुत गठीला था । 100 किलो का भरा हुआ उठाकर फेंकने की क्षमता रखते हैं।
पिताजी के गुजर जाने के पश्चात परिवार की जिम्मेदारियां ने उन्हें मजबूर कर दिया । नहीं तो क्या मजाल किसी की उनसे हाथ मिल सके। मेरी भाभी भी बहुत अच्छी इंसान है । भैया के पैसे देते समय कभी भी उन्होंने नहीं रोका की क्यों दे रहे हो । तनिक जरा अपने बच्चों का ख्याल रखो। भैया को गांव में उनके त्याग के कारण कहते हैं कि ऐसा भाई दुनिया में ढूंढे नहीं मिलेगा। आखिर समाज में आज के जमाने में कौन किसी का कहां हुआ है? सब स्वार्थ में खोए हैं लेकिन देखो तो आज भी वह भाई की सहायता में लगा हुआ है।
मेरे छोटे भैया भी कभी इंकार नहीं किया पैसे देने में। कभी-कभी मुझसे कहते हैं देखो इस महीने का सारा खर्च मुझसे ले लेना । नहीं तो मां से पूछते कि कितना पैसा चाहिए बाबा को। और वे मां को दे देते। मां वह पैसे लेकर बड़े भैया को जो दे देती दोनों मिलाकर दे देती।
मैं जो कुछ भी हूं उसमें मेरी मां भाई बहन की वजह से ही हूं। मेरी बहने भी समय-समय पर मुझे पैसे से सहायता करती रही है।वह भी जीजा जी इसे छुपा कर की कहानी वह जान न जाए कुछ तो बचा कर रखती जाति की मायके जाएंगे तो लिए जाएंगे। आखिर मेरा भी तो यह हक बनता है कि नहीं कि मैं भी अपने भाई के लिए कुछ करूं।
दीदी लोग जब आती तो उनकी गुप्त गुल्लक देखते ही बनती थी । नोटों को ऐसा मोड़ तोड़कर रखी रहती की जैसे कूड़ा कटकर हो । फिर बड़े प्रेम से गिनती और सब मां के हाथ में सुपुर्द कर देते और कहती देखो जब भी बाबा को जरूरत हो देती रहना।मां उसमें से अपने लिए एक भी पैसा नहीं खर्च करती बल्कि सब बचा कर रखती।
कई बार जब पैसों की जरूरत मुझे पड़ी यदि किसी कारण भैया के पास पैसे नहीं रहे हो तो वह मां की गुप्त गुल्लक खुल जाती थी।कभी-कभी वह बहुत जरूरी होने पर भैया को भी दिया करती।
मुझे याद आ रहा है कि इंजीनियरिंग की कोचिंग के लिए एक मुस्त ₹5000 की आवश्यकता थी । भैया के पास बैलेंस इतना नहीं था कि वह दे सके। लेकिन यह भी चाहते थे कि भाई की पढ़ाई रुके ना।
मझली बहन शकुंतला दीदी से जब कहा तो उन्होंने बिना कुछ कहे जीजा जी से पूछे बिना ही ₹5000 दे दिए। बाद मे इसके लिए ताने भी खाने पड़े होंगे परंतु ऐसी बहनें भी केवल भारत जैसे देशों में ही पाई जा सकती हैं। धन्य है भारत माता जो आज भी ऐसी त्यागी महिलाओं को जन्म देकर अपने को धन्य महसूस कर रहे हैं।
एक दिन दीदी फोन पर मुझे कहने लगी की तू नहीं जानता कि लोग कितना ताना मारते हैं मुझे। कहते हैं कि इसके मायके में ठीक से ना रहने को है , ना खाने को तीन-तीन सांड है लेकिन एक घर भी नहीं बना सके।
कहते-कहते दीदी सुबकने लगीं । उनके दुख को अनुभव किया जा सकता है बस उसे शब्दों में व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है जिसके माध्यम से उसे व्यक्त कर सकूं।
प्रभु मेरे भाई बहनों जैसे ही सबको भाई बहन दे। ऐसी ही बातें अन्य बहने भी कह चुकी हैं। अब उनके दुख को कैसे दूर किया जाए सोच रहा हूं । यदि जीवन में इतना दुख कष्ट ना हुआ होता तो आपके सामने मैं यह आत्मकथा ना लिख रहा होता।
आखिर हमारी उम्र ही क्या है जो जिंदगी के अनुभव आपके सामने बयान करू परंतु इतनी कम उम्र में है जिंदगी की वास्तविकता क्या होती है मैं समझ गया हूं।
अक्सर लोगों के चेहरों पर मास्क लगा हुआ होता है जो कि दिखते कुछ है और होते कुछ। चेहरों के पीछे छिपे चेहरों की सच्चाई को देखकर दिल कभी दहल जाता है। कभी प्रेम से भर भी जाता है । समाज में अच्छे बुरे दोनों प्रकृति के लोग होते हैं।यह हमारे पर निर्भर है कि हम किसे अपनाते हैं।
भाग १६
भाई बहन का प्यार भी अटूट होता है । जिसे पवित्र बंधनों में बांधने के लिए राखी जैसा पवित्र त्यौहार मनाया जाता है।
जैसा कि मैं पूर्व में बताया भी कि मैं परिवार में सबसे छोटा हूं। इसलिए सभी भाई-बहन मुझे कुछ ज्यादा ही प्यार करते हैं ।बड़ी बहनों के तो हम बच्चों के जैसे हैं।
मैं जब राखी में दीदी आती तो मैं यही कहता की मैं जब कमाने लगूंगा तो आप सबको एक साथ ही खूब दूंगा । किसी को सोने जंजीर बनाने को कहता तो किसी को अगुंठी।
मेरी बड़ी बहन सीता दीदी के परिवार की भी आर्थिक हालात अच्छे नहीं हैं । चार लड़कियां एक लड़का है। मेरा भांजा मुझसे उम्र में बड़ा है। कमाई भी इतनी नहीं हो पाती है कि जिससे ठीक प्रकार परिवार का खर्च चल सके।
मैं दीदी से यही जब वह राखी बांधने आती तो कहता कि मैं कमाने लगूंगा तो तुम्हारे बेटियों की शादी कर दूंगा परंतु आज तक मैं इतना नहीं कमाया की चार पैसे बचा कर रख सका होता । जो कि प्रतिकूल परिस्थितियों में काम आता है फिर भांजियों की शादी कैसे करता?
किसी भी प्रकार से दीदी ने बेटियों की शादी कर दिया है। सभी भाजी हंसी-खुशी से रह रही हैं।
सपना भांजी तो बचपन से ही मेरे घर में ही रहीं हैं। उसे मैं ही नहला धुला के स्कूल भेजता था। धीरे-धीरे जब वह शादी योग्य हो गई तो इच्छा हुई कि उसका विवाह अपने घर से करूं परंतु नहीं कर सका। आज उसके एक लड़का और एक लड़की है। कभी जब मिलती है तो कहती है-” मामा अभी आपने अपना वादा पूरा नहीं किया। मैं सुनकर मुस्कुरा देता हूं । बात टालने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है मेरे पास।
मनुष्य को यदि कोई सबसे अधिक कठिन कार्य लगता है तो वह है भोजन बनाना। अब तक घर में मां के हाथों का बनाया गरमा गरम भोजन खाने को मिलता था लेकिन अब तो यदि पेट की भूख मिटाने है तो भोजन बनाना ही पड़ेगा।
बचपन में मुझे इतना क्रोध आता था कि यदि भोजन में कुछ कमी दिख जाए तो थाली बाहर फेंक देता था । जल भुनकर कहता है कि क्या ऐसे भोजन बनाया जाता है। अब तक तुम लोगों ने भोजन बनाना भी नहीं सीख सके।
पहली बार आता गूंथने लगा तो मां का चेहरा सामने घूम गया की मां होती तो साथ में कितना अच्छा होता । आंखों से मां की याद करते-करते लाल हो गए ।मेरी मां कभी भी घर से बिना खाए नहीं जाने देती थी।
वह कहती -“बेटा घर से खा पी करके निकलोगे तो बाहर भी मिलेगा नहीं तो बाहर भी भूखे रह जाना पड़ेगा “।
मैंने कई बार अनुभव भी किया कि जब घर से बिना खाए जाता तो दिन भर कहीं कुछ खाने को नहीं मिलता था।
ठंड के दिनों में भी घर में कंडे जलते रहते उसी में आटा गूथ कर भंवरी( मोटी रोटी ) बना देती । वह मुझे बहुत प्रिय थी । उसे ही नमक मिर्च अचार आदि के साथ खाकर मैं चला जाता था। लेकिन कभी भूखे पेट गया हूं ऐसा ध्यान में नहीं आता है।
घर में कभी देर से भी लौटूं तो मां कुछ ना कुछ बनाकर खिलाएं बिना नहीं सोने देती।कुछ ना सही तो रोटी बनाकर दूध के साथ ही खाने को दे देती ।
वह कहां करती-” बेटा ! भूखे पेट नींद नहीं आती ।पेट में चूहा कूदते रहे तो बताओ कैसे नींद आएगी।”
फिर उसमें और आटें डालकर कुछ सूखा किया परंतु आटा पूरी तरह से नहीं सूख सका। रोटी बनाया तो कभी चौकोर बनती तो कभी पंच कोर परंतु सीधी गोल आकार की बन नहीं पाती थी इसके लिए भी डांट पड़ती।
लेकिन एक बात थी मेरा पार्टनर डाटता तो भले था पर वह दिल का बड़ा अच्छा था। शुरू-शुरू में कई दिनों तक उसने बना कर खिलाया फिर मैं धीरे-धीरे सीखने लगा।
पहली बार ऐसे ही जब सब्जी बना रहा था तो जल गई । पूरे कमरे में जलने की भयानक गंध फैल गए । उस समय पार्टनर बगल के कमरे में बातचीत कर रहा था । जल्ती सब्जी देखकर उसका पारा फिर गर्म हो गया। उसके चेहरे को देखकर मैं सहम गया।
उसने फिर सारी सब्जी फेक कर दूसरी बनाई । मुझे साथ बैठा कर दिखाने लगे कि देखो कितना तेल गर्म हो जाए तो प्याज मिर्च डालना चाहिए। फिर जलने ना पाए उसके पहले ही सब्जी दाल देनी चाहिए । फिर थोड़ा चलाने के बाद मसाला डालना चाहिए।
वह पहले छौका लगाने के बाद जल में घोलकर मसाला डालते थे । मसाले को पकाने के पश्चात सब्जी डालते । ऊपर से सब्जी पकने को होती तो लहसुन मसल कर डाल देते जिससे सब्जी की खुशबू बढ़ जाते हैं।
लेकिन कभी आटा गीला होने सब्जी जलने या नमक ज्यादा पड़ने आदि कमियों होती रही परंतु अपने हाथ की बनाई जली रोटी भी स्वादिष्ट लगती है। जो भी बन जाता खा लेते। अब तो भोजन में जैसे कमियां ढूंढने की आदत ही छूट गई।
कभी-कभी नमक ज्यादा हो जाता तो उसमें पानी ऊपर से मिलाकर खा लेता। इससे दाल या सब्जी का स्वाद बिगड़ तो जाता है परंतु खाने के अलावा दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था।
जो लोग घर में काम करने वाली स्त्रियों को कहते हैं कि तुम करती क्या हो घर में बैठकर बस खाना बनाओ खाओ बर्तन धुलो। भारत में गृह कार्य को कोई ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है।
घर में स्त्री का उतना ही महत्व है जितना कि किसी कंपनी में मैनेजर का होता है। घर की गृहणी को ही यह मालूम होता है कि किसको क्या पसंद है वह सब को खुश करने का हर संभव प्रयास करती है।
जब से स्त्री घर के बाहर काम करने लगी घर जो कभी स्वर्ग था वह नरक बन गया है। कहते हैं कि जैसा खायें अन्न, वैसा बने मन । काम पर जाने वाली स्त्री कभी शांत मन से भोजन बनाकर नहीं खिला सकतीं हैं। इस प्रकार स्त्री का व्यक्तित्व भी दो पाटों में बटकर रह गया।
मनुष्य को जब घर के खाने से शांति नहीं मिली तो वह बाहर होटल में खाने-पीने लगे।
पूज्य आचार्य महाप्रज्ञ जी कहते हैं कि-” दुनिया की जितनी भी समस्याएं हैं उन्हें मात्र भोजन में परिवर्तन करके दूर की जा सकती है । मनुष्य न जाने कहां-कहां इन समस्याओं का समाधान ढूंढता फिर रहा है। परंतु सही मायने में संसार की सारी समस्याओं का समाधान उसकी थाली में छुपा हुआ है।
भाग- १७
संगम तट पर टहलने का आनंद इतना अलौकिक है कि जिससे धरती पर स्वर्ग की तुलना की जा सकती है। मां गंगा यमुना और सरस्वती का मिलन स्थल पर आने के पश्चात ऐसा लगता है कि जैसे संसार के सारे लोगों के विचार भाव मिलकर एक हो गए हो।
प्रति रविवार को विशेष रूप से संगम के घाट पर जाने का प्लान होता। जो लोग हनुमान जी के भक्त हैं वह मंगलवार की सायं भी जाते हैं। मंगलवार को तो लेटे हनुमान जी के दर्शन करने वालों की जैसे सारा शहर उमर पड़ा हो।
कहते है कि सम्राट अकबर किला बनवाना चाहता था ।हनुमान जी की मूर्ति बीच में बाधा उत्पन्न कर रही थी। वह उसे उखाड़ कर फेंकवाना चाहता था। परत मूर्ति जमीन के अंदर धसती जा रही थी ।अंत में निराश होकर उसे अपने इरादे को बदलना पड़ा।
हनुमान जी महाराज की शक्ति और सामर्थ्य को यहां सहज में देखा जा सकता है। किले की दीवार मंदिर के बगल से निकालना पड़ा । मूर्तियों के प्रति द्वेष भाव रखने वाले को सोचना चाहिए कि मानो तो देव नहीं तो पत्थर।
एक घटना है । एक बार विवेकानंद जी किसी राजा के यहां राज्य अतिथि थे। वहीं पर राजा ने मूर्तियों की बुराई करना शुरू कर दिया। स्वामी जी सुनते रहे फिर उन्होंने सामने टंगे राजा की मूर्ति उतरवा कर उस पर थूकने के लिए कर्मचारियों को कहे लेकिन कोई भी कर्मचारी तैयार नहीं हुआ।
फिर स्वामी जी ने कहा कि यह मूर्ति भी तो कागज की बनी हुई है लेकिन तुम लोग इस पर थूक नहीं सके क्योंकि तुम मानते हो कि इससे राजा का अपमान होगा। इसी प्रकार सभी हिंदू भी मूर्तियों में भगवान के दिव्य स्वरूप का दर्शन करता है । उसे वह पत्थर नहीं समझता।
स्वामी जी की बात सुनकर सभी मूर्तियों के श्रेष्ठता पर मुग्ध हो गए। आगे से राजा या उसके कर्मचारियों ने कभी मूर्तियों का अपमान नहीं किया।
मैं जब सातवीं आठवीं कक्षा में पढ़ता था तभी से हनुमान जी महाराज की भक्ति करता था ।मेरी मां भी हनुमान भक्त थी। उनकी देखा देखी मुझ में भी सहज में भक्ति जागृत हो गए। लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा लगता था कि यह सत्य नहीं है । सत्य स्वरूप तो कोई और है।
मैं लोगों से अनेक तर्क वितर्क करता। कभी-कभी लोग झल्ला जाते कि तुम ऐसे प्रश्न मत पूछा करो । अभी पढ़ने लिखने की उम्र है। पढ़ो लिखो बेकार की बातों में सिर खपाने से कोई फायदा नहीं निकलने वाला है।
मैं घंटों संगम तट पर जाकर चिंतन मनन करता की जीवन का सत्य क्या है ? यहां तो कोई पूछने वाला भी नहीं था कि जो पूछे कि मैं कहां जाता हूं ? पार्टनर जब गांव जाता तो मैं दिन-दिन भर सुबह यदि कमरे में भोजन करके निकला तो सायंकाल ही लौटता था।
मेरी भूख प्यास जैसे खत्म सी हो गई। मुंह का स्वाद बिगड़ने लगा । भइया ने जब सुना तो घर बुलाकर डॉक्टर से इलाज भी करवाया । परंतु जब कोई शारीरिक बीमारी हो तब ठीक हो ना। मुंह का कौर बाहर निकल आता था। जो भी खाता उल्टी कर देता।
ऐसे में मेरी हालत दिनों दिन बिगड़ती जा रही थी। परंतु एक दिन ऐसा लगा कि कोई दिव्य मूर्ति प्रकट होकर कह रहे हैं कि-” बेटा! यह सारा संसार मेरा ही प्रतिरूप है। तुम हर कमजोर ,बेसहारा का सहारा बनो सभी में मेरा ही प्रतिबिंब देखो।’
उस दिन से मेरे जीवन की धारा ही जैसे बदल गई । मुझे अपाहिज, कोढ़ी रोगी आदि से कोई घृणा नहीं होती । पास में ही पुल के नीचे कुष्ठ आश्रम था।
कुछ समय बचाकर मैं उनके बच्चों को पढ़ाने जाता। पास में मंगते हैं उनके बच्चे भी रहते थे। वह भी आ जाते।
पास में ही गंदा नाला था।
उसमें से ऐसी बदबू आती थी कि 1 मिनट भी रूकना मुश्किल होता। यह लोग पुल के नीचे की जगह पर मिट्टी में मकान बनाकर रहते थे । मुझे जिंदगी में पहली बार ऐसा लगा कि क्या ऐसी भी जिंदगी लोग गुर्जर करते हैं ?उनके दुःख को देखकर लगा कि मेरा तो दुख जैसे उनके सामने कुछ नहीं है। वे लोग मांस को आग में पका कर खाते थे। उनके बच्चों में भी वैसे संस्कार आ गया था।
शिक्षा क्या होती है उनको जैसे पता ही नहीं हो। सुबह उठकर बच्चे या तो भीख मांगने निकल जाते या कूड़ा कटकर बिनते । लेकिन कई बच्चे बहुत अच्छे संस्कारी थे। जैसी संगत में पड़ जा गए हैं उसी में ढलने के अलावा कोई उनके सामने मार्ग भी तो नहीं था।
मैं उन लोगों के पास तीन माह तक पढ़ाने गया । उनके बच्चों से कभी एक पैसा फीस नहीं ली। बल्कि किताबें कापी स्वयं से खरीद कर देता। मुझे इससे जो खुशी मिलती थी कि उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता।
कहते हैं कि जो व्यक्ति स्वयं अभाव दुखों में रहता है वही दूसरों की परेशानी को समझ सकता है । पता नहीं गरीबों की सेवा में मुझे इतना आनंद आता है कि पूछो मत। मैं जहां भी रहता कोई न कोई सेवा का मौका जरूर ढूंढ लेता।
भाग – १८
मैं दो सगे भाइयों से ट्यूशन पढ़ता था । एक से रसायन तो दूसरे से भौतिक एवं गणित। रसायन पढ़ाने वाले सर बहुत हैंडसम थे । वे आशिक मिजाजी भी थे । वह अभी बीएससी सेकंड वर्ष में ही थे लेकिन उनके समझाने का ढंग बहुत निराला था । परंतु दूसरे वाले सर के साथ बहुत नीरस लगते थे । उन्हें ज्ञान तो बहुत था लेकिन पढ़ाने का ढंग अच्छा नहीं था।
ज्ञान होने के बाद भी उसे बच्चों को कैसे पढ़ाना है इसको भी आना चाहिए।
पहले वर्ष में उत्साह भी बहुत होता है । ऊर्जा नई नई रहती है। मेरी तैयारी तो अच्छी नहीं थी। फिर भी पॉलिटेक्निक एवं एम एल एन आर आदि की परीक्षाओं में बैठा परंतु सफलता किसी में नहीं मिल सकीं।
मैं एक बार निराशा के गहरे शोक में डूब गया । लेकिन भइया ने समझाया कोई बात नहीं । पुनः मेहनत करो जरूर सफल होंगे । धीरे-धीरे मैं और उत्साह से पढ़ने लगा।
इस बार विचार था कि किसी अच्छी कोचिंग क्लास को ज्वाइन किया जाए परंतु बड़ी कोचिंग क्लासों की फीस उस समय भी 5 से 7000 सालाना थे। मैं जानता था कि घर में भैया के पास पैसे नहीं हैं। मैं घर की स्थिति देखकर उनसे कह दिया की कोचिंग नहीं करूंगा सेल्फ स्टडी करूंगा। भैया ने कहा लेकिन रहने खाने कमरे के पैसे तो फिर भी देने ही पड़ेंगे । समय भी ऊपर से जाएगा।
लेकिन किया क्या जा सकता है या तो खेत गिरवी रखा जाए तभी इतना पैसा मिल सकता है। लेकिन खेत को रखने से खाने-पीने की भी घर में दिक्कत होने लगती है।
मां ने कहा एक बार मझली बहन से बात करके देखो हो सकता है वह कुछ करें परंतु मां और भैया दोनों दीदी से पैसा नहीं लेना चाहते थे। लेकिन मजबूरी में आदमी को कभी-कभी वह करने पर मजबूर होना पड़ता जिसे वह करना नहीं चाहता।
हमारे यहां बेटी के यहां से कुछ लेना अच्छा नहीं माना जाता है।
कुछ लोग तो बेटी के घर का पानी भी नहीं पीते। कितना दिव्य भाव था हमारे पूर्वजों का। इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारे पड़ोस की ही भाभी के जी के पिताजी जब आते थे तो बिना पानी पिए जो कुछ सामान देना होता था देकर चले जाते परंतु बेटी के घर का पानी नहीं पीते थे।
भैया ने और कोई चारा न देखकर दीदी से इसकी चर्चा की परंतु पैसे के लिए जीजा जी से पूछना जरूरी था । हजार 500 की बात होती तो सहज में दे देती 5000 की बात थी।
जीजा जी मना भी कर सकते थे । उस समय वह मुंबई में थे । ऐसे में दीदी ने पैसा बिना पूछे ही देना उचित समझा । क्योंकि एडमिशन की तारीख भी खत्म हो रही थी। दीदी का मैं शुक्रगुजार हूं कि मैंने जो भी शिक्षा प्राप्त कर सका उनमें उनका भी एक बड़ा सहयोग रहा।
मैं वंदना कोचिंग में प्रवेश लेकर पढ़ने लगा । जिसे इवनिंग क्रिश्चियन कॉलेज के प्रोफेसर लोग मिलकर पढ़ाते थे । सभी शिक्षकों के पढ़ाने का तरीका बहुत ही अच्छा था।
रसायन के सर इतनी तेजी से बोलते या लिखते थे कि मैं पीछे रह जाता था । कोचिंग में भीड़ भी बहुत ज्यादा थी । जितनी सीट थी उससे अधिक बच्चों ने प्रवेश ले लिया था । ऐसे में बहुत से बच्चों को खड़े होने की भी जगह नहीं थी।
कोचिंग का व्यवसाय इस समय पूरे सवाब पर है।
जो अच्छे संस्थान है कई करोड़पति बन चुके हैं । उनका एकमात्र उद्देश्य पैसा बनाना होता है। बच्चों की शिक्षा सुविधा से कोई सरोकार नहीं रहता उनके।
आखिर हर मां बाप की इच्छा होती है कि उसका बेटा इंजीनियर या डॉक्टर बने । यह दो धाराएं पहले नंबर पर है । यदि कोई बच्चा गणित विषय लेकर इंटर पास किया है तो जरूर वह इंजीनियरिंग ही बनना चाहेगा इसी प्रकार जीव विज्ञान पढ़ने वाला डॉक्टर।
वाणिज्य कला विषय इसके बाद ही आते हैं। माता-पिता कभी इस बात की परवाह नहीं करते की उनका बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर बनने लायक है या नहीं। बस अपनी इच्छाएं लादने की कोशिश करते हैं । ऐसे में जो प्रबद्ध वर्ग देश के कार्यों में लगनी चाहिए थी वह बाद में निराशा एवं कुंठा भरा जीवन जीने के अलावा उसके सामने कोई दूसरा मार्ग नहीं बचता।
दूसरी मैंने एक समस्या है कि जो इंजीनियर है डॉक्टर बनने के बाद आई ए एस, पीसीएस होते हैं वह भी 10 लाख रुपए खर्च करने के साथ समय और श्रम को व्यर्थ में गंवा देते हैं । साथ ही उनको यदि डॉक्टर इंजीनियर नहीं बनना था तो पहले निर्णय करना चाहिए था।
उनकी जगह कम से कम दूसरे की जगह तो पढ़ने को मिलता है। कोचिंग संस्थानों के करने से लाभ भी होते हैं । बच्चों को मार्गदर्शन अच्छा मिल जाता है। नोटिस भी सटीक होते हैं जो अधिकांश परीक्षाओं से मेल खाते हैं।
मुझे कोचिंग करने का लाभ भी मिला । इस वर्ष मैंने जो भी परीक्षाएं दी थी जैसे पालीटेक्निक एम एल एन आर आर । सिलेक्शन भी हुआ। एम एल एन आर में भी रैंक कुछ कम थी इसलिए प्रवेश उसमें नहीं मिल सका।
मैंने सोचा पॉलिटेक्निक में प्रवेश ले लिया जाए। मेरा प्रवेश हाथरस के पास नया जिला बना महामाया नगर में हुआ पंरतु इस बीच एक घटना घट गई। मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए भी कर रहा था । 2 वर्ष पूर्ण हो चुके थे । मैं फिर एफीडेविड लगा दिया था । साक्षात्कार के समय जब मुझसे पूछा गया तो एक बार मैं झूठ बोल दिया परंतु झूठ पकड़ में आ गए।
बाद में बीए करने की बात स्वीकार करनी पड़ी । मैं 2 वर्ष को बर्बाद नहीं करना चाहता था इसलिए प्रवेश नहीं ले सका। मेरी इस प्रकार से दो नावों की सवारी करना मेरे लिए ही घातक सिद्ध हुई।
भाग- १९
कहां जाता है की मनुष्य जीवन में सफलता के मौके बार-बार नहीं आता यदि एक बार मौका हाथ से चुक जाए फिर तो कितनी भी प्रयास को करें मिलने वाली नहीं। मुझसे एक बार प्रवेश लेने का मौका छूट गया। सोचा अगले वर्ष और अच्छा प्रयास करूंगा तो अच्छा ट्रेड और विद्यालय भी अच्छा मिल जाएगा।
परंतु मनुष्य का सोचा यदि ऐसे होने लगे तो फिर बात ही क्या? अगले वर्ष मेरा प्रवेश किसी में भी नहीं हुआ । नहीं होना था नहीं हुआ। इसी बीच बीए कंप्लीट करने के पश्चात एम ए हिंदी साहित्य में छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर से किया।
एम ए करने के पश्चात लोगों ने सलाह दिया कि आईएएस पीसीएस की तैयारी करो । फिर उसकी करने लगा । एक तो मैं इतिहास कभी पढ़ा नहीं था परंतु इतिहास विषय में इतनी तिथियां याद करनी थी कि पूछो ही मत।दो-तीन वर्षों तक इसमें भी तैयारी करने के पश्चात छोड़ दिया।
फिर सलाह लेकर डीएम एलटी लैब टेक्नीशियन का डिप्लोमा कर लिया जाए। यदि कहीं पैथालॉजी लैब खोल लेते हैं तो रोटी पानी का जुगाड़ हो ही जाएगा।
मेरे ननिहाल के सुरेंद्र भैया का दिल्ली में कॉपरेटिव बैंक है। सुरेंद्र भैया ने कहा कि यदि मैं कॉमर्स में कुछ किया होता तो नौकरी लगवा देता । अब मां पीछे पड़ गई कि यदि मैं कामर्स से कोई कोर्स कर लूं तो समझो नौकरी पक्की । अब फिर क्या था राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय से पीजीडीएफएम में प्रवेश भी ले लिया।
क्या कोर्स में लिखा है मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया ।अंत में जो होना था वही हुआ। यहां भी असफलता हाथ लगी। सारा पैसा यहां भी डूब गया।
अब मुझे डॉक्टरी का चस्का लगा। मेरे पास के डॉक्टर नरेंद्र कुमार की होम्योपैथिक की क्लीनिक थी । मैं उसे सीखने लगा। इसी बीच एक दुकान पर डॉक्टर दरबारी की बायोकेमिक पर लिखी पुस्तक मिली जो उनके अनुभव पर आधारित है
फिर क्या था दवाओं को जैसा डॉक्टर दरबारी ने लिखा था वही समिश्रित मिलाकर लोगों को देने लगा।
लोगों को आराम भी मिलने लगा । फिर बात ही क्या थी । बन गया मैं डॉक्टर । थोड़ा अनुभव लेने के साथ ही मैं एलोपैथ की दवाएं देने लगा । मेरी दवाखाना चल निकली । 100 ₹200 बड़े आराम से कम लेता था ।
उसका कारण है हमारे गांव में मुस्लिम बस्ती ज्यादा है जहां पुरुष सभी मुंबई है उन शहरों में काम करते हैं महिलाएं घर में बीड़ी बनातीं है। वह पैसे देने में आनाकानी नहीं करतीं थीं। फिर मैं अपने गांव का डाक्टर बन गया ।
भाग- २०
मेरे गांव में लोग मुझे बहुत मान सम्मान करते थे क्योंकि उनकी नजरों में मैं एक अच्छा लड़का गिना जाता था। बचपन में मां कभी किसी के यहां आने जाने नहीं देती थी। उन्हें लगता था मैं कहीं बिगड़ ना जाऊं।
गांव में अभी भी चरित्र को प्रमुखता दी जाती है। दुनिया में आज किसी पर प्रतिबंध है तो प्रेम पर। गांव वाले यदि इस प्रकार की कोई घटना होती थी उसकी पूरी पंचायत बुलाते हैं । गांव के अधिकांश झगड़ा गांव के चौधरी सुलझा दिया करते थे।
प्रेमी युगल को मरने मारने की घटनाएं अक्सर हम सुनते रहते हैं। यदि हम ध्यान से पढ़े तो पेपर की अधिकांश खबरें प्रेम पर आधारित मिलेगी । भारतीय फिल्मों का मुख्य आधार देखा जाए तो प्रेम ही है।
यदि मनुष्य को सहज स्वाभाविक रूप से जीने दिया जाता रहता तो समाज में इतनी अराजकता नहीं फैलती। प्रेम पर लगाए प्रतिबंध का ही नतीजा है की नित्य प्रति ऐसी घटनाएं होती रहती है। मैंने कभी अपने गांव में ऐसी घटनाएं को होते नहीं सुना।
मेरी यह समझ में नहीं आता है कि लोगों को व्यक्ति की बुराई ही क्यों दिखती है । समाज में अच्छे काम भी तो होते हैं । परंतु उसकी चर्चा कोई नहीं करता। समाज में यदि अच्छी बातों को प्रोत्साहन दिया जाए तो वहीं से अच्छे लोग आगे आ सकते हैं।
मेरे गांव के मोड पर कुछ चाय पान की दुकानें हैं। जहां 10-5 लोग नियमित बैठे हुए आपको मिल जाएंगे । जो केवल बेकार की बातें करते हुए अपने दिन काट देते हैं। या तो ताश के पत्ते खेलते रहते हैं। मेरे गांव में लोग शराब भी खूब पीते हैं । मैंने कई परिवारों को शराब पीने से बर्बाद होते अपनी आंखों से देखा।
पीने के बाद व्यक्ति परिवार में लड़ाई झगड़ा शुरू कर देते थे। मेरे पड़ोस के भैया अपनी पत्नी को शराब पीने के बाद इतना मारते थे जितना लोग जानवरों को भी नहीं मारते होंगें । अधिकांश में वे ऐसा नशे की हालत में करते थे। जिसमें व्यक्ति अपने होशो हवास खो बैठता है।
हमने देखा है कि लोग शराब के नशे में करोड़ों की संपत्ति गवा देते हैं। भगवान बुद्ध शराब को सभी बुराइयों की जड़ माना है। सभी संतो ने शराब से बचने के लिए कहा है।
शराब पीने वाला व्यक्ति स्वयं तो बर्बाद होता है। साथ ही पड़ोसी और पूरे समाज को बर्बाद कर देता है। मेरे साथ के पढ़ने वाले गांव के दोस्त का शरीर नशे के कारण खराब हो चुका है। गांव में छोटे-छोटे बच्चे भी शराब पीने लगे हैं।
गांव में जो लड़के बचपन से ही बाहर के लोगों से ज्यादा संपर्क में रहे , काम की तलाश में गए उन्हें कुछ मिला हो या ना मिला हो परंतु शराबी अवश्य बना दिया है।
मैं गांव के बहुत से बच्चों को शराब छुड़ाने का प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हो पाया। इसका कारण यह भी रहा की सामने से वे संकल्प ले लेते थे, लेकिन जब पूरा गांव ही शराब में डूबा हो तो फिर वे उसी में डूब जाते थे।
भाग २१
पार्टनर के साथ रहते हुए एक ओर जहां सुविधा होती हैं वही समस्याएं भी होती है । समान विचारों का नहीं होने पर दिक्कतें भी कम नहीं आती है । मनुष्य स्वतंत्र रहने का इच्छुक सदा से रहा है क्योंकि मैं बचपन से ही अतः प्रवृत्ति का व्यक्ति रहा हूं इसलिए सोचता था कि यदि अलग से कमरा लेकर रहा जाए तो सुविधा होगी।
मैं कमरे को तलाश भी रहा था कि वह मिल भी गया। कीडगंज मोहल्ले में कमरा छोटा था लेकिन बहुत अच्छा था। मेरा बाथरूम सेफ्टी था जिसे केवल मैं ही प्रयोग करता था।
दूसरी सुविधा यहां यह हुए कि पास में पुस्तकालय था। क्योंकि पुस्तक पढ़ने के संस्कार मुझे बचपन से ही रहे हैं। मैं पुस्तकालय का सदस्य बन गया। प्रेमचंद्र ,रविंद्र नाथ टैगोर ,जय शंकर प्रसाद आदि के साहित्य को मैं पढ़ गया।
मैं नियमित इस पुस्तकालय जाने लगा । पत्र पत्रिकाएं तो वहीं पर लेकर पढ़ लेता लेकिन साहित्यिक पुस्तक को घर लाकर पढ़ता था। सही मायने में मेरी पुस्तकों के प्रति भूख कुछ यही मिट सकी।
कमरे से यमुना घाट नजदीक पड़ता था । जिसे 10 मिनट में केवल पैदल जाया जा सकता है। मैं प्रातः भ्रमण के लिए जाता तो रास्ते में मदन मोहन मालवीय पार्क पड़ता है। रुकने के बाद सरस्वती घाट पर कुछ देर तक बैठता।
घाट पूरी तरह पक्का बना हुआ है क्योंकि यह मिलिट्री एरिया में आता है । इसलिए भी साफ सफाई ज्यादा रहती है । घाट पर सीढ़ियां बनी हुई हैं । जहां बैठने पर लगता है कि स्वर्ग धरा पर उतर आया हो।
प्रेमी प्रेमिकाएं के जोड़े भी यहां देखे जा सकते हैं जो प्रकृति के मदमस्त भरे आंचल में एक दूसरे को समेट लेना चाहते हैं । वह घंटो घंटो बातें करते रहते। अधिकांश युवा जोड़े ही होते। परिवार के लोग विवाहित भी आते थे लेकिन दोनों के आने के मकसद अलग-अलग होते।
जहां एक तरफ युवा जोड़ों में एक होने की बेताबी दिखती वही विवाहित जोड़े शांत और निश्छल रहते थे । शादी के पश्चात शरीर के प्रति उतना मोह नहीं रह जाता है। बेताबी तो मिलने के बाद पूरी हो जाती है।
जोड़ों में आने वालों में अधिकांशत उच्च घरानों के लड़के लड़कियां होते हैं । जो बाप की हराम की कमाई हराम में ही खर्च कर रहे होते हैं। परीक्षा की तैयारी करने वाले तो हम जैसे लोगों की तरह अकेले ही आते थे।
शहरों में कमरा लेकर अधिकांशतः लड़के ही रहते हैं। लड़कियों की संख्या नगण्य हैं। यदि रहती भी है तो वह मात्र हॉस्टलों तक ही सीमित है। वह वहां से उतनी मनमौजी नहीं टहल घूम सकते।
इंटरमीडिएट के पश्चात मैं किसी कॉलेज में रेगुलर विद्यार्थी नहीं रहा जहां व्यक्तित्व निखर सकता हों। अधिकांश मैं प्राइवेट किया है । यदि मैं रेगुलर इलाहाबाद विश्वविद्यालय का छात्र होता तो व्यक्तित्व और अच्छा खिल सकता था। किसी के प्रति मन मे जो झिझक के भाव थे वह दूर हो जाते।
क्योंकि इंटर के पश्चात थोड़ी-थोड़ी विचारों में परिपक्वता आने लगती है । रैंकिंग के माध्यम से बच्चों के अंदर व्याप्त हेजीटेशन को दूर किया जा सकता है । हालांकि कभी-कभी यह भद्रता की सीमा तक बढ़ जाती है । जो कि कभी-कभी घातक सिद्ध होती है । परंतु थोड़ी-थोड़ी जिंदगी में छेड़खानी जरूरी भी होती है जहां दो दिल मिलकर भविष्य के सपने बुनते हो।
संस्कृत साहित्य में रचित जो अधिकांश ग्रंथ है प्रेम पर ही आधारित है । कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम प्रेम प्रधान साहित्य का उत्कृष्ट नमूना है और तुलसी, मीरा, कबीर सभी प्रेम के ही गुणगान गा रहे हैं । बस अंतर इतना है कि उनका प्रेम अलौकिक सत्ता के प्रति जुड़ गया है।
भगवान कृष्ण से बड़ा कौन प्रेमी होगा जिन्होंने राधा रानी को पत्नी रुक्मणी से भी ज्यादा मान्यता दी है। आज भी सभी कृष्ण भक्त राधा कृष्ण ही कह कर उनका भजन करते हैं । कोई रुक्मणी कृष्ण नहीं कहता । काश कृष्ण नाम का भजन करने वाले कृष्ण के दिव्य प्रेम स्वरूप का प्रचार प्रसार समाज में कर सके तो दुनिया इतनी विरान ना होती।
स्वयं बाल ब्रह्मचारी आदि गुरु शंकराचार्य जी ने भी आनंद लहरी और सौंदर्य लहरी जैसा दिव्य प्रेम ग्रंथ रचे । उन्हें मालूम था कि बिना प्रेम के जीवन नीरस है। यदि हम उनको पढ़ें तो हमें विश्वास नहीं होगा कि एक संन्यासी इतना कामुक वर्णन भी कर सकता हैं।
उन्होंने माता पार्वती के एक-एक अंग की सुंदरता का ऐसा वर्णन किया है कि पूछो ही मत। माता पार्वती के नैनों के साथ ही हृदय, वक्षस्थल आदि सबका उल्लेख किया है । क्या हम उन्हें घटिया आदमी कह सकते हैं ।
घटिया वे नहीं बल्कि हमारी सोच है। हमारे मन में प्रेम के प्रति इतनी नफरत भर दी गई है कि यदि हम सगे भाई-बहनों को भी साथ में बातचीत करते देख ले तो यही सोचेंगे कि जरूर दाल में कुछ काला है।
इस समाज में प्रेम को इतना बदनाम कर दिया है कि यदि वह कोई लड़के लड़कियां बातचीत कर रहे हो तो हम सोच ही नहीं सकते कि वह कुछ अच्छी बातें करते होंगे। हमारे मन में शंका जरूर उत्पन्न हो जाती है क्या हम इस समाज की स्वस्थ मानसिकता का सकते हैं।
एक प्रकार से देखा जाए तो हमारा सारा सामाजिक ढांचा ही रोग ग्रस्त है। जिसकी आज समाज को चिकित्सा करने की जरूरत है । समाज में प्रेम के प्रति जो फोड़ा निकल आया है उसका चीर-फाड़ करने की जरूरत है।
आखिर किसने प्रेम नहीं किया कृष्ण ने भी किया ,राम ने भी किया ,महावीर ने किया, बुद्ध ने किया ऐसा संसार में कोई देवी देवता नहीं है जो प्रेम न किए हो। हमारा चिंतन हमारे देश हमारी धारणा गलत है जिसे बदलने की आवश्यकता है।
ओशो को सेक्स गुरु कह कर बदनाम किया जाता है परंतु मैंने देखा है कि भारत में जितना उन्हें पढ़ा जाता है, हो सकता है किसी को इतना पढ़ा जाता हो । भारत में हजारों की संख्या में अच्छे संत हैं परंतु किसी की पत्रिका एकमात्र ओशो को छोड़कर सार्वजनिक बुक स्टॉल पर नहीं मिलेगी । यदि मिलेगी भी तो उनके मात्र चेलों के पास।
मैंने ओशो साहित्य को पढ़कर जानने का प्रयास किया कि आखिर उसमें ऐसा क्या है कि लोग उनके पीछे पड़ गए और अमेरिका जैसे खुली सोच रखने वाला देश भी उन्हें सलाखों के पीछे डालने को मजबूर हो गया।
उनके साहित्य में प्रेम के पुष्प खिलते देखा। अपने प्रवचनों में प्रेम की व्याख्याएं दी । सेक्स जैसे घृणित समझे जाने वाले विषय को सार्वजनिक मंचों पर प्रवचन मालाएं आयोजित की। उन्होंने समाज को नया चिंतन देने का प्रयास किया परंतु मुझे लगता है कि लोग उन्हें समझ ही नहीं सके।
वे अंधों के देश में आंख वाले बनकर आए और अंधों ने उन्हें भी अंधा बना दिया । आखिर एक बार हमें इस बात को सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि क्यों जो भी महापुरुष समाज की सड़ी गली मान्यताओं पर आवाज उठाता है तो उसको मौत के घाट उतार दिया जाता है।
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी को कहा जाता है कि 17 बार जहर दिया गया और स्वामी जी अपने योग बल से उसे बाहर कर दिया करतें थे। अंत में नन्ही बाई के द्वारा दिया गया ज़हर उनकी जान का दुश्मन बन गया। ना जाने कितनों को मौत की नींद सुलाता रहेगा यह समाज।
क्या हमने कभी यह सोचा है कि यदि हम किसी को याद करते हैं तो आंखों में एकदम से नूर आने लगता है, चेहरा गुलाबी हो जाता है, शरीर शक्ति से भर जाता है, कलम सहज में काव्य सुमन रचने लगता है।
भाग – २२
हरिद्वार में अध्ययन के दौरान जीवन में पहली बार मैं हॉस्टल में रहा । मेरा वाह्य व्यक्तित्व पूरी तरीके से यही खिल सका। मन में जो हेजिटेशन थी कुछ क्षण तक कम हुए। क्योंकि हम यहां साथ साथ बातचीत करते, खाते पीते रहने से मन में उनके प्रति जो विकार थे वह कुछ कम हुए।
मेरी क्लास में एक छात्रा थी। उसे जब मैं प्रवेश परीक्षा के समय देखा था तभी जैसे उसने जादू सा कर दिया हो। पता चला कि उसका प्रवेश भी हमारे क्लास में हुआ है।
देव संस्कृति विश्वविद्यालय में फूलों के बागान बहुत सुंदर हैं । मैं क्लास में खिड़की के पास बैठता जहां से हिमालय की प्राकृतिक छटा का नजारा सहज में दिखलाई पड़ता था।
मैंने अपनी जिंदगी में जितनी कविताएं रची है उस समय की ही हैं। वह दूसरी साइड में बैठती थी । उसे देखकर सहज में कविताएं उतरने लगती थी। परंतु यहां भी मैं प्रेम में धोखा खा गया।
मैंने कभी उससे प्रेम मोहब्बत की बात ही नहीं कि जब कभी बातें करता तो केवल पढ़ाई-लिखाई की करता। मैं उसे एक तरफा प्यार करता रहा परंतु यह जानने का प्रयास नहीं किया कि वह करती है या नहीं।
उससे खुलकर प्रेम का इजहार इसलिए भी नहीं कर पा रहा था उस समय मेरा पुराना मकान गिर चुका था। खेत गिरवी रखे थे । घर के हालात बहुत खराब चल रहे थे । जबकि उसके रहन-सहन से लगता था कि वह अच्छे समृद्ध परिवार से है । उसके एक बार भैया भाभी भी आए थे । उनसे बातचीत भी की थी।
मुझे लग रहा था कि उसे मैं वह सुख नहीं दे पाऊंगा जो किसी के परिवार वाले रखते है। उस समय हमारे कई दोस्तों के प्रेम अपने सवाब पर थे।
राजा , मनीष तो खुलकर इजहार कर चुके थे जिनकी चर्चा शिक्षकों तक भी पहुंच चुकी थी। बाद में राजा ने जो गाजीपुर के रहने वाले हैं उसे अपना प्यार मिल गया । उनकी पत्नी वंदना जी भी बहुत मजाकिया थी । वह बहुत मोटी और गौणवर्ण की सफेद चांदनी जैसी है। वह अंग्रेजों जैसी दिखती है।
मनीष भाई भी बड़े मस्त मौला किस्म के थे। उनका चक्कर भी सीनियर क्लास के किसी लड़की से चल रहा था । वह भी कभी-कभी क्लास में बैठे-बैठे अक्सर वे उसके लिए कविताएं लिखा करते । वह ओशो के भक्त थे। जिसके कारण भी अक्सर चर्चा में रहते थे।
उनका प्रेम परवान तो चढ़ा लेकिन शादी में नहीं बदल पाया। इसी प्रकार हमारी क्लास में भरत थे । वह भी मस्त फकीर जैसे थे। कभी तो दाढ़ी बाल बढ़ाकर बाबा बन जाते तो कभी सफाचट । उन्हें बाबा जी भी कहते थे सभी।
उन्हें क्लास से निकाल दिया गया था लेकिन परीक्षा देने के अनुमति गई थी । एक प्रकार से अधिकांश लड़के लड़कियां ऐसे थे हमारे कक्षा में जो सामाजिक बंधनों को मानने को तैयार नहीं थे। वे स्वतंत्र जीवन जीना चाहते थे । समाज की सड़ी गली मान्यताएं उन्हें पसंद नहीं थी। वह सभी जीवंत और जागृत आत्माएं थे । लेकिन समाज के लिए ऐसे लोग सदा से ही घातक सिद्ध हुए हैं।
समाज को मुर्दे लोगों की जरूरत है । एक प्रकार से देखा जाए तो जो बच्चा ज्यादा तेज होता है । बात-बात में प्रश्न पूछता है । उसे डांटकर बैठा दिया जाता है । कभी-कभी तो उसका नाम काटकर स्कूल से निकाल दिया जाता है। जो बालक कुछ नहीं बोलता, ना अध्यापकों से प्रश्न करता है।
ऐसे मुर्दे बच्चों को कहा जाता है कि कितना अच्छा बच्चा है। मरे हुए समाज को मुर्दे बच्चे ही तो अच्छे लगेंगे। मैंने देखा कि जब मैं प्रश्न पूछता था तो हमें डांट कर बैठा दिया जाता था।
पूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी पर एक पेपर था। जिसे चारु दीदी पढ़ाती थी ।वैसे उनकी पकड़ तो अच्छी थी वह पढ़ाती भी अच्छी थी। परंतु हमारे प्रश्न विषय से हटकर थे जो वह नहीं बता पा रही थी।
वह एक बार हाथ जोड़कर बोलीं ऐसे प्रश्नों को जितेन्द्र भैया से पूछना। प्रैक्टिकल में मुझे उन्होंने पेपर में जीरो नंबर दिया। जिसे मैं क्रोध में फाड़ डाला। वार्षिक परीक्षा में मैं उस विषय में असफल हो गया।
जिसके कारण मेरा एक वर्ष और बर्बाद हो गया। मेरी यह नहीं समझ में आया कि जिस विषय में दीदी ने हाथ जोड़ लिए उस विषय के लिए मैं इतना नकारा सिद्ध हुआ कि जीरो नंबर देना पड़ा।
प्रेम करना सदा से एक खतरा समझा जाता रहा है । सामने से लोग तो मिलने जुलने देते नहीं थे। इसलिए चुप-चुप कर मिला करते । विद्यालय में ही महाकाल का मंदिर है। सायं काल के समय लड़के लड़कियां वही एकत्रित होते ।
आपस में वार्तालाप करते। भविष्य के सपने भी देखे जाते। हमारे गुरु जी अमृतलाल है ।वह बहुत मस्त मौला थे। वे बच्चों से हिल मिलकर रहते थे । हम लोग कोई भी बात उनसे छुपाया नहीं करते थे । प्रेम प्रसंग की चर्चा भी उनसे कर लेते थे।
उनकी अभी शादी नहीं हुई थी। एक दिन उनसे जब इस प्रेम पर चर्चा किया तो वह मुस्कुराने लगे । उन्होंने प्रेम पर आधारित अखंड ज्योति पत्रिका का एक संकलन बनाया हुआ था वह दिखाया। मुझे वह प्रेम के अवतार लगे।
मैंने एक बात का जीवन में अनुभव किया कि जिस बात का हम ज्यादा विरोध करते हैं वही ज्यादा फैलती है । लड़के लड़कियों से मिलने के लिए विद्यालय में जितना प्रतिबंध लगाया जाता था वह उतना ही उग्र रूप लेने लगा।
नित नए-नए प्रतिबंध लगने लगे। परंतु उसका कोई ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा । मेरी कक्षा का बदनाम कक्षाओं में गिनती होती है। छुप छुप कर आज तो कल लगा रहा परंतु हमारे कक्षाओं के साथियों ने तो कुछ आती ही कर दी थी।
होली का त्यौहार आने वाला था । सब घर जाने की तैयारी में थे । ऐसे में यह प्लान बनाया गया की जमकर होली मिलन समारोह किया जाए। मनीष भाई उसके अगुआ थे।
होली का प्रोग्राम इतना गुपचुप बनाया गया कि किसी को भी खबर नहीं हो सके । क्लास में सभी लड़के लड़कियों ने खूब एक दूसरे पर अबीर गुलाल लगाया ।हमारी कक्षा में सबसे ज्यादा उम्र की अंजू दीदी थी उन्होंने भी खूब होली खेली सबसे होली। खेलने के बाद भी दिल किसी को खोज कर रहा था।
मैं सबसे होली तो खेल लिया अंतिम में उनसे खेलने में संकोच हो रहा था । लेकिन अचानक जब सामने आए तो मौका देखकर उसके चेहरे पर भी लगा ही दिया । लगा जीवन के जैसे कोई आस पूरी हो गई हो। उन्होंने भी थोड़ी सी अबीर लगा दिया।
नजर एक दूसरे से मिली तो मुस्कुराने लगे। दिलों के बीच दूरियां खत्म हो गई । यह होली हमारे जीवन की यादगार रही ।जिसको याद करके आज भी दिल को सुकून महसूस होता है।
बाद में शिक्षकों द्वारा डांट ना पड़े इसलिए कमरे की अच्छी तरह से सफाई कर दी गई ।लेकिन बाद में फिर भी कुलपति जी द्वारा डांट सभी को खाने पड़ी। लेकिन फिर भी सभी के चेहरे पर संतोष का भाव व्याप्त था।
कुलपति जी बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे। उन्होंने कहा कि होली खेलते हुए भी शालीनता बनाए रखनी चाहिए । इससे नहीं तो समाज में गलत संदेश जाता है। हालांकि तुम लोग समझदार हो सही गलत को समझ सकते हो।
भाग- २३
देव संस्कृत विश्वविद्यालय हरिद्वार में अध्ययन करना हमारे जीवन के अमूल क्षणों में था। वे पल अभी भुलायें नहीं भूलते ।जैसे कृष्ण को वृंदावन गोकुल नहीं भूलता था। वैसे मुझे नहीं भूल रहा है।
वास्तव में देखा जाए तो धरती पर ईश्वर कहीं है तो वह यही मुझे लगा । वहां के प्राकृतिक छटाएं सहज ही व्यक्ति के मनो मस्तिष्क को मोह लेती हैं।
हम लगभग प्रतिदिन सायं काल के समय गंगा के घाट पर जो 1 किलोमीटर के लगभग था जाया करते। हरिद्वार में अधिकांश घाट पक्के सीमेंट ईटों के बनाए गए हैं। गंगा मां का जल यहां इतना शीतल है कि जैसे बर्फ हो । गंगा घाट पर बैठे हुए इतनी शांति मिलती थी की मन प्रेम एवं आनंद से भर जाता था । कल कल बहती नदी की धाराओं के बीच के नजारे को देखकर ऐसा लगता था जैसे धरती पर स्वर्ग उतर आया हो।
जब तक किसी के जीवन में समस्याएं नहीं आते तब तक सही मायने में उसके व्यक्तित्व में निखार नहीं आता। समस्याएं दुख परेशानी या हमारी परीक्षा लेने के लिए ही आती है । यदि हम उसे सकारात्मक ले तो वही हमारे लिए वरदान सिद्ध होती हैं।
मैं जब अपनी जिंदगी में पीछे मुड़कर देखता हूं तो मन एक तरफ तो दुखित होता है कि प्रभु इतनी मुसीबत किसी को ना दे जितनी मुझे दिया। परंतु दूसरी तरफ एक बात की खुशी भी होती है कि यदि जिंदगी में इतनी समस्या है ना आए होती तो हमारा जीवन इतना ना खिलता।
मैं देखता हूं हमारे अधिकांश दोस्त सामान्य रूप से 10वीं या 12वीं तक ही पढ़ सके । उनके घर परिवार में सारे सुख साधन था यदि चाहते तो जो भी पढ़ना चाहते पढ़ सकते थे। मां बाप ने हर संभव प्रयास भी किया कि बच्चा पढ़ जाए परंतु यह नहीं पढ़ सके।
मेरा भांजा विकास मेरी बहन का इकलौता लड़का है। उसके माता-पिता ने बहुत प्रयास किया कि वह थोड़ा पढ़ लिख ले परंतु हाई स्कूल भी नहीं पढ़ सका। ऐसे ही मैंने कई लोगों के जीवन में देखा है।
ज्ञान को मां सरस्वती के रूप में पूजन की परंपरा हमारे समाज में व्याप्त है । कहते हैं कि मां की कृपा विरले लोगों पर ही बरसती है । एक लेखक अपनी कृतियों के माध्यम से जीवित रहता है । आज सूर, कबीर, तुलसी , मीरा नहीं है परंतु उनकी कृतियां पढ़ने के पश्चात लगता है जैसे जीवंत हो।
मैंने अपने जीवन में यह अनुभव किया है कि हमारा पूरा का पूरा सामाजिक ढांचा शोषण पर आधारित है । हर उच्च व्यक्ति अपने से निम्न को शोषण करने की ही सोचता है। कोई अमीर व्यक्ति किसी गरीब की सहायता नहीं करता बल्कि यही सोचता है कि इसका उपयोग भविष्य में किस तरीके से किया जा सकता है।
हमारे धर्म गुरुओं ने शास्त्रों की आड़ लेकर सामाजिक मान्यता भी प्रदान कर दिया है।जिसके कारण समाज विभिन्न वर्गों एवं जातियों में बटकर रह गया है। उच्च समझे जाने वाले जातियों में निम्न वर्गों का हजारों वर्षों से शोषण किया है और आज भी शास्त्रों की आड़ में कर रहे हैं।
मैं बहुत से संस्थाओं के लोगों से मिला उनके साथ रहा परंतु कहीं ऐसा नहीं लगा कि कोई हृदय से हमारी सहायता करना चाहता है । या किसी ने कोई सहायता की भी तो उसकी भरपूर कीमत भी वसूली।
धार्मिक संस्थाओं में रहते हुए अनुभव किया कि अधिकांश लोगों ने हमें भावनात्मक शोषण का ही शिकार बनाया। मुझे लगता है कि इसीलिए कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम की गोली कहा है।
किशोरावस्था में अभी कदम रखा ही था। उस समय मुझे सही गलत की तरकीब नहीं थी । उस समय बस जिसने जैसा बताया मैं करता गया । मैं दिन को दिन एवं रात को रात नहीं समझता था। और सेवा कार्यों में लगा रहता था मैं दीवार लेखन भी छुपाकर करता था । घर वाले नाराज होते हैं इसलिए चोरी से दीवारों में लिखता था।
यदि मुझे अपने किसी रिश्तेदारी में जाना होता तो बैग में छुपा कर लिखने की सामग्री रख लेता और फिर निकालकर रास्ते भर लिखता और सायं काल जिसके घर जाना होता पहुंच जाता। घर परिवार की समस्याओं को भी नजर अंदाज करके मैं सेवा करता था । परंतु इस सेवाओं के बीच में देखा की जो मठाधीश बनकर बैठे हुए हैं वे एक सामान्य नौकरों जैसा सलूक करते हैं।
कार्यकर्ता चाहे समाज में जितना कार्य करें उसकी कोई गिनती नहीं होती। बस यही कह कर थोड़ी शाबाशी दे दी जाती है कि आप बहुत अच्छा कर रहे हैं। परंतु यदि आप कोई स्वतंत्र विचारधारा देना चाहे तो जलील करके ऐसा चुप करा दिया जाता है कि आप दोबारा अपना मुंह खोलने की हिम्मत नहीं जुटा सकते।
हमारे साथ कार्य करने वाले कई कार्यकर्ताओं को जो कि गरीब परिवार से है चाहे जितनी मेहनत करते हो उनकी कहीं कोई ज्यादा पूछ नहीं होती थी। यही हालात लगभग सभी धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं की है। इसलिए मैं किसी पर व्यक्तिगत रूप से आक्षेप नहीं लगाना चाहता । जब समाज बना हुआ ही है शोषण के लिए तो किसी की क्या गलती हो सकती है।
हो सकता है कि शोषण आधारित सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन करने के लिए समाज के कुछ ऐसे चिंतकों का जन्म हो जो शास्त्रों में की गई शोषण आधारित व्यवस्थाओं को नए सिरे से परिभाषित कर सके।
भाग – २४
मेरे मन में किसी के प्रति भी कोई द्वेष भाव नहीं है। मैं यह सब केवल हजारों वर्षों से दास्तां की जंजीरों में जकड़े उन देशवासी भाइयों के लिए लिख रहा हूं जिन्होंने दूसरों की सेवा करना, उनके साफ-सफाई करना, मलमूत्रो की सफाई करने में कभी संकोच नहीं किया।
फिर भी हमारे समाज के कर्णधारों ने उन्हें अछूत कह कर सदा दूर रखा है। यह शास्त्रकार कुत्ते , बिल्ली का जूठन तो खा सकते हैं पर निम्न जातियों का दर्शन करना भी अशुभ मानते हैं।
मैंने स्वयं बचपन में ऐसा होते हुए अनुभव किया है । दुनिया चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो परंतु भारतीयों की मानसिकता में बदलाव अभी भी कोई कहीं परिवर्तन आया हो ऐसा मुझे नहीं लगता।
एक दिन सफाई करने वाला सुंदर भाई भी अपने दुखड़े को कहने लगा कि लोग मुझे वाल्मीकि समाज का कहकर तिरस्कार करते हैं। आखिर मेरे समाज के लोग दूसरों का मैला ना उठाए तो सोचिए क्या स्थिति होगी?
उसके दुखों को केवल अनुभव किया जा सकता है शब्दों में व्यक्त करना मेरे बस की बात नहीं। मुझे तो लगता है कि यदि तीसरा विश्व युद्ध होगा भी तो इस शोषण आधारित सामाजिक व्यवस्था के विरोध में ही होगा। इसलिए आवश्यकता आ पड़ी है कि हम अपनी सोच में परिवर्तन लाए।
जिंदगी यूं ही अपनी गति से बढ़ती जा रहे थी । उसका कहां मुकाम होगा कहां रुकेगी या यू ही चलती रहेगी कुछ भी नहीं पता चल पा रहा था। मैं भी अबोध शिशु की भांति उसका आनंद ले रहा था। कभी प्रसन्न होता तो कभी दुखों में डूब जाता।
कहां भी तो गया है कि सुख-दुख के थप्पड़ों के बीच जूझते रहने का ही नाम जिंदगी है। कोई कोई प्रभु के प्यारे भक्त ही बच पाते हैं । आनंद स्वरूप तो एक मात्र प्रभु ही है । जिसकी चरण यदि हमें मिल जाए तो यह जिंदगी निहाल हो सकती थी। परंतु सांसारिक माया इतनी लुभावनी होती है कि उसे बचना सरल नहीं है।
हिंदी साहित्य से एम ए कर लेने के पश्चात भी लगता था कि जिंदगी में कुछ कमी है। मैं उस समय बड़ा शांत रहता था। कभी-कभी घंटे-दो घंटे गंगा तट पर बैठकर नदी की जलधारा को निहारा करता। उसके बीच ऐसा शांति मन में सहज विराजने लगती थी कि कहना मुश्किल है।लोगों से बातचीत करना अच्छा नहीं लगता था। इसलिए अक्सर मैं अकेले ही रहता था।
पार्टनर के साथ भी पट नहीं रहा था। इसलिए कमरा भी छोटा सा अकेले ले लिया जहां चिंतन मनन में किसी प्रकार का व्यवधान ना हो । मन में बार-बार यह प्रश्न गूंजता की क्या है जिंदगी के मायने?
आखिर जब स्कूली शिक्षा से शांति नहीं मिल पा रही है तो कोई न कोई ज्ञान जरूर होगा जिसको पाकर जिंदगी आनंद से परिपूर्ण हो सकता है।
इसी बीच बाल योगेश्वर जी महाराज के प्रवचनों पर आधारित शब्द ब्रह्म पत्रिकाएं बहुत सी पढ़ गया था । रामबाग प्रयागराज की पुरानी दुकान पर पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य की पुरानी अखंड ज्योति पत्रिका की एक प्रति मुझे मिला । उसको मैंने बड़े चाव से पढ़ा । उसमें उनके प्रवचनों के दिए गए थे । उस प्रवचन की भाषा शैली बहुत ही सुन्दर और सरल था कि कोई सामने से उसे बैठकर सुना रहा है।
प्रवचन के एक-एक शब्द ऐसे थे जैसे मेरे लिए ही लिखी गई हो। आज जहां व्यक्ति चार अक्षर क्या जानने लगता है उसका भाव ही नहीं मिलता । वही उनके प्रवचन में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे ऐसा लगता हो कि प्रवचन करता ज्ञान के डींगे हांकते हो।
लगता है सद्गुरु स्वयं मेरे घर आ गए हो । हमारी प्यास को बुझाने। हमारे घर परिवार से भी कोई व्यक्ति इस प्रकार से किसी कार्यक्रम में कभी शामिल नहीं हुआ था। हमारे घर में तो पिताजी गाजी मियां के पुजारी रहे। उन्हें सत्संग प्रवचन से ज्यादा कोई लगाव नहीं रहा।
हमारे गांव में भी कोई सत्संगी नहीं था । जो हमारी जिज्ञासों को शांत कर सकता हो । एक दो बड़े बूढ़े लोगों से चर्चा भी की परंतु जो व्यक्ति जिंदगी भर संसारी माया के पीछे भागा हुआ क्या बता सकता है । अक्सर लोग नकारात्मक विचार ही देते जिस निराश होने के अलावा कोई चारा नहीं था।
लोगों का तर्क रहता था कि तुम इन बाबाओं के चक्कर में कहां फंसकर अपनी जिंदगी तबाह करने पर तूले हो । पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी पाने का प्रयास करो । जेब में जब पैसे होंगे तो सभी पूछेंगे । उन लोगों का पढ़ाई का अर्थ मात्र नौकरी करना है। उन सबकी बातों से मुझे कोई संतुष्टि नहीं मिली।
मेरी मकान मालकिन भी खूब पूजा पाठ करती थी । परंतु बाबाओं को नहीं मानती थी । उनसे भी मैं खूब तर्क वितर्क करता । वैसे वह बहुत अच्छी इंसान थी । उनके घर में रहते हुए लगता था जैसे अपने ही घर में हो। कभी-कभी उनके घर में भोजन भी कर लिया करता था।
उनकी बहू भी पूजा पाठ किया करती थी । उनसे प्रश्न पूछने पर मुस्कुरा देती लेकिन कोई सार्थक उत्तर नहीं दे पातीं ।कभी-कभी अपनी समझ से बताने का अभी प्रयास करती है वह बहुत ही सालीन महिला थी।
उनके पति बच्चा भैया बहुत ही मोटे तगड़े थे । जैसा नाम वैसे ही उनके गुण थे । एकदम उनका स्वभाव बच्चों जैसा ही था। मैंने देखा है कि नाम का प्रभाव मनुष्य के जीवन में होकर रहता है। इसीलिए व्यक्ति के नाम बहुत सोच समझ कर रखे जाते रहे हैं।
इन प्रश्नों में ऐसा उलझा के मेरी तबीयत खराब हो गई । लोग समझते कि इन प्रश्नों में कोई फायदा नहीं है । मकान के सामने की तरफ बरामदा था। जहां मोहल्ले की महिलाएं इकट्ठा होकर अपनी राम कहानी छेड़ देती थी।उनसे भी मैं कभी-कभी तर्क वितर्क करता लेकिन अन्ततः कोई समाधान नहीं निकल सका।
भैया घर बुलाकर डॉक्टर को दिखाया कि क्या हो गया है मुझे? नीम हकीमो से झाड़ फूंक भी करवाई गई। हमारा गांव पिछड़े क्षेत्र में होने के कारण इस प्रकार के अंधविश्वास ज्यादा प्रचलित थे।
यदि कोई बीमार हो जाता है तो लोग उसे डॉक्टर को दिखाने की अपेक्षा झाड़-फूंक करवाना ज्यादा उचित समझते हैं । मेरी मां तो पूर्णत ऐसी अन्य परंपराओं की भक्तिन थी । पिताजी तो जब तक पूजा करते रहे थे। वह तो मैं बचपन में देखा था कि बकरा बकरी मुर्गा मुर्गी जैसे जानवरो की बलि भी चढ़ाते थे।
हमारे गांव में ऐसे 5-10 पुजारी थे जो ऐसे देवताओं की पूजा किया करते थे । मुझे झड़ने के लिए सोखा बाबा बुलाए गए। जो हमारे दादा लगते थे ।उन्होंने हमारे पिताजी को पुजवाया था। इस प्रकार से हमारे पिताजी के गुरु थे । जब भी पिताजी मृत्यु के पश्चात कोई बीमार होता तो वही बुलाए जाते थे।
मेरा उस समय पुराना घर था । उसी में एक कमरा अलग से पूजा के लिए छोटा सा था ।जिसमें गाजी मियां के त्रिशूल गाड़ कर स्थापना की हुई थी । उसमें बिना कार्य किसी को जाना माना था । अक्सर उस कमरे में ताला बंद रहता था जब कोई विशेष कार्य होता तभी उसे खोला जाता था।
सोखा बाबा जाति के यादव थे। वे लगभग 70 वर्ष के बूढ़े हो चुके थे । फिर भी यदि कोई उनके घर दुख तकलीफ सुनाने पहुंच जाता तो उसको मना नहीं करते थे। बल्कि हर संभव उसकी सहायता ही करने का प्रयास करते । यह कार्य वह निस्वार्थ भाव से करते थे । लेकिन कुछ लोग इसे व्यवसाय भी बना लेते हैं।
एक बात मैंने विशेष रूप से अनुभव किया के जिन घरों में इन देवी देवताओं की पूजा होती है उनके घरों में अक्सर कोई न कोई बीमार परेशान ही रहता था । मेरे परिवार में भी बचपन से ही मैं देख रहा हूं कि कभी दीदी तो कभी भाभी बीमार होती रहती थी।
एक बार तो बड़े भैया भी बीमार हो गए थे । वह पागलों की तरह हो गए थे । ऐसी बीमारी को गांव में झाड़ मारना कहते हैं। एक प्रकार से यह एक दूसरे के प्रति नफरत के भाव से किया जाता है। महिलाओं को इसका शिकार ज्यादा बनाया जाता है।
मुझे इस प्रकार की कोई समस्या नहीं कह कर हमें झाड़-फूंक से मुक्त कर दिया गया। मेरी मां फिर भी बार-बार पूछते कि मलिक आखिर सेवक को क्या हुआ है ?
वह क्यों बीमार है ?
मेरी मां जब किसी के शरीर पर ऐसे देवी देवता प्रकट होते तो ऐसे ही प्रश्न पूछा करती थी?उन्हें इन सब बातों पर पूर्ण विश्वास था। झाड़ फूंक से मुक्त होने के पश्चात भी मेरी बीमारी ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी। इस प्रकार से महीना बीत गए । दवाएं खाता धीरे-धीरे स्थिति सामान्य होने लगी।
स्वयं के जानने के प्रति हमारे मन की जिज्ञासा फिर भी शांति होने का नाम नहीं ले रही थी ।कहते हैं कि व्यक्ति दुनिया का चाहे जितना ज्ञान प्राप्त कर ले परंतु जब तक स्वयं को नहीं जान पाए तो सारा ज्ञान अधूरा माना जाता है । जो व्यक्ति स्वयं को जान लेता है वही सच्चे अर्थों में सांसारिक ज्ञान को समझ सकता है।
ऐसा व्यक्ति देखने में तो सामान्य सा दिखता है परंतु उसके क्रिया कलाप सांसारिक मनुष्यों से बहुत अलग होते हैं । जैसे नांव यदि जल में तैरती रहे तो कोई परेशानी नहीं परंतु नाव में यदि जल आ जाए तो उसे डूबने से कोई नहीं बचा सकता संसार में हमें नदी नाव की भांति व्यवहार करना चाहिए।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहते हैं कि संसार में हमें जैसे कटहल काटते समय यदि हाथ में तेल लगा लिया जाए तो उसका रस हमारे हाथ में नहीं चिपकता है। इसी प्रकार यदि हमें ब्रह्मज्ञान हो जाए तो संसारी भोग विलास हमें परेशान नहीं कर सकते।
भाग- २५
सच्चा और अच्छा लेखन वही होता है जो आजीवन शिष्य की भांति जिज्ञासु बना रहता है जहां व्यक्ति के लगने लगे कि वह सब कुछ जानता है उसकी उन्नति वहीं से खत्म हो जाती है।
कहते हैं साहित्यकार संत होता है जो कि अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को रोशनी प्रदान करता है । साहित्यकार साधक होता है जो कि अपनी सतत साहित्यिक साधन के माध्यम से परमात्मा के सौंदर्य का गुणगान किया करता है।
साहित्यकार दार्शनिक होता है जो समाज को दृष्टि प्रदान करता है। साहित्यकार समाज सुधारक होता है जिसकी लेखनी समाज में नई क्रांति की सृष्टि प्रदान करती है।साहित्यकार योगी तपस्वी ध्यानी होता है जो कि अपनी साहित्यिक योग साधना की तपस्या के माध्यम से उसे परमात्मा का साक्षात्कार करता है जो की एक योगी तपस्वी करने के प्रयास में लगा रहता है।
हमारे जीवन में जिन महान लेखकों का विशेष प्रभाव पड़ा उनमें से एक थे– महान लेखक, योगी, तपस्वी, समाज सुधारक है आबिद रिजवी। देखा जाए तो आबिद रिजवी सभी अर्थों में खरे उतरते हैं क्योंकि लगातार पिछले 40 वर्षों की गहन साधना से उन्होंने वह सभी कुछ पा लिया है जो की एक योगी तपस्वी समाज सुधारक दार्शनिक पाना चाहते हैं। इसके साथ ही वह एक श्रेष्ठ गृहस्थी योगी भी हैं उनका परिवार के प्रति समर्पण समाज के लिए दिशा प्रदान करता है।
उनका जन्म 6 फरवरी 1942 को प्रयागराज के कर्नलगंज कस्बे में हुआ था। उनके पिता का नाम जब्बार हुसैन एवं मां का नाम एजाज बानो था। उनके माता-पिता बहुत नेक दिल इंसान थे।
जन्म के समय बालक की आंखें इतनी नशीली थी कि एक बार नजर पड़ जाए तो हटने का नाम नहीं ले। बालक ऐसे एक टक देखता रहता था जैसे दिल में समाना चाहता हो , ईद के चांद की तरह बालक बढ़ने लगा।
अपने बचपन को याद करते हुए आबिद रिजवी कहते हैं मेरे लिए मेरी पहली शिक्षिका मां थी। मां के संस्कार बच्चों को आजीवन प्रभावित करता है। एक आदर्श मां सौ टन धर्म गुरुओं से भी महान होती है। बच्चा वही बनता है जो मां उसे बनाती है ।इसीलिए नेपोलियन बोनापार्ट कहता है कि तुम मुझे एक आदर्श मां दो मैं तुम्हें नए राष्ट्र दूंगा।
बचपन में मां को कभी किसी के साथ लड़ते झगड़ते नहीं देखा। खुदा की इबादत पांचो वक्त नमाज अता करती । वह मुझ पर कभी दबाव नहीं डालते थी कि मैं भी नमाज पढ़ूं। मेरे अब्बा जान भी बहुत जिंदादिल इंसान थे।
गरीबों असहायों की सहायता करना उनके स्वभाव का हिस्सा था । वह मस्त मौला फकीर की तरह थे । कभी-कभी वह अपने तन के वस्त्र भी दे देते थे। अम्मी को जब मालूम होता तो समझाती परंतु अगले दिन फिर वही फकीरी धारण कर लेते थे।
लगता है वही फकीरी आबिद रिजवी के जीवन में भी आ गई थी । बाल्यावस्था से ही वे मस्त मौला थें ।जो भी मिला खा लिया जहां जगह मिली सो गए कभी ज्यादा सोच विचार नहीं किया।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा मोहल्ले के मदरसे से शुरू हुई। एक हाफिज जी पढ़ाने आते थे ।बच्चों की संख्या 30- 40 थी। इस प्रकार की रटन्तु विद्या उन्हें रास नहीं आ रहे थे। उन्हें लगता था कि इस प्रकार से पढ़ लिखकर क्या होगा ?
वह जिंदगी की किताब पढ़ना चाहते थे। जिंदगी का एक-एक क्षण क्या हमें कुछ नहीं सिखा सकता? प्रकृति सबसे बड़ी पुस्तक है । जो व्यक्ति यदि सीखना चाहे तो प्रकृति की पाठशाला में इतना कुछ सीख सकता है जितना वह स्कूलों में भी नहीं सीख सकता।
आबिद रिजवी मानते हैं कि जो मौज मस्ती मैंने मदरसे की पढ़ाई के समय किया वह आनंद कभी नहीं आया । कुरान पाक का ज्ञान हमारे जीवन को पवित्र बनाता है । हालांकि मैंने वेद , उपनिषद , बाईबल, गुरु ग्रंथ साहिब आदि को भी पढ़ने समझने का मौका मिला। क्योंकि मुझे लिखना पड़ता था ।
मैंने सभी धर्म के पवित्र ग्रंथों के अध्ययन के पश्चात देखा कि सभी सत्य मार्ग पर चलने, गरीब असहायों के प्रति दयालु बनने, जीवन को पवित्र पाक साफ रखने ,जिस खुदा ने जीवन दिए हैं उसे कुछ छड़ो तक याद करने की सलाह देते हैं । कोई यह नहीं सिखाता की झूठ बोलों , चोरी करो ,दूसरों को सताकर उसका छीन ले।
अब तो मजहब भी कोई ऐसा चलाया जाए,
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
उनकी उच्च शिक्षा कर्नलगंज इंटर कॉलेज प्रयागराज से हुई। यहीं से उन्होंने इंटरमीडिएट किया।
इसी बीच वह कुछ-कुछ लिखने लगे थे। प्रयागराज के दारागंज मुहल्ले में ही छायावाद के सुप्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी भी रहते थे। निराला का फक्कड़पन युवा आबिद के दिल को मोह लिया था।
आबिद जी ने कुछ कविताएं लघु कथाएं आदि लिखी थी । उनकी इच्छा थी कि निराला जी को इन रचनाओं को सुनाएं। परंतु इसका मौका उन्हें नहीं मिल पाया। आबिद जी कहते हैं कि मैं संकोच बस भी उन्हें नहीं सुनाना चाहा ।
निराला जी का शरीर इतना आकर्षण था के देखने वाला देखते ही रह जाता, बड़ी-बड़ी दाढ़ी मूछ घुंघराले लंबे बाल, कुर्ते पजामे के ऊपर दूसाला ओढ़े ऐसे लगते थे जैसे कोई देव दूत।
आबिद रिजवी जी ने अपने जीवन में बहुत खूब लिखा । इतना लिखा कि उन्हें खुद भी पता नहीं है कितना लिखा। साहित्य की कोई ऐसी विधा नहीं है जिस पर उन्होंने कलम न चलाई हो। उत्तर प्रदेश का कोई भी बस अड्डा रेलवे स्टेशन ऐसा नहीं मिलेगा जहां पर उनके द्वारा लिखित साहित्य ना उपलब्ध हो।
उनके द्वारा लिखा गया विशाल लुगदी साहित्य आम जनमानस के पहुंच के अंदर था। यह इतना सस्ता है कि एक गरीब से गरीब व्यक्ति भी सहज में खरीद सकता है। उनके द्वारा लिखे साहित्य को मैंने दिल्ली के बाजारों में तौल के भाव बिकते देखा है।
एक प्रकार से वे जमीन से जुड़े हुए साहित्यकार हैं। उनके व्यक्तित्व को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि कोई एक अकेला व्यक्ति इतना महान साहित्य लिख सकता है।
भाग- २६
हमारे गांव में एक राम अचल जी थे। वह अधिकांश अपने ससुराल में रहा करते थे। क्योंकि उनके साले नहीं थे। बिना साले की शादी के वह विरोध में थे लेकिन माता-पिता ने दबाव में उनकी शादी कर दिया था ।
जिसके कारण अक्सर वे अपने माता-पिता से नाराज रहा करते थे। वह ऐसा मानते थे कि दूसरे को मिले धन से बरक्कत नहीं होती है लेकिन उनकी मजबूरी बन गई थी उनका ससुराल में रहना।
एक बार में ससुराल में बहुत बीमार हुए। इसके बाद वह अपने गांव आ गए और यही रहने लगे। गांव में वह एक विद्यालय में प्रधानाचार्य भी हो गए लेकिन इसी बीच उनकी तबीयत भी बिगड़ती जा रही थी।
वह बच्चों को बहुत ही आत्मीयतापूर्ण अध्ययन कराया करते थे। उनके विद्यालय में जाने से बच्चों की संख्या लगभग दोगुनी हो चुकी थी। वे समय के बहुत ही पक्के थे। स्कूल में यदि कोई अध्यापक देर से आया करता था तो उस पर बहुत नाराज होते थे।
वे अध्यापकों से कहा करते–” देखो यदि आप ही लोग देर से आएंगे तो बच्चों पर इसका गलत असर पड़ेगा । बच्चों को सिखाने के पहले हमें स्वयं में परिवर्तन लाना होगा। आचार्य वही जो अपने आचरण से शिक्षा दें। इसलिए हमें छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना चाहिए। ”
विद्यालय में उनका आचरण बहुत सालीन हुआ करता था। जिसके कारण सभी बच्चे उनसे बहुत खुश रहा करते थे। उनके विद्यालय में आ जाने से विद्यालय में बहुत परिवर्तन हो गया था।
हमारे साथ अक्सर वे मित्रवत व्यवहार रखते थे। जबकि हमारी उम्र उनसे बहुत कम थी । हमारे जैसे उनके बच्चे थे। वे अध्यापकों द्वारा स्कूलों में नशाखोरी के प्रबल विरोधी थे।
उनका कहना था कि एक नशेड़ी बाज अध्यापक चाहे जितना अच्छा पढ़ाता हो लेकिन उसका प्रभाव बच्चों में श्रेष्ठ नहीं पड़ सकता है। इसी प्रकार वह विद्यालयों में शिक्षकों द्वारा दुश्चरिता के भी विरोधी थे। अधिकांश विद्यालयों में शिक्षक शिक्षिकाओं में ही इश्क बाज़ी होने लगती हैं। जिसका प्रभाव बच्चों में बहुत गलत पड़ता है।
आज कल विद्यालय में महिला शिक्षक की बढ़ोत्तरी होने से यह समस्या है और अधिक बढ़ने लगी है। जिसकी देखा देखी बच्चे भी इश्क बाज़ी करने लगते हैं।
उनके विद्यालय में एक अध्यापक जो कि हमारे ही गांव के थे इश्क के चक्कर में अपनी जान गवा चुके थे। उनकी उम्र मुश्किल से 20-22 साल रही होंगी।
इस घटना से अक्सर वे बहुत व्यथित रहा करते थे। वह अध्यापक बहुत ही होनहार था लेकिन क्या करें आज इश्क में एक और आशिक़ की जान जा चुकी थी।
हमारे एक परिचित अध्यापक जो पिछले 20-22 वर्षों से विद्यालय चला रहे हैं उन्होंने बताया कि स्कूलों में यह समस्या बहुत गंभीर है। ऐसे में उन अध्यापकों की स्कूल से निकालना बड़ा कठिन हो जाता है।
स्कूल की बदनामी ऊपर से होती है। वे बताते हैं कि नए-नए लड़के लड़कियां स्कूलों में अध्यापकीय करते-करते आपस में ही इश्क बाज़ी शुरू कर देते हैं। इसलिए स्कूलों में अध्यापक रखते हुए बहुत सावधानी बरतनी चाहिए।
पूर्व में उनको दो बार ह्रदयाघात हो चुका था। इसलिए राम अचल जी अपने को बहुत खाने-पीने में सावधानी बरता करते थे। अभी सुबह-सुबह का ही वक्त रहा होगा।
राम अचल जी सुबह भोजन करने के बाद विद्यालय जाने के लिए तैयार हुए। अभी घर से निकले ही नहीं थे कि अचानक फिर ह्रदयाघात हुआ। चारों तरफ भाग दौड़ शुरू हो गए लेकिन इस बार उन्हें बचाया नहीं जा सका और उनके प्राण पखेरू उड़ गए।
सारा गांव विद्यालय के लोग स्तब्ध रह गए। सब बच्चों को ऐसा लगता था कि कोई अपना एक आत्मीय चला गया हो। अब उनको कौन दुलार प्यार करेगा?
आज राम आचार्य नहीं है लेकिन उनकी स्मृतियां सदैव ही याद की जाएंगी। उन्होंने कई डायरियां लिखी हुई थी। उसको आधार बनाकर हमने उनकी एक संक्षिप्त जीवनी तैयार किया। लेकिन उनके परिवार एवं बच्चों की उपेक्षा के कारण वह छप नहीं सकीं।
अक्सर हम अपने बच्चों के लिए जिंदगी भर मरते रहते हैं लेकिन वही हमारे बच्चे हमारे ना रहने पर हमारी चीजों को कोई तवज्जो नहीं देते हैं। एक माता पिता अपने बच्चों के लिए अपनी जवानियां कुर्बान कर देते हैं। लेकिन अधिकांश बच्चे अपने माता-पिता की विरासत को बचाने में नाकाम रहते हैं।
भाग- २७
हमारा गांव पिछड़े क्षेत्र में होने के कारण गांव में किसी बच्चे के बीमार होने पर अक्सर डॉक्टरी सलाह नहीं लेकर के अधिकांश झाड़ फूंक एवं ओझाई सोखाई कराया जाता है।
मैंने बचपन में देखा था कि हमारे पिताजी भी इन सब बातों में बहुत विश्वास करते थे। हमारे घर के पास बास की कोठी थी जिसमें कहा जाता था की चुड़ैल रहती है। हम लोग डर के मारे रात्रि में वहां पेशाब करने से डरते थे।
इसी प्रकार से थोड़ी दूर पर एक तालाब है। जहां अक्सर बचपन में डरा दिया जाता था कि वहां एक चुड़ैल रहती है जो रात्रि में वहां जाता है वह उसे छल करके मार डालती है।
जिस महिला को चुड़ैल के नाम से डराया जाता है वह गांव की एक महिला थी जो जलकर के मर गई थी उसे वहां पर गाड़ दिया गया था। कहते हैं कि जो व्यक्ति विशेष कर स्त्रियां उसके आसपास से गुजरती हैं तो वह उन्हें पकड़ करके बीमार कर दिया करती है।
वास्तव में देखा जाए तो ऐसा कुछ नहीं है । मनुष्य के मन में भूत- प्रेत के प्रति ऐसा भय भर दिया जाता है कि वह व्यक्ति यदि वहां से गुजरता है तो डर के मारे बीमार हो जाता है।
पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को ज्यादा बीमार होने का कारण यह भी है कि महिलाएं इन सब में ज्यादा विश्वास करती हैं । दूसरी मुख्य बात यह है कि महिलाएं अंधविश्वासी भी ज्यादा होती हैं यही कारण है कि बच्चों में वह अंधविश्वास भर दिया करते हैं और इस अंधविश्वास की जड़ पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है। अंततः इस अंधविश्वास से निकलना बड़ा कठिन हो जाता है।
वास्तविक रूप से देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति इन सबसे बीमार नहीं हुआ करता है। भूत प्रेत के प्रति जिस प्रकार के भाव वह मन में लाता है उसी प्रकार की घटनाएं होने लगती है ।
अधिकांश लोग अपने मन में भूत प्रेत के प्रति नकारात्मक भाव एवं सुनी सुनाई बातों के कारण बीमार पड़ जाया करते हैं। अक्सर देखा गया है कि जिस व्यक्ति को भूत का डर चढ़ जाता है तो उसकी सांसे तेज चलने लगती है।
हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। डर के मारे वह अब स्वयं को ही नोचने लगता है । कभी-कभी ऐसा होता है कि हृदय की धड़कनें बढ़ने से उसको अटैक पड़ जाता है तो यह अफवाह फैला दिया जाता है कि उसे भूत ने मार डाला । लेकिन वास्तविकता यह है कि व्यक्ति का डर ही उसे मार डालता है।
कई बार भूत के डर से वह व्यक्ति इतनी तेज वहां से भागता है कि उसकी श्वास बहुत तेज चलने लगती है । वह चिल्लाता जाता है कि वहां भूत है, वहां भूत है और हांफते हांफते वह भाग जाता है ।
डर के मारे उसकी तबीयत ऐसी स्थिति में कभी-कभी खराब हो जाती है तो लोग अफवाह फैला देते है कि वह व्यक्ति भूत से डर गया है उसे भूत ने पकड़ लिया है।
ऐसी स्थिति में उसके मन में बैठे वहम को जब तक नहीं निकाला जाता है तब तक उस पर किसी प्रकार की दवाओं का भी असर नहीं होता है। एक प्रकार से उसकी स्थिति अर्ध विक्षिप्त जैसी हो जाती है। कभी तो वह चीखता चिल्लाता है। कभी रोने लगता है तो कभी हंसने लगता है।
उसे व्यक्ति को जब किसी ओझा सोखा द्वारा या किसी किसी अन्य झाड़ फूंक के द्वारा उसके मन से भूत के वहम को निकाल दिया जाता है तो वह कहता है कि मुझे बहुत आराम हो गया है।
एक प्रकार से यह व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार हुआ था। उसे किसी प्रकार के भूत प्रेत ने नहीं पड़ा था बल्कि वह व्यक्ति अपने मन में बैठे भूत प्रेत के डर से बीमार हो गया था। जब उसके मन से वह वहम या डर निकल गया तो वह ठीक हो गया।
वास्तविक रूप से देखा जाए तो यह ओझा- सोखा , मुल्ले- मौलवी आदि व्यक्ति के मन में बैठे डर को भगाने का प्रयास करते हैं। वह कहते नहीं है बल्कि ऐसी झाड़ फूंक आदि की क्रियाएं करते हैं जिससे व्यक्ति के मन में बैठा डर भय निकल जाता है । उसे लगने लगता है कि उसे भूत प्रेत ने जो पकड़ा था वह भाग गया है।अब जब भूत प्रेत का वहम खत्म होता है तो उस व्यक्ति को थोड़ा सा आराम होने लगता है।
हमने अपने गांव में देखा कि जिस बांस की कोठी में चुड़ैल आदि का डर दिखाया जाता था कुछ दिनों पहले वहां पर विद्यालय बनने के कारण उसे काट दिया गया और पूर्ण रूप से साफ कर दिया गया । अब सारा भूत -प्रेत, चुड़ैल, डायन ,साइन सब भाग गई है।
अधिकांश गांव में देखा जाता है की जो माताएं इन सब में ज्यादा विश्वास करती हैं वह जब उनका बच्चा बीमार होता है तो दुनिया भर की काली -काली ताबीज बच्चों को पहना देती हैं।
मैंने स्कूलों में योग अभ्यास के दौरान देखा कि यदि एक बच्चा ऐसी ताबीज पहना है तो जितने भाई बहन होते हैं सभी पहने रखते हैं । ऐसे बच्चे बड़े होने पर भी इस प्रकार की मान्यताओं से बच नहीं पाते हैं चाहे वह जितना उच्च शिक्षित हो जाएं। इस प्रकार से यह अंधविश्वास पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।
भाग – २८
एम ए करने के पश्चात कोई स्थाई नौकरी नहीं मिल रहीं थी।इसी बीच घर चलाने में दिक्कतें होने लगी । अब क्या किया जाए कुछ समझ नहीं रहा था। हमारे पास में एक भाई की पंखे आदि बनाने की दुकान थी ।
भैया ने कहा–” सुबह सायं वहां बैठा करो! तो कुछ धीरे-धीरे सीख जाओगे।”
लेकिन मेरा मन उस दुकान में नहीं लगा । एक-दो दिन गया फिर छोड़ गया । बड़े भैया बोले –“अब तू ही सोच मुझे क्या करना है? नौकरी मिल नहीं रही तो कुछ ना कुछ तो करना ही है । जीवन चलाने के लिए कोई छोटा-मोटा रोजगार कर ले।”
मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था। इसी बीच डॉक्टर नरेंद्र वर्मा जो कि हमारे गांव के दूसरे मोहल्ले में उनका घर था वह सहसों बाजार में अपनी होम्योपैथिक की क्लीनिक डाले हुए थे।
मैं उनके पास जाने लगा। वे बहुत अच्छे इंसान हैं । उनका स्वभाव बहुत अच्छा था। धीरे-धीरे सुबह शाम हम अपने गांव मोहल्ले में भी दवाई लाकर देने लगे ।
हमारे गांव में मुस्लिम बस्ती भी है। जहां पर अधिकांश पुरुष शहरों में कमाने गए हुए थे। अधिकांश स्त्रियां ही रहती थीं ।धीरे-धीरे मैं पूरे मोहल्ले का डॉक्टर बन गया। मुस्लिम औरतें पैसे देने में कभी कोताही नहीं बरतती थी । अधिकांश वे नगद पैसे दे दिया करती थी।
यदि कोई ज्यादा बीमार होता था तो मैं उसके लिए मेडिकल स्टोर से दवाई लाकर दे देता था। वह सब एक प्रकार से मुझ पर निर्भर हो गई थी । इस प्रकार से मैं अपने गांव में दवाई देकर जेब खर्च निकाल लेता था । जो कुछ बचत होती थी वह पुस्तक खरीदने में खर्च करता था या फिर मां को दे दिया करता था।
हमारे दोस्त बचपन से ही अच्छे थे जिसके कारण मैं नशे आदि से बच गया । मैंने देखा कि हमारे गांव में लोग शराब आदि का नशा जमकर करते हैं। अधिकांशतः शराब के नशे में अपनी पत्नियों को जब वह रोकतीं थी तो मार दिया करते थे। कई बार हमारे घर तक भी आ जाती थी।
फिर अम्मा उसे व्यक्ति को बहुत डांटती थीं कि -” तुझे शर्म नहीं आती औरतों पर हाथ उठाते हुएं तू बहुत बड़ा पहलवान बन गया है । औरतों को मार कर ही पहलवानी दिखाएगा। “और जाली भूमि सुनते हुए भगा देते थे फिर उस औरत को समझाया करतीं थीं।
अधिकांश औरते मार खा जाती थी गाली देती थीं लेकिन पुरुषों पर हाथ नहीं उठाती थी यदि गांव की औरतें एकजुट होकर प्रतिरोध करती तो आज गांव में शराब की नदिया न बहतीं । वर्तमान समय में मैंने देखा कि जो लोग खूब शराब पीकर लड़ाई झगड़ा आदि किया करते थे उनके बच्चे शराब आदि का नशा किया करते हैं।
भारत में युवाओं की बर्बादी का एक बड़ा कारण शराब भी है। अधिकांश शराबियों के बच्चे भी शराबी ही निकलते हैं । बहुत कम बच्चे ऐसे होते हैं जो कि नशे से बच जाए । हमारे गांव में कई लोग नशाखोरी के चलते अपना खेत आदि गिरवी रख दिया या फिर बिक गया लेकिन नशाखोरी नहीं छोड़ा।
गांव के मुख्य समस्याओं में एक नशाखोरी है तो दूसरा अंधविश्वास है । हमारे संपूर्ण गांव में घर-घर में अंधविश्वास फैला हुआ है। हिंदू देवी देवताओं की अपेक्षा अधिकांश लोग गाजी मियां की पूजा किया करते हैं ।गांव से 10- 12 किलोमीटर दूर सिकंदरा में एक मजार गाजी मियां की है ।
जहां पर पूरा गांव के हिंदू रविवार के दिन सिन्नी प्रसाद चढ़ाने जाता है। मुसलमान नाम मात्र के जाते हैं। हिंदू जैसा मूड़ और अंधविश्वासी व्यक्ति अन्य किसी धर्म में नहीं दिखलाई पड़ते हैं। हिंदुओं की नसों में मूढ़ता एवं अंधविश्वास भर गया है और पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है।
हमारे पिताजी भी गाजी मियां की पूजा किया करते थे। उनके ना रहने पर बड़े भैया करने लगे । बड़े भैया भी एक नंबर के अंधविश्वासी है । उनको बहुत समझाया कि यह सब अंधविश्वास मजारों को पूजने से कुछ नहीं होगा लेकिन भैया मानने के लिए तैयार नहीं हुए उल्टा हमें ही सिखाया करते — ” क्यों तू नहीं मानना है तो मत मान लेकिन मुझे क्यों रोकता है । फिर वह कहते हैं देख भाई जिसको इतने दिनों से खिलाया पिलाया है उसको कैसे छोड़ दें?
बचपन से पारिवारिक संस्कारों की वजह से भैया ने नहीं छोड़ा तो नहीं छोड़ा । मां भी पिताजी के न रहने पर इस प्रकार की बातों में विश्वास करती रही ।घर में मां और बड़े भैया ही सर्वे सर्वा हैं । हम और मझले भईया से कोई कुछ पूछता ही नहीं था।
कहा जाता है कि किसी के मन में यदि एक बार गलत संस्कार पड़ जाए तो उसे निकालना बहुत मुश्किल हो जाता है । मैंने अपने घर- परिवार एवं गांव में लोगों को बहुत समझाने का प्रयास किया लेकिन उनके मन में जब एक बार यह संस्कार बैठ गया था तो निकलना मुश्किल था।
वैसे हमारे भैया बड़े अच्छे इंसान हैं। पिताजी के न रहने पर उन्होंने हमारी पढ़ाई में कभी व्यवधान नहीं आने दिया । आज जो कुछ भी अक्षर ज्ञान हमें मिल सका है उनमें बड़े भाइयों का बहुत बड़ा योगदान है।
एक घटना याद आती है – एक बार हमने मंझले भईया से कुछ पैसे मांगे तो हो सकता है उनके पास ना रहा हो इसलिए बोला कि एक-दो दिन में ले लेना।
मैं गुस्से में बनियान को फाड़कर फेंक दिया। भैया कुछ बोले नहीं बस इतना कहा -” तुझे अभी पता नहीं पैसा कैसे आता है। जब कमायेगा तो पता चलेगा कि पैसे के लिए कितना पापड़ बेलने पड़ता है तब कुछ पैसे इकट्ठे हो पाते हैं।”
आज जब हम स्वयं कमाते हैं तो पता चल रहा है पैसा कमाने के लिए कितना पापड़ बेलने पड़ता है। मां-बाप एक-एक पैसे कैसे बचत करके अपने बच्चों के लिए सुरक्षित रखा करते हैं। आज जब हम स्वयं पिता बन गया हूं तो सोचता हूं कोई चीज खाने ने या पहनने से पहले बच्चों के लिए ले लिया जाए।
भाग -२९
जिन होम्योपैथी डॉक्टर नरेंद्र के साथ मैं प्रेक्टिस किया करता था । उनके सबसे छोटे भाई डॉक्टर राजेंद्र जी हैं। उन्होंने प्रयागराज के कीटगंज में आर्य समाज मंदिर में डीएमएलडी कोर्स करा रहे थे । उन्होंने कहा-” इसको कर लो रोटी दाल का जुगाड़ हो जाएगा । ”
फीस के पैसे नहीं होने पर कहा-” धीरे-धीरे देते रहना”। और उन्होंने मेरा प्रवेश वहां करवा दिया।
लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह आई कि मैं इंटर में मैथ पढ़ा था। जीव विज्ञान मात्र हाई स्कूल में पढ़ाई किया हुआ था । उन्होंने हमें जीव विज्ञान की बारीकियां बताया करते थे। ऐसे बच्चों के लिए एक एक्स्ट्रा क्लास भी लगाया करते थे।
आर्य समाज मंदिर का संचालन प्रमोद जी एवं संतोष जी दो भाई संभाला करते थे । संतोष जी अधिकांशत पुरोहित आदि का कार्य ही देखते थे । वहां पर वैदिक रीति से शादी हुआ करती थी। जो कि वह एक प्रमाण पत्र दिया करते थे। इन शादियों में अधिकांशतः प्रेमी प्रेमिकाएं ही हुआ करते जो की मां बाप के बिना अनुमति के घर से भाग कर शादी किया करते थे।
अधिकांशत देखा जा रहा है कि आर्य समाज अपने मूल उद्देश्य से भटकता जा रहा है ।आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने जो दिव्य लक्ष्य समाज में फैले अंधविश्वास एवं पाखंड से मुक्ति कर वैदिक सत्य सनातन की स्थापना करना रखा था । वह उस दिव्या लक्ष्य से भटकता दिखलाई दे रहा है । एक प्रकार से अब आर्य समाज को कुछ लोग अपनी व्यक्तिगत संपत्ति मानकर उस पर अपना धंधा चलाने लगे हैं।
आर्य समाज मंदिर में एक मैडम आतीं थी । उनके मामा जी शिव जी का भंडारा परेड ग्राउंड में किया करते थे । जिनमें वहां बहुत ज्यादा भीड़ इकट्ठा हुआ करती थी। उसे वे लोग शिव दरबार या फिर शिव चर्चा कहां करते थे।
वहां पर महिलाएं कुछ ज्यादा आती थी। वास्तव में देखा जाए तो अंधविश्वास एवं पाखंड को जिंदा रखने में महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है । कोई बाबा आया नहीं कि महिलाएं मधुमक्खी की तरह उसको घेर लेती हैं।
पाखंड में महिलाएं भाग ना ले तो यह अंधविश्वास बहुत जल्दी खत्म हो सकता है । लेकिन महिलाओं के लिए अंधविश्वास चोली दामन के साथ जुड़ा हुआ है।
तो हम आते हैं अपने विषय पर। वहां पर हमने डीएमएलडी कर लिया। प्रैक्टिकल की व्यवस्था नहीं थी इसलिए थोड़ा बहुत किसी पैथोलॉजी में प्रैक्टिस कर लिया करता था । कुछ दिनों तक ही यह हो पाया।
डीएमएलडी करने के पश्चात् मैं हरिद्वार घूमने चला गया। वहां पर देव संस्कृति विश्वविद्यालय जो अभी नया नया खुला था । वहां पर जोगड़ा विषयों में एंट्रेंस की परीक्षा होने वाली थी। हमने योग में एंट्रेंस दिया और एडमिशन भी हो गया।
योग साधना मार्ग में आने पर ऐसा लगा जैसे वर्षों वर्षों की तपस्या पूर्ण हो गई हो।इसके पश्चात कभी पुनः पैथोलॉजी की ओर मन नहीं गया । एक प्रकार से यहां भी हम असफल हुए। पैथोलॉजी कोर्स का पैसा डूब गया।
अधिकांश जीवन में हम अक्सर ऐसे निर्णय लिया करते हैं जिससे हम पूर्ण नहीं कर पाते हैं। जिसके कारण जीवन में असफल होते जाते हैं। दूसरी बात यह है कि मां पिता के दबाव में लिए गए निर्णय अधिकांशत सफल नहीं हुआ करते हैं। इसके कारण धन एवं समय दोनों बर्बाद हो जाता है।
देव संस्कृति विश्वविद्यालय में प्रवेश तो ले लिया गया था लेकिन घर में एक मुस्त पैसे नहीं थे कि तुरंत दिया जा सके। गरीब व्यक्ति को कोई उधर भी नहीं देता। यह समाज बड़ा पाखंडी हैं । यहां सच्चे लोगों की कदर नहीं होती है।
जीवन में संघर्ष के दिनों को कोई नहीं पूछता है लेकिन जब वही व्यक्ति सफल हो जाता है तो क्या मंत्री, क्या संत्री , क्या समाज के ठेकेदार टूट पड़ते हैं उसकी अगवानी करने के लिए। यह संसार केवल सफल लोगों को देखता है । संघर्ष के दिनों में अधिकांश में व्यक्त अकेला पड़ जाता है।
बड़े भैया ने बहुत प्रयास किया कि पैसा कहीं सुधार मिल जाए धीरे-धीरे लौटा देंगे । लेकिन मिला नहीं । अंत में मजबूर होकर मात्र ₹12000 में खेत को गिरवी रखना पड़ा । मैंने एक बार मां से मना कर दिया कि मुझे नहीं पढ़ाई करनी । आगे मैं और कोई काम कर लूंगा।
लेकिन भैया को लगा कि मेरा मन पढ़ने का है । मैं केवल पैसे ना होने के कारण मना कर रहा हूं तो उन्होंने कहा-” पढ़ ले तुम्हारी इच्छा हरिद्वार में पढ़ने की है तो जमीन धीरे-धीरे छुड़ा लेंगे।”
बड़े सौभाग्यशाली वे लोग हैं जिन्हें ऐसे भाई मिले। त्रेता युग के राम को हमने भले ही ना देखा हो लेकिन इस कलयुग के राम को मैंने साक्षात अपनी आंखों से देखा है । बड़े भैया का नाम वास्तव में रामचंद्र ही है जो अपने नाम को सार्थक करते हैं।
बड़े भैया के बारे में अधिकांश गांव में यह कहा जाता है कि इस कलयुग में इतना बड़ा त्याग बहुत कम भाई लोग अपने भाई के लिए किया करते हैं । वह कलयुग का राम हैं जो अपने भाइयों के लिए इतना बड़ा त्याग कर रहा है।
आज मैं जो कुछ उच्च शिक्षा आदि प्राप्त कर सका उसमें बड़े भैया लोगों का बहुत बड़ा योगदान है । क्योंकि पिताजी बचपन में ही गुजर गए थे ।
भैया यदि साथ नहीं देते तो हो सकता है मैं इतनी उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाता। हमारी भाभियों भी बड़ी अच्छी निकली जो कभी पैसा देने के लिए भाइयों को मना नहीं किया। इस कलयुग में ऐसी दैवीय स्त्रियों का मिलना बड़ा मुश्किल है।
भाग -३०
फिर मैं हरिद्वार में पढ़ाई करने लगा। यहां सबसे पहले जिस शिक्षक से मुलाकात हुई वह थे अमृतलाल गुरुजी । वह बहुत अच्छे इंसान हैं । उन्होंने सर्वप्रथम हॉस्टल के लान में कक्षाएं लिया।
यह उसी प्रकार से कक्षाएं थी जैसे प्राचीन काल में गुरु लोग अपने शिष्यों के लिए लिया करते थे। हम लोग सभी जमीन पर बैठे हुए थे । चारों ओर घास थी ।
पक्षी कलरव कर रहे थे। बड़ा सुहावना मौसम था। ऐसा लगता था त्रेता युग इस कलयुग में उतर आया हो। अमृतलाल गुरुजी ने हॉस्टल में रहने के सारे नियम कानून समझा दिया कि क्या करना है? क्या नहीं करना है?
अमृतलाल गुरुजी वास्तव में अमृत की खान हैं । उनके मुख से जैसे अमृत झरता हो। वे बहुत कम उम्र से गुरुदेव की सेवा में आ गए थे । उन्होंने मथुरा में भी आवासीय युग निर्माण विद्यालय में अध्ययन किया था । एक प्रकार से वह पूर्ण रूप से गुरुदेव के प्रति समर्पित थे। पूरे अध्ययन काल में उनके जैसा समर्पण मैंने किसी में भी नहीं देखा।
आज दो दशकों बाद में भी उनका एक प्रकार से स्नेह बना रहता है। इसके पहले मैं ने कभी भी हॉस्टल में रहकर के पढ़ाई नहीं किया था। हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करना मेरा पहला अनुभव था। जीवन में घर परिवार से दूर तो रहता था लेकिन अधिकांशतः मैं कमरे लेकर के रहा। कहीं भी हॉस्टल में नहीं रहा।
कमरा लेकर रहने में जहां स्वच्छंदता होती है वहीं हॉस्टल में हमें एक नियम के तहत रहना होता है । अधिकांश हम अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकते । जो नियम होता है उसी को हमें मानना पड़ता है।
हमारे ही साथ प्रयागराज के अंजनी कुमार पुंडरीक भाई भी थे। उन्होंने एम ए योग में एडमिशन लिए हुए थे । वह पहलवान टाइप के थे । जिसके कारण उन्हें अधिकांश बच्चे बजरंगी कहा करते थे ।
वास्तव में वह बहुत तगड़े हैं। 100 – 50 दंड बैठक करना, सूर्य नमस्कार आदि करना उनके लिए सामान्य बात है। वे गुरुदेव के पक्के भक्त हैं। पूरे हॉस्टल में सुबह 4:00 बजे उठकर एक-एक कमरे को खटखटाकर उठा दिया करते थे। कोई व्यक्ति यदि सो रहा हो तो उसे बड़े प्रेम से जगाया करते थे सुबह योग की क्लास में जाने के लिए।
हमारे साथ हॉस्टल में अनुज एवं पूरन नाम के दो साथी और रहते थे । हॉस्टल के कमरे में चार लोगों की रहने की व्यवस्था थी। दो आगे के कमरे में दो पीछे के कमरे में बीच में लैट्रिन बाथरूम था।
अनुज बहुत मस्त मौला व्यक्ति था। वह अधिकांश लकीर के फकीर नहीं था बल्कि अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने चाहता था। यही कारण है कि अधिकांश यज्ञ हवन जप आदि में बहुत कम भाग लेता था। वह इसे पाखंड मानता था।
पूरन भी उसी के साथ मिला हुआ था । अधिकांश में मैं अकेले पड़ जाया करता था ।
वह सब मुझे प्रज्ञा पुत्र कह करके चिढ़ाया करते। देखो आ गया है- प्रज्ञा पुत्र। उस समय मैं गायत्री परिवार से नया-नया जुड़ा था । गुरुदेव के प्रति बहुत श्रद्धा थी । इसलिए जप हवन यज्ञ नियमित रूप से किया करता था। अनुज एवं पूरण गायत्री मंत्र जप यज्ञ हवन आदि नहीं किया करते थे।
वह बस बहुत जरूरी होने पर हाथ जोड़ लिया करते लेकिन जब मैं अंत में प्रसाद दिया करता था तो बड़े प्रेम से माथे चढ़ा कर खा लिया करते थे।
वास्तव में देखा जाए तो हॉस्टल का जीवन बहुत ही दिव्य जीवन था। किसी भी व्यक्ति के लिए हॉस्टल में रहना उसके व्यक्तित्व में एक प्रकार का निखार लाता है। चीजों की समझने की शक्ति बढ़ जाती है।
शिक्षा तो आप वैसे भी प्राप्त कर सकते हैं लेकिन शिक्षा का व्यावहारिक स्वरूप- किस प्रकार से रहना है? कैसे बात करनी है ?कई लोगों के साथ कैसे एडजस्टमेंट करना है? किसी को कोई दिक्कत ना हो कोई परेशानी ना हो आदि बातों को ध्यान रखते हुए आप जीवन को कैसे सुव्यवस्थित रूप से जी सकें यह हॉस्टल में रहकर हमें सिखाया जाता है।
हॉस्टल जीवन बड़ा व्यवहारिक होता है । वास्तव में हॉस्टल व्यवहारिक जीवन की व्यवस्था का ज्ञान हमें देता है। मैंने पूर्व में जो भी ज्ञान प्राप्त किया लगता है यदि हॉस्टल में रहकर नहीं किया होता तो आज हमें इतनी चीजों की समझ ना होती।
भाग – ३१
देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जो की गायत्री परिवार के संस्थापक हैं उनकी स्मृति में स्थापित किया गया है। उन्होंने अपने जीवन काल में विश्वविद्यालय बनाने की कल्पना किया था लेकिन जीवन काल में विश्वविद्यालय स्थापित नहीं हो सका।
उन्होंने गायत्री जयंती 2 जून 1990 को इस मानवीय काया का त्याग कर दिया था विद्यालय की स्थापना उनके जीवन के एक दशक बाद २००१ में स्थापित किया गया। प्रारंभ में देव संस्कृत महाविद्यालय के रूप में एक दो वर्षों तक रहा उसके बाद विश्वविद्यालय की मान्यता मिल गई।
आचार्य श्री बड़े दिव्य दृष्टा थे। वे केवल गाल बजाने वाले मात्र बाबा जी नहीं थे बल्कि उन्होंने स्वयं अपने जीवन में त्याग तप समर्पण का अभ्यास करके दिखाया। उनका जन्म आगरा जिले के जलेसर नामक रोड पर आंवलखेड़ा नामक गांव में ११ सितंबर १९११ को हुआ था। उस समय संपूर्ण देश में स्वतंत्रता का बिगुल बज रहा था।
उनके पिता एक वेदपाठी ब्राह्मण थे। जिसके कारण बचपन से ही उनके परिवार में पूजा पाठ संध्या हवन आदि के संस्कार पड़ गए थे। मात्र नव वर्ष की बाल्यावस्था में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय जी के द्वारा उनका जनेऊ संस्कार किया गया। बाद में 1926 की बसंत पंचमी के दिन हिमालय वासी स्वामी सर्वेश्वरानंद जी महाराज द्वारा उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई।
अभी तक वें सामान्य रूप से गायत्री मंत्र आदि का जप पूजन किया करते थे लेकिन अब उन्होंने विशेष रूप से निर्देशित 24 वर्ष के 24 लक्ष्य के महान पुरुषचरण करने का संकल्प लिया। उस समय उनकी उम्र मात्र 15 वर्ष थी। ध्रुव की बातें आचार्य श्री ने भी गायत्री विद्या को जन जन तक पहुंचाने के लिए महान तप करने का संकल्प ले चुके थे।
इस संकल्प में उन्हें 24 वर्षों तक नियमित रूप से 66 माला गायत्री मंत्र का जप करना होता था। इसके साथ ही मात्र गाय को जौ खिलाया जाता था और गोबर से जो जौ निकलता था उसको छान कर उससे बनी रोटी एवं इसी गाय के मठ्ठा का सेवन करना होता था।
यह संकल्प सुनने में बड़ा सरल लगता है लेकिन करना उतना ही कठिन था। इसके बीच में उन्हें किसी भी प्रकार के मीठा नमकीन खट्टा तीखा आदि कोई भी पदार्थ नहीं खाना था। यह एक प्रकार से अन्न शुद्धि की प्रक्रिया थी।
इस संकल्प को पूर्ण करते-करते उनकी उम्र लगभग 40 वर्ष हो गई। अर्थात जिस उम्र में लोगों की जीभ ज्यादा लपका करतीं है । उल्टी सीधी चीज खाने का मन करता है उस उम्र में आचार्य श्री ने अपनी जिह्वा पर पूर्ण रूप से संयम कर लिया था।
इस आत्मकथा के पाठक यह बात गांठ बांध ले कि बिना तप किये सोने में चमक नहीं आती है। उसी प्रकार से जीवन साधना भी बिना कठोर तप किये नहीं प्राप्त हो सकती है। ऐसा नहीं है कि माला घूमाते रहे हो उल्टी सीधी चीज खाते रहे ।
मन में राम बगल में छुरी का विचार भी चलता रहे । ऐसे लोग ही साधना को बदनाम किया करते हैं। इस प्रकार के त्याग तपस्या के साथ ही आचार्य श्री ने विशाल साहित्य की रचना भी करते रहे हैं। कहां जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में 32 00 छोटी-छोटी लघु पुस्तकों की रचना की थी।
इसके साथ ही आर्ष ग्रन्थों का उन्होंने भाष्य किया था। एक प्रकार से देखा जाए तो आचार्य श्री सच्चे अर्थों में संत थे।
पूर्व काल में सभी महान व्यक्तित्व भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान विष्णु आदि गृहस्थ रहे। इसके साथ ही प्राचीन काल के ऋषि भी गृहस्थ थे ।
इस परंपरा का निर्वाह करते हुए आचार्य श्री ने भी गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया था। यही कारण रहा है कि उन्होंने अपने आश्रम को गायत्री परिवार की संज्ञा दी । उनका आश्रम एक परिवार था । जिसमें लोग परिवार की तरह मिल बांट कर रहा करते हैं।
वर्तमान समय में पारिवारिक विघटन एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है। ऐसे लोगों के लिए आचार्य श्री ने एक रोल मॉडल हरिद्वार के शांतिकुंज में स्थापित किया । जहां पर हजारों लोग अपनी पत्नी बच्चों के साथ मिलकर रहते हैं।
आचार्य श्री ने मात्र कहा नहीं बल्कि उन्होंने करके दिखाया। बातूनी गाल बजाने वाले तो हजारों मिल जाते हैं लेकिन व्यावहारिक धरातल पर उतार कर दिखाना विर्ले लोगों के बस की बात होती है।
जहां एक ही घर में चार भाई एक साथ नहीं रह सकते हैं। वहां अलग-अलग परिवारों के हजारों लोगों को एक साथ रखना सामान्य बस की बात नहीं है। विश्व राष्ट्र में जब पारिवारिक एकता की बात उठेगी तो आचार्य श्री द्वारा स्थापित परिवार व्यवस्था विश्व की अलौकिक व्यवस्था होगी।
भाग ३२
देव संस्कृति विश्वविद्यालय वास्तव में दिव्य है । यहां की दिनचर्या प्रातः 4:00 बजे जागरण से प्रारंभ हो जाती है । स्नान आदि करने के पश्चात 5:00 बजे तक योगाभ्यास के लिए जाना होता है।
फिर यज्ञ हवन करना। उसके बाद भोजन करना , फिर क्लास में जाना। सायं काल भोजन 6:00 बजे तक कर लेना फिर जीवन जीने की कक्षाएं उसके बाद विश्राम।
वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य यदि इस दिनचर्या का प्रयोग अपने जीवन काल में करें तो वह कभी बीमारियों से ग्रस्त नहीं होगा । आइए हम दिनचर्या की समीक्षा करते हैं –सर्वप्रथम प्रातः काल जागरण। प्रातः का समय ब्रह्म बेला अर्थात सर्वोत्तम समय माना गया है ।
इस कालखंड में जो कार्य किए जाते हैं वह बहुत जल्द सफल हो जाते हैं । इस काल खंड में किया गया योगाभ्यास अति फलदाई होता है। हमारे ऋषि मुनियों द्वारा 100 वर्षों तक स्वस्थ एवं बलिष्ठ रहने का राज यही था कि वह नियमित रूप से योग की क्रियाएं का अभ्यास किया करते थे ।
योग शरीर को संतुलित करता है । योग मात्र शरीर को ही स्वस्थ नहीं करता बल्कि यह मन को भी शांत रखता है साथ ही भावनाओं में संतुलन लाता है। साथ ही आध्यात्मिक उन्नति का पथ भी प्रशस्त करता है।
सामान्य रूप से बाहर व्यक्ति बलिष्ठ दिखलाई पड़ता है परंतु उसका मन अशांत हो, दुखित हो पीड़ित हो तो हम उसे स्वस्थ व्यक्ति नहीं कह सकते हैं । ऐसा शारीरिक रूप से स्वस्थ दिखने वाला व्यक्ति समाज में ज्यादा उपद्रव मचाता है।
यही कारण है कि जिस व्यक्ति में मात्र शारीरिक बल होता है।
वह अहंकारी भी उतना ही अधिक हुआ करता है । मात्र शारीरिक बल अहंकार को ही बढ़ाता है । शारीरिक बल के साथ है मनुष्य को आत्मिक बल भी चाहिए । आत्मिक बल योगाभ्यास ध्यान से ही आता है। यही समत्व बुद्धि की प्राप्ति को गीता में योग की संज्ञा दी गई है। समत्व है –जो भी काम किया जाए उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम है।
गीता में कहा गया है- ऐसा समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्ति हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा । यह समत्व रूपी योग है -कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि योग मात्र व्यक्ति को शरीर से ही नहीं स्वस्थ रखता है बल्कि व्यक्ति को कर्म बंधनों से भी मुक्त करता है। हमारी दिनचर्या में यज्ञ हवन करना भी शामिल था । यज्ञ एक प्रकार की धूम्र चिकित्सा है। नियमित यज्ञ करने से व्यक्ति का जीवन संतुलित होता है क्योंकि इससे उसे शुद्ध प्राण मिला करती थी।
वर्तमान समय में बढ़ते वायु प्रदूषण के द्वारा होने वाले रोगों से कुछ हद तक यज्ञ के द्वारा रोका जा सकता है । यज्ञ के अंत में शुद्ध गोमूत्र पीने के लिए रखा रहता था । गोमूत्र को पीना सबके लिए आवश्यक नहीं था बल्कि जिस व्यक्ति की इच्छा होती थी वही मात्र पीता था।
गोमूत्र को सर्वरोगनाशक माना गया है । गोमूत्र पीने से कब्ज, एसिडिटी, गठिया, सर दर्द आदि बीमारियां ठीक हो जाती हैं। लगता है प्राचीन काल से इसी कारण गोमूत्र को इतना महत्व दिया जाता रहा है। गोमूत्र को शोधित करके बोतल में भरकर भी बिकता है जो कि लंबे समय तक पिया जा सकता है।
यज्ञ हवन के बाद 8:00 बजे तक भोजन मिलता था । नाश्ते में अंकुरित अनाज विशेष रूप से मिलता था । उस समय मात्र एक रुपए में हम सबको प्राप्त हो जाता था। यह बहुत पौष्टिक होता है । इसमें मूंग चना मूंगफली मेथी दाना आदि मिलाकर भिगोया जाता था । जब अंकुरित हो जाता था तो सबको दिया जाता था । यह शरीर के पोषण के लिए सबसे अच्छा नाश्ता है।
दूसरी मुख्य चीज जो वहां पर थी वह प्रज्ञा पेय थी । यह चाय का विकल्प है जिसमें 16 जड़ी बूटियां को मिलाकर बनाया जाता है। अन्य प्रकार की चाय जहां नुकसानदेय हुआ करती है वही यह प्राकृतिक चाय बहुत ही लाभकारी हुआ करती है । यह मात्र शांतिकुंज के शक्तिपीठों या उनके कार्यकर्ताओं के पास मिलती है।
मैं भी चाय छोड़कर प्रज्ञा पेय पीने लगा था । प्रज्ञा पेय से नस नाड़ियों में स्फूर्ति का संचार भी होता है । शरीर के सभी नस नाड़ियां खुल जाया करती हैं।
तीसरी खाने में अनिवार्य रूप से गेहूं की दलिया होती थी । यह भी बहुत पौष्टिक होती है । यदि व्यक्ति और कुछ भी ना खाए मात्र दलिया ही खाकर रहे तो उसको पूर्ण रूप से पोषण की प्राप्ति हो जाती है।
यह बहुत ही पौष्टिक होता है। बच्चों को यह नियमित खिलाया जाए तो बच्चों को कुपोषण के खतरे से बचाया जा सकता है। यही कारण है कि भारत सरकार बच्चों के बाल पुष्टाहार में दलिया को अनिवार्य रूप से निशुल्क बांटा करती है।
भाग- ३३
देव संस्कृति विश्वविद्यालय में सायं काल 6:00 बजे के पूर्व भोजन कर लेना होता था । उसके बाद रात्रि में भोजन किसी को नहीं मिलता था। पूर्व काल में हमारे यहां सायं काल सूर्य डूबने के पूर्व भोजन करने की परंपरा रही है।
लेकिन जैसे-जैसे आधुनिकता बढ़ी है । तो लोग देर रात्रि में भोजन करने लगे हैं। भोजन का संबंध मुख्य रूप से सूर्य से है । जितना जल्दी हम भोजन कर लेंगे उतना ही वह पाचन में सहयोगी होगा।
दूसरी मुख्य बात यह है कि सायं काल भोजन जल्दी कर लेने से कुछ समय तक व्यक्ति जागता रहता है ।सोने और भोजन करने में कम से कम 2 घंटे का अंतर होना चाहिए। लेकिन होता इसका उल्टा है अधिकांश भोजन के तुरंत बाद हम सोने चले जाते हैं जिसके कारण भोजन आंतों में सड़ने लगता है ।
अधिकांश हमारे देश की माताएं बहने भी बच्चों को सोते से जगा कर भोजन कराने के बाद फिर सुला दिया करती हैं जो के उनके लिए बहुत ही घातक होता है । यही कारण है कि जितने लोग भोजन के अभाव में नहीं मरते हैं उससे ज्यादा खा खा करके मर जाते हैं।
वर्तमान समय में बाजार भी रात्रि के 10- 11:00 तक खुले रहते हैं । जहां पर व्यक्ति 11:00 बजे तक कुछ न कुछ खाता रहता है। देर रात्रि से खाएंगे तो वह देर रात्रि में सोयेगा भी । जिसके कारण उसके शरीर की पूरी दिनचर्या खराब हो जाती है।
वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति गैस, कब्ज, एसिडिटी, कच्ची डकार आना ,अपच जैसी पेट की बीमारियों से ग्रसित पाया जाता है। धीरे-धीरे यह बढ़ने पर बवासीर, भगंदर आदि रोग भी होते है या फिर आतों में सड़न होने लगती है। लीवर खराब होने लगता है। यह बीमारियां वर्तमान समय में महामारी का रूप लेती जा रही हैं। यदि व्यक्ति अपनी दिनचर्या में सुधार कर ले तो वह बहुत सी बीमारियों से बच सकता है।
आज भी जैन परंपरा में भोजन सायं काल के पूर्व कर लिया जाता है। जैसे-जैसे व्यक्ति अपनी जड़ों से दूर होता जा रहा है। उसी प्रकार से जीवन की समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं।
भोजन के पश्चात हम लोगों को जीवन जीने की कला की कक्षाएं लगती थी जो की मुख्य रूप से जितेन्द्र तिवारी सर लिया करते थे। जितेन्द्र तिवारी सर शांतिकुंज के समर्पित कार्यकर्ता थे। वह एक बार जब शांतिकुंज आए तो दोबारा वह अपने घर नहीं गए। कहा जाता है कि उन्होंने अपनी सारी डिग्रियां जो अध्ययन किया था गंगा में प्रवाहित कर दिया। इस घटना को एक बार उन्होंने स्वयं जीवन जीने की कला की कक्षाओं के बीच किया था।
वर्तमान समय में बढ़ती समस्याओं का कारण यह भी है कि मनुष्य जीवन जीने की कला को भूलता जा रहा है। यही कारण है कि आज प्रत्येक व्यक्ति चिंता, तनाव, अवसाद जैसी महामारियों का शिकार हो गया है। जिसके कारण हृदय रोग, मधुमेह, किडनी फेल हो जाना, लीवर की समस्याएं जैसी बीमारियों से लोग ग्रसित होते जा रहे हैं।
जीवन तो सभी जीते हैं लेकिन जीना कैसे है यह बहुत कम लोगों को पता होता है। यही कारण है कि बहुत से लोग जीवन को जीते नहीं बल्कि ढोते हैं। ऐसे लोगों के लिए जिंदगी एक प्रकार की आफत बन जाती है। वर्तमान समय में व्यक्ति व्यस्त नहीं बल्कि अस्त-व्यस्त हो गया है। वह केवल जिंदगी में भाग रहा है। उसे कहां जाना है क्या करना है खुद भी उसे पता नहीं होता है। बस भागता जा रहा है। मंजिल कहां पहुंचेगी यह पता नहीं है।
जीवन जीने की कला जो व्यक्ति सीख जाता है उस व्यक्ति के लिए जीवन सौभाग्य बन जाता है। जो व्यक्ति जीवन जीने की कला नहीं सीखता है । उसके लिए जीवन एक भार स्वरूप बोझ बना रहता है।
एक प्रकार से देखा जाए तो देव संस्कृति में जो हम अध्ययन कर रहे थे वहां एक संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण हो रहा था। वर्तमान समय में योग अभ्यास अधिकांश बच्चे केवल सर्टिफिकेट प्राप्त करने के लिए करते हैं। जिन्हें प्रैक्टिकल का कोई ज्ञान नहीं होता है।
ऐसे बच्चे जब किसी को अभ्यास कराते हैं तो वह सही प्रकार से योग अभ्यास न करा करके मात्र उछल कूद कराते हैं। जिसके कारण योग जैसा दिव्य ज्ञान भी वर्तमान समय में बदनाम होता जा रहा है । इसके बहुत बड़े जिम्मेदार वे अज्ञानी योग शिक्षक भी हैं जो कि पूर्ण रूप से बिना ज्ञान के लोगों को अभ्यास स्वार्थ के लिए कराया करते हैं।
भाग ३४
प्रत्येक बुधवार को गीता की क्लास लगती थी। जो कि वहां के कुलाधिपति डॉक्टर प्रणव पंड्या द्वारा ली जाती थी। जहां पर सभी बच्चों को एक साथ उपस्थित रहना अनिवार्य होता था।
गीता मुख्य रूप से जीवन संघर्ष में मुंह मोड़ते अर्जुन को भगवान कृष्ण द्वारा दिये गये उपदेशों पर आधारित है। भगवत गीता में मानवीय विचारों का श्रेष्ठतम वर्णन हुआ है क्योंकि वर्तमान की परिस्थितियों का निराकरण कर सकता है ।इससे शोषित खंडित परिताणित अर्जुन को जीवन की राह मिली थी।
उसके व्यक्तित्व को खत्म किया जा रहा था। कौरव उसके व्यक्तित्व को कुचल रहे थे । ऐसी परिस्थिति में भगवान श्री कृष्ण ने उसे मार्गदर्शन देकर एक महा विजेता बनाया था। एक सफल योद्धा बनाया था । जीवन जीने की कला सिखाती है भगवत गीता। इसमें भारतीय एक विधा का वर्णन नहीं हुआ प्रयुक्त भारत की संपूर्ण विद्या का वर्णन इसमें हुआ है।
ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग, हठयोग, पतंजलि योग, यहां तक कि आयुर्वेद के नियमों का भी इसमें वर्णन, दर्शनों के तत्वों का वर्णन किया गया है।अतः यह संपूर्ण भारतवर्ष का प्रमाण पत्र जीवन चरित्र है ।इसका प्रत्येक सनातनी को अध्ययन करना चाहिए।
यह श्रीमद्भागवत गीता की कक्षा का स्वरूप मुख्य रूप से डॉक्टर साहब युग गीता के नाम से कहते थे। उनका कहना था कि हम सब की स्थिति आज अर्जुन जैसी है जो अपने कर्तव्य से भागना चाहता है ।
अपने जीवन संघर्षों से भागना चाहता है । श्री कृष्ण भगवान यही समझाते हैं कि तुम्हें जीवन संघर्ष से भागना नहीं जीवन संघर्षों से जूझना है। भागना किसी समस्या का समाधान नहीं है।
पलायनवादिता व्यक्ति को नपुंसक बनाती है। अक्सर व्यक्ति जब देखता है कि सामने समस्या बहुत बड़ी है तो वह हाथ डाल देता है । उसे लगता है कि इस कार्य में हमें विजय नहीं प्राप्त हो सकती है।
मानसिक रूप से वह हार जाता है वहीं परिस्थित अर्जुन के साथ बना रही थी। अर्जुन युद्ध से इसलिए छोड़ देना चाहता है कि यह युद्ध उसके ताऊ मामा अन्य बंधों बांधओ के बीच लड़ा जा रहा था। जिसके कारण उनके प्रति उसे मोह हो जाता है वह धर्म अधर्म की बातें भूल जाता है।
वर्तमान समय में गीता की प्रासंगिकता और बढ़ गई हैं। गीता निराश हताश मानव में आशा का संचार जागती है। स्वतंत्रता के समय स्वतंत्रता सेनानियों के लिए गीता माता के समान थी। गीता के द्वारा ही वह ऊर्जा पाते थे।
ऐसा कहा जाता है कि एक बार किसी अंग्रेज ने गीता को जप्त करने के जिंदा पकड़ने की ऐलान कर दिया। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था यह गीता कौन है? जो सभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों , प्रत्येक भारतीयों की प्रेरणा स्रोत बनी हुई है। उन्हें जब पता चला कि यह कोई स्त्री नहीं बल्कि एक पुस्तक है तो अपना सिर पीट लिया।
वर्तमान समय में युवाओं में जिंदगी के सफर में जूझ न पाने के कारण आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही है । ऐसे युवाओं के लिए गीता अमृत के समान सिद्ध हो सकती है।
जीवन में प्रत्येक हताश निराश व्यक्ति को गीता से प्रेरणा लेनी चाहिए । गीता हर युग में प्रासंगिक थी और रहेगी। डॉक्टर प्रणव पंड्या की क्लास बहुत आनंदमय हुआ करती थी। लगता है इस क्लास के कारण ही गीता हमारे लिए सदैव रहस्य का विषय बनी रहीं हैं।
उसके पश्चात जब हम मेरठ के ट्रांसलेट इंटरनेशनल एकेडमी में शिक्षक हुए तो श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन यह विचार हुआ कि यदि भगवान कृष्ण आज होते तो आधुनिक समस्याओं का समाधान किस प्रकार से करते । इसी उधेड़बुन में रात बीत गए। और सुबह आधुनिक गीता की कल्पना लिपिबद्ध हो चुकी थी।
आज भी हमारी सबसे प्रिय पुस्तकों में गीता है। गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित एक छोटी सी पुस्तक को हमेशा अपने बैग में रखे रहते हैं । जब समय मिलता है उसका स्वाध्याय अवश्य करते हैं। समय और काल परिस्थितियों कितनी भी बदल जाए लेकिन गीता की प्रासंगिकता कभी कम होने वाले नहीं है।
भाग – ३५
आज का मनुष्य जीवन में बड़ा हताश निराश दिखाई पड़ता है। बचपन की उन्मुक्त हंसी जैसे उसकी जिंदगी से खो सी गई है। यही कारण है कि वह विभिन्न बीमारियों की चपेट में आता जा रहा है।
इसी को ध्यान में रखते हुए योग में एक हास्य योग का प्रचार प्रसार बहुत तेजी से फैल रहा है। एक अध्ययन के अनुसार जो लोग अक्सर हंसते हैं । वह अधिक समय तक जीवित रहते हैं बेहतर, समृद्ध और खुश रहते हैं। उनकी ऊर्जा भी काफी सकारात्मक होती है।
वर्तमान समय में जैसे-जैसे हम बड़े हो रहे हैं हमारा हंसना कम होता जा रहा है । आज का इंसान अपनी मुस्कुराहट और हंसी को भूलता जा रहा है। जिसके फलस्वरूप तनावजन्य बीमारियां जैसे उच्च रक्तचाप, शुगर, माइग्रेन, डिप्रेशन आदि को निमंत्रण दे रहा है।
हंसने से ऊर्जा और ऑक्सीजन का संचार अधिक होता है । शरीर में से दूषित वायु बाहर निकल जाती हैं। हमेशा खुलकर हंसना शरीर के सभी अवयवों को ताकतवर और पुष्ट बनाता है।
शरीर में रक्त संचार की गति को भी बढ़ाता है । पाचन तंत्र अधिक कार्य करता है । इसलिए डॉक्टर ह्रदय की बीमारी के रोगी के लिए हास्य को उपयोगी बताते हैं।
मनुष्य को चाहिए कि यदि उसे लंबी जिंदगी जीना है तो जीवन में हास्य को कभी ना भूले। हंसना ऐसा सकारात्मक भाव एवं ऊर्जा है जो व्यक्ति के न केवल आंतरिक बल्कि बाहरी स्वरूप को भी प्रभावी, समृद्धशाली एवं तेजस्वी बनाता है।
हम भी अक्सर जब विद्यालयों में योगाभ्यास की कक्षाएं लेते हैं तो उसमें बच्चों को खूब हंसने की क्रियाएं भी कराते हैं। जिससे बच्चों के अंदर योग करने के प्रति सकारात्मक भाव विकसित होता है। हास्य के साथ अध्ययन करने से बच्चों में अध्ययन के प्रति रुचि भी जागृत होती है। पढ़ी-लिखी बातें उन्हें ज्यादा समझ में आती है।
हंसने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है । जिससे व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है । मेडिकल प्रयोग में पाया गया है कि 10 मिनट तक हंसते रहने से 2 घंटे की गहरी नींद आती है। हंसने वाले व्यक्ति के कई सारे मित्र बन जाते हैं और इस प्रकार उनमें भाईचारा एवं एकता की भावना कब उत्पन्न होती है, पता ही नहीं चलता।
बच्चों में यदि नियमित रूप से हास्य की क्लास लगाई जाए तो पढ़ने लिखने से जो ऊब होती है उसे सहज में दूर किया जा सकता है। इससे बच्चे पढ़ाई को बड़े सहज तरीके से लेने लगेंगे।
अपने देश की शिक्षा पद्धति बहुत ही उबाऊ है। यही कारण है कि छोटे बच्चे स्कूल में जब जाते हैं तो बहुत रोते हैं और जाने में नखरे करते हैं और जल्दी स्कूल नहीं जाते हैं ।
बच्चों को मार मार कर अभिभावकों को स्कूल भेजना पड़ता है। क्या विद्यालय जाना आनंद का विषय बन सकता है? इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है।
कहते हैं जापान जैसे देश में लोग अपने बच्चों को प्रारंभ से हंसते रहने की शिक्षा देते हैं ताकि उनकी भावी पीढ़ी सक्षम एवं तेजस्वी हो। कहां जाता है के जापान में भगवान बुद्ध के शिष्य थे – होतेई । बड़े अलमस्त स्वभाव के भिक्षुक थे ।
बेहद निर्लिप्त और निरपेक्ष भाव से जीवन जीने में विश्वास रखते थे । जिस कार्य को करते उसमें पूरी तरह डूब जाते थे। तन्मय हो जाते थे।
जापान में मान्यता है कि एक बार होतेई मेडिटेशन करते-करते इतने रोमांचित हो गए कि ध्यान अवस्था में जोर-जोर से हंसने लगे। इस अद्भुत घटना के उपरांत ही लोग उन्हें लाफिंग बुद्धा के नाम से संबोधित करने लगे। घूमना-फिरना , देशाटन करना, लोगों को हंसाना और खुशी प्रदान करना लाफिंग बुद्धा के जीवन का उद्देश्य बन गया।
इसी प्रकार चीन में उन्हें ऐसे भिक्षुक के नजरिए से देखते हैं जो एक हाथ में धन-धान्य का थैला लिए चेहरे पर खिलखिलाहट बिखेरे ,अपना बड़ा पेट और थुल थुल बदन दिखाकर सभी को हंसते हुए सकारात्मक ऊर्जा देते हैं । वे समृद्धि और खुशहाली के संदेश वाहक और घरों के वास्तु दोष निवारक के प्रतीक भी माने जाते हैं।
एक खुश चेहरा आपका खराब मूड को भी अच्छा कर सकता है । क्योंकि शोध में पाया गया है कि चेहरे पर 500 मिली सेकंड यानी आधा सेकंड की मुस्कान पैदा करना भी खुशी के लिए अंदर से प्रेरित करने में पर्याप्त होता है।
यदि हम जीवन में निरोगी रहना चाहते हैं तो अपनी मुस्कुराहटों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। मुस्कुराहट है हुस्न का जेवर, मुस्कुराना ना भूल जाया करो।
किसी ने यहां तक कहा है कि रोजाना एक सेब खाना ही नहीं रोजाना अपने चेहरे पर हंसी सजाना भी आपको डॉक्टर से दूर रखता है।
हंसी सिर्फ आपके चेहरे को ही चमकाती नहीं है । यह आपके मस्तिष्क को अच्छा महसूस करने वाले एंडोर्फिन से भर देती है और खुली बाहों से खुशी का स्वागत करती है। इसलिए यदि हमें लंबी जिंदगी जीना है तो जीवन को हंसी खुशी के साथ जीना चाहिए।
भाग – ३६
यम का दूसरा अंग अहिंसा कहलाता है। मन क्रम बचन से किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही अहिंसा है। अर्थात हिंसा का विलोम अहिंसा है। कहां जाता है कि व्यक्ति लाठी की मार भूल जाता लेकिन बातों की मार नहीं भूलता है।
हिंसा केवल किसी को मारना ही नहीं है। अहिंसा बड़ा व्यापक शब्द है। यदि किसी के प्रति अपने मन में दुरविचार रख रहे हैं तो भी यह एक प्रकार की हिंसा होगी।
आज संपूर्ण समाज हिंसा की अग्नि में जल रहा है। यहां एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को कच्चा चबा जाना चाहता है । वही एक धर्म का व्यक्ति दूसरे धर्म को भी कच्चा चबा जाना चाहता है।
एक जाति का व्यक्ति दूसरे जाति को कच्चा चबा जाना चाहता है। अर्थात सभी एक दूसरे को के प्रति हिंसा का भाव मन में रखे हुए हैं। जो धर्म में शांति प्रेम भाई चारा की बातें करता है उसके मन-मस्तिष्क में भी इतनी बड़ी हिंसा छुपी हुई है कि जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते हैं।
अधिकांश धर्म में प्रेम शांति की बातें की जाती हैं लेकिन इन धार्मिक लोगों ने समाज में इतनी बड़ा कत्लेआम किया। धर्म का इतना रक्त रंजित इतिहास है जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते हैं।
धार्मिक लड़ाईया में इतने लोग मारे गए जितना कहा जाता है कि लोग दुर्भिक्ष वगैरह में भी नहीं मरे होंगे। धर्म का नाम पर लड़ा गया महाभारत युद्ध इस देश का सबसे बड़ा युद्ध माना जाता है जिसमें कहा जाता है कि एक प्रकार से धरती वीरों से खाली हो गई। सभी उस कालखंड के वीर पुरुष वीरगति को प्राप्त हो गए।
बड़े अचंभे की बात है कि इस लड़ाई को भी धर्म की जीत माना गया । करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतारने के बाद धर्म आखिर जीत भी गये तो उसे क्या मिला? लोगों की चीख-पुकार , पीड़ा।
लाखों विधवाओं , अनाथ बच्चों की आवाज़ , इतना बड़ा महा विनाश जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। वह भी धर्म के नाम पर हुआ । आखिर यह धर्म युद्ध था तो अधर्म युद्ध क्या होगा ?
इसी प्रकार से हजारों वर्षों से इस्लाम का धर्म के नाम पर कत्लेआम जारी है। धर्म के नाम पर इस्लाम ने इतना बड़ा मानवता का रक्त बहाया जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते? इस्लाम जहां भी गया अपने धर्म के विस्तार के लिए खून की नदियां बहा दिया।
इसी प्रकार से ईसाइयत के विस्तार के लिए भी एक बहुत बड़ा रक्त रंजित इतिहास रहा है। जहां एक धर्म दूसरे धर्म के प्रति लड़ते ही रहते हैं। वहीं आपस में भी एक दूसरे के प्रति घृणा द्वेष नफरत हिंसा का भाव रखते हैं।
हिंदुओं में भी एक पंथ के लोग दूसरे पंथ से घृणा के भाव से भरे हुए हैं। शैव, शाक्त, वैष्णव सम्प्रदाय आदि में भी आपस में ही लड़ाइयां होती रहती हैं। इसी प्रकार से एक जाति के लोग दूसरी जातियों से घृणा द्वेष हिंसा का भाव रखते हैं।
हिंदू धर्म हो या अन्य सभी में जाति पाति, छुआछूत आदि का व्यवहार किया जाता है । यह भी एक प्रकार की हिंसा है। इतनी वैज्ञानिक उन्नति होने के बाद भी जातिगत हिंसा की घटनाएं अक्सर समाज में सुनी जाती रहती हैं।
ऐसा लगता है क सभी धर्मों की जड़ में ही हिंसा के बीज छुपे हुए हैं। बुनियादी तौर पर देखा जाए तो अहिंसा की बात एक प्रकार से धार्मिक रूप से पाखंड का हिस्सा लगती है। यह केवल मात्र दिखावा की बातें हैं। हिंसा तो मनुष्य के जन्म से ही उसके पारिवारिक वातावरण में सिखा दिया जाता है।
एक बार की सत्य घटना आपको बताते हैं। हमारे गांव में मुस्लिम बस्ती भी है। एक बार मैंने मुस्लिम बस्ती में बच्चों को योग सीख रहा था तो अंत में संकल्प कराया कि — बोलो बच्चों आज से सभी लोग संकल्प ले कि मांस नहीं खाना , मछली नहीं खाना, अंडे नहीं खाना।
उसमें से एक छोटी सी बच्ची जिसकी उम्र मुश्किल से 7 वर्ष रही होगी उसने कहा कि मैं खाऊंगी। उस बच्ची को लगा कि सर जी तो गलत बता रहे हैं । हमारे घर में तो सिखाया जाता है कि मांस , मछली खाना अच्छी बात है। इसमें उस बच्ची का दोष नहीं बल्कि उसके परिवार में दिए गए संस्कारों का दोष है।
अधिकांश स्कूलों में जब हम योग सीखने जाते हैं तो मुस्लिम अधिकांश बच्चे कहते हैं कि यह हमारे धर्म में जायज नहीं है। एक प्रकार से घृणा के बीज धर्म गुरुओं ने बच्चों के नाजुक मन में भर दिया है। जिसको निकालना उतना ही कठिन लगता है।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि हिंसा के बीज हमारे मन में ही जब बचपन से भर दिया गया हो तो हम अहिंसावादी कैसे बन सकते हैं? ऊपर से ओढ़ी गई अहिंसा और घातक होती है।
भाग–३७
यम का तीसरा अंग अस्तेय कहलाता है। अस्तेय मतलब चोरी ना करना। किसी से बिना पूछे वस्तु को ना छूना। कहते हैं कि चोर व्यक्ति भी ईमानदार साथी चाहता है। यही कारण है कि ईमानदारी सर्वोत्तम नीति कही गई है।
कितना भी समाज में जाहिलपना बढ़ जाए लेकिन ईमानदार व्यक्ति की जरूरत सदैव से रही है और रहेगी। चोर व्यक्ति को कोई भी अपने पास नहीं रखना चाहता है। ऐसा व्यक्ति निंदा का पात्र बनता है।
मैंने देव संस्कृति विश्वविद्यालय में देखा कि वहां पर ईमानदारी का काउंटर बना हुआ था जिसमें पैसे डालकर किताब खरीद सकते हैं। यह एक छोटा सा प्रशिक्षण बच्चों को देने के लिए किया जाता था।
यह एक प्रकार का अस्तेय का ही प्रतिरूप है। पूर्व काल में लोगों के प्रति ईमानदारी की भावना ज्यादा थी । वस्तुएं आदि ऐसे ही रख दिया करते थे कभी कोई छूता नहीं था। जैसे-जैसे समाज में आधुनिकता बढ़ रही हैं लोग चालक बनने लगें हैं।इस प्रकार से समाज में ईमानदारी खत्म होने लगी।
पूर्व काल में जब आनें जाने के इतने साधन नहीं थे। अधिकांश लोग पैदल ही लंबी दूरी तय कर लिया करते थे। ऐसे समय में लोग किसी न किसी को साथ में ले लेते थे जिससे रास्ता आराम से कट जाए । उन्हें कभी किसी से डर भय नहीं लगता था कि यह हमारा सामान चोरी कर ले जाएगा । या इससे हमें कोई नुकसान होगा।
लेकिन वर्तमान समय में मनुष्य मनुष्य से डरने लगा है।कब कौन किसका गला काट दे कुछ कहा नहीं जा सकता। किसी व्यक्ति का किसी पर विश्वास खत्म होता जा रहा है। ऐसा नहीं है कि समाज में सब लोग चोर ही चोर हों।
समाज में अच्छे लोग भी हैं। कहते हैं ना कि एक गन्दी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। वही स्थिति आज समाज में पैदा हो गई है। गलती एक व्यक्ति करता है जिसका खामियाजा संपूर्ण समाज को भोगना पड़ता है। इसी प्रकार से घर परिवार में कोई एक व्यक्ति चोर आदि हो जाए तो उसका प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ता है।
इस प्रकार से संपूर्ण समाज में प्रेम भाईचारा अपनत्व प्यार बढ़े इसलिए अस्तेय की आवश्यकता और बढ़ गई है। किसी वस्तु का मूल्य चुकाए बिना उस वस्तु को लेना चोरी ही है।
जिस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं है उसे पाने की इच्छा बीज रूप में चोरी ही मानी जाती है। वर्तमान समय में काम क्रोध लोभ आदि मनोविकारों के कारण भी अपराधों में वृद्धि हो रही है।
किसी वस्तु को देखकर मन ललचाने लग जाता है । लालच या प्रलोभन के वंशी भूत होने पर अस्तेय का पालन संभव नहीं है। जीवन में सुख शांति प्राप्त करना चाहते हैं तो इस प्रकार के लोभ लालच से बचना होगा।
अस्तेय एक मानसिक संकल्प है। जिसको मन पर नियंत्रण करके किया जा सकता है। क्योंकि संसार का समस्त कार्य व्यापार मन ही संचालित करता है। मन ही कर्ता है । मन के विषयों में आसक्त होने पर अस्तेय का पालन संभव नहीं हो सकता है।
मन को हम सत्य द्वारा पवित्र बना सकते हैं । यह सारे व्रत या संकल्प एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए यदि सुखमय एवं शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं तो अस्तेय को जीवन में धारण करना पड़ेगा ।
कहते हैं की मन के हारे हार है । मन के जीते जीत है। यदि हम संकल्प कर ले तो अस्तेय का पालन सहजता से कर सकते हैं । इससे जहां एक ओर स्वयं को शांति मिलेगी । वहीं परिवार समाज एवं राष्ट्र सुख शांति में बनेगा । एक-एक व्यक्ति के सुधार से ही इस समाज एवं राष्ट्र में सुधार संभव है।
आचार्य पंडित श्रीराम शर्मा कहते हैं कि- हम बदलेंगे युग बदलेगा। हम सुधरेंगे- युग सुधरेगा। अर्थात व्यक्ति के परिवर्तन से ही समाज एवं राष्ट्र का परिवर्तन संभव है। व्यक्ति व्यक्ति का हो सुधार तभी मिटेगा भ्रष्टाचार।
अर्थात एक-एक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारियां को समझना होगा। एक-एक व्यक्ति को सुधारना होगा। मात्र शिकवा शिकायत करने से देश समाज एवं राष्ट्र की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है। यह समस्याएं तभी सुलझेंगी जब देश समाज एवं राष्ट्र का एक-एक व्यक्ति जागृत होगा। समाज को सुधारने के लिए व्यक्ति को सुधरना आवश्यक है।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि योग मात्र शारीरिक व्यायाम ही नहीं बल्कि समाज, राष्ट्र एवं विश्व के कल्याण की भावना इसमें छिपी हुई है। विश्व में सुख शांति समृद्धि के लिए प्रत्येक व्यक्ति को योगी बनना होगा।
भाग ३८
आज हम अपरिग्रह की चर्चा करेंगे। परिग्रह का मुख्य अर्थ है आवश्यकता से अधिक वस्तुओं को इकट्ठा करना। इंसान को कुदरत से उतनी ही लेनी चाहिए जितनी कि उसे आवश्यकता है।
लेकिन हम आवश्यकता से अधिक वस्तुओं को इकट्ठा कर लेते हैं। जैसे- कपड़ा,जेवर ,खाने पीने की वस्तुएं आदि। इसके विपरीत जब हम वस्तुओं का संग्रह ना करके मर्यादानुसार उपभोग करते हैं तो वह अपरिग्रह कहलाता है।
वर्तमान समय में किसी व्यक्ति को खाने को नहीं मिल रहा है तो कोई खा खा करके मर रहा है। कोई व्यक्ति दो व्यक्ति की रोटी के जुगाड़ के लिए दर-दर भटक रहा है। वही समाज में कोई ऐसे व्यक्ति भी हैं जो कुत्तों के लिए रसमलाई उपलब्ध करवा दे रहे हैं।
आज मनुष्य की जिंदगी कुत्तों से भी बेहतर होती जा रही है । कोई व्यक्ति भूख से तड़प- तड़प करके अपनी जान गवा दे रहा है । वही कोई व्यक्ति इसलिए मर जा रहा है कि उसने ज्यादा मात्रा में भोजन कर लिया। यह असमानता अपरिग्रह को जीवन में उतारने से मिट सकती है।
अपरिग्रह को समाज में या परिवार में समान वितरण से लिया जा सकता है। जिस समाज में या परिवार में या फिर राष्ट्र में समान वितरण प्रणाली लागू होती है वहां सुख , शांति, समृद्धि सहज में फली भूत होते हैं।
अपरिग्रह हमें सिखाता है कि यदि हमारे पास आवश्यकता से अधिक वस्तुएं हैं तो उसे हम जिस व्यक्ति को आवश्यकता है उसे भी वितरित कर दें । उसकी भी आवश्यकता की पूर्ति जिससे हो सके ।
इस प्रक्रिया के माध्यम से एक तरफ हमें देने की खुशी होगी तो उस व्यक्ति की जिसको वास्तव में आवश्यकता है उसकी भी पूर्ति हो जाएगी। जिससे वह मन ही मन आपको आशीर्वाद एवं दुआएं देगा । जिसके द्वारा आपके आध्यात्मिक उन्नति सहज में होने लगेगी।
जो लोग मात्र योग के नाम पर उछल कूद , उठा पटक किया करते हैं उन्हें योग का क ख ग घ भी नहीं पता है। योग संपूर्ण समाज में सुख-शांति समृद्धि की कामना करता है। यदि हम चाहते हैं कि समाज में सभी लोग सुखी हो, निरोगी हो तो हमें अपने जीवन में अपरिग्रह का पालन योग अभ्यास के साथ अवश्य करना होगा।
जिस समाज में अपरिग्रही व्यक्ति की वृद्धि होती है वह समाज उतना ही स्वस्थ माना जाता है। पूर्व काल में हमारा समाज इसीलिए स्वस्थ था कि यहां एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का ख्याल रखता था ।
यदि हमारा पड़ोसी भूखा है तो हमारा रसमलाई खाना अपराध के समान है। हम अपराधी हैं उसे व्यक्ति के जो भूख के अभाव में दम तोड़ दे रहा है।
हम खूब रसमलाई खाएं लेकिन अपने पड़ोसी को भी ध्यान दें कि वह कहीं भूखा तो नहीं है। अधिकांश देखा गया है कि भूख व्यक्ति को उन अपराधों को करने के लिए मजबूर कर देती है जिसे वह करना नहीं चाहता।
कई कई बार लोग अपने बच्चों की भूख को नहीं देख पाने के कारण उन वस्तुओं की चोरी किया जिससे दो वक्त की भूख मिट सके। जिस समाज में लोगों को दो व्यक्ति की रोटी के लिए मजबूर होना पड़े वह समाज स्वस्थ नहीं कहा जा सकता है।
यही कारण रहा है कि हमारे ऋषियों-मुनियों संत महात्माओं ने समाज में अपरिग्रह की परिकल्पना किया। पूर्व काल में सभी योगाभ्यास करने वाले योगी लोग अपने लिए कम से कम का अभ्यास दैनिक जीवन में किया करते थे ।
वह अपने लिए कम से कम और समाज के लिए अधिक से अधिक क्या हो सकता है इस पर चिंतन मनन किया करते थे। जब व्यक्ति अपने लिए कम से कम और समाज के लिए अधिक से अधिक की परिकल्पना किया करता है तो समाज में सुख , समृद्धि,शांति सहज में व्याप्त होने लगती है।
हमारा चिंतन हमारा विचार समाज को सहज में बदलने लगता है । इसके लिए सर्वप्रथम शुरुआत हमें स्वयं से करनी होगी।योग में कितनी दिव्य परिकल्पना की थी हमारी संस्कृति के संरक्षक संत महात्मा ऋषि लोग। लेकिन आज कल योग को उछल-कूद कराकर एक धंधे का रूप दे दिया गया है।
पूर्व काल में हमारे पूर्वज अपरिग्रह को जीवन में धारण करने के कारण शांत, संतुष्ट एवं ज्यादा सुखी थे। वर्तमान समय में व्यक्ति हाई – हाई के चक्कर में हंसते-हंसते अपनी जिंदगी को लुटा दे रहा है ।
इस समय हाय-हाय की महामारी बड़ी तेजी से फैलती जा रही है। जिसके कारण लोग चलते-चलते कोई अटैक से मर रहा है, कोई इधर गिरा मरा, कोई उधर गिरा मरा ।
कोई टक्कर से मर गया। किसी को थोड़ा धैर्य नहीं है, शांति नहीं है बस भागम भाग जिंदगी में मची हुई है। पूर्व काल में लोगों के पास सुविधाएं कम थी लेकिन जीवन में शांति थी, स्वास्थ्य था, समृद्धि थी, आनंद था, प्रेम था, करुणा थी भाईचारा था।
वर्तमान समय में लोगों को सुविधा ज्यादा होने पर भी मन में अशांति है, तनाव है, घृणा , द्वेष नफरत से उनका मन भरा हुआ है। यह सुविधा, यह समृद्धि, मनुष्य के गले की धीरे-धीरे फास बनती जा रही है। मनुष्य को जीवन में यदि सुख शांति स्वास्थ्य चाहिए तो उसे अपनी जड़ों की ओर पुनः लौटना पड़ेगा।
संपूर्ण विश्वास आज इस आधुनिकता से थक चुका है। समाज में बढ़ते नंगेपन से भी लोगों का मोह भंग हो चुका है। जानवरों से बढ़ते कंपटीशन की लत आज मनुष्य को कहीं का नहीं छोड़ रही है। इस मांस के लोथड़े को देख-देख के लोग थक चुके हैं। लोग अब यह सोचने लगे हैं कि अब क्या देखना जानवर तो वैसे भी सब दिखा देते हैं।
अतः हमें यह चिंतन की आवश्यकता है कि समाज अपनी जड़ों की ओर कैसे जु़ड़ा रहे। इसके लिए समाज में अपरिग्रह का विकास करना होगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जैसे लोग जीवन में अपरिग्रह को धारण करने वाले को राष्ट्रभक्त की संज्ञा दिया करते थे। आजकल लोग जिनके पास ज्यादा वस्तुएं होती हैं उसे घृणा की नजरों से देखने लगे हैं।उन्हें लगता है कि जरूर व्यक्ति कहीं घोटाला किया है।
भाग- ३९
आज हम लोग ब्रह्मचर्य की चर्चा करेंगे। ब्रह्मचर्य को समझने के लिए हनुमान जी महाराज को समझना होगा। हनुमान जी महाराज अतुलित बलवान हैं। वे ऐसे बलशाली हैं जिसकी कोई तुलना न की जा सके।
कई लोगों को लगता है कि हनुमान जी महाराज कैसे संपूर्ण पहाड़ को उखाड़ सकते हैं लेकिन शक्तिशाली, अखंड ब्रह्मचारी व्यक्ति के लिए सब कुछ संभव है। उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं है।
आज कल अक्सर वही बच्चे हनुमान जी महाराज जैसे लोगों पर उंगली उठाया करते हैं जिनके खुद के चरित्र का पता नहीं है। जिनकी आंखों के नीचे काला धब्बा है, आंखों में चश्मा चढ़ा हुआ है । कमर झुकी हुई है । 100- 50 दंड बैठक कर ले तो दो-चार दिन उठ बैठ ही ना पाए।
किसी की शक्ति का आभास स्वयं शक्तिशाली बनकर ही पाया जा सकता है। जो स्वयं निस्तेज हो वह क्या किसी की शक्ति का आकलन कर सकता है ।
हनुमान जी महाराज की बात छोड़िए उनका रोल अदा करने वाले दारा सिंह की शक्ति को देखकर ही अंदाजा लगा सकते हैं कि जो व्यक्ति कभी भी पहलवानी में हारा नहीं ऐसा तेजस्वी ओजस्वी व्यक्ति ही हनुमान जी महाराज का रोल अदा कर सकता है।
वर्तमान समय में जैसे-जैसे आधुनिकता बढ़ रही है मनुष्य में निस्तेजता भी आ रही है। आधुनिकता मनुष्य को कमजोर और लाचार बना रही हैं ।
पिछले 5 दशकों में इतना बड़ा बदलाव हुआ है कि जो हमारे बाप दादा 50 किलो की बोरियां उठाकर एक-दो किलोमीटर चल फिर लेते थे आज हालात यह है कि 5 किलो भी लेकर चलना मुश्किल लगता है । यही नहीं बहुत से बच्चे तो पैदल टहलने , 10- 5 बार ऊपर नीचे सीढ़ी चढ़ने उतरने में हांपने लगते हैं।
अब तो छोटे-छोटे बच्चों में भी हृदय रोग , मधुमेह ,घुटने दर्द , कमर दर्द आदि होने लगे हैं। अर्थात एक ऐसी पीढ़ी निर्माण की ओर हम अग्रसर हो रही हैं जो कि कब जवानी आई, कब बुढ़ापा आया पता ही नहीं चलता ।
इस समय समाज में 20– 25 वर्ष के बूढ़ों की संख्या बढ़ती जा रही है। अब एक निस्तेज व्यक्ति किसी शक्तिशाली व्यक्ति का आकलन कैसे कर सकता है ?
जब 10- 5 दशकों में इतना भारी परिवर्तन हो सकता है तो हमें यह विश्वास कर लेना चाहिए कि हनुमान जी महाराज जो आज से हजारों वर्ष पूर्व हुए थे जो की प्राकृतिक कंद मूल फल खाया करते थे उनमें अपरिमित शक्ति पाई जाती रही होगी।
ब्रह्मचर्य को ना समझने के कारण ही वर्तमान समय की पीढ़ी कमजोर, हताश, निराश होती जा रही हैं। हमारे संतों महात्माओं ने जीवन के साथ चार पुरुषार्थों में एक पुरुषार्थ ब्रह्मचर्य को माना था। ब्रह्मचर्य प्रथम पुरुषार्थ है शक्ति है, ओज हैं, बल है , वीर्य है तेज है।
यही कारण रहा है कि प्रारंभ के 25 वर्ष ब्रम्हचर्य के पालन की आज्ञा दी जाती रही है। बिना जीवन में ब्रह्मचर्य को धारण किए योग साधना में सफलता नहीं पाई जा सकती। एक सच्चा ब्रह्मचारी ही अच्छा योगी हो सकता है।
योगी बनने के लिए ब्रह्मचारी होना अति आवश्यक है जो ब्रह्मचारी है वही योगी हो सकता है। योग साधना की पहले और अंतिम शर्त भी ब्रह्मचर्य है।
यदि कोई गृहस्थ व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ संयम पूर्वक रहता है तो वह भी गृहस्थ में रहकर भी साधना की उच्चतम शिखर को प्राप्त कर सकता है।
ऐसे बहुत से संत हुए हैं जिन्होंने गृहस्थ आश्रम में रहकर के जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त किया है। परमहंस रामकृष्ण, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य, कबीर दास जी महाराज, लाहिड़ी महाशय ,संत तुकाराम जैसे संतों ने गृहस्थ आश्रम में भी साधना की उच्च अवस्था प्राप्त किया था ।
यदि कोई साधक योग साधना में सफलता प्राप्त करना चाहता है तो उसे जीवन में ब्रह्मचर्य को धारण करना होगा। बिना ब्रह्मचर्य के धारण किए योग साधना ही क्या जीवन की किसी भी प्रकार से सफलता प्राप्त करना मुश्किल है।
भाग- ४०
जीवन जीना भी एक कला है। शास्त्रों में वर्णित है कि 84 लाख योनियों के बाद ईश्वर की कृपा से मनुष्य योनि प्राप्त हुई और हम उसे भौतिक संसार में व्यर्थ गवा देते हैं। प्राकृतिक जीवन को छोड़ व्यर्थ की भाग दौड़ में लगे हुए हैं।संसार में बहुत बहुमूल्य पदार्थ हैं परंतु जीवन से अधिक नहीं है। जीवन के सामने सभी संपदाये व्यर्थ हैं और जीवन की सार्थकता स्वास्थ्य है।
कहां भी गया है कि पहला सुख निरोगी काया।यदि व्यक्ति स्वस्थ है तो उसे दुनिया सुंदर दिखती हैं । बीमारियां होने पर यह संसार कांटों की तरह चुभने लगता है।
अष्टांग योग का दूसरा भाग नियम है। नियम पांच प्रकार के कहें गए हैं– शौच, संतोष ,तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्राणीधान। दैनिक जीवन में इन नियमों का पालन करने से व्यक्ति इस व्रत को प्राप्त कर सकता है। यह नियम व्यक्ति की स्वयं के जीवन विकास के लिए बनाए गए हैं।
प्रतिदिन नियमबद्ध व नियमित किए जाने वाले दैनिक क्रियाकलाप ही दिनचर्या कहलाते हैं। इस दिनचर्या में रात्रिचर्या भी शामिल है। वर्तमान समय में व्यक्ति की बीमारियों का एक बहुत बड़ा कारण रात्रिचर्या सही रूप से ना होना है।
यौगिक जीवन शैली या पौराणिक जीवन शैली आज की जीवन शैली से बिल्कुल ही परिवर्तित हो चुकी है। यह परिवर्तित जीवन शैली मनुष्य को धीरे-धीरे बर्बादी की ओर ले जा रही है। कहां जाता है के जिसने प्रभात को जीत लिया उसने जीवन जीत लिए ,चारों युगों को जीत लिया।
वर्तमान समय में हम देर से सोने लगे हैं। जिससे हमारा उठना भी देर से हो रहा है। जिसके कारण प्रभात वेला का अनुभव हम कभी नहीं कर पाते हैं। हम एक ऐसी पीढ़ी की ओर बढ़ रहे हैं जिन्हें सुबह का सूरज देखें महीना बीत जाता है। सुबह का आनंद क्या होता है उन्हें कभी पता ही नहीं चलता।
नियम का प्राथमिक चरण शौच से शुरू होता है। शौच का अर्थ सफाई से है। हम मन कर्म वचन से शुद्ध हो। वाह्य रूप से ही नहीं बल्कि आंतरिक रूप से, मानसिक रूप से, भावनात्मक रूप से शुद्ध हो तभी सही रूप में शौच को जीवन में धारण कर सकते हैं। सामान्य रूप से शारीरिक सफाई वगैरह सभी करते हैं। यहां मुख्य विषय है मानसिक सफाई की, प्राण की सफाई की, चेतना की सफाई की, आत्मा की शुद्धि की।
वर्तमान समय में मनुष्य का मन गंदा होता जा रहा है। जिसके कारण मानसिक बीमारियों से वह ग्रसित होता जा रहा है । आज का मनुष्य शरीर से कम , मन से ज्यादा बीमार है।
चिंता,तनाव, घृणा द्वेष नफरत ईर्ष्या आदि से मनुष्य का मन गंदा हो गया है। बिना मन की सफाई हुए मनुष्य स्वस्थ नहीं हो सकता। जिस व्यक्ति का मन स्वस्थ है , जिसकी आत्मा पवित्र है वही व्यक्ति वास्तव में स्वस्थ कहला सकता है।
शारीरिक सफाई के लिए व्यक्ति प्रतिदिन स्नानादि नित्य प्रति करता है लेकिन कभी मन की सफाई के प्रति उसका मन नहीं जाता है। जिसका मन मैला हो उसे हम स्वस्थ कैसे कह सकते हैं। योग साधना में उन्नति के लिए भी व्यक्ति को मानसिक रूप से स्वस्थ होना आवश्यक है। जो जितनी मात्रा में मानसिक रूप से स्वस्थ होगा उतनी ही मात्रा में वह योग मार्ग में सफलता के शिखर को प्राप्त कर सकता है।
कहते हैं पहले मन बीमार होता है बाद में उसका प्रभाव शरीर में दिखाई देता है। भारतीय समाज में शारीरिक बीमारियों का तो लोग इलाज किया करते हैं लेकिन मानसिक बीमारियों का , मन की शुद्धि का कोई इलाज नहीं है। लोगों को यह लगता भी नहीं है कि उनका मन बीमार है।
वर्तमान समय में संपूर्ण मानवता बीमार हो गई है। शरीर से स्वस्थ दिखने वाले भी मानसिक रूप से बीमार हैं। मानसिक बीमारियों को दूर करने का सबसे सुंदर उपाय योग ही है। योग टूटे हुए मन को जोड़ने की कला है। योग जोड़ता है। योग प्रेम की वृद्धि करता है। टूटे हुए दिलों को योग से अच्छा जोड़ने वाला दूसरा कोई माध्यम नहीं है।
मानसिक शुद्धि के लिए नियमित रूप से योगाभ्यास आवश्यक है। कुछ छड़ तक मनुष्य को अकेले में जिनके भी प्रति मन में कोई दुर्भाव हो, घृणा द्वेष नफरत हो उन्हें हमें क्षमा करने का संकल्प लेना चाहिए।
इसके लिए कुछ देर तक एकांत में बैठ जाएं। आंखें धीरे से बंद कर ले। बंद आंखों से देखें। किसी व्यक्ति के प्रति हमारे मन में दुर्भाव है। धीरे-धीरे उस व्यक्ति को हम क्षमा करते जाएं। क्षमा वीरों का आभूषण माना गया है। चाहे आपकी गलती हो या ना हो फिर भी उसे क्षमा कर दें। जब तक आप क्षमा नहीं कर पाएंगे तब तक आप मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हो सकते।
इसका अभ्यास हमें प्रतिदिन करना होगा। धीरे-धीरे हमारा मन स्वच्छ एवं निर्मल होता जाएगा। हम मानसिक रूप से भी स्वस्थ हो जाएंगे। मानसिक रूप से स्वस्थ होने के बाद ही हम सही रूप से शौच का अभ्यास कर सकते हैं।
भाग ४२
आज हम लोग तप की चर्चा करेंगे तप नियम का तीसरा अंग है। तप मूल रूप से किन्हीं भी दो विपरीत परिस्थितियों में सामंजस्य बैठाना है। जिंदगी में सुख मिले या दुःख जो व्यक्ति समान भाव से उसे सह लेता है वही वास्तव में तपस्वी है।
तप का प्रभाव भगवान कृष्ण से सीखना चाहिए। जिंदगी भर में विभिन्न प्रकार के झंझावातों से जूझते रहे लेकिन कभी भी हार नहीं मानी ।
हंसते-हंसते सब कुछ सह गए। सोचिए भगवान कृष्ण जैसा दुख किसी व्यक्ति को और संसार में मिला होगा। जन्म के पहले ही उनके माता-पिता को जेल में डाल दिया गया। जन्मते ही उन्हें नंद बाबा के घर पहुंचा दिया गया।
उनके जीवन में इतना भी सुख नहीं था कि अपने मां के आंचल का दुग्ध पान कर सकते । कैसी रही होगी उनकी बेटा मेरा जहां भी रहे सुखी रहे यही सोचकर उनकी ममता सूख गई। आंखें पथरा गई । आंचल का दूध भी इंतजार करते-करते सूखने लगा।
क्या संसार में इतना बड़ा दुख सहने वाला व्यक्ति दिखाई देता है? यही है सुख दुख में समान भाव से रहना। तप के नाम पर आजकल नौटंकी हो रहे हैं। कोई कांटों पर लेटा है तो कोई एक पैर पर खड़ा है । तो कोई धूमी रमाये हुआ है। वास्तव में तप का इन सब से कोई संबंध नहीं है।
तप को समझना है तो भगवान राम के जीवन से भी समझा जा सकता है। एक तरफ राज्य सुख का आनंद , दूसरी तरफ उसी रात्रि में वनवास का आदेश। दोनों परिस्थितियों को सहजता से स्वीकार करना यह किसी तपस्वी के लिए ही संभव है।
सामान्य व्यक्ति का मन तो ऐसी स्थिति में विचलित हो जाता है। सुख में भी ज्यादा उन्मत्त ना हो जाए । दुख भी मिले तो ज्यादा निराश हताश न हो जाए यही है वास्तविक रूप से तप।
वर्तमान समय में तप के नाम पर पाखंड ज्यादा फैल रहा है। जो जितना बड़ा पाखंडी है वह उतना बड़ा तपस्वी माना जा रहा है। जबकि ऐसे तप का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। तप का अर्थ बस इतना सा है कि किसी भी दो परिस्थित में सामंजस्य बनाकर के रखें।
आज का मनुष्य ना तो सुख को सह पा रहा है , ना तो दुख को सह पा रहा है। सुख में वह अहंकार वश दूसरों के जीवन में कांटे ही काटे बोना शुरू कर देता है। वह जब उसकी परिस्थितियां बदलती हैं। दुख के दिन आते हैं तो अपना सिर पीटने लगता है।
वर्तमान समय में युवाओं में आत्महत्या की दर बढ़ती जा रही है । इसका मूल कारण यही है कि थोड़ा सा जीवन में दुःख तकलीफ कष्ट कठिनाइयां आई नहीं कि उसे जीवन में बड़ी निराशा हताशा आने लगती है ।
उसे लगता है कि इस जीवन को समाप्त करने के बाद ही सारी कष्ट कठिनाइयां मिट जाएंगी । लेकिन उस व्यक्ति को यह पता नहीं है जीवन समाप्त करना किसी समस्या का समाधान नहीं है।
आजकल युवाओं में बढ़ता उतावलापन उन्हें आत्महत्या करने को मजबूत कर रहा है। अधिकांश शिक्षण संस्थानों में बच्चों को यह सिखाया जा रहा है कि जीवन में सफल होना ही जीवन की सार्थकता है ।
उन्हें यू नहीं बताया जा रहा है कि जिंदगी में सफलता असफलता गाड़ी के दो पहियों की भांति हैं । जीवन में कभी सफल होंगे तो कभी असफल होंगे इसलिए दोनों परिस्थितियों से हमें समान भाव से लेना चाहिए तभी हम जीवन में सुखी रह सकते हैं।
ऐसे बच्चों को यदि नियमित रूप से जप ध्यान आदि का अभ्यास कराया जाए तो उनके जीवन में सामंजस आने लगता है। फिर वह कैसी भी परिस्थितियां हो उसे सहज में सहने की क्षमता उनमें विकसित होने लगती है । ऐसा व्यक्ति पहाड़ जैसा दुःख को भी सहज में सह जाता है।
आखिर जिंदगी में किस व्यक्ति के जीवन में कठिनाइयां नहीं आईं । जिन्होंने कठिनाइयों से दो-दो हाथ करने की ठान ली वही जीवन में सफल हुए हैं। लेकिन जो कठिनाइयों से, दुःख तकलीफों से हार मान लिया वह जीवन से निराश हो गया। हताश हो गया उसे लगने लगा के इस जीवन से मुक्ति ही अंतिम मार्ग है।। किसी भी समस्या का समाधान जीवन से मुक्ति प्राप्त करना नहीं है।
जिंदगी है तो समस्याएं आतीं रहेंगी।समस्याओं से भागना कायरों का काम है । शूरवीर तो समस्याओं से दो-दो हाथ करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं। आज सुख है तो कल दुख भी होगा। आज दुःख है तो कल सुख भी होगा। सुख-दुख जीवन में दिन-रात की भांति है । जिन्हें हमें समान रूप से जीवन में स्वीकार करना चाहिए।
अक्सर देखा गया है कि किन्हीं एक ही स्थिति में कोई व्यक्ति हताश निराश हो करके जीवन को समाप्त कर देता है। तो इसी परिस्थिति में कोई दूसरा व्यक्ति जिंदगी का नया मार्ग खोज लेता है। उसे लगता है कि यह परेशानियां कठिनाइयां हमारी परीक्षा लेने के लिए आई है ।
हमें इस परीक्षा को देना होगा और उसमें उत्तीर्ण भी होना होगा । ऐसा व्यक्ति ही दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है । उसकी बनाई गई मिसाल पर दुनिया चलने के लिए तैयार रहती है।
अतः हमें चाहिए कि हम जीवन में संतोष को अपनाएं। संतोषी जीवन सदैव सुखमय होता है। इस नियम को जीवन में धारण करने वाला व्यक्ति कभी जिंदगी से हताश निराश नहीं होता है।
वह जिंदगी की हर परिस्थिति को सहज भाव से स्वीकार कर लेता है। उसे लगता है कि सुख या दुख दोनों परमात्मा की मर्जी से मिला हुआ है। जब उसकी मर्जी है तो थोड़े दिन क्यों ना दुःख को भी सह लिया जाए । ऐसा व्यक्ति ही संसार के झंझावातों से पार आ जाता है।
भाग ४३
आज हम लोग स्वाध्याय की चर्चा करेंगे। स्वाध्याय मुख्य रूप से किसी आर्ष ग्रंथ ,वैदिक ग्रंथ , वेद, उपनिषद , गीता , रामायण आदि का अध्ययन करना है। इसके अलावा स्वयं का अध्ययन, स्वयं के बारे में चिंतन मनन करना भी स्वाध्याय कहलाता है।
जिस प्रकार के हम साहित्य का अध्ययन करते हैं उसी प्रकार के हमारे चिंतन- मनन आदि होने लगते हैं। वर्तमान समय में बढ़ता वैचारिक प्रदूषण का कारण यही है कि लोगों का चिंतन मनन दूषित हो गया है। लोगों के विचार भावनाएं में जब प्रदूषण बैठ गया हो तो उनके कार्य भी उसी प्रकार होने लगते हैं।
स्वाध्याय मुख्य रूप से व्यक्ति के चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार में शुद्धि लाता है। आचार्य पंडित श्रीराम शर्मा इसे आत्मबोध एवं तत्वबोध की साधना कहते हैं।
यदि प्रतिदिन नियमित रूप से हम ऐसे श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन, चिंतन, मनन करेंगे तो हमारे विचार भी उसी प्रकार होने लगेंगे। इसलिए यदि हमें जीवन में अपने चिंतन को श्रेष्ठ बनाना है तो नियमित रूप से स्वाध्याय का अभ्यास जरूर अपनाना चाहिए।
एकांत में कुछ क्षण तक चिंतन मनन करने से हमें यह आभास होने लगता है कि आखिर गलती कहां पर हो रही है जिसमें सुधार करने के बाद हम अपने जीवन को और उन्नत बना सकते हैं।
वर्तमान समय में बढ़ते मीडिया के कारण लोग दिनभर गंदी-गंदी चीजें देखते रहते हैं। जिसके कारण उनका मनो मस्तिष्क उसी प्रकार के विचारों से प्रदूषित होता रहता है।
वर्तमान समय में सोशल मीडिया में बढ़ते नंगेपन ने मनुष्य के मस्तिष्क को और प्रदूषित कर दिया है। वर्तमान समय में वह ना चाहते हुए भी इससे बचना बड़ा मुश्किल हो गया है। अबोध बालकों के मन में भी इस प्रकार के विचारों की भरमार सहज में होने लगी है।
वर्तमान समय में संपूर्ण मानवता के प्रति यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी बन गई है कि वह बढ़ते हुए विचार प्रदूषण से आने वाली पीढ़ी को किस प्रकार से बचाए। यह एक प्रकार से संपूर्ण मानव समाज के प्रति बहुत बड़ा षड्यंत्र चल रहा है।
इस षड्यंत्र के पीछे संपूर्ण मानवता आ चुकी है। छोटे-छोटे अबोध बालकों के मन में नंगेपन का बीजारोपण करना उनको बचपन से ही अपंग बना देना है । आजकल माता-पिता भी ज्यादा स्मार्ट बनने के चक्कर में बच्चों को मार डाल रहे हैं । बच्चों को यदि बच्चा ही बना रहने दे तो बच्चों के लिए यह बहुत बड़ा उपकार होगा।
पूर्व काल में कहां जाता था लोग गरीबी के कारण कपड़े नहीं उपलब्ध होने के कारण फटे पुराने पहनते थे लेकिन आज जो जितना अमीर है उतना ही नंगा अपने को दिखाना चाह रहा है। गरीब तो अपने शरीर को अधिक से अधिक ढक कर रखता है । यह वैचारिक प्रदूषण फैलाने का अमीरों द्वारा बहुत बड़ा षड्यंत्र चल रहा है । यह एक प्रकार का संपूर्ण समाज में जहर फैलाने के समान है।
यदि हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को इस प्रकार के वैचारिक प्रदूषण से बचाना है तो बच्चों में नियमित रूप से स्वाध्याय की आदत डालनी होगी। स्वाध्याय के द्वारा वह जीवन में अपने मन को स्वस्थ्य रखते हुए महान कार्यों की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
स्वाध्याय मनुष्य की मन प्राण चेतना एवं आत्मा की शुद्धि का माध्यम है। नियमित स्वाध्याय से उसकी आत्मा परम पवित्र हो जाती है। उसके अंदर व्याप्त समस्त प्रकार के मनोविकार नष्ट हो जाते हैं।
स्वाध्याय हमारे ऋषि मुनियों की अद्भुत खोज थी। जो लोग बिना स्वाध्याय के योगाभ्यास आदि करते हैं। वह एक प्रकार की केवल कलाबाजी ही दिखा करके इति श्री समझ लेते हैं। बिना स्वाध्याय के ऐसे योगाभ्यासियों का मन गंदा का गंदा ही रहता है।
योग साधना में उन्नति के लिए स्वाध्याय को अपने जीवन का अंग बनाना आवश्यक है। हमें चाहिए कि योगाभ्यास के साथ ही साथ नियमित रूप से स्वाध्याय का भी अभ्यास करते रहें। नियमित रूप से कम से कम एक-दो घंटे तक श्रेष्ठ ग्रंथों का अध्ययन मनन चिंतन करें।
यदि कोई कहे कि न्यूज़ पेपर, पत्र पत्रिकाएं आदि पढ़ना स्वाध्याय है तो ऐसा नहीं है। मुख्य रूप से स्वाध्याय वह कहलाता है जिसके द्वारा हमारे जीवन की उन्नति होती है। यदि किसी साहित्य को पढ़ने से हमारा मन गंदे विचारों से भर जाता हो तो वह स्वाध्याय नहीं कहलाता है। स्वाध्याय तो मात्र वही हैं जिसके द्वारा आत्मा की उन्नति हो सके। स्वाध्याय आत्मा को पवित्र करने का महान विज्ञान है।
वर्तमान समय में लोगों की आत्मा प्रदूषित होती जा रही हैं। यह आत्मिक प्रदूषण व्यक्ति के व्यक्तित्व को और खोखला बना दे रहा है। प्रत्येक योग साधक को चाहिए कि प्रतिदिन वह स्वाध्याय का अभ्यास भी अपने जीवन में अपनाएं। स्वाध्याय करने से उसका मन धीरे-धीरे पवित्र होने लगेगा। पवित्र मन में ही श्रेष्ठ विचारों का बीजारोपण किया जा सकेगा।
स्वाध्याय मुख्य रूप से आत्मा की मुक्ति का साधन है। स्वाध्याय के माध्यम से ही आत्मा मुक्त होती है। मात्र ग्रंथों के अध्ययन से, तोते की तरह रटने से, लोग बातूनी ज्यादा हो जाते हैं, अहंकारी हो जाते हैं, घमंडी हो जाते हैं।
अक्सर देखा गया है जो लोग शास्त्रों का ज्यादा ज्ञान रखते हैं वह उतने ही ज्यादा अहंकारी भी हुआ करते हैं। लेकिन जो चिंतन मनन करते हैं वह धीरे-धीरे अहंकार से मुक्त हो जाते हैं। उन्हें अहंकार छू भी नहीं पाता है। अहंकार से मुक्त होने के लिए स्वाध्याय को जीवन में अपनाना अति आवश्यक है।
जब व्यक्ति चिंतन मनन की गहराई में उतरता है तो धीरे-धीरे उसकी आत्मा और पवित्र होने लगती है । धीरे-धीरे उसकी आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप में आ जाती है। फिर उसके मन से कौन छोटा ?कौन बड़ा? कौन ऊंचा?
कौन नीचे ?कौन धर्म ?कौन संप्रदाय ? सारी दीवारें ढह जाती हैं । वह पवित्रता का स्वरूप बन जाता है। ऐसे व्यक्ति के मन में सब जगह परमात्मा ही परमात्मा दिखाई देता है।
यही है आत्मा का शुद्ध स्वरूप और वास्तविक रूप से यही है स्वाध्याय करना अर्थात अपनी आत्मा को जानना ही सही रूप में स्वाध्याय है।
भाग- ४४
आज हम लोग ईश्वर प्रणिधान की चर्चा करेंगे। अंतिम रूप से सभी साधनाओं का लक्ष्य ईश्वर के प्रति समर्पण है। योग का मुख्य उद्देश्य ही है – आत्मा का परमात्मा से मिलन, परमात्मा से एकाकार होना, विलीन हो जाना, अपना अस्तित्व समाप्त कर देना। मेरा मुझ में कुछ नहीं,
जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपता ,
क्या लागे हैं मोर।।
अर्थात हमारा कुछ भी नहीं है जो कुछ है सब कुछ परमात्मा का ही है।इसलिए अपनी समस्त क्रियायो को परमात्मा को सौंप देना ही ईश्वर प्राणिधान है।
सामान्य जीवन में व्यक्ति जब कोई कार्य करता है तो यही कहता है कि इस कार्य को हमने किया।लेकिन यदि कोई गलती हो जाए तो वह ईश्वर को दोषी ठहराता है। अच्छा हुआ तो मैंने किया यदि कोई कार्य गलत हुआ तो वह ईश्वर की मर्जी से हुआ। ऐसा चिंतन ही मनुष्य की आत्मिक विकास में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न करता है । वह अपने मूल स्वरूप से नहीं मिल पाता है।
ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है –अपने कार्यों को परमात्मा और मानवता को अर्पित करना ।वास्तव में हम सब एक हैं । अपने समस्त कार्यों को पूरी तरह से उस चीज के लिए समर्पित करना जिसे हम उच्च शक्ति मानते हैं। समर्पण करना भी चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि इसका अर्थ है अहंकार को पार करना।
दैनिक जीवन में मनुष्य विभिन्न प्रकार के अहंकार को पाले रखता है । जिसके कारण वह और विभिन्न प्रकार के समस्याओं से ग्रसित होता जाता है। योगाभ्यास में सफलता के लिए व्यक्ति को सर्वप्रथम अहंकार से मुक्त होना होगा ।
अहंकारी व्यक्ति योग मार्ग में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। योग मार्ग में भी समर्पण चाहिए । अपनी क्रियायो के प्रति, अपने चिंतन के प्रति, अपने व्यवहार के प्रति, बिना समर्पण के कोई भी कार्य 100% पूर्ण नहीं हो सकता। भौतिक जीवन हो या आध्यात्मिक हर जगह समर्पण की आवश्यकता महसूस होती है।
दैनिक जीवन में जब हम ईश्वर प्रधान को लागू करते हैं तो हमारा जीवन और सरल हो जाता है। यदि हम अपने प्रत्येक कार्य को परमात्मा के चरणों में समर्पण करते जाएं तो हमारा जीवन और सरल होता जाता है जीवन के समस्त कष्ट कठिनाइयां तकलीफ है खत्म होने लगते हैं।
जीवन है तो कठिनाइयां कष्ट भी होगी। मुख्य बात यह है कि हम उन कठिनाइयों से किस प्रकार से निजात पाना चाहते हैं। ईश्वर के प्रति समर्पण करने से कष्ट कठिनाइयां हमें उतना नहीं परेशान करते जब मनुष्य को लगता है कि सब कुछ परमात्मा की मर्जी से ही हो रहा है तो वह कष्ट कठिनाइयां को भी सहजता के साथ सह जाता है।
यही कारण है कि देखा गया है ईश्वर भक्तों को अनेकानेक प्रकार से लोगों ने प्रताड़ित करने का प्रयास किया। लेकिन उन्होंने इस प्रताड़ना में भी ईश्वर की कृपा का अनुभव किया।
सुख में भी तू है तो दुख में भी तो तू ही तू ही है। जब ऐसा भाव हमारे मन में आने लगता है तो जीवन में आने वाले कष्ट कठिनाइयां हमें इतनी परेशानी नहीं पैदा करती जितनी की एक सामान्य व्यक्ति को परेशान करती है। सामान्य जीवन में व्यक्ति जब कष्ट आता है तो हताश निराश हो जाता है। तनाव से ग्रसित हो जाता है।
उसके लिए जीवन बहुत ही मुश्किलों भरा हो जाता है । उसे लगता है कि इस जिंदगी को समाप्त कर देना ही अंतिम समाधान है। वही एक ईश्वर भक्त इस प्रकार के विचारों के बारे में सोच भी नहीं सकता। उसे लगता है जीवन को समाप्त करना ईश्वर की व्यवस्था में दखलअंदाजी करना है। यह शरीर परमात्मा ने उनकी आराधना उपासना के लिए दिया है । उसे हम यूं ही व्यर्थ में क्यों गवाएं।
ईश्वर प्रणिधान को जीवन में धारण करने वाला व्यक्ति शांत एवं संतुष्ट होता है। उसे जो कुछ भी प्राप्त होता है वह सब ईश्वर की मर्जी को समझकर उसी में मस्त रहता है। वह किसी प्रकार के शिकवा शिकायत नहीं करता है। उसे लगता है कि जब सभी कार्य परमात्मा की मर्जी से ही हो रहे हैं तो क्या शिकवा क्या शिकायत। आखिर शिकवा शिकायत करना भी है तो किससे करें।
योग मार्ग में सफलता के लिए भी उतना ही आवश्यक है जितना एक भक्त के लिए। जीवन में प्रत्येक कार्य के लिए समर्पण चाहिए बिना समर्पण के कोई भी कार्य पूर्ण नहीं होता।
योग मार्ग में जितनी मात्रा में हम ईश्वर के प्रति समर्पित होते जाते हैं उतनी मात्रा में हमारे जीवन में उन्नति होती जाती है । यदि हम योग मार्ग में सफलता को चूमना चाहते हैं तो ईश्वर के प्रति बिना समर्पित हुए ऐसा करना अति कठिन है।
एक योग साधक के लिए तो या और भी आवश्यक हो जाता है साधना समर्पण मांगता है जब योग साधक ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाता है तो उसकी साधना में सहज में उन्नत होने लगती है जैसे-जैसे उसकी ईश्वर के प्रति समर्पण बढ़ता जाता है वह और गहराई के साथ ध्यान आदि के अभ्यास को करता है जिससे समाधि अवस्था की प्राप्ति जो के योग का मुख्य लक्ष्य है सहज में प्राप्त होने लगती है।
वर्तमान समय में योग को एक उछल कूद की क्रिया मान लिया गया है । जिसके कारण उसमें वह आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो पाती हैं जो योग एक योग साधक में होनी चाहिए।
वर्तमान समय में खेलकूद की तरह मात्र बॉडी को फिट करने के लिए किया गया योगाभ्यास साधक को पूर्ण लाभ नहीं होने देता है।
इसलिए यदि हम योग साधना में उन्नति करना चाहते हैं तो अपनी प्रत्येक क्रिया को पूर्ण समर्पण के साथ ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए।
भाग- ४५
वर्तमान समय में शिक्षा का स्तर बद से बदकर होता जा रहा है। स्कूलों में बढ़ती अध्यापकों द्वारा नशाखोरी एक बहुत बड़ी समस्या बनकर उभर रही है। एक दिन मैं एक विद्यालय में गया।विद्यालय के प्रधानाचार्य बैठे हैं।
मुंह गुटके से भरा हुआ है। साथ में ही सात- आठ बच्चे भी बैठे हैं। आचार्य जी कहते हैं -” का बे, अबई फीस नाहीं जमा भई! एनन जब फीस न दई पाईहई, तो तो पढ़ाईहई का। बनई के चाहत हैं कलेक्टर , फीस नाही जुहात बा।”
तब तक एक दूसरे अध्यापक आते हैं। मुख में सिगरेट लगा हुआ है । कस के कस लिए पड़े हैं। जैसे सिगड़ी से धुआं निकल रहा हो।
तीसरे अध्यापक भी सुरती मलते हुए आ रहे हैं। फट-फट करने के बाद सबको खाने को देते हैं ।
यह है हमारे देश के खेवनहार जिस पर हमारे देश का भविष्य टिका हुआ है । जिसकी स्वयं की नैया डूब रही हो वह क्या दूसरे को किनारा देगा!
आज चारों तरफ चर्चा चल रही है कि बच्चे बिगड़ रहे हैं। लेकिन कभी यह नहीं सोचते कि उन्हें बिगाड़ने वाले कौन लोग हैं? कहीं ना कहीं हम आपके बीच के लोग तो नहीं हैं ?
इसलिए जब तक विद्यालयों में अध्यापकों को नशा करने पर पाबंदी नहीं लगाई जाएगी उनमें सुधार नहीं हो सकता।
आजकल विद्यालय नशे के अड्डे बनते जा रहे हैं। छोटे बच्चों के स्कूलों में यह और फैल रहा है। एक नशेड़ी अध्यापक अपने बच्चों को कैसी शिक्षा दे सकता है। जो स्वयं नशे में डूबा हो।
अक्सर देखा गया है कि सरकार भी इस पर कठोर कदम नहीं उठाती हैं। जिस प्रकार स्कूल के आसपास नशे के कारोबार पर प्रतिबंध है उसी प्रकार से विद्यालय में भी नशा करने पर प्रतिबंध लगना चाहिए। यदि कोई अध्यापक नशा करते हुए पकड़ा जाए तो उस पर कठोरता के साथ कार्रवाई करने की आवश्यकता है। जिस अध्यापक को नशा करना है वह अपने घर पर करें विद्यालय में नशे का अड्डा ना बनाएं।
अक्सर मैंने विद्यालयों में देखा है कि शिक्षक बच्चों के सामने भी नशा करते रहते हैं। कभी किसी प्रकार से कठोरता कार्रवाई न होने के कारण वे खुलेआम विद्यालय में नशे का अड्डा बना देते हैं। यदि किसी विद्यालय में दो-तीन नशेड़ी अध्यापक हो तो फिर आपस में गठजोड़ करके नशा करने लगते हैं। उसका प्रतिरोध करने पर वे मिलकर विरोध करते हैं और अपनी ही बात सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।
अक्सर जब आप उनका विरोध करो तो कहते हैं — ” आपका क्या जाता है?मैं अपना खाता हूं।”
भाई ठीक है तुम अपना खाते हो। लेकिन जगह का तो ख्याल रखो। यह विद्यालय है कोई नशे का अड्डा नहीं है तुम जैसी मर्जी वैसे करोगे।
एक बार मैंने एक विद्यालय के प्रबंधक से इस पर चर्चा किया तो उन्होंने कहा कि इस पर मैं भी विद्यालय में प्रतिबंध लगाया हुआ है। लेकिन जब मैं इसकी गहराई में जाने का प्रयास किया तो देखा कि ऐसे धुरंधर इसके पीछे लगे हुए हैं कि मेरा तो माथा ठनक गया। मैं समझ नहीं पाया कि थोड़े से स्वार्थ के लिए लोग आने वाली पीढ़ी को किस प्रकार से बर्बादी की ओर ले जा रहे हैं।
आजकल बच्चे भी उतने ही नशे की आदी हो रहे हैं। कई बार तो मैं क्लास में बच्चों को नशा करते हुए पकड़ा था। कई कई बच्चे तो इतने नशेड़ी बन चुके हैं कि हमने कल्पना भी नहीं की थी हमारे बच्चे इतने बड़े नशेड़ी।
आजकल जो बच्चे हॉस्टल वगैरह में रह रहे है उनमें बहुत कम बच्चे होंगे जो नशे से बच सकें हैं। धीरे-धीरे ऐसे बच्चे नशे के आदी होने लगते हैं। यह आदत विद्यालय छोड़ने के बाद भी बनी रहती हैं।
माता-पिता को लगता है कि हमारे बच्चे पढ़ने गए हैं। लेकिन वो कौन सी पढ़ाई कर रहे हैं यह किसी को नहीं पता चल पाता है। अभिभावकों को चाहिए के बच्चों का ध्यान रखें। कभी-कभी अचानक हॉस्टल में आ जाए। उनके दोस्तों से भी अपने बच्चों के बारे में फीडबैक लेते रहे। जिससे वह बच्चा नशा करने से डरेगा नशा को नाश की जड़ माना गया है।
न जाने कितने परिवार इस नशे के कारण बर्बाद हो गए और बर्बाद हो रहे हैं। नशा व्यक्ति को बर्बादी की ओर ले जाता है। नशेड़ी व्यक्ति का अपना कोई नहीं होता है।
मैंने अपने गांव में भी देखा है कि नशे के कारण कितने घर बर्बाद हो गए । पूरा गांव नशे में डूबा हुआ है। कई कई लोग तो नशे में डूब कर अपनी जिंदगी खत्म कर देते हैं ।
आजकल नशे की दुकान हर गली नुक्कड़ पर मिल जाएंगे। किसी-किसी मोड़ पर तो 10 -20 दुकान नशे की ही मिलती हैं। नशे की चीज सहजता से उपलब्ध होने के कारण भी नशेड़ियों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है।
बड़े-बड़े एक्टर भी नशे का प्रचार प्रसार करते दिखलाई देते हैं। नशा नाश का कारण है। जो एक्टर नशे आदि का विज्ञापन करता हुआ पकड़ा जाए जनता को चाहिए कि उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाए। उसकी फिल्मों आदि की सार्वजनिक होलिया जलाई जाए।
जिससे आगे नशे आदि का प्रचार करने के लिए उन में डर एवं भय पैदा हो। छोटे-छोटे बच्चे भी जब ऐसे एक्टरों को नशा करते हुए देखते हैं तो वह भी नशे की ओर उन्मुख होने लगते हैं। समाज में जन जागृति द्वारा ही नशे को काबू में किया जा सकता है।
गायत्री परिवार एवं इसी प्रकार के अन्य संस्थाएं नशे के प्रति आंदोलन चलाए हुए हैं । हमें भी उनके आंदोलन को प्रोत्साहन देना चाहिए और सामूहिक रूप से नशेबाजी को खत्म करने का अभियान चलाना चाहिए।
थोड़े-थोड़े प्रयास से ही यह महान कार्य करना संभव हो सकता है। कभी यह ना सोचें कि हमारे अकेले से क्या होगा? एक अकेला व्यक्ति भी संपूर्ण राष्ट्र के चरित्र को बदल सकता है ।इसलिए हमेशा सदैव अपने स्तर पर भी नशा मुक्ति के लिए प्रयास करते रहना चाहिए।
भाग- ४६
नशे के अलावा गांव में जो दूसरी सबसे बड़ी समस्या व्याप्त है वह अंधविश्वास है। उसमें भी भूत प्रेत का अंधविश्वास बहुत ज्यादा मात्रा में गांव में अभी भी व्याप्त हैं।
वर्तमान समय में देखा जाए तो भूत प्रेत की मान्यता से लगभग सारा संसार जकड़ा हुआ है । किंतु भूत प्रेत आदि क्या है? कैसे हैं ?या नहीं हैं? इस विषय में कोई प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक तथ्य तक नहीं पहुंच पाया है । इसीलिए समाज में तरह-तरह के भूत- प्रेत के नाम पर नौटंकीया चलती रहती हैं।
देखा गया है की कुछ लोग स्वार्थ के बंसीभूत होकर जनसाधारण को ठगने के लिए भूत प्रेत का सहारा लेते हैं । जनता में कल्पित भय बनाकर जान माल की हानि करते हैं
भूत प्रेत की जो छवि हमारे मानस पटल पर व्याप्त है उसकी वास्तविक सत्ता कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती। भूत बीते हुए समय को कहते हैं और प्रेत मृतक शरीर (शव) को कहते हैं। वैसे अग्नि वायु जल पृथ्वी आकाश नामक पंच महाभूत होते हैं इन्हीं से हमारा शरीर बनता है।
वर्तमान समय में इस वैज्ञानिक युग में भी जहां हम चांद पर पहुंच चुके हैं वहीं अधिकांश अशिक्षित तथा कुछ शिक्षित लोग भी भूत प्रेत नामक काल्पनिक अदृश्य शक्ति का अस्तित्व मानते हैं।
महिलाएं प्राय: अंधविश्वासी होती हैं। वह अपने बच्चों तथा परिवार के अन्य लोगों पर भी इस प्रकार का संस्कार डालती हैं कि कुछ लोग मन में भूत -प्रेत की कल्पना लिए रहते हैं ।यह संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी परिवारों में चलता रहता है।
यही कारण है कि समाज में बहुत से व्यक्ति प्रेत बाधाओ से अपनी रक्षा के लिए गंडे ताबीज आज भी बनवाकर पहनते हैं ।कोई मानसिक या शारीरिक रोग होने पर उसे भूत लीला या प्रेत बाधा समझा कर ओझा सोखा सयानो के यहां दर-दर की ठोकरे खाते हैं या झाड़ फूंक करवाते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति जीवन भर दुख पाते हैं।
कोई ओझा सोखा ऐसे रोगियों को भस्म अर्थात राख में दवाई मिलाकर खाने को देते हैं तथा उसके प्रभाव से रोगी के ठीक हो जाने पर अपने तंत्र मंत्र या गंडे ताबीज के ही प्रभावशाली होने के लिए डींग हांकते हैं। इससे रोगी और उसके परिजन का भूत प्रेत के प्रति और अधिक विश्वास बढ़ जाता है।
यदि सही इलाज ना हो पाने के कारण ऐसा रोगी मर जाता है तो ओझा सोखा या मौलवी कह देते हैं की बहुत बड़ा भयंकर था इसलिए हम उसे जीत नहीं पाए ।वह अभी और भी खतरा पैदा कर सकता है ।अतः उसकी शांति के लिए तंत्र-मंत्र करवा लीजिए।
इस प्रकार अंधविश्वासी लोग जीवन भर उसके ठगाई में आते रहते हैं और चालाक व धूर्त लोग उन्हें ठग कर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं।
अंधविश्वास से ग्रस्त साधारण जनता यह मानती है कि भूत प्रेत या शैतान आदि नाम की कुछ अदृश्य शक्तियां होती हैं जो कुछ व्यक्तियों पर अपना अधिकार जमा लेती है ।उन्हें परेशान करती हैं या उनसे मनमाने संभव अथवा असंभव चमत्कार कार्य करवाते हैं।
देखा गया है कि भूत प्रेत से पीड़ित व्यक्ति अपने होश में नहीं रहता है और यह अदृश्य शक्तियां उसे पर सवार हो कर उसके शरीर में प्रवेश करके उसके माध्यम से अपनी बात कहती रहती हैं।
कभी-कभी देखा गया है कि किसी घर में भी भूत प्रेत ब्रह्म या जिन्न शैतान अपना अधिकार जमा लेते हैं। ऐसे घर में अनेक अनहोनी , आश्चर्यजनक घटनाएं होने के बात भी कही जाती हैं। यदि कोई बुद्धिमान व्यक्ति ऐसी घटनाओं के गहन जांच करें तो उसके रहस्य की पोल खुलने में कुछ भी देर नहीं लगती है।
देखा गया है की कभी-कभी तो घर को भूतहा समझ कर उसमें रहने वाले लोग उस घर को छोड़ देते हैं और उसे आधे पौने दाम पर बेच देते हैं। इससे घर बेचने वाले को बहुत बड़ी आर्थिक हानि उठानी पड़ती है ।
ऐसा घर खरीदने वाला यदि अंधविश्वासी होता है तो घर शुद्ध कराने के लिए ओझा सोखा या मौलवी की शरण में जाता है ।वे लोग उसे मोटी रकम ऐठकर उसे अच्छा खासा चूना लगाते हैं।
हमारे जानकारी में भी हमारे गांव में ऐसी कई घटनाएं हो चुके हैं।
भूत प्रेत के शिकार अशिक्षित ही नहीं बल्कि शिक्षित व्यक्ति भी हो जाते हैं । उसका कारण यह है की बचपन से उन्हें भूत प्रेत की कहानी सुनाई जाती हैं ।
अमुक स्थान पर न जाना वहां भूत प्रेत रहते हैं। इस प्रकार के निर्देश दिए जाते हैं। यह संस्कार जीवन भर उनके मन में बना रहता है ।शिक्षा के माध्यम से इस प्रकार के अंधविश्वास को दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया जाता है ।यही कारण है कि शिक्षित लोग भी भ्रम के शिकार होकर अपना धन गवा बैठते हैं।
ऐसे शिक्षित अंधविश्वासी लोगों के लिए ही अशिक्षित लोग भी कहते हैं कि पढ़े-लिखे लोग भी भूत-प्रेत मानते हैं इसलिए भूत-प्रेत अवश्य होता है।
अक्सर देखा गया है कि भूत प्रेत के मानने वाले परिवारों में कलह ज्यादा होती है। जब किसी व्यक्ति को कोई मानसिक या शारीरिक रोग हो जाता है और वह उस रोग का कारण भूत लीला या प्रेत लीला समझ कर उसके निवारण के लिए किसी ओझा सोखा या मौलवी आदि के पास जाता है तब उसे ठीक कर देने का दावा करने वाले ओझा सोखा मौलवी आदि उसे कहते हैं कि तुम्हारे अमुक निकट संबंधी भाभी भाई पड़ोसी या कोई स्त्री पुरुष ने भूत कर दिया है।
ऐसा कह कर भूत उतारने का पेसा करने वाले पीड़ित व्यक्ति या उसके परिवार से खूब धन तो ऐंठते ही हैं। निकट के रिश्तों में भी सदा सदा के लिए स्थाई दरार पैदा कर देते हैं।
अक्सर देखा गया है कि भूत प्रेत के नाम पर कमाई करने वाले ना जाने कितने परिवारों में फूट डालकर घर तबाह कर दिया।
वास्तव में भूत प्रेत और जिन्न शैतान आदि नाम से प्रचलित अदृश्य काल्पनिक शक्तियों की मान्यता राष्ट्र , समाज, परिवार के लिए बहुत ही हानिकारक है। ऐसी मान्यताओं का कोई वैज्ञानिक, शास्त्रीय या फिर तार्किक आधार नहीं है।
आता समाज के प्रबुद्ध वर्ग को चाहिए कि ऐसी मान्यताओं को वह लोगों में समझाने का सही रूप में प्रयास करें। बच्चों के अंदर भूल से भी इस प्रकार की चर्चा ना करें।विद्यालयों में भूत प्रेत की सत्यता एवं असत्यता पर चर्चा की जाए। जो बच्चे गंडे ताबीज आदि पहन कर आए हो उनकी वास्तविकता उन्हें बताई जाए ।
जिससे वह बचपन से ही उनके अंदर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हो सके।
भाग ४७
आज की आत्मकथा में हम यह समझने का प्रयास करेंगे की इस प्रकार भूत प्रेत की समस्याओं को हमारे धार्मिक ग्रंथो में किस प्रकार से व्यक्त किया गया है।
जैसा कि आम धारणा है की भूत प्रेत लोगों को परेशान करते हैं। कुछ लोग शास्त्रों का सहारा लेकर अपना उल्लू सीधा किया करते हैं। ऐसे में भूत प्रेत के बारे में हमारे शास्त्रों में क्या कहा गया है आज इस पर चिंतन करेंगे-
उपनिषद् आदि में ‘भूत’ शब्द प्राणी अथवा जीव के लिए प्रयुक्त हुआ है। अतीत , विगत या बीते समय के लिए भी भूत का प्रयोग होता है। स्थूल जगत के निर्माण में अव्यक्त प्रकृति से घनीभूत हुए पंच तत्वों को भी पंच महाभूत कहा जाता है। जो प्राणी मृत्युपरांत सूक्ष्म शरीर धारण कर प्रेत योनि में जाते हैं उन्हें भी भूत कहते हैं।
गीता २.२८ में भगवान कहते हैं– हे भारत ! सभी प्राणी जन्म से पूर्व अव्यक्त हैं ,बीच में व्यक्त होते हैं और मृत्युपरांत अव्यक्त हो जाते हैं।
ईशोपनिषद -७ में कहा गया है — जिस साधक को सभी प्राणी आत्मभूत अनुभूत होते हैं , उस एकत्व की अनुभूति करने वाले साधक को मोह शोक नहीं रहता ।
गीता १५.१६ में जीव के रूप में भूत का उल्लेख किया गया है-
वस्तुत संसार में दो प्रकार की सृष्टि है क्षर और अक्षर। सभी परिवर्तनशील यहां तक जीव जगत भी क्षर है किंतु जो सदैव एक सा रहता है कूठस्थ है वह अक्षर है।
प्रख्यात कोष ग्रंथ वाचस्पत्यम के अनुसार-
पंचानां तत्वानाम समाहार: पंचसु भूतेशु स्वरोदय:।
यहां भूत का अर्थ तत्व से लिया गया है।
भूत शब्द ‘भू’ धातु में ‘क्त’ प्रत्यय होने से बनता है . इसलिए भूत शब्द का अर्थ हो चुका या बीता हुआ होता है ।स्पष्ट है कि जो पहले होकर फिर ना रहे उसका नाम भूत है। भूत का अर्थ बीता हुआ होने के कारण ही बीते हुए समय को भूतकाल कहा जाता है।
यदि कोई व्यक्ति पहले किसी पद पर रहा हो और बाद में ना रहे तो उसे भूतपूर्व पहले हो चुका कहते हैं। जैसे- भूतपूर्व प्रधान भूतपूर्व मंत्री भूतपूर्व मुख्यमंत्री आदि।
उपरोक्त उदाहरण से हमने देखा कि भूत शब्द का अर्थ कहीं भी मृत व्यक्ति से नहीं लिया गया है। परंतु फिर भी हजारों वर्षों से एक अदृश्य भय भूत के बारे में समाज में भर दिया गया है।
कभी-कभी हिस्टीरिया नामक रोग होने पर उसे भूत प्रेत मान लिया जाता है। क्योंकि इस तरह के रोग ग्रस्त स्त्री को दूसरे लोग बात करते और संकेतों से सहज अपनी और आकृष्ट कर लेते हैं। इसी कारण ओझा सयाने आदि लोग जब इस रोग को भूतादि का आक्रमण बता कर रोगी से कोई प्रश्न करते हैं तो वह उनकी हां में हां मिलाती चली जाती हैं।
हिस्टीरिया रोग मुख्त: असफल प्रणय संबंध, प्रेमी से मिलने में बाधा एवं पुरुष का लंबे समय तक स्त्री से दूर रहने पर भी यह रोग हो जाता है ।
भूत प्रेत की समस्या बंध्या स्त्री में ज्यादा हो पाए जाते हैं। यदि कोई होती स्त्री भूत प्रेत से ग्रस्त हो तो बच्चे होने पर ठीक हो जाती है। मेरे देखे ऐसी बहुत सी स्त्रियां ठीक हुए हैं। बच्चे होने के पूर्व उनकी रात रात भर ओझाई होते थे, मियां मजार दरगाह आदि का चक्कर लगाती थी लेकिन बच्चा होने के पश्चात वह पूर्ण स्वस्थ रहने लगे।
भूत प्रेत की समस्या प्रायः धन संपन्न एवं सुविधा भोगी स्त्रियों को ज्यादा होती है। कामुक, आलसी अथवा कमजोर स्त्रियों को ही भूत प्रेत की समस्या ज्यादा होती है। जिन औरतों को घर गृहस्थी के काम ज्यादा नहीं करना पड़ता , जो अपना समय बनाव श्रृंगार एवं गप शप में ज्यादा बिताते हैं ।
जो अधिक भावुक , ईर्ष्यालु और उत्तेजक स्वभाव की होती हैं। वे इस रोग की शिकार शीघ्र बन जाते हैं । गरीब, श्रमिक अथवा घर गृहस्थी के काम में लगे रहने वाली औरतों की यह समस्या बहुत कम होती है।
प्रायः देखा गया है कि भूत प्रेत की समस्या से ग्रसित रोगी की जीवनचर्य उन्मादी जैसी हो जाती है। इससे रोगी के अंतःकरण में व्याप्त अनसुलझे डर भय तथा भावनात्मक आवेगों के ज्वार के चलते उनका मन असाधारण रूप से उत्तेजित और असंतुलित हो जाता है।
साथ ही उसके संवेदनाओं, नाड़ी तंत्र तथा पाचन तंत्र के क्रियाकलापों में भी असामान्य बदलाव दिखलाइ पड़ता है । हालांकि शारीरिक रूप से वह बिल्कुल स्वस्थ होती है।
भूत प्रेत के वहम से ग्रसित स्त्री जब अकेले या अपने परिजनों से दूर होती है या गहरी निद्रा में होती है तो सामान्य रहती हैं। लेकिन जैसे वह अपने परिजनों के बीच आती है वैसे ही उनमें उन्माद के लक्षण प्रकट होने लगता है।
यह इस रोग का मुख्य लक्षण है। क्योंकि भूत प्रेत के वहम से ग्रसित स्त्री जाने अनजाने जो कुछ भी करती है लोगों को दिखाने हेतु करती है । जबकि कभी-कभी तो उसके स्वयं के लिए भी कष्ट दायक या घातक सिद्ध होता है।
देखा गया है कि भूतोंन्माद से ग्रसित रोगी अक्सर बचपना करती है । वह चाहती है कि लोग उसे बीमार मानकर उसके साथ काम करें । बीमारी का बहाना करके वह दूसरों पर अधिक आश्रित होना चाहता है तथा खुद मेहनत से बचता है । उसका भोलापन उसके लिए ढाल बन जाता है। ऐसे रोगी स्वार्थी तथा आत्म केंद्रित होने लगते हैं । किंतु उनकी कोशिश स्वयं को एक सामाजिक धार्मिक कार्यकर्ता तथा भावुक प्रकृति के व्यक्ति के रूप में पेश करने की होती है।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि भूत प्रेत को ऊपरी बवाल नहीं बल्कि एक प्रकार का मानसिक रोग है जिसका सही रूप से यदि इलाज किया जाए तो वह ठीक हो जाता है। अतः आवश्यकता है कि हमें भूत प्रेत के नाम पर खुलने वाले दुकानों से बचना चाहिए।
अतः भूल से भी ना तो हमें कभी किसी ओझाई सोखाई के चक्कर में फंसना चाहिए। ना ही मजारों दरगाह आदि के चक्कर में फंसना चाहिए। ऐसे लोगों का उचित इलाज कराना चाहिए। नियमित रूप से योगासन, प्राणायाम ध्यान एवं गायत्री मंत्र आदि के जप से यह बीमारी जड़ से ठीक हो जाती है।
इसलिए हमें चाहिए कि हम स्वयं भूत प्रेत के वहम से बचे और अपने समाज को बचाने का प्रयास करें।
भाग- ४८
आज हम लोग पुनः भूत प्रेत किसे कहते हैं उनका आधार क्या है जैसे विषयों पर चर्चा करेंगे।
समाज में व्याप्त रूढ़ियों और पाखंड के नाम पर जहां देखो वहीं पर नई नई दुकानें खुली हुई है। उनमें भूत प्रेत आदि के नाम पर भी अनेकानेक दुकानें हैं। इसमें भी भूत प्रेत, ब्रह्म, पिचास, चुड़ैल, जिन्न, शैतान आदि नाम से लोगों को भ्रमित कर लोगों को बेवकूफ बनाया जाता है।
आइए हम आपको बताते हैं कि वह क्या होते हैं —
१-भूत — जैसे कि पूर्व में बता चुके हैं कि भूत शब्द का अर्थ प्राणी होता है। भूत का अर्थ बीता हुआ होने के कारण ही बीते हुए समय को भूतकाल कहा जाता है।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि भूत शब्द का अर्थ जीवित प्राणी से लिया जाता है, मृतक व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है।
२–प्रेत –
प्रेत का अर्थ मरा हुआ व्यक्ति से लिया जाता है। मुख्यतः प्रेत एवं पिचाश योनियों केवल काल्पनिक है, इनका कोई अस्तित्व नहीं होता है। सच यह है कि दुनिया में प्रेत नाम की कोई योनि नहीं होती हैं।
३-चुडैल —
भूत को स्त्रीलिंग में भूतनी कहते हैं। गंवई भाषा में उसे ही चुड़ैल कहते हैं। पहले चुड़ैल शब्द का अर्थ झगड़ालू स्वभाव के और गंदे रहन-सहन वाली स्त्री के लिए किया जाता था। बाद में अंधविश्वास से लोगों ने भूतनी के लिए ‘चुड़ैल’ शब्द का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया।
किसी कारण से देखा गया है कि भयभीत हो जाने पर मनुष्य अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है । ऐसी स्थिति में उसकी कल्पना के अनुसार भ्रम वश उसे कोई आकृति भी दिखाई पड़ सकती है । यदि यह आकृति स्त्री की होती है तो वह व्यक्ति उसे चुड़ैल समझ लेता है ।
झाड़-फूंक करने वाले भी उसे चुड़ैल ने पकड़ लिया ऐसा कहने लगते हैं।
तर्कशील और बुद्धिमान लोग ऐसी किसी भी काल्पनिक शक्ति से भयभीत नहीं होते हैं । ऐसे लोगों को भूत प्रेत चुड़ैल आदि पकड़ते ही नहीं क्योंकि वह जानते हैं कि ऐसी कोई अदृश्य शक्ति होती ही नहीं।
बचपन में हम लोगों ने सुना है कि चुड़ैल सफेद कपड़े पहने होती हैं और उसके पैर उल्टा होता है आदि। ऐसी छवि बड़े होने पर भी मन में बने रहते हैं जिसका प्रभाव आजीवन हमें झेलना पड़ता है।
मैंने देखा है हमारे गांव में हिंदुओं में भूत प्रेत आदि उतारने के लिए कुछ सयाने लोग होते थे जो किसी के भूत प्रेत होने पर उतारा करते थे।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि चुड़ैल आदि मानसिक वहम के अलावा कुछ नहीं होता है।
४-पिचास —
अधिकांश देखा गया है कि ओझा सोखा आदि लोग भूत प्रेत की जगह पिचाश आदि कहकर उसे और डरा देते हैं।
पिशाच का अर्थ मुख्य रूप से मांस खाने वाले को कहते हैं। पूर्व काल में जो व्यक्ति मांस खाता था उसको लोग पिचाश कहा करते थे। वास्तविकता यह है कि पिचाश नाम की कोई योनि नहीं होती है।
वास्तविक पिचाश तो वह ओझा, सोखा या तांत्रिक स्वयं है जो बकरा आदि पशुओं की बलि चढ़ाते हैं उसका मांस स्वयं खाते हैं। समाज को चाहिए कि वह ओझा सोखा , तांत्रिक आदि पिचाशो से बचकर रहे।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि सभी मांस मछली अंडे आदि मांसाहार को खानें वाले ही पिचास है।
५-ब्रम्हा —
देखा गया है कभी-कभी ओझा और तांत्रिक लोग भूत के स्थान पर ब्रह्म का पकड़ना अथवा ब्रह्मा का उपद्रव होना भी बताते हैं।
ईश्वर को भी ब्रह्म कहा जाता है। सभी धार्मिक ग्रंथो में ब्रह्म शब्द का प्रयोग ईश्वर या परमात्मा के ही अर्थ में हुआ है।
इसमें अब विचारणीय बात यह है कि क्या परमात्मा किसी व्यक्ति के ऊपर आने अथवा सवार होता है।
देखा गया है कि लोगों को ठगने वाले लोग चालाकी से यह कहते हैं कि जब कोई ब्राह्मण जाति का व्यक्ति किसी दुर्घटना के कारण या हत्या कर दिए जाने से मरता है तब वह ब्रह्म या ब्रह्म राक्षस की भूत जैसी अदृश्य योनि में चला जाता है।
अतः यह स्पष्ट होता है कि ब्रह्मा नाम की कोई भूत जैसी अदृश्य शक्ति नहीं होती है। यह सब मनुष्य को बहकाने के सिवा कुछ भी नहीं है।
बहुत आश्चर्यजनक बात यह है कि अंधविश्वासी हिंदुओं के ऊपर ही भूत प्रेत जिन्न शैतान आदि का प्रकोप होता है किंतु मुसलमान के ऊपर भूत प्रेत का प्रकोप कभी नहीं होता है। यही कारण है कि मजार दरगाह आदि पर भी हिंदू ही सबसे ज्यादा भूत प्रेत आदि उतरवाने जाता है।
इसका कारण यह है कि मुसलमान मौलवी या मुल्ला के पास हिंदू अपना दुखड़ा रोने जाता है और कोई परेशानी होते हैं तो उससे राय लेता है। लेकिन कोई भी दुनिया का मुसलमान किसी भी हिंदू ओझा सोखा या तांत्रिक से कभी कोई राय नहीं लेता ,ना ही उसे अपनी कोई परेशानी दिखाता या बताता है।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि हिंदू बिना पेंदी के लोटे की तरह किसी भी तरफ लुढ़क सकता है । उसे जो चाहे जैसा भरमा देता है और वह भरम जाता है।
इसी प्रकार से समाज में शहीद बाबा नाम से विभिन्न प्रकार की मजारे बनी हुई हैं। जहां पर या भ्रम फैला दिया जाता है कि इसकी पूजा करने और इस पर चादर चढ़ाने से शहीद बाबा खुश होकर मांगी मुरादे अर्थात मनोकामनाएं पूरी करते हैं ।
यदि वे नाराज हो जाए तो हानी भी पहुंचा सकते हैं । किसी किसी व्यक्ति के ऊपर शहीद बाबा की सवारी आने का भी नाटक किया जाता है।
अक्सर देखा गया है कि यह मजारे अवैध जमीन का कब्जा करने के लिए या चढ़ावा हड़पने के लिए झूठी ही बनवाया जाता हैं।
मुसलमानों के मत में अपने मजहब को बढ़ाने के लिए युद्ध जिहाद करना शबाब पुण्य माना जाता है। जो मुसलमान इस प्रकार के युद्ध में अन्य मत वाले को को मारने में सफल हो जाते हैं वे गाजी कहे जाते हैं और जो ऐसे युद्ध में मार दिए जाते हैं वे शहीद कहे जाते हैं।
ऐसे ही प्रसिद्ध मजार उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में गाजी मियां की है और उसी का छोटा रूप प्रयागराज के सिकंदरा में है। जहां पर कुछ हिंदुओं ऐसे टूट पड़ते हैं जैसे मच्छर टूट पड़े हो। उन्हें कभी आभास भी नहीं होता है किस कुछ होता भी है या नहीं होता है। बस भेड़ चाल की तरह पीछे-पीछे लगे रहते हैं।
ऐसी मजारों में देखा है कि जहां वे दफनाया जाते हैं उसके कब्र पर पक्की मजार बनवा कर धूर्त मुसलमान लोग उसे पूजना शुरू कर देते हैं और नादान हिंदुओं से पुजवाना प्रारंभ कर देते हैं । उसके महत्व को बनाए रखने के लिए शहीद बाबा की सवारी आने के स्वांग किए जाते हैं । इस प्रकार की पूजा से कुछ होता भी है या नहीं कोई हिंदू इस पर कभी विचार नहीं करता।
मूर्ख हिंदुओं को सोचना चाहिए कि जो व्यक्ति जीवित रहने पर अपने शत्रुओं द्वारा मारा गया वह मरने के बाद किसी की क्या बना या बिगाड़ सकता है। लेकिन मनुष्य जब एक बार इस प्रकार के भ्रम में पड़ जाता है तो उसे निकलना बड़ा मुश्किल लगता है।
अक्सर देखा गया है कि भूत प्रेत को अपना व्यवसाय का आधार बनाने वाले ओझा सोखा और मौलवी आदि लोग अपने भक्तों को यह समझाते हैं कि तर्क नहीं करना चाहिए । तर्क वितर्क करने वाले की बड़ी हानि होती है।
जो लोग ऐसे विषयों पर तर्क करते हैं उनको अविश्वासी और श्रद्धा हीन कह कर उनका मजाक उड़ाया जाता है ।इसीलिए धर्मभीरु लोग तर्क नहीं करते । ओझा सोखा के चमत्कार एवं भूत-प्रेत के अस्तित्व में आंख बंद करके विश्वास करते हैं।
समाज के प्रबुद्ध वर्ग को चाहिए कि वह स्वयं ऐसे अंधविश्वासों से बचे एवं अन्य लोगों को बचाएं।
भाग -४९
आज हम लोग पुनः आइए भूत प्रेत के बारे में विस्तार से जानने का प्रयास करते हैं। अधिकांश भूत प्रेत के संबंध में अनेकानेक दावे किए जाते हैं लेकिन उन दावों में कितना दाम है इसका विश्लेषण कोई नहीं करता।
कभी-कभी भूत प्रेत सवार होने की भांति देवी देवताओं की सवारी आने का भी स्वांग मूर्खों को ठगने के लिए चालक धूर्तों द्वारा या मानसिक रोग ग्रस्त व्यक्तियों द्वारा किया जाता है।
ऐसा स्वांग करने वाले स्त्री या पुरुष मैं काली हूं, मैं दुर्गा हूं, मैं हनुमान हूं या मैं शंकर भगवान हूं इत्यादि बातें बडबडाते हैं।
इस प्रकार की बातें मैंने बचपन में देखा है कि ऐसा नाटक करने वालों से अंध श्रद्धालु लोगों के भक्त बन जाते हैं और उन्हें साक्षात् देवी देवता समझ कर पूजने लगते हैं तथा मुंह मांगा चढ़ावा उन पर चढ़ाते हैं।
सवारी आने वाले व्यक्ति के पास भक्त लोग अपनी समस्याओं का समाधान लेकर टूट पड़ते हैं । महिलाएं तो ऐसे लोगों के पूर्ण भक्तिन बन जाती हैं।
इसमें यह दावा किया जाता है कि जिसके ऊपर जिस देवता की सवारी आती है वह उस देवता की दिव्य शक्ति से संपन्न हो जाता है, वह सब कुछ जान सकता है, बता सकता है बहुत से आश्चर्यजनक कार्य कर सकता है।
बचपन में मैंने देखा कि ऐसे लोगों के शरीर में जब कोई देवता प्रकट होता था तो आसपास के लोगों की भीड़ लग जाते थी। लोग उनसे अपने जीवन की समस्याओं का समाधान पूछने लगते थे। हनुमान द्वारा किसी समस्या का समाधान ठीक भी हो जाता है यदि नहीं ठीक होता था तो वह बहाने बाजी भी करने लगते थे।
इसमें यदि वास्तव में अलौकिक शक्ति संपन्न देवी देवता की सवारी आने या उनकी शक्ति आ जाने के कारण ऐसी बातें बोलते हैं तब उनकी सभी बातें सत्य होनी चाहिए एक भी अपवाद नहीं मिलना चाहिए परंतु ऐसा होता नहीं है।
देखा गया है कि जिन शक्तियों या अलौकिक गुणों के कारण महत्व दिया जाता वैसे शक्तियां और गुण उनकी सवारी आने वाले व्यक्ति के अंदर भी क्यों नहीं आ जाती ।
यदि कोई महिला कहते हैं कि मैं दुर्गा हूं तब उसके 8 या 10 हाथ क्यों नहीं रहते?वह शेर पर सवार क्यों नहीं करती है? ऐसा स्वांग करने वाले स्त्री से कहना चाहिए कि-
माताजी यदि आप दुर्गा देवी हैं तो अपना वाहन शेर यहां बुलाइए और उस पर सवार होकर अपने अष्टभुजी रूप में हम सबको दर्शन दीजिए । ऐसा आप नहीं कर सकेंगे तो हम यही समझेंगे कि आप दुर्गा नहीं है और छल करने के लिए झूठ बोल रही हैं।”
ऐसी स्थिति पर महिला भय उत्पन्न करने के लिए कह सकती है – -“तुम मेरी परीक्षा लेना चाहते हो जानते नहीं मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगी।”
ऐसी स्थिति में उससे कहना चाहिए कि आप तो देवी दुर्गा है, महिषासुर जैसे राक्षसों को मार सकती है , भारत के चोर डाकू आतंकवादी और देशद्रोहियों का सर्वनाश करके हमारे देश का कल्याण करके तो दिखाइए। क्या आप केवल निर्बल अंधभक्त लोगों का है सर्वनाश कर देने की धमकी दे सकती है ?बलवान अत्याचारियों के सामने क्या आपने घुटने टेक दिए हैं।”
उपर्युक्त तथ्यों से यह प्रमाणित होती है किसी के ऊपर देवी देवताओं की सवारी आने वाली बातें झूठी हैं । सवारी आने का या तो नाटक किया जाता है या फिर सवारी आने वाला ऐसा अपनी मूर्खतापूर्ण मानसिक स्थिति के कारण करता है तथा अन्ध भक्त लोग उसे सत्य मानकर स्वीकार कर लेते हैं।
ऐसा कभी-कभी कई पत्र पत्रिकाओं में भी छापते रहते हैं। कई पत्र पत्रिकाओं के संपादक भी घोर अंधविश्वासी होते हैं। जो कि अपने अंधविश्वास को अपने पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से जनता में प्रचारित करके सामान्य जनता को अंधविश्वास के मकड़जाल में फंसा देते हैं।
अक्सर लोग अमेरिका के राष्ट्रपतियों को भूत दिखाई पड़ने की घटना का उदाहरण दिया करते हैं। भूत प्रेत को इनकार करना उनकी मूर्खता है यदि भूत होते नहीं तो अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को भूत प्रेत आदि कैसे दिखाई कैसे पड़ते हैं।
यदि उनसे कहा जाए कि जॉर्ज बुश को भी भ्रम हो सकता है तब लोग कहते हैं -अमेरिका जैसे विकसित देश के राष्ट्रपति को भ्रम कैसे हो सकता है?
जॉर्ज बुश जब दोबारा राष्ट्रपति बने तो उन्हें भूत प्रेत दिखना बंद हो गया। कहा जाता है कि दोबारा राष्ट्रपति बनने पर उन्होंने शराब पीना छोड़ दिया था ।जिसके कारण उन्हें भूत प्रेत जैसी काल्पनिक आकृतियां नशा न होने के कारण दिखना बंद हो गए।
मूल रूप से भूत प्रेत एक मानसिक विभ्रम के अलावा कुछ भी नहीं है। जिसे मूड़ लोग अपने स्वार्थ के सिद्धि के लिए सामान्य जनता को भी दिग भ्रमित करते रहते हैं।
यह समस्या पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है।
भाग- ५०
हिंदू समाज में जितनी अंध श्रद्धा है उसका क्या कहा जाए? अपने सैकड़ो देवी देवताओं को छोड़कर के न जाने लोग क्यों मजारों पर जाते हैं।
हमारे गांव के पास सिकंदरा नामक जगह में एक गाजी मियां की मजार है। जहां पर आसपास के गांव के हिंदुओं को जब तक इतवार और बुधवार को सिन्नी नहीं चढ़ा लेते उनका भोजन ही नहीं पचता है।
एक प्रकार से यह उनकी अंध श्रद्धा एवं मानसिक गुलामी है। एक प्रकार से जिसके मन में जो बातें बैठा दी जाए पीढ़ी दर पीढ़ी इस प्रकार का चिंतन वह करता रहता है।
अधिकांश कभी आप मजारों पर जाएं तो देखें स्त्रियां उठा पटक करती रहतीं हैं। चीखती चिल्लाती हैं ।आऊ बाऊ बकती हैं । वह क्या बोल रही हैं कुछ समझ में नहीं आता। इसमें महिलाएं कुछ ज्यादा ही सक्रिय रहते हैं।
देखा गया है कि पूरे कचहरी चलती है।
जजमेंट के उद्घोष किए जाते हैं। मौलवी उल्टा सीधा कुछ पूछता है और औरतें बाल खोल करके उसके प्रश्नों का उत्तर देती रहती हैं। अधिकांश ऐसी मजारों पर मुस्लिम महिलाओं की अपेक्षा हिंदुओं की औरतें ही ज्यादा जाती हैं। ऐसा लगता है सारे भूत प्रेत, चुड़ैल , डायन , साइन सब हिंदुओं की औरतों को ही पकड़ते हैं।
एक बात बता दें ऐसे मौलियों में ना कोई ताकत होती है।ना कोई झाड़ता फूंकता है । यह मात्र बकवास के अलावा कुछ नहीं है।
एक बार मैंने एक मजार के प्रबंधक से पूछा कि इसमें कुछ होता जाता है कि ऐसे ही सब दुकानदारी चल रही हैं। उसने स्वीकार किया कि सब रोटी दाल का चक्कर है। इसी मजार दरगाह से पीढ़ी दर पीढ़ी हमारा परिवार चल रहा है।
लोगों को यह पता नहीं है कि वहां कुछ है या नहीं बस बाप दादाओं ने किया इसलिए कर रहे हैं। अरे पूजा करनी ही है तो उस महान राजा सुहेलदेव सिंह की करनी चाहिए जिसने गाजी मियां को बहराइच में मार कर फेंक दिया था।
लेकिन मूढ़ हिंदू को कौन समझाए। एक बार जब मूढ़ता किसी परिवार में सुरू हो जाती है तो वह उतरने का नाम नहीं लेती हैं। मूढ़ता का कोई इलाज नहीं है।
हिन्दूओं की औरतों को जो भूत प्रेत आदि पकड़ता है। वह अपने पति और परिवार को परेशान करने के लिए नाटक करती है। न तो इस दुनिया में कोई भी किसी को भूत प्रेत आदि पकड़ता है और न ही कोई झाड़ता फूंकता है। यह मात्र एक प्रकार का मानसिक वहम होता है। जिसको ऐसा वहम हो जाता है वह पीढ़ी दर पीढ़ी उससे परेशान रहता है।
सिकंदरा के आसपास के गांव में हिंदुओं का कोई ऐसा घर नहीं होगा जो मजारों पर जाकर सिन्नी प्रसाद ना चढ़ाता हो। हमने तो देखा है इस अंधविश्वास का नशा ऐसा सवार है कि यदि कोई चार भाई है तो चारों पूजा करते हैं।
यह अंध श्रद्धा ऐसी होती है। पीढ़ी दर पीढ़ी एक भय मन में बैठा दिया जाता है कि यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो तुम्हारा ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा। यह भय ही मनुष्य को अंध श्रद्धालु बनाए रखना है। औरतों को कुछ ज्यादा ही भूत प्रेत पकड़ता है। और देखा गया है वही इस अंधविश्वास को बढ़ावा भी देती रहती हैं।
कहा जाता है एक शराबी पिता से अंधविश्वासी मां ज्यादा घातक होती है। क्योंकि शराबी पिता तो चाहता है कि बच्चा शराब न पिए लेकिन अंधविश्वासी मां अपने बच्चों को और अंधविश्वासी बना देती है। मां द्वारा प्रत्यारोपित यह अंधविश्वास हजारों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है।
हमारा समाज कितना भी शिक्षित हो जाए,चांद पर पहुंच जाए लेकिन उसके दिमाग में जो अंध श्रद्धा का भूसा भर दिया गया है वह निकलने वाला नहीं है।
ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति इन अंधविश्वासों का विरोध भी करता है तो उसे यह कह कर चुप करा दिया जाता है की चार अक्षर पढ़ कर तेरे दिमाग में भूसा भर गया है। तू क्या जाने,तेरे बाबा भी मानते थे ,तेरे पिता भी मानते थे, क्या वह बेवकूफ थे। ऐसी स्थित में चाहकर व्यक्ति ऐसे अंधविश्वास को रोकने में सफल नहीं हो पाता।
हिंदू समाज अंधविश्वास में इतना जकड़ा हुआ है हो सकता है और कोई समाज इतना जकड़ा हो।
समाज को चाहिए कि वह इन कुरीतियों से स्वयं को बचाए एवं अपने परिवार को बचाएं।
भाग- ५१
जब किसी भेड़ को नदी पार कराना होता है तो भेड़ी का मालिक एक भेड़ को नदी में फेंक देता है। उसकी देखा देखी सभी भेड़िया नदी में कूदने लगतीं हैं वह यह नहीं देखती हैं कि उससे हमारा हित है या अहित।
ऐसा ही कुछ भेड़ चाल हिंदुओं के द्वारा मजार दरगाह आदि की पूजा के प्रति लगा हुआ है। किसी भी हिंदू को यह पता नहीं होता है इससे कुछ होता भी है कि नहीं होता है बस वह मजारों दरगाहो आदि की पूजा करके अपना धन, धर्म सब भ्रष्ट कर रहा है।
हमने अपने गांव में देखा है कि दरगाह आदि की पूजा मुसलमान से ज्यादा हिंदू करता है। वह मात्र इस डर से करता है कि यदि पूजा नहीं करेंगे तो कुछ अहित हो जाएगा। यह डर उनके मन में इतनी गहराई के साथ समाया हुआ है कि पीढ़ी दर पीढ़ी हजारों वर्षों से निकल ही नहीं रहा है। ऐसे हिंदुओं को कितना भी समझाया जाए लेकिन जिसे मूड़ बने रहना है वह मूड़ बने ही रहेंगे।
इसका मूल कारण यह है कि उनके मन में यह डर बैठा दिया गया है कि तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हारा बिजनेस चौपट हो जाएगा, काम धंधा बंद हो जाएगा, घर परिवार में बीमारियां आएंगी आदि आदि। जिस डर के कारण कोई ऐसी पूजा पद्धति छोड़ना भी चाहे तो वह छोड़ नहीं पाता है।
ऐसी नौटंकियों में देखा गया है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। मजार दरगाह आदि की पूजा में भी पुरुष नाम मात्र के दिखलाइ देते हैं।
व्यावहारिक दृष्टि से भी देखा गया है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं कुछ ज्यादा ही अंधविश्वासी होती हैं। कभी-कभी महिलाओं के दबाव में भी पुरुषों को मानना पड़ता है। अंधविश्वास को फैलाने एवं उसे हजारों वर्षों से जिंदा रखने में महिलाएं सबसे आगे रही हैं।
ऐसे अंधविश्वासों में अनपढ़ ही क्या पढ़ा-लिखा भी अंधा है। यदि किसी अनपढ़ व्यक्ति को समझाया जाए तो वह कहता है कि देखो फलनवा इतना बड़ा डॉक्टर है ,इंजीनियर है, अधिकारी है वह भी तो यहां पूजा करने आ रहा है।
क्या यह सब मूर्ख हैं तुम्ही एक विद्वान हो? अंधविश्वासों की जड़ को देखा जाए तो यही दिखलाई पड़ता है कि यहां अनपढ़ ही क्या पूरा का पूरा समाज हजारों वर्षों से अंधविश्वासों में जकड़ा हुआ है।
कहा जाता है कि यदि किसी झूठ को हजारों बार बोला जाए तो वह सच होने लगता है यही बातें धर्म में व्याप्त अंधविश्वास की है। स्वर्ग नरक पाप पुण्य आदि की मान्यताएं सभी धर्म में समान रूप से व्याप्त हैं। किसी भी व्यक्ति को यह पता नहीं है कि यह सब होता है कि नहीं होता है। बस जहां देखो वहां भेड़ चाल चल रही है।
देखा गया है कि जो समाज को जितनी मात्रा में अंधविश्वास और पाखंड के माध्यम से गर्त में डालता है वही और भीड़ उमड़ पड़ती है। यही कारण है कि हमारे समाज में हर गली नुक्कड़ पर जहां नए-नए दरगाह मजार उग आए हैं वहीं नए-नए अवतारी बाबा भी उग आए हैं।
बस कोई चमत्कार दिखा नहीं की भेड़ बकरियों की तरह जनता टूट पड़ती है। जनता कभी इनकी सत्यता जानने का प्रयास नहीं करती है।
यही कारण है कि इस देश में अंधविश्वास एवं पाखंड का धंधा सबसे ज्यादा फल फूल रहा है।
आज आवश्यकता है समाज को ऐसे अंधविश्वासों से बचाने की।
अधिकांश अंधविश्वास एवं पाखंड की जड़ों का कोई वैज्ञानिक तथ्य नहीं होता है बल्कि यह सभी तथ्यहीन होती हैं। जो हिंदू मजार दरगाह आदि की पूजा करता है उसे खुद भी नहीं होस है कि वह जो करता है उससे कुछ होता है कि नहीं होता है।
बस बाप दादाओ ने किया था इसलिए वह भी भेड़ चाल में लगा हुआ है। दुनिया कितनी भी चांद सूरज पर पहुंच जाए लेकिन यह भेड़ चाल है कि समाज ढोता ही रहेगा।
भाग- ५२
वर्तमान समय में देखा जा रहा है कि योग के नाम पर कलाबाजी ज्यादा प्रचलित हो रही है। योग का मूल स्वरूप जैसे खोता जा रहा है। योग बिजनेस का रूप लेने के कारण इसमें भी विकृतियों बढ़ती जा रही हैं। अब तो लोग जैसा भी आड़ा तिरछा दायां बायां करा दे रहे हैं सब योग मान लिया जा रहा है।
कोई हॉट योगा, तो कोई न्यूड योगा पता नहीं कितने कितने प्रकार के योग प्रचलन में आ चुके हैं। योगासन का अर्थ है जिसमें स्थिरता हो। जिसमें स्थिरता ना हो वह योगासन नहीं है। महर्षि पतंजलि कहते हैं स्थिरम सुखासनम् अर्थात जिस स्थिति में हम सुख पूर्वक स्थित रह सके वह आसन कहलाता है।
पूर्व काल में साधना हेतु लंबे समय तक बैठना होता था। बिना दीर्घकाल तक लंबे समय तक एक आसन पर अभ्यास करने पर ही कोई भी साधना सफल होती है।
यदि हम लंबे समय तक स्थिर नहीं बैठ पाते हैं तो वह आसन नहीं कहलाता है। आसन वही है जिसमें हम धीरे-धीरे स्थिरता पूर्वक लंबे समय तक एक ही स्थिति में रह सकें।
वर्तमान समय में मनुष्य का मन और अधिक चलायमान हो गया है ऐसी स्थिति में उसे ऐसे आसनों की आवश्यकता है जो उसके मन को शांत कर सके शरीर में स्थिरता लाएं , भावनाओं में संतुलन लायें तथा आध्यात्मिक उन्नति में सहायक बने।
बिना आध्यात्मिक उन्नति के योगासन का लक्ष्य पूर्ण नहीं होता है।
यही कारण है कि योग का अंतिम लक्ष्य मोक्ष या समाधि को माना गया है। धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाते हुए हमें समाधि स्तर पर पहुंचना है। ऐसा ना हो कि हम आसन में ही अटके रह जाएं। आसान तो मात्र सीढ़ी है लेकिन वर्तमान समय में देखा जा रहा है कि आधुनिक योगाचार्य भी लोगों को आसनों में अटका करके छोड़ दे रहे हैं ।
आसनों के आगे उनका चिंतन नहीं बढ़ पा रहा है। आसन भी गत्यात्मक ज्यादा कराया जा रहा हैं ,शरीर को स्थिर एवं शांत रखने वाले आसनों का अभ्यास नगण्य मात्रा में कराया जा रहा है।
यही कारण है कि आसन भी व्यायाम का रूप लेता जा रहा है, अधिकांश लोग इसीलिए कहते हैं कि हम गांव देश में इतना काम कर लेते हैं उसी में सारे आसन हो जाते हैं या तो योग उनके लिए है जो घरेलू काम नहीं करते।
वर्तमान समय के आसनों के स्वरूप को देखकर ऐसा लगता है कि वह सभी सही कह रहे होंगे। लोगों का उद्देश्य भी थोड़ा शरीर में वार्म अप करना ही रह गया है।
जब व्यक्ति लंबे समय तक स्थिरता पूर्वक एक आसन में रहता था तो धीरे-धीरे उसका शरीर स्वस्थ होने लगता था। उसके मन में आने वाले उद्वेग भी शांत होने लगते थे। जिसके कारण उसकी भावनाएं संतुलित होने लगती थीं।इसके पश्चात वह आध्यात्मिक उन्नति की ओर सहज में बढ़ने लगता था।
योगासन प्राथमिक मार्ग है, तैयारी है, मोक्ष की, समाधि की आध्यात्मिक मार्ग ओर कदम बढ़ाने की। जैसे-जैसे आसनों में देवता एवं स्थिरता आने लगती है सड़क का शरीर धीरे-धीरे वज्र के समान कठोर होने लगता है उसमें हाथियों जैसी असीम शक्ति का संचार होने लगता है।
इसलिए सबसे जरूरी है आध्यात्मिक उन्नति के लिए आसनों को सुदृढ़ करना आसनों पर विजय प्राप्त करना जब हम आसनों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं । लंबे समय तक स्थिरता पूर्वक बैठने लगते हैं हमारा मन सहज में कहां है । शांति की ओर बढ़ने लगता है धीरे-धीरे हम आध्यात्मिक लक्ष्य मोक्ष की ओर अग्रसर हो जाते हैं।
हठयोग आदि की शुरुआत आसन से होती है। हठयोग प्रदीपिका, घेरंड संहिता आदि ग्रंथो में यम नियम का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। इनकी शुरुआत हीं आसन से होती है। इन ग्रंथो में यह नियम की इतनी महत्व नहीं दी गई है। वैसे योग का प्रैक्टिकल आसन से ही शुरू होता है।
आजकल व्यक्ति का मन अति चंचल हो गया है एक क्षण तक भी वह शांति से नहीं बैठ सकता है वह बैठता भी है तो हाथ पैर या कुछ ना कुछ हिलाता ही रहता है। जैसे उसके जीवन से शांति खत्म हो गई हो। व्यक्ति के मन की शांति उसके बाह्य रूप से दिखाई देने लगती है।
जिस व्यक्ति का मन शांत होता है वह जहां भी रहता है चारों ओर शांति ही शांति विराजमान होने लगती है । एक शांत व्यक्तित्व प्रकृति में भी शांति फैलाता है। जिस व्यक्ति का मन शांत होता है वह प्रकृति में भी अशांति ही फैलाता है।
अक्सर देखा गया है जो व्यक्ति अंदर से परेशान होता है बाहर जब निकलता है तो लड़ाई झगड़ा दंगे फसाद आदि करके बाहर भी उपद्रव फैला देता है।
या घर में जब लौटता है तो घर में भी अनावश्यक लड़ाई झगड़ा गाली गलौज करने लगता है। यह सब उसकी मन की अशांति का प्रतीक है। जब तक व्यक्ति का मन शांत नहीं होगा परिवार में शांति नहीं आएंगे एक-एक परिवार के शांति पूरे समाज एवं राष्ट्र को शांत कर सकती है।
इसीलिए आजकल आवश्यकता है कि स्कूलों में बचपन से ही बच्चों को शांत रहने की क्रियाओं का प्रशिक्षण दिया जाए। जो बच्चा बचपन से ही शांत धीर गंभीर होगा। वही जीवन में चीजों को समझ सकेगा। अशांत व्यक्तित्व वाला बालक अपने विषयों को भी सही से समझ नहीं पाता है।
उसके अध्यापक जो पढ़ाते हैं उसके कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता है। इसलिए स्कूलों में यदि नियमित रूप से योग अभ्यास कराया जाए तो बच्चों में श्रेष्ठ चिंतन का विकास हो सकता है।
यही कारण रहा है कि पूर्व काल में गुरुकुलों में योग को अनिवार्य रूप से लागू किया गया था । यदि आने वाली पीढ़ी में सुधार चाहते ते हैं तो योग को पुनः अनिवार्य रूप से कोर्स में लागू कर देना चाहिए।
भाग – ५३
वर्तमान समय में मनुष्य जाति भीषण तनाव से ग्रसित है ।पिछली शताब्दियों में ऐसा प्रसंग शायद ही उपस्थित हुआ हो । वायु ,जल के प्रदूषण और भोजन के कुपोषण से व्यक्ति व्यथित हो रहा है ।
शारीरिक दृष्टि से भी और मानसिक दृष्टि से भी विक्षिप्त मानव को कहीं भी त्राण नहीं मिल रहा है । विकास के नाम पर मनुष्य को जो कुछ मिला है वह है चंचलता , चिंता, पीड़ा , अव्यवस्था तथा एक दूसरे को भयभीत करने और व्यथित करने में चित्त की प्रसन्नता ।
ऐसे वातावरण में व्यक्ति श्वास लेने में भी जहां घुटन का अनुभव करता है । वहां योग ही व्यक्ति के लिए एकमात्र त्राण हो सकता है । इससे व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास , व्यवहार परिवर्तन, भाव परिष्कार एवं चित्त की निर्मलता प्राप्त होती है।
योग एकांत में निवास करने वाले संतो साधकों एवं विरक्त जीवन जीने वालों के लिए ही आवश्यक नहीं है बल्कि एक गृहस्थी के लिए भी आवश्यक है । योग साधना जीवन जीने की एक कला है। योगाभ्यास के माध्यम से ही हम शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को उपलब्ध हो सकते हैं।
योग का लक्ष्य है -एक स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु स्वस्थ व्यक्ति का निर्माण। योगासन से आंतरिक अवयवों की क्रिया का संतुलन एवं नियंत्रण होता है। नियमित योग अभ्यास से व्यक्ति अपने संवेगों पर नियंत्रण करने की क्षमता विकसित कर लेता है। उसकी एकाग्रता में वृद्धि होती है। उसमें सहिष्णुता का विकास होता है।इसी के साथ शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक तनाव से वह मुक्त होने लगता है।
अपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों के लिए भी योग एक अच्छा माध्यम हो सकता है। नियमित रूप से अभ्यास करने पर उनमें अपराध के प्रति भावों का विसर्जन होने लगता है।
योग को यदि सही रूप में अपनाया जाए तो समाज में व्याप्त हिंसा, बलात्कार आदि की समस्याओं का समाधान भी किया जा सकता है। वर्तमान समय में योग केवल शारीरिक क्रिया मात्र समझने के कारण योग के दीर्घ परिणाम पर ज्यादा चर्चा नहीं की गई । वास्तव में योग व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक समस्याएं ही नहीं बल्कि सामाजिक समस्याओं का भी समाधान योग कर सकता है। इसी प्रकार राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान भी योग मार्ग से संभव है।
योग एक प्रायोगिक पद्धति है। सफल और सुमधुर जीवन जीने की कला है। मन, प्राण और भावना से प्रेरित सभी तनावो व रोगों से निपटने की एक रामबाण औषधि है। वर्तमान समय में बढ़ते मधुमेह, हृदय आदि रोगों का योग में बहुत अच्छा समाधान है। यदि नियमित रूप से इन रोगों से ग्रस्त व्यक्ति योग अभ्यास करें तो उसके जीवन में संतुलन आने लगता है और धीरे-धीरे वह इस प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है।
भाग – ५४
आज हम फिर थोड़ा लौटते हैं अपने गांव की ओर। जैसा कि मैंने बताया था कि हमारे गांव में हमारे परम मित्रों में राम अचल जी थे। उन्होंने अपने जीवन काल में कुछ डायरी लिखे हुए थे जो कि एक शिक्षक के लिए अति महत्वपूर्ण होता है।
आचार्य जी द्वारा लिखित डायरी हमारे लिए प्रेरणा स्रोत के समान है ।
उनकी डायरियों में जहां विद्यालय की व्यवस्थाओं का वर्णन है । वहीं सामान्य जीवन व्यवहार के सूत्र भी समाहित है। साथ ही अचार , मुरब्बा , चटनी बनाने की विधि का भी उल्लेख मिलता है। विद्यालय के गुरुजन, अभिभावक एवं बच्चे इनसे प्रेरणा लेकर जीवन में धारण कर लाभ उठा सके तो हम अपने प्रयास को सफल समझेंगे–
सबसे पहले पिकनिक की तैयारी को समझते हैं। पिकनिक का कार्यक्रम बच्चों को पाक कला का ज्ञान देने के लिए किया जाता है। उनका मानना था कि शिक्षा मात्र पुस्तकीय ज्ञान ही नहीं बल्कि जीवन का संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास है।
कार्यक्रम के पूर्व बरती जाने वाली सावधानियां के प्रति वे कहते हैं-
सर्वप्रथम स्थान का चयन कर लेना चाहिए। वहां पर उपलब्ध न होने वाले सामान की व्यवस्था करना चाहिए। बच्चों का ग्रुप तय करना, उनके आपसी तालमेल के बारे में पता करना, ग्रुप बनवाने में सहयोग करना चाहिए।
इसके अलावा विद्यालय उपस्थित होने वाले समय का निर्धारण करना। आगे आगे कौन लोग चलेंगे, पीछे कौन-कौन लोग रहेंगे तय करना?
पिकनिक में ले जाने वाले आवश्यक सामग्री में विद्यालय का झंडा, दरी, चादर, माला एवं एक गाड़ी आदि आवश्यक है।
अन्य मुख्य सुझाव निम्न उन्होंने दिए थे – जैसे
सीटी बजाकर सभी बच्चों को इकट्ठा करना।
प्रार्थना करवाना व अन्य निर्देश देने के तुरंत बाद हाजिरी लेना।
ग्रुप में बाटकर बच्चों को ग्रुपवार यथा स्थान उपलब्ध करवाना। सभी अध्यापकों की जिम्मेदारी ग्रुपों का सहयोग करना। प्रधानाध्यापक जी आगंतुक का स्वागत करें । बच्चों द्वारा बनाए गए व्यंजन सभी को खिलाएं । बीच-बीच में बच्चों को प्रोत्साहन देते जाएं।
इसके अलावा गणतंत्र दिवस एवं स्वतंत्रता दिवस आदि मनाए जाने के लिए किस प्रकार की तैयारी एवं सावधानी बरतना चाहिए उसको भी उन्होंने अपनी डायरी में लिपिबद्ध किया था जो कि प्रत्येक विद्यालय के लिए एक दिशा निर्देश हो सकता है।
पहला चरण —
एक अध्यापक को विद्यालय की सजावट के लिए रखना चाहिए ।
दूसरे बेंच डेक्स या सीटिंग प्लान की तैयारी बच्चों के सहयोग से करायें ।
तीसरे सज्जन को साफ सफाई व बच्चों का सीटिंग प्लान ठीक करें। बच्चों को अन्य लोगों को सहयोग के लिए प्रेरित करें।
प्रधानाध्यापक महोदय सभी के कार्यों पर नजर रखें वह सभी का स्वागत करें ।व बैठने के लिए स्थान उपलब्ध करायें।
दिव्तीय चरण –
जब तक सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे हो तब तक एक अध्यापक मंच का संचालन करें। दूसरे अध्यापक बच्चों के कार्यक्रम की प्रस्तुति का संतुष्ट पूर्वक उनको नंबर प्रदान करें। तीसरे अध्यापक महोदय बच्चों में शांति व्यवस्था व अनुशासन बनाए रखें।
प्रधानाचार्य जी सारे कार्यक्रम पर नजर रखें और आवश्यकता पड़ने पर सभी लोगों का सहयोग प्रदान करें।
आए हुए अतिथि को भी जो योग्य हो नंबर देने पर लगाया जा सकता है।
तृतीय चरण-
जब तक अतिथिगण अध्यक्ष जी आदि भाषण दें तब तक पुरस्कारों का निर्णय कर लिया जाए । प्रधानाचार्य जी द्वारा सभी का आभार व्यक्त करने के बाद मुख्य अतिथि द्वारा पुरस्कार वितरण कराया जाए । वह उसको ठीक समय पर जलपान कराया जाए। बच्चों के प्रसाद वितरण का कार्यक्रम पुरस्कार वितरण के तुरंत बाद किया जाना चाहिए ।
इस कार्य में दो लोगों या तीन लोगों को लगाया जाए । अतिथि लोगों को जलपान की व्यवस्था तुरंत कराई जाए।
चतुर्थ चरण मेहमानों को विदा करना । एक बार पुनः आने का अभ्यास प्रकट करना। सामान जो अतिरिक्त आया हो वापस करना व सहयोगियों को प्रोत्साहित करना । सभी किराए पर आए सामानों को वापस करना और किराया का भुगतान करना ।अन्य सामानों को यथा स्थान पहुंचवाना।
इस प्रकार से उन्होंने एक-एक चीजों को व्यवस्थित करने के लिए दिशा निर्देश दिए थे जो कि प्रत्येक विद्यालय के लिए अति उपयोगी हो सकता है।
भाग -५५
आज आत्मकथा कलाम दादा की एक कविता से शुरू करता हूं…
आधी से अधिक का वक्त,
मैंने बिताया किताबों के सन्ग, किताबें मेरी दोस्त, मेरी हमसफर, किताबों के सहारे,
मैंने देखे सपने,
सपने बन गए मकसद,
किताबों के सहारे बढ़ा हौसला, मकसद पूरा करने का, असफलता के वक्त,
किताबों ने बढ़ाई मेरी हिम्मत, किताबें मेरी दोस्त, मेरी हमसफर, अच्छी किताबें देवदूत बन,
मेरे लिए पैगाम लाई,
मेरे दिल को हौले से सहलाया, इसीलिए मैं अपने युवा साथियों से,
कहता हूं किताबों से दोस्ती करो यह है तुम्हारी अच्छी दोस्त, हमसफर ,
किताबें मेरी दोस्त, मेरी हमसफर।
आप इस कविता से समझ गए होंगे कि जीवन में किताबों की कितनी अहमियत होती है । हमें ज्ञान प्राप्त करने का मौका मिला है तो खूब मन लगाकर पढ़ना चाहिए। मात्र पढ़कर उसे भूल ही ना जाए बल्कि उसे जीवन में धारण करने का भी प्रयास करना चाहिए तभी हमारा पढ़ना सार्थक है।
कहां जाता है कि एक बार महात्मा गांधी ने सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र नामक नाटक देखा तो उन्होंने सत्य को जीवन का अंग बना लिया। एक बार तो परीक्षा के समय उनके अध्यापकों द्वारा नकल की सलाह देने के बाद भी उन्होंने नकल नहीं की।
उन्होंने कहा कि परीक्षा में असफल हो जाना हमें मंजूर है परंतु हम नकल करके अपनी आत्मा की बली नहीं चढ़ा सकते। बापू ने कहा है सत्य ही ईश्वर है ईश्वर ही सत्य है अर्थात सत्य और ईश्वर में कोई भेदभाव नहीं है।जिसके जीवन में सत्य का जितना अंश विद्यमान है वह उतनी ही मात्रा में ईश्वर के नजदीक है। क्या हम बापू के जीवन से कुछ सीख नहीं सकते हैं? उन्होंने कहा था मेरा जीवन ही मेरा संदेश है ? क्या आप भी बापू जैसे महान व्यक्ति नहीं बनना चाहेंगे ?
शिक्षा का महत्व तभी है जब उसमें सुचिता हो। लेकिन वर्तमान समय में बड़े-बड़े इंस्टीट्यूट मैनेजमेंट के कोर्स लोगों को बेवकूफ बनाकर अपना उल्लू कैसे सिद्ध किया जाए इसके लिए बड़ी-बड़ी फीस बच्चों से वसूल रहे हैं। अभिभावक भी लोगों को बेवकूफ बनाने की विद्या सीखने के लिए अपनी गाड़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इस मूर्खतापूर्ण शिक्षा पर खर्च कर देते हैं।
आज कल अभिभावक भी मानसिक रूप से दिवालिया हो चुके हैं। वे अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देना चाहते हैं जिसमें ऊपरी कमाई हो। यदि कोई व्यक्ति नौकरी करता हो तो कोई यह नहीं पूछता है कि उसे कितना पैसे मिलता है। अधिकांश लोग यही पूछते हैं कि ऊपरी कमाई है कि नहीं यदि ऊपरी कमाई नहीं है तो नौकरी दो कौड़ी की मानते है। अर्थात हमारे अभिभावक एवं अध्यापक भी चाहते हैं हमारे बच्चे भ्रष्टाचारी हो। अधिकांश अध्यापक भी पूछते हैं बच्चों से की ऊपरी कमाई बा कि नाही।
वर्तमान समय में लोगों की मानसिकता इतनी दूषित हो चुकी है कि क्या कहा जाएं। यदि कोई व्यक्ति ईमानदारी के साथ देना चाहता है तो घर परिवार एवं समाज के लोग उसे ईमानदारी से जीने भी नहीं देना चाहते। ऐसी स्थिति में व्यक्ति ना चाहते हुए भी भ्रष्टाचारी बन जाता है।
वैसे तो इस देश में बड़ी-बड़ी डींगे हांकी जाती है यह देवताओं का देश है । यहां जन्म लेने के लिए भगवान भी तरसते हैं लेकिन जितनी इस देश में मिलावट खोरी भ्रष्टाचारी, झूठे लोग हैं हो सकता है और किसी देश में हो।
इस देश में जितने भक्त हैं उतने ही मक्कार लोग भी हैं। भक्ति और मक्कारी एक साथ चलती रहती है। ऐसे लोग जब शिक्षक बनते हैं तो अपनी मक्कारी की मानसिकता बच्चों में भी थोप देते हैं। जैसे-जैसे समाज में आधुनिकता बढ़ रही है उसी प्रकार से समाज में धूर्तता भी बढ़ रही है।
पहले के लोग अनपढ़ थे लेकिन सरल थे ईमानदार थे। एक दूसरे की भावनाओं की कद्र किया करते थे लेकिन जितनी मात्रा में शिक्षा बढ़ रही है उतनी ही मात्रा में धूर्तता भी बढ़ती जा रही हैं।
जो शिक्षा बच्चों को सत्य, प्रेम, न्याय, परोपकार आदि की शिक्षा दी जाती रही है। वही आधुनिक समय में हमारे अभिभावक के बच्चों को झूठ, फरेबी आदि सिखा दे रहे हैं। यदि कोई अभिभावक घर में रहते हुए यदि अपने बच्चों से यह कहता है कि बोल दो घर में नहीं हूं तो उसकी बातों का प्रभाव उनके बच्चों पर कभी नहीं पड़ सकता है।
इसी प्रकार से जैसे-जैसे सोशल मीडिया में बढ़ोतरी होती जा रही है। लोगों का जीवन एकांगी होता जा रहा है। लोग अपनी में ही मस्त हैं। किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है।
भाग – ५६
वर्तमान समय में जैसे-जैसे आधुनिकता बढ़ रही है । उसी प्रकार से एक कमजोर पीढ़ी का भी निर्माण हो रहा है। आधुनिकता व्यक्ति को कमजोर और निस्तेज बना रही हैं।
हमारी पूर्व मान्यताओं को आधुनिक पीढ़ी मजाक बना रही हैं। ब्रह्मचर्य जैसे विषय को माखौल उड़ाया जा रहा है।यही कारण है कि आज के मनुष्य के इतनी दुर्गति हो रही है। आज का मनुष्य हंसते-हंसते कब उसका टिकट कट जाए पता नहीं चलता है। इस सब के मूल में ब्रह्मचर्य का अभाव है।
ब्रह्मचर्य शक्ति इकट्ठा करने का माध्यम है। जब शक्ति ही नहीं होगी तो खर्च क्या करेंगे? यही कारण है कि आज का मनुष्य सूखे बांस की तरह हो चुका है। ब्रह्मचारी बनकर विद्या पढ़ने से आत्मिक बल बढ़ता है।आत्मा बलिष्ठ होने से मनोवृति गंदी नहीं होने पाती । विशुद्ध मनोवृति होने से शारीरिक बल जो कुचेष्टाओं द्वारा खंडित होता संरक्षित रहता है।
आजकल जो रोगी संताने पैदा हो रही हैं। बीमार बच्चे पैदा हो रहे हैं। गर्भ में ही अनेकानेक रोगों से ग्रसित होते जा रहे हैं ।उसके मूल में ब्रह्मचर्य का अभाव है। रोगी व्यक्ति की संताने भी रोगी ही पैदा होती हैं। यदि हमें आने वाली पीढ़ी को सुधारना है तो जीवन में ब्रह्मचर्य को अपनाना होगा।
यदि हम चाहते हैं कि हमारा भवन दृढ़ बने। हमारा उद्देश्य बड़े-बड़े आंधी झोंकों से भी ना उखड़े तो हमें चाहिए कि जीवन में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें।
महाभारत युद्ध में अखंड ब्रह्मचारी भीष्म पितामह ने भगवान कृष्ण के संकल्प को भी डिगा दिया था। कृष्ण के अखंड ब्रह्मचर्य के प्रभाव का ही नतीजा था कि उस समय के अत्याचारी जरासंध, कालयवन ,शिशुपाल आदि का मृत्यु के घाट उतार कर जनता को उनके आतंक से मुक्त किया।
कृष्ण के जीवन में कहीं भी हताशा निराशा नहीं दिखाई देती है। इस संसार में जितना दुःख कष्ट कृष्ण को झेलना पड़ा हो सकता है और किसी को झेलना पड़ा हो । लेकिन उन्होंने समस्त कष्ट कठिनाइयों को हंसते-हंसते झेलते हुए उसका समाधान करते रहे। यह कैसे संभव हो सका ?यह सब ब्रह्मचर्य का प्रभाव था।
लेकिन आज के आधुनिक भागवत कथाकार उन्हें नचनिया बनाकर के रख दिया है। इस देश में कृष्ण के सबसे बड़े दुश्मन यदि कोई है तो यह कथाकार हैं। यह कथाकार अपनी कथाओं में एक लंबा समय कृष्ण को नचनिया सिद्ध करने में बिता देते हैं।कभी उनके शौर्य,शक्ति,साहस की चर्चा कथा में नहीं किया करते हैं।
दूसरी तरफ भगवान राम है। उनका धैर्य,शांति, त्याग, दृढ़ता को देखकर ह्रदय गदगद हो जाता है। उनके ब्रह्मचर्य का ही प्रभाव था कि परम पराकर्मी रावण के साम्राज्य को ऐसा धूल धूसरित किया कि लोग अपने बच्चों का नाम रावण नहीं रखते है।
आधुनिक समय में जिस समय देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। एक अखंड ब्रह्मचारी स्वामी दयानंद सरस्वती ने देश की दिशा धारा ही बदल दी। उन्होंने अपने जीवन में यह दिखा दिया कि व्यक्ति यदि ब्रह्मचर्य को जीवन में धारण कर ले तो अकेले संपूर्ण राष्ट्र की दिशा धारा को बदल सकता है।
वर्तमान समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी का नाम लिया जा सकता है । जिन्होंने अपने अखंड ब्रह्मचर्य के प्रताप से 70 वर्षों से अधिक उम्र में भी भारत को नई गौरव दिलाने का प्रयास किया। यह उनके ब्रह्मचर्य का ही प्रताप है के भारत आज संपूर्ण विश्व में एक नया इतिहास रचने को अग्रसर है।
ऋषि दयानंद ने संस्कार विधि नामक पुस्तक में ब्रह्मचारी को उपदेश देते हुए कहा है कि -“तू आज से ब्रह्मचारी है । नित्य संध्या उपासना किया कर । भोजन से पूर्व शुद्ध जल का आचमन किया कर ।दुष्ट कर्मों को छोड़ धर्म किया कर। दिन में सयन कभी मत कर। आचार्य के अधीन रहकर नित्य सांगोपांग वेद पढ़ने में पुरुषार्थ किया कर।”
भाग – ५७
प्राइवेट अध्यापकों का जितना शोषण भारत में होता है हो सकता है और कहीं होता हो। भारत के मजदूरों से भी बदतर हालत प्राइवेट अध्यापकों का है। एक मजदूर तो दैनिक मजदूरी से अपने परिवार का पालन पोषण कर सकता है लेकिन एक प्राइवेट अध्यापक कभी नहीं कर सकता जब तक कि वह कोई अन्य कार्य न करता हो।
एक बार मैं मेरठ के हैदर पब्लिक स्कूल नामक प्राइवेट विद्यालय में शिक्षण कार्य करा रहा था। मुझे विद्यालय से 4000 देने को बोला गया था परंतु बाद में पता चला कि एक महीने की तनख्वाह कासन मनी के रूप में जमा होगी ।
मेरे पास जब एक भी पैसे नहीं बचे तो बहुत कहने पर ₹2000 मिला । इन 2000 में रुपए में क्या घर भेजूं क्या अपने पास रखूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था। स्कूल के अपने नखरे थें ।कभी लेट पहुंचे हैं तो कभी छुट्टी लिए बिना इजाजत के जाने पर दो-दो दिन की छुट्टियां काट ली जाती थी।
एक प्रकार से देखा जाए तो हम अध्यापकों का पूरी तरह शोषण किया जाता था ।एक्स्ट्रा क्लास के लिए घंटे-दो घंटे पहले ही आना पड़ता था । कई कई दिन तक दिन भर भूखे रह जाना पड़ता है क्योंकि यदि सुबह भोजन नहीं बन सका तो दिनभर भोजन मिलना मुश्किल है ।
सायं काल दिन भर की किचकिच से मन इतना थक सा जाता था कि कुछ करने की इच्छा नहीं करती थी ।थोड़ा बहुत इधर-उधर से कुछ खाकर सो जाता था। सुबह यदि देर से उठा तो या तो भूखे पेट विद्यालय भागें या भोजन बनाकर खाएं।
भूखे पेट जाने से एक और बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाती थी कि चिड़चिड़ापन बढ़ता था और बच्चों की पिटाई कर देता था। ऐसे में बच्चा नहीं समझ पाता था कि उसे क्यों मारा जाता था।
उस विद्यालय में बच्चों को खूब मारा जाता था । पाठ्यक्रम पूर्ण करने का अंतिम चरण चल रहा था । ऐसे में बच्चों से होम वर्क पूरा करने को कहा गया जो नहीं करके आता था उसे फट्टो से पिटाई की जाती थी । इसके लिए दो अध्यापक विशेष रूप से नियुक्त किए गए थे जो कि विद्यालय के कोऑर्डिनेटर भी थे।
डर के मारे बच्चे प्रार्थना पीरियड में भी वर्क पूरा करते हुए दिखाई देते थे। घर में रात्रि में कैसे उन्हें नींद आती होगी । मेरा कोर्स कुछ पीछे रह गया था । उसका कारण था कि मुझे नहीं बताया गया कि कब तक कोर्स को पूरा करना था ।
फिर भी पूर्ण करने का प्रयास कर रहा था जो कि समय से पूर्ण हो जाने की उम्मीद थी। एक बात यह है कि मैं कभी विद्यालय से संतुष्ट नहीं हो सका। घर परिवार की याद अक्सर आ जाती थी । जब इतने पैसे से स्वयं का खर्च नहीं चल पा रहा था तो परिवार वालों को क्या भेजता?
मैं विद्यालय में कोशिश करता था कि पारिवारिक माहौल बना रहे। कभी किसी से उलझता नहीं था । सभी लोग मेरी कद्र भी करते थे। पुस्तकों के प्रति मेरा विशेष लगाव होने के कारण सभी अध्यापकों को पुस्तक भी भेंट करता था।
मुझे खुशी इस बात की थी कि प्रभु ने हमें धनवान तो नहीं बनाया दिलवाला जरूर बनाया जो कि कभी देने से पीछे नहीं रहता हूं।
एक दिन जब मैं रवि पैकेट बुक जो कि जहां मैं रहता था उसी के पास है से इस बारे में चर्चा कर रहा था कि -” मैं खूब पैसे वाला बन जाऊंगा तो लोगों के खूब सहायता करूंगा । ”
तो वह कहने लगी-” ऐसी बात नहीं है। यह भी तो हो सकता है कि तुम धनवान होने के पश्चात कंजूस भी बन जाओ। ”
वास्तव में देखा जाए तो उनकी बातें सत्य भी है जिस व्यक्ति के साथ जैसी परेशानी आती है वही दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है।
नहीं तो आजकल दुनिया में सेवा के नाम पर मात्र लूट मची है। साल में एक दिन दान पुण्य बांट करके पेपरो में खबर छपवाकर हो गई समाज सेवा।
भाग- ५८
इसके पूर्व मैं मेरठ के ही ट्रांसलेट एकेडमी में नौकरी किया करता था। वहां का माहौल ठीक-ठाक था । स्कूल में ही रहने खाने की व्यवस्था हो जाने से जो पैसे मिलते थे बच जाते थे।
वहां से नौकरी छोड़ने के बाद जो पैसे थे धीरे-धीरे खत्म होने लगे थे। सोचा था परदेस है यहां कोई किसी का नहीं होता पैसा रहेगा पास में तो किसी प्रकार रहते हुए दूसरी नौकरी ढूंढ लूंगा परंतु जब कोई चारा नहीं मिला तो न्यूज़ पेपरो में विज्ञापन देखने लगा कि कहीं कोई जगह खाली तो नहीं है। एक दो जगह गया बात नहीं बनी फिर मेरठ के ही हैदर पब्लिक स्कूल को ज्वाइन किया था।
वैसे वहां का मोहल्ला मुझे पसंद नहीं आया था । गेट के पास ही जानवरों का मांस बेचा जाता था। जिसे देखकर ही मेरा मन खराब हो जाता था । रास्ते में भी वैसे ही स्थिति थी परंतु उस समय ऐसी परिस्थित बन गई थी कि कहीं ना कहीं नौकरी करनी ही पड़ेगी। फिर मन में विचार किया की जैसी प्रभु की इच्छा । वह जो भी करते हैं अच्छा ही करते हैं। यह सोचकर मैं पढ़ाने को तैयार हो गया।
पहले दिन देखा कि सभी स्टाफ के टीचर्स लेडीज ही हैं। पुरुष दो-तीन ही हैं लेकिन बाद में जैसे-जैसे उनके प्रति आत्मियता बढ़ने लगी । वे सभी कोऑपरेट सहयोग करने लगी थी। पैसे तो कुछ कम मिल रहे थे लेकिन कुछ दिनों बाद ऐसा लगने लगा कि जैसे हम अपने घर परिवार में ही लौट आए हो । अधिकांश अध्यापिकाओं से जो कुछ भी पूछे ऐसे बताती थी कि जैसे बच्चों को समझा रही हो।
उनमें से एक अध्यापिका में मुझे ऐसे पूर्ण रूप से गुण दिखे जो एक अध्यापक में होना चाहिए। वे बच्चों को ऐसा समझाती थी कि उसे पूरी तरह से समझ में आ जाएं । ऐसे अध्यापक ही बच्चों को सच्चे अर्थों में पढ़ा सकते हैं।
विद्यालय में सारे बच्चे इस्लाम को मानने वाले थे । प्रार्थना भी उसी प्रकार से होती थी। यहां सरस्वती मां की पूजा नहीं होती थी और ना ही वंदे मातरम का गान किया जाता था। बच्चे हाथ जोड़कर प्रार्थना नहीं करते थे। बल्कि हाथों को ऐसा रखते थे जैसे दुआ मांग रहे हो । नहीं तो हाथ बांध लेते थे आगे की ओर।
मेरी आदत मिलने पर एक दूसरे से राम-राम करने की थी। कभी-कभी दूसरे ट्रांसलेट एकेडमी में बच्चे भी राम-राम गुरुजी कहते थे । परंतु धीरे-धीरे यहां तो सब भूल जैसे गया हूं। एक बार यह इच्छा होती थी कि यह मैं कहां आ गया हूं । परंतु फिर विचार करता था कि यदि आ ही गया हूं तो उसे अच्छी प्रकार से जान समझ लिया जाए।
हमें हमेशा यह प्रयास करना चाहिए कि बच्चों में सभी धर्म के प्रति सम्मान का भाव जगाने का प्रयत्न करें । धर्म के कारण नहीं बल्कि मनुष्य का मनुष्य होने के नाते उसका सम्मान करने का प्रयास करना चाहिए।
भाग- ५९
कहते हैं कि स्त्री और बच्चे को खिड़की में लगे शीशे की भांति संभाल कर उनकी कद्र करनी चाहिए । कभी मारना नहीं चाहिए। बल्कि प्यार से समझाने का प्रयास करना चाहिए ।
यदि एक बार किसी बच्चे को लग जाए की बहुत करेंगे मारेंगे तो आप उसे सुधार नहीं सकते । प्रेम से जब पेड़ पौधे की प्रवृत्ति बदल सकती है तो यह तो बच्चे हैं ।किसी का सुधार उपहास से नहीं उसे नए सिरे से सोचने और बदलने का मौका देने से होता है।
यदि कोई बच्चा बिगड़ गया है तो उसे मारपीट कर नहीं सुधार सकते। मैं देख रहा हूं कि बच्चों को अत्यधिक मारने से वह और ढीठ हो गए थे । विशेष रूप से लड़के। बड़ी उम्र की लड़कियां अधिकांशत गलती होने पर भी बच जाती थी जबकि लड़कों को छोटी-छोटी बातों में फट्टे बरसाए जाते थे।
कक्षा 8 के दो-तीन बच्चों को शिकायत ज्यादा थी । मैं जब भी कुछ बताता था तो यदि नहीं समझ में आ रहा होता था तो उन्हें लड़कों से पूछने के लिए अच्छा लड़कियों से पूछना ज्यादा पसंद करते थे ।
जब मैं डांटता था तो कहते हैं कि पूछ ही तो रहा था। मुझे लगता है कि बच्चों को यदि सहज रूप से बढ़ने दिया जाए तो इतनी समस्या नहीं आए । बड़े बच्चों में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षक होना स्वाभाविक है। लड़कियां लड़कों की अपेक्षा जल्दी बड़ी हो जाती हैं ।
शारीरिक सौंदर्य निखरने लगता है। कहते हैं अन्य जीवों कुत्ता-बिल्ली , बंदर जैसे पशु पक्षियों में मादा की अपेक्षा नर ज्यादा सुंदर दिखता है। परंतु मनुष्य के साथ इसका उल्टा होता है। मनुष्य योनि में मादा नर की अपेक्षा ज्यादा सुंदर होती है ।
मेरा उद्देश्य सौंदर्य को परिभाषित करने का इतना ही है कि हम यदि बाल मनोविज्ञान को नहीं समझ सकेंगे तो मात्र कोर्स की पुस्तक को डंडे मार- मार कर पढ़ाने से कोई विशेष परिवर्तन नहीं आने वाला।
यहां मैं लगभग सभी कक्षाओं में एक बात अनुभव कर रहा था कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का वर्क जल्दी पूर्ण हो जाता था ।वह चित्रकला में भी आगे थीं । कई लड़कियां तो ऐसी थी कि यदि उनको चित्रकार का अच्छा प्रशिक्षण मिल सके तो राज्य स्तर पर उभर सकती थी ।
ऐसा मैंने कुछ बच्चियों को प्रतियोगिता में पुरस्कार जीतते हुए देखा भी। जबकि लड़के चित्रकारी में पीछे थे । कई के कोर्स भी पूर्ण नहीं थें । मुझे लगता है कि इसका कारण लड़कियों का अंतर्मुखी स्वभाव भी है ।
जबकि लड़के जन्मजात वाह्य प्रवृत्ति के होते हैं। उन्हें बैठकर चित्रकारी करने की अपेक्षा मैदान में फुटबॉल वॉलीबॉल कुश्ती लड़ना ज्यादा पसंद आता है । विद्यालय भी छोटा सा था। जहां लड़कों को अपनी ऊर्जा को खर्च करने का मौका भी नहीं मिलता था। एक पीरियड खत्म नहीं हुआ कि दूसरा शुरू हो जाता था।
यही कारण है कि विद्यालय घर न होकर जेल खाना बनाकर रह गया है। छुट्टी होते ही बच्चे ऐसे खुश होते हैं कि जैसे उन्हें जेल खाना से मुक्ति मिली हो । आवश्यकता है कि विद्यालय में पारिवारिक माहौल बनाने की। अध्यापक लोग पुस्तक ही न पढ़ाये बल्कि बच्चों को भी पढ़ाये ।
बच्चों की समस्या को नहीं समझ कर बस मारना पीटना कोई समाधान नहीं है । यदि कोई बालक होमवर्क नहीं करके आया है तो उसकी समस्या सुनें ।उसे सुधरने का मौका दें ।जिससे वे आगे सुधार कर सके । काश विद्यालय घर जैसा बन सकता तो कितना अच्छा होता । शिक्षक माता-पिता जैसे प्यार लुटाते।
भाग – ६०
एक बार यूकेजी की शिक्षिका के बच्चों का एक्सीडेंट हो गया था। उस दिन वह मध्यावकाश लेकर चली गई। वे बता रही थी कि उस दिन भी आधे दिन का पैसा तनख्वाह में काट लिया गया।
यह बताते हुए उन्हें कितना कष्ट हो रहा था इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता । मुझे लगता है कि मानवता के नाते ही यदि पैसे ना काटे जाते तो कितना अच्छा होता। उनकी बातें सुनकर पता नहीं मुझे क्यों बहुत बुरा लगा। उनकी बातों को सुनकर ऐसा अहसास हो रहा था कि मानवता जैसे शब्द शब्दकोश से मिटा दिए गए हो।
उनकी बातों को सुनकर मैं उस दिन उनके घर गया । उन्हें मात्र ₹1400 मिलते हैं । जिसमें से बच्चों के फैक्चर होने की छुट्टी लेने के कारण₹600 तक कट गए थे । एक प्राइवेट अध्यापक का दर्द क्या होता है वह भुगत्भोगी ही समझ सकता है । महंगाई इतनी बढ़ गई थी कि मेरा ₹4000 अकेले खर्च हो जाते थे ।जब कि कमरे का किराया संस्था का कार्यालय होने के कारण नहीं देना पड़ता था।
यदि कोई सुनता है कि प्राइवेट स्कूल में टीचर हो कितना मिलता होगा ?उसके नाक भौ पहले सिकुड़ जाते थे । ऐसा लगता था कि जैसे मजदूरों से भी गए गुजरे हो। एक मजदूर भी ₹500 रोज कमा लेता है ।
उनके ₹1400 तो प्रतिदिन के ₹50 भी नहीं बैठते। जरूरी नहीं कि पूरे मिले भी । कोई ना कोई कारण ऐसा लगाए रखते थे कि कैसे पैसा काटा जा सके।
मैं हिसाब करते समय देखा कि चार दिन की डबल छुट्टी काट ली गई है। पूछने पर बताया कि यदि आप बिना बताए छुट्टी लेते हैं तो 2 दिन की कटती है । जबकि उसमें से एक दिन बसंत पर्व भी था। मेरे विरोध करने के बाद भी विद्यालय प्रशासन नहीं माना । उस दिन से जैसे मेरा दिल ही टूट गया विद्यालय से।
मैं उसी दिन निर्णय ले लिया कि विद्यालय छोड़ दूं परंतु बच्चों से मैं पत्रिका हेतु लेख लिखवा लिया था। मैं सोच रहा था कि फरवरी के अंत तक इसका संपादन करके मार्च में छोड़ दूंगा। मैं नहीं चाहता था कि अपनी समस्या के कारण बच्चों को दुख पहुंचाएं ।
कई कई बच्चे तो 3-3 या 4-4 लेख दिए थे ।कक्षा एक ,यूकेजी ,एलकेजी के बच्चों ने तो अपनी फोटो भी लिफाफे में बंद करके दी थी । मैं उनके प्रेम को कैसे ठुकरा सकता था।
मैं अनुभव किया कि मेरा पत्रिका निकालने का प्रयास विद्यालय प्रशासन को अच्छा नहीं लग रहा है। ना कभी किसी ने पूछा कि क्या हो रहा है ? पत्रिका का कार्य कहां तक पहुंचा?
मैं थोड़ा बातों में बहक गया था । एक बात बताऊं इसे आप संकल्प शक्ति का चमत्कार भी कह सकते हैं । क्योंकि मैंने अनुभव किया है कि मैं जैसे संकल्प करता हूं वैसे ही होने लगता है। मैं बच्चों के प्रति प्रेम के कारण इस्तीफा तो नहीं दे पाया परंतु मन में यह संकल्प ले लिया कि मैं पत्रिका के संपादन के बाद ही विद्यालय छोडूंगा।
हमारे साथ ही एक और शिक्षक ने विद्यालय को ज्वाइन किया था। वे उर्दू के शिक्षक थे। उनके पिताजी मौलवी थे । वह भी लगभग 12 वर्षों तक मदरसे के हॉस्टल में रहकर शिक्षा पाए थे। जिसके कारण इस्लाम के आगे भी कोई दुनिया है वो नहीं सोच पाते थे । वैसे तो वो बहुत नेक इंसान थे ।
उनसे अक्सर धार्मिक, सामाजिक विषयों पर बहस होती रहती थी। एक दिन मैं उनके घर भी गया था । जहां उनके पिताजी से भी लंबी बातचीत हुई। मुझे उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगा ।
परंतु एक बात मुझे बहुत उनकी खटकती थी कि वह प्रभु राम या कृष्ण के बारे में जब बातें करते हैं तो लगता जैसे अपमान कर रहे हो। उनके प्रति उनके मन में कोई सम्मान का भाव नहीं था । जबकि मैंने कभी भी भूलकर इस्लाम की बुराई नहीं करता था। सदा सम्मानजनक शब्दों का ही प्रयोग किया करता था।
मुझे लगता है कि इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वह मदरसे के कठोर अनुशासन भरे जीवन में रहे हो । जहां बचपन से ही मूर्ति पूजा के प्रति घृणा भरी गई हो ।
अब जो संस्कार मन में है वही तो बाहर भी आएगा । ऐसे ही एक दिन उन्होंने सामूहिक रूप से कुछ कह दिया था जिसे साथ के सभी अध्यापकों को खराब लगा था ।वह एक प्रकार से ऐसे माहौल में स्वयं को एडजस्ट नहीं कर पा रहे थे । जबकि यहां सभी बच्चे एवं स्टाफ इस्लाम को ही मानने वाले थे।
भाग – ६१
आज हम लोग विद्यालय से हटकर हिंदू समाज की मान्यताओं की चर्चा करेंगे।वर्तमान समय में देखा जाए तो हिंदू समाज बिन पेंदी के लोटा की भांति हो गया है। जिसने जैसा चाहा उसे वही मोड़ दे रहा है।
उसकी श्रद्धा जैसे किसी एक जगह स्थिर नहीं रहती है । वह कभी राम जी को मानता है , तो कभी कृष्ण को तो , कभी दरगाह मजार पर चादर भी चढ़ा आता है तो कभी यीशु दरबार में भी चक्कर लगा लेता है।
इस प्रकार से देखा जाए तो हिंदुओं को जहां हांक दिया जा रहा है वहीं भेड़ियों की भांति चल देते हैं। यही कारण है कि हिंदुओं के जहां देखो वहां नए-नए अवतार पैदा होने लगते हैं। इस समय पूरे भारत में हजारों की संख्या में कल्की अवतारी बाबाओ की संख्या बढ़ती जा रही है । जो अपने को भगवान का दसवां अवतार सिद्ध कर रहे हैं।
इसी प्रकार से सांई बाबा की मूर्ति हिंदू अपने मंदिरों में स्थापित कर चुका है । अधिकांश हिंदुओं को यह पता है कि साईं बाबा चांद मियां नाम का मुल्ला था जो की घोर हिंदू विरोधी था । लेकिन बिन पेंदी के लोटे को क्या कहा जाए?
कई कई जगह तो अपने राम-कृष्ण ,हनुमान शिव जी की मूर्तियों से भी बड़ी साईं बाबा की मूर्ति स्थापित कर चुका है। यह केवल मात्र जनता से थोड़ी सी दो कौड़ी ज्यादा चढ़ावा के चक्कर में पुजारी करा रहे है।
आसपास कहीं पीपल का पेड़ दिख जाए तो वहां लंगोटी और घंटी बांधने वालों का तांता लग जाता है। मैंने कोई भी ऐसा पीपल का वृक्ष नहीं देखा जहां लोग लंगोटी और घंटी ना बांधे हो। इन कार्यों में औरतें कुछ ज्यादा सक्रिय रहती हैं। समाज में व्याप्त धार्मिक अंधविश्वास भी औरतों के ही कारण फल फूल रहा है।
अभी कुछ दिनों पूर्व मैं शाम को घर लौटा तो देखा कि वहां पर कुछ लोग झंडी आदि लेकर के खड़े हुए थे। जिसमें अधिकांश हिंदू थे। उस समय गर्मी अपनी प्रचंड रूप में थी। पता चला कि सभी गाजी मियां की बारात में बाराती बन करके जा रहे हैं।
आज से हजारों वर्षों पूर्व हिंदुओं के मन में व्याप्त यह अंधविश्वास है कि निकल ही नहीं रहा है। हिंदू संस्कृति में मुर्दों की पूजा का कोई उल्लेख नहीं है। हिंदुओं में कोई अपने पूर्वजों की मजार दरगाह बनाकर के पूजा नहीं करता है। लेकिन बिन पेंदी के लोटे को क्या कहा जा सकता है?
यह हिंदुओं कि श्रद्धा नहीं बल्कि मूर्खता है। जो व्यक्ति मर गया। जिसकी हड्डी पसली का भी पता नहीं वह क्या तुम्हारी सहायता करेगा? लेकिन क्या कहा जाए पीढ़ी दर पीढ़ी यह अंधविश्वास चला आ रहा है।
मैंने देखा है कि हमारे गांव में अधिकांश हिंदू मजार, दरगाह आदि की पूजा किया करते हैं? हिंदुओं में मुर्दों को प्रवाहित करने के बाद घर लौटने पर घर में घुसने नहीं दिया जाता बल्कि सारे कपड़े आदि उतरवा कर स्नान आदि करने के बाद ही लोग घर में प्रवेश करते हैं।
लेकिन वही एक मुर्दे की पूजा करके लोग अपने को पवित्र कैसे मान ले रहे हैं ? ऐसे लोगों को चाहिए कि वह घर में प्रवेश स्नान आदि के बाद करें क्योंकि मुर्दे तो मुर्दे होते हैं।
इस प्रकार के अंधविश्वासों को जिंदा रखने में हिंदुओं की औरतों का बहुत बड़ा हाथ है। मैंने देखा है कि मजार, दरगाह आदि में पुरुष नाम मात्र के जाते हैं। अधिकांश औरते ही सिर फोड़ती, आव- बाव बकती दिखाई देती हैं।
इस समय गांव में ईसाई मिशनरियों का जाल भी बहुत तेजी से फैल रहा है। अधिकांश निम्न तपके के हिंदू स्वार्थवस ईसाइयों के चक्कर में फंसते जा रहे हैं। यह हिंदू ऊपर से देखने में हिंदू ही दिखते हैं लेकिन उनका संपूर्ण आंतरिक मनोभाव बदला हुआ रहता है।
यह लोग यीशु दरबार आदि में जाने के बाद उनके मन में इतनी घृणा भर दी जाती है कि वह अपने पूर्वजों को ही गाली देने लगते हैं। उनके लिए यीशु ही भगवान बन जाते हैं।
इन लोगों को हम चाहे जितना समझाएं उन्हें कुछ समझ में नहीं आता है क्योंकि ऐसे दरबार में जाने के बाद उनका संपूर्ण मनोभाव बदल दिया जाता है। यदि अन्य धर्म से हिंदुओं को तुलना की जाए तो जैसा हिंदू बिन पेंदी का लोटा है अन्य धर्म में वैसा नहीं है।
हिंदुओं को चाहिए कि इस प्रकार के क्रियाकलाप से बचे । जिसने जो बताएं वहीं पर चल दिए। अपनी संस्कृति सभ्यता पर गर्व करना चाहिए। ऐसा ना हो कि जिसने जो बताया सबको सत्य मानने लगे।
भाग- ६२
आज भारतीय समाज में व्याप्त नशे की समस्याओं पर विचार करते हैं। सोचे! मनुष्य नशा क्यों करता है? जब उसके जीवन में राग प्रबल होता है, वह तनाव से भर जाता है।
तनाव से, चिंता से मुक्ति का उपाय वह नशे में खोजता है। नशे के धुए में वह स्वयं को भुला देता हैं ।ऐसे लोग जो ज्यादा तनाव चिंता में होते हैं नशा ज्यादा करते हैं ।
आज पूरा विश्व नशे की समस्या से ग्रस्त है। भारत सरकार भी खुलेआम अब गांव-गांव शराब के अड्डे चलवा रहीं हैं ।पहले जहर पिलाकर फिर निशुल्क कैंप लगाकर धर्मात्मा बनने का पाखंड पूरे देश में चल रहा है । जितनी भी धर्मशालाएं, मंदिर, भंडारे आज बने या चलते हैं ऐसे ही जहर बेचने वालों के द्वारा संचालित हैं ।
जिस समाज में नशा बढ़ता है वहां कर्तव्य बोध ,दायित्व बोध समाप्त हो जाता है । वहां ऐसे निकम्मी पीढ़ी का जन्म होता है जो किसी काम का नहीं होती । परंतु क्या करें आज मानव जीवन में इतने तनाव, चिंता भर गई है कि वह कैसे जिए ?
आखिर आदमी को नींद ना आए , थकान ना मिटे तो कैसे जिएगा ? एक नशे की गोली खाई नींद आ गई ना कोई चिंता ना भय ? परंतु आखिर अपने को कितनी देर भुलाया जा सकता है?
छोटे-छोटे बच्चे भी परीक्षा, कैरियर की चिंता से ग्रस्त होकर नशे की भट्टी में जीवन को स्वाहा करने को तैयार हैं ।हमारे जीवन से जब तक तनाव ,चिंता नहीं मिटेगी घृणा, द्वेष, ईर्ष्या से मुक्त नहीं होंगे हम नशे से नहीं बच सकते ।मात्र कानूनी प्रतिबंध से कुछ नहीं होने वाला ।
नशे का विकल्प है -ध्यान ।नशे से भी सुख मिलता है और ध्यान से भी सुख मिलता है ।ध्यान संजीवनी है जितना मात्रा में ध्यान की गहराई उतरते जाते हैं । हमारे अंदर आनंद के स्त्रोत फूटने लगते हैं ।उस अमृत की अनुभूति के सामने सारे नशे फीके पड़ जाते हैं।
हम सोच भी नहीं सकते कि हमारे भीतर कितना सुख के स्रोत भरे हैं । नशा अपने आप छूट जाता है ।नशे का मन ही नहीं करता। योग ध्यान कोई शारीरिक व्यायाम नहीं है बल्कि मानव जीवन की सभी समस्याओं का समाधान इसमें छिपे हैं। आवश्यकता है इसके अधिक से प्रचार की तभी नशा मुक्त समाज बन सकेगा।
अक्सर सभी नशीली चीजों जैसे सिगरेट, सुरती आदि के डिब्बे पर लिखा होता है कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। धूम्रपान से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं। मनुष्य उसके प्रति इतना आदी होता है कि वह बिना सिगरेट पिए नहीं रह पाता है।
कई लोग तंबाकू सिगरेट आदि को छोड़ना चाहते हैं लेकिन छोड़ इसलिए नहीं पाते हैं क्योंकि एक तो शरीर उन रसायनों को जो तंबाकू से मिलते हैं पर निर्भर हो जाता है और दूसरे भौतिक तथा भावनात्मक रूप से व्यक्ति तंबाकू के साथ जुड़ जाता है।
ऐसी स्थिति में यदि अचानक रोक दिया जाता है तो शरीर और मस्तिष्क के दोनों ओर से तीव्र प्रतिक्रिया होने लगती है। ऐसा उन लोगों के साथ होता है जो धूम्रपान आदि बहुत लंबे समय से करते आ रहे हैं।
जर्दा धूम्रपान से उच्च रक्तचाप जैसी घातक बीमारियां हो जाती हैं। लगातार जर्दा धूम्रपान करने से व्यक्ति को खाना कम स्वादिष्ट लगता है। धूम्रपान से रीढ़ की हड्डी के विकार पैदा हो जाते हैं।
भारत में धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों में से 30% लोग पुरानी ब्रोंकाइटिस नामक स्वांस रोग से पीड़ित होते हैं। जर्दा धूम्रपान लेने वालों में हृदय रोग की संभावना 15 गुना अधिक होती है।
एक सिगरेट पीने से धूम्रपान करने वाले व्यक्ति का जीवन 5 मिनट कम हो जाता है अर्थात कोई व्यक्ति यदि 12 सिगरेट रोजाना पीता है तब उसकी उम्र 1 घंटा प्रतिदिन घटती जाती है।
धूम्रपान के बाद शराब सबसे ज्यादा पी जाती है। हमने देखा है कि हमारे गांव में छोटे-छोटे बच्चे भी शराब पीने लगे हैं।
अल्कोहल के लगातार सेवन से आदमी के शरीर में अनेक बीमारियां घर कर लेती हैं।
आंखें जलने लगती हैं। मितली सी आने लगती है । भूख खत्म हो जाती है। थकावट आने लगती है। पसीना ज्यादा छूटने लगता है। शरीर में कंपकंपी शुरू हो जाती है। आदमी उसे दूर करने के लिए फिर ज्यादा शराब पीता है ।
जिसके परिणाम स्वरुप परेशानियां भी बहुत बढ़ने लगती है और आदमी एक दूष्चक्र में उलझ जाता है । शराब धीरे-धीरे मनुष्य के निर्णय को पंगु बनाती हैं।
भाग – ६३
कहते हैं की मां की कोख से पैदा होने वाला प्रत्येक शिशु उतना ही प्यारा तथा पवित्र है जितना परमात्मा। यदि वह आगे चलकर नशीली दवाइयां के जाल में फंसता है तो यह बीमार एवं विक्षिप्त समाज तथा विकृत एवं विकलांग कोढ़ ग्रस्त संस्कृति का प्रतीक है। यह मानव का नहीं बल्कि यह मानवीय पतन का आईना है।”
सर्वप्रथम जो लोग नशे कर रहे हैं यह जानना आवश्यक है कि उन्होंने किन परिस्थितियों में नशीली चीजों का सेवन प्रारंभ किया । जब तक मूल कारण दूर नहीं होता तब तक नशीली दवाइयां से मुक्ति दिलाना या पाना असंभव है।
अक्सर देखा गया है कि नशीली दवाइयां से मुक्ति के महीनों तथा सालों बाद व्यसनी छोड़ा हुआ व्यसन फिर प्रारंभ कर देता है।
कई किशोर बच्चे कुतूहल के कारण विषम तथा जटिल समस्याओं से जूझने में असफल होने, यथार्थ की चुनौती को स्वीकार नहीं करने, परिस्थितियों से विद्रोह करने, कुछ अभिनव प्रयोग की ललक, कुछ नया कर दिखाने की तमन्ना, हम भी किसी से कम नहीं की इच्छा, तनाव तथा आत्म सुरक्षा, कुंठा, आत्महीनता, आत्म प्रवंचना , अपराध भावना, मानसिक अवसाद आदि के कारण नशीली दवाइयां के शिकार हो जाते हैं।
कुछ लोग रोब जमाने , पार्टी में उत्सव में साथ देने तथा बैठे ठाले बेकार रहने के कारण नशीली दवाइयां शुरू करते हैं । यह शुरुआत में नशाखोर बनाकर जीवन का ही नाश कर देती है।
अभिभावकों को चाहिए कि घर के अंदर बच्चे अनुशासित हैं वे नशीली औषधीय का सेवन नहीं करते हैं , शरारत नहीं करते हैं, ऐसा सोचकर निश्चित ना हो जाए। घर से बाहर जाते ही यह बच्चे हम जोली बच्चों से मिलते हैं।
अपने बाल समाज में अपनी मान्यता सिद्ध करने तथा अहम पुष्टि के लिए नशीली वस्तुओं के चक्कर में फस जाते हैं। अज्ञानता वश जमाने के संग चलने तथा जमाने को दिखाने के चक्कर में वे स्वयं घन चक्कर में फंस जाते हैं । साथ निभाने के लिए उनके मन में यह भाव आता है कि एक बार ले लेने में बुरा ही क्या है ?
कौन सा परिवार वाले देख रहे हैं? इस चक्कर में कुछ व्यक्ति एक दो बार लेकर छोड़ भी देते हैं परंतु कुछ इसके इसके इस कदर व्यसनी बन जाते हैं कि वह इसे ही अपना जीवन मान सम्मान सभी कुछ मानकर दांव पर लगा देते हैं । ऐसे लोग प्रायः स्वाभिमान की कमी तथा हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं ।
वह उस सम्मान को नशे में खोजते हैं। अपने आपको प्रिय लगने वाली तथा अपनी नजर में ऊपर उठने की लालसा के स्वयं के तथा सब की नजर में इस कदर नीचे गिर जाते हैं कि उन्हें ऊपर उठाना असंभव हो जाता है।
नशे के आदी लोगों का उपचार करते समय ध्यान दें कि उनमें पुनः आत्म सम्मान पैदा किया जाए। वे अपनी गरिमा को पहचाने। बच्चों में बचपन से ही आत्म सम्मान की भावना जागृत की जाए। ताकि उनके कदम डगमगाए नहीं । उन्हें भरपूर प्यार, दुलार से सोचने के लिए बाध्य किया जाए कि वह हमारे अपने हैं।
अभिन्न है। आत्मीय तथा प्रिय हैं ।हमसे दूर नहीं है। मनोवैज्ञानिक तरीके से उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए। ऐसा करने से धीरे-धीरे बच्चे नशे से मुक्त होने लगते हैं।
देखा गया है कि कभी-कभी व्यक्ति तथा उसके व्यवहार एवं आचरण में हम अंतर नहीं कर पाते हैं। स्वामी रामतीर्थ ने ठीक ही कहा है कि आदमी से नहीं उसकी अपराध एवं पाप से घृणा करो ।
मूलतः व्यक्ति उद्दंड, शैतान, बुरा या अपराधी नहीं होता है। बच्चों द्वारा खिलौने या अन्य चीज इधर-उधर भी खेलना बाल सुलभ शैतानियां होती हैं। इसके प्रति बच्चों को सजग करना चाहिए ना कि उन्हें हमेशा डांटे डपटे तथा दंडित करते रहें ।
ऐसा करने से उनके कोरे मन में यह बात बैठ जाती है कि वह बुरे हैं। वे अपना आत्म गौरव खोने लगते हैं । नशीली औषधीय के सेवन करने वाले आत्म गौरव के जगते ही उनके अंदर प्रचंड शक्ति, आत्मविश्वास, इच्छा शक्ति, स्व नियंत्रण एवं सुरक्षा का भाव पैदा होता है। जिससे वह सहज में नशा करना छोड़ देते हैं।
भाग- ६४
करने को तो हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं लेकिन हमारे मनो मस्तिष्क में पाखंड और अंधविश्वास ऐसा भरा हुआ है कि जिसे निकालना बहुत ही कठिन है। जब कोई भी व्यक्ति इनके पाखंडों एवं अंधविश्वासों से पर्दा उठाने का प्रयास करता है तो वह उसे धर्म विरोधी कहने लगते हैं।
ऐसे ही एक बार बेंगलुरु विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉक्टर नरसिंहम की अध्यक्षता में एक कमेटी ने जब सत्य साईं बाबा की वास्तविकता को जानने के लिए चैलेंज किया तो बाबा की बौखलाहट , घबराहट और परेशानी बढ़ गई। बाबा ने उन्हें कुत्ता चींटी तक कह दिया। यही नहीं उन्होंने कहा कि कम अक्ल वाले व्यक्ति को अधिक अक्ल वाले व्यक्ति की जांच करने का कोई अधिकार नहीं है।
यह तो एक प्रकार से अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने की बात हुई। यदि सत्य साईं बाबा को लगता है कि कुलपति महोदय कम अक्ल वाले हैं तो उन्हें क्यों वे नहीं समझा पा रहे हैं।
यदि सत्य साइन बाबा दैवीय शक्ति के माध्यम से घड़ियां अंगूठियां और ट्रांजिस्टर जैसी चीज पैदा कर सकते हैं तो इस माध्यम से अन्य मशीन ट्रैक्टर क्यों नहीं निकाला जा सकता है?
अक्सर देखा गया है कि समाज में धर्म के नाम पर अंधविश्वास एवं पाखंड फैलाने वालों के प्रति जब कोई विचारक, चिंतक और समाज सुधारक आवाज उठाता है तो उन्हें यह कह कर चुप कराने की कोशिश की जाती है कि यह लोग धर्म के विरोधी है । इनका काम ही है धर्म गुरुओं को बदनाम करना।
अधिकांश धर्माचार्य अमीरों के गुलाम होते हैं। जिसके कारण वह गरीबों को समझाते हैं कि तुम्हारी गरीबी का कारण भाग्य, नियत, प्रारब्ध आदि है जिसे तुम्हें भोगने के बाद ही मुक्ति मिल सकती है। यही कारण है कि गरीब व्यक्ति इन्हीं धर्म गुरुओं के कारण कभी अमीरों के शोषण का विरोध नहीं कर पाता है।
अधिकांश धार्मिक कहानियां कल्पना पर आधारित होती है। जिसका वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई हाथ नहीं होता है। इन कहानियों का मूल उद्देश्य जनता को धर्म भीरू बनाकर अपना उल्लू सीधा करना होता है। यही कारण है कि इन कहानियों में दान पुण्य आदि की चर्चा अधिक रहती है।
कहां जाता है कि यदि किसी बात को हजारों बार कहा जाए तो वह सत्य होने लगता है ऐसी कुछ बातें धर्म के साथ भी है। धार्मिक कथाओं के माध्यम से कथाकार सामान्य जनता को कल्पना लोक की उड़ानों में उड़ाते रहते हैं।
अधिकांश धर्माचार्य जनता को डराते रहते हैं कि यदि हमारी बात नहीं मानोगे तो नरक में भयंकर कष्ट भोगने होंगे। लोहे के जलते हुए खंभे में बांधा जाएगा। गरम तेल के कढ़ाई में उबाला जाएगा। टट्टी पेशाब खून आदि गंदी वस्तुओं से भरी नदी में फेंके जाओगे। लंबे समय तक सूली पर चढ़े रहोगे।
कुछ धर्मो में जिन्होंने यह माना कि मेरा ही धर्म श्रेष्ठ है । जो इस धर्म को नहीं मानता है वह काफिर है। उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने हिंसा लूट आदि को धर्म का बाना पहना कर ऐसी मार काट हजारों वर्षों से मचाई की मानवता की रूहें कांप गए।।
आखिर किसी की हत्या करना धर्म है तो अधर्म आखिर क्या है? ऐसे लोगों ने नर हत्या में कोई संकोच नहीं किया? नादिर शाह, तैमूर लंग, बख्तियार खिलजी आदि क्रूर सामंत तलवार लेकर भारत चीन आदि देशों की ओर चल पड़े और कत्ले आम करते गए ।
उन्होंने ऐसी खून की होली खेली और खेलते आ रहे हैं कि मानवता कांप जा रही हैं। उनके मन में यह गहराई के साथ बैठ गया था कि खुदा हमारी मदद कर रहा है क्योंकि हम उन लोगों को मार रहे हैं जो उसे स्वीकार नहीं करते। यही मनोवृति आज भी बनी हुई है।
कहा जाता है कि इस संसार में जितने लोग सत्य , प्रेम, न्याय, भाईचारा, सदाचार की दुहाई देने वाले धार्मिक दंगों में लोग मारे गए होंगे उतने तो दुर्भिक्ष में भी नहीं दुनिया में मरे होंगे।
भाग -६५
वर्तमान समय में वर्तमान समय में संपूर्ण समाज विभिन्न प्रकार के अंधविश्वास एवं पाखंड में डूबा हुआ है। अभी हाथरस में एक सत्संग में भगदड़ होने से लगभग १२३ मर गए। आखिर इस भगदड़ का जिम्मेदार कौन है? कौन इस प्रकार के अंधविश्वासों को बढ़ावा दे रहा है। इसे हमें समझने एवं जानने की आवश्यकता है ।
आखिर पीढ़ी दर पीढ़ी,
कौन भारत की महिलाओं को बता रहा है?
गंडे ताबीज बच्चों को बांधों?
सदियों से आखिर कौन?
झाड़-फूंक के जंजालो में,
महिलाओं को कौन फंसा रखा है?
आखिर कौन बना रहा है अंधविश्वासी ?
आखिर कौन है जिम्मेदार?
हाथरस जैसे घटनाओं का,
क्यों लोग,
ऐसे पाखंड फैलाने वाले के पास,
इस वैज्ञानिक युग में भी,
अमृत बूंद पाने के लिए,
जान गंवा रहे हैं,
सैकड़ों महिलाओं बच्चों की मौत का,
आखिर कौन ज़िम्मेदार हैं?
भारत में ही आखिर क्यों?
इतना अंधविश्वास फैला हुआ है?
क्यों लोग दुखों का कारण,
दैवीय शक्ति को मानते हैं?
अंधविश्वासों को आखिर कौन बढ़ावा दे रहा है?
क्यों लोग अपने को अंधविश्वासों से मुक्त होना नहीं चाहते हैं?
आखिर भारत में ऐसा क्यों होता है कि,
यहां अंधविश्वासो को मानने वाले की संख्या बढ़ती जा रही है,
.
.
इन यक्ष प्रश्नों का उत्तर कौन देगा?
जब तक हम सामान्य जनता के मन से इस प्रकार के अदृश्य तत्वों पर विश्वास मिटा नहीं देंगे इस प्रकार की भीड़ को हम रोक नहीं सकते हैं।
कुछ दिनों तक हो हल्ला होता रहता है। उसके बाद सब शांत हो जाते हैं।
मेरे देखें ऐसी घटनाओं में लोग कभी अपने गुरुओं के प्रति विरोध नहीं दर्ज करते हैं। उन्हें भय रहता है कि यदि हम संस्थान के विरोध में दर्ज करेंगे तो हमारा सब कुछ नष्ट हो जाएगा । कहीं गुरु का श्राप न लग जाए इसलिए अपनों की जान गंवाने के बाद भी लोग कुछ नहीं किया करते है।
यही कारण रहा है जब ऐसी घटनाएं होती हैं तो दो-चार दिनों तक हो हल्ला मचाया जाता है। उसके बाद सब शांत हो जाते हैं। पुनः भीड़ इकट्ठा होती है । फिर ऐसे ही लोग भीड़ में मारे जाते हैं। फिर हो हल्ला मचाया जाता है फिर वही शांति आ जाती है।
आखिर कौन युगो युगो से जनता के मन में डर भर रहा है। यह हमें समझने की आवश्यकता है। क्यों लोग आस्था के नाम का इतने डर भय में जी रहे हैं।
वह कौन लोग हैं जिनकी दाल रोटी जनता के भय पर टिकी हुई है। कौन ऐसा व्यक्ति है जो कि हजारों वर्षों से जनता को आस्था के नाम पर डरा रहा है?
क्यों लोग ऐसे पाखंडी बाबाओं को भगवान से ऊपर मांग बैठे हैं। इस विषय पर गहन शोध करने की आवश्यकता है।
भाग ६६
वर्तमान समय में देखा जाए तो संपूर्ण देश में पाखंड अंधविश्वास का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। जो जितना ही समाज को मूर्ख बनाता है उतना ही ज्यादा पूज्य माना जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है।
आइए एक कविता के माध्यम से थोड़ा विचार करते हैं।
मैं हैरान हूं,
आखिर क्यों लोग?
मौत का जिम्मेदार,
बाबा को नहीं मान रहे , में
क्यों लोग मात्र ,
सेवादार और आयोजकों को, दोषी ठहरा रहे हैं।
आखिर कौन सा डर ,
बाबा को दोषी मानने से ,
रोक रहा है ।
कहीं बाबा श्राप न दे-दे ,
जिससे उनका परिवार,
नष्ट हो जाएगा।
क्यों लोग?
बाबा से नहीं ,
प्रशासन, सेवादार से ही नाराज हैं, क्यों अपनों के खोने का गम भी, उनकी आस्था को,
डिगा नहीं पा रहा है ।
कहते हैं कि,
यदि किसी झूठ को ,
हजारों बार बोला जाएं तो,
वह सत्य होने लगता है ,
धर्म के साथ में ,
हजारों वर्षों से ,
जनता के मन में ,
धर्म गुरुओं द्वारा ,
स्वर्ग -नरक ,पाप -पुण्य का डर, बैठा हुआ है कि यदि ,
गुरु पर अविश्वास किया तो,
नरक भोगोगे ,
तुम्हें पाप लगेगा ,
आस्था पर उंगली उठाने पर ,
कीड़ों की तरह मरना होगा,
यही डर भय व्यक्ति को,
अपनों की लाश देखते हुए भी, शंका नहीं कर पा रहा है कि,
गुरु भी दोषी हो सकता है ,
वह मनुष्य है भगवान नहीं।
आखिर क्यों लोगों को ,
यह सीधी सी बात ,
समझ में नहीं आ रही है ।
आखिर कब तक लोग,
जनता की आस्था से ,
यूं खेलते रहेंगे ।
आस्था कब तक,
जनता की जान लेती रहेंगी ,
कब तक मनुष्य को,
आस्था का भय दिखाकर,
उसकी जिंदगी के साथ ,
खेल खेला जाता रहेगा।
मैं हैरान हूं ,
मनुष्य के आस्था के साथ,
कब तक खिलवाड़ होता रहेगा, आखिर क्यों लोग ,
बाबा के चरण धूल ,
लेने के लिए ,
सड़कों पर दौड़ पड़े ,
क्यों अपनों के खोने के बाद भी, उनकी आस्था डिग नहीं रही है, क्यों लोग सड़कों पर उतर कर, बाबा को दोषी नहीं ठहरा रहे।
गरीबों के साथ कब तक,
ऐसा मौत का नंगा नाच,
खेला जाता रहेगा।
गरीबों के जान की कीमत ,
कब तक पैसों से,
तौला जाता रहेगा ।
क्या लाख 2 लाख देकर,
किसी का जीवन,
लौटाया जा सकता है ।
कुंभ, महाकुंभ , समागम में,
आखिर गरीबों की ही भीड़ ,
क्यों जुटती है ?
लाखों की भीड़ जुटाना से,
जनता को क्या लाभ होगा? उनके जनधन को,
क्यों पानी की तरह ,
बहाया जा रहा है ।
आखिर कब तक,
गरीबों के भीड़ जुटाकर,
कीड़े मकोड़े की तरह,
मारा जाता रहेगा ।
कोई क्यों बाबा कह देता है कि, उसके चरणों की धूल रखने से, कष्ट मिट जाएंगे,
ऐसी बातों को,
सत्य मान कर ,
चरणों की धूल पाने के लिए, अपनी जान गवाते रहेंगे ।
आखिर यह विश्वास ,
जनता के मन में ,
कौन भरता है ?
क्यों लोग ऐसी बातों में ?
विश्वास कर लेते हैं ।
क्यों?
इस वैज्ञानिक युग में भी ,
धार्मिक अंधविश्वास में फंसकर, अपनी जान लोग गवा रहे हैं ।
क्यों लोग ?
महंगाई -बेरोजगारी ,
दुख पीड़ा का कारण ,
सरकार की नीतियों को ,
नहीं मानते हैं।
क्यों मंदिर मस्जिद दरगाह में ,
दुख को मिटाने जाते हैं ।
गरीबों की गरीबी का कारण, सरकारों की गलत नीतियां हैं ।क्यों लोग कभी?
सरकारों से प्रश्न नहीं पूछते ?
क्यों गरीबी भुखमरी ,
भाग्य में लिखा मानकर ,
सहन कर जाते हैं ।
आखिर सैकड़ो वर्षों से,
गरीबों के गरीबी ,
क्यों नहीं मिट रही हैं।
कौन है जो ?
गरीब का हिस्सा खा रहा है।
क्यों सरकार?
ऐसी नीतियां बनाती है ,
जिसमें अमीर और अमीर होते जा रहे हैं,
गरीब नून रोटी को तरस रहे हैं, कहीं गरीबी भुखमरी तो नहीं, बाबाओं के सत्संग में ,
भीड़ बढ़ा रही है।
क्यों चरण धूल से ही ,
भुखमरी लोग मिटाना चाहते हैं।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि ऐसी घटनाओं में सरकार भी कुछ नहीं कर पाती है क्योंकि उसके वोट बैंक का भी चक्कर यहां है। यही कारण है कि वह अपना वोट बैंक नहीं खराब करना चाहती है। जिसके कारण भी अंधविश्वास एवं पाखंड की जड़े और फलती फूलती रहती हैं।
यही कारण है कि हजारों लोग आज स्वयंभू भगवान बनते फिर रहे हैं।
भाग ६७
हमारे धर्म ग्रंथों में एक बहुत बड़ी शिक्षा छुपी होती है ।लेकिन हम उसे मात्र पूजा पाठ तक सीमित रखते हैं । उसमें छुपे रहस्यों को कभी समझने का प्रयास नहीं करते हैं।
बचपन से ही मैं हनुमान जी महाराज का भक्त रहा । एक दिन मैंने हनुमान चालीसा पढ़ते हुए उसमें सुरसा नामक राक्षसी का वर्णन पड़ा तो मुझे बड़ा अच्छा लगा। यह सुरसा बाधा का प्रतीक है। जीवन में हम जब श्रेष्ठ कार्य करने चलते हैं तो अनेकानेक लोग बाधाएं उत्पन्न किया करते हैं ।
अब हमें चाहिए कि हनुमान जी की तरह उन बाधाओं को खत्म करके अपने लक्ष्य की तरफ कदम आगे बढ़ाएं । जीवन में आने वाले ऐसी बाधाओं से बिना घबराए उन बाधाओं से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
जिस प्रकार से हनुमान जी महाराज ने जब देखा की सुरसा रूपी बांधा से बचने का क्या उपाय हो सकता है क्योंकि उनके पास समय भी कम था । यदि ज्यादा उलझते तो लक्ष्मण के प्राण बचाना मुश्किल था । ऐसे में उन्होंने बुद्धिमानी से काम लिया। सुरसा के अहंकार को बढ़ाते रहे। फिर अत्यंत विनम्र होकर अर्थात उसके मुख पास में जाकर निकल आए और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ गए ।
हमें भी जीवन में जब भी ऐसे लक्ष्य की ओर बढ़ना हो तो जिसमें समय सीमा कम हो और कोई बाधा उत्पन्न करना चाहे तो उस समय बुद्धिमानी के साथ उससे अनावश्यक ना उलझते हुए उसकी महानता का बखान करते हुए विनम्र बनकर अपने लक्ष्य की ओर केंद्रित रहना चाहिए।
जीवन है तो बाधाएं तो आती जाती रहेंगी । बाधाओं से हम कब तक उलझते रहेंगे । बाधाओं से उलझना किसी समस्या का समाधान नहीं है। इसलिए हनुमान जी महाराज से शिक्षा लेते हुए बाधाओं को खत्म कर जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ते जाना चाहिए।
अधिकांश लोगों को देखा गया है कि बाधाएं आने पर वह जीवन लक्ष्य को भूलने लगते हैं। बचपन में हम बड़े-बड़े ख्वाब पालते हैं कि ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे लेकिन जब बाधाएं आती है तो वह निराश हो जाते है और धीरे-धीरे लक्ष्य आंखों से ओझल सा हो जाता है । जिन्होंने हनुमान जी की तरह बाधाओं को जीत लिया एक न एक दिन वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेते हैं।
मनुष्य को चाहिए कि वह कभी भी बाधाओं से घबराएं नहीं बल्कि उससे मुक्त होने का उपाय सोचें।
वर्तमान समय में हमें इन धार्मिक ग्रंथो से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। हमारी हजारों वर्षों की गुलामी का यही कारण रहा है कि हम इन धार्मिक ग्रंथो से कभी शिक्षा नहीं लेते।
यदि हम इससे शिक्षा लिए होते तो आज हमारी यह दुर्गति ना होती। भारतीयों को यही कारण है कि जो आया वही हांकता रहा। और हम लात घूसा खाते रहे फिर भी यही घमंड रहा कि हमारी संस्कृति बहुत ही उच्च है।
भाग -६८
आज हम समाज में व्याप्त भूत- प्रेत विषय को और गहराई के साथ समझने का प्रयास करते हैं-
आयुर्वेद में भूत शब्द का अर्थ प्राणी ग्रहण किया गया है। प्राणी अर्थ में प्रयुक्त भूत शब्द ‘भूति’ में ‘अच्’ के सहयोग से बना है जिसका अर्थ प्राणी( एनिमल ऑब्जेक्ट ) होता है ।
भूत शब्द का प्रयोग आयुर्वेद में सामान्यतया सृष्टि के मौलिक घटक के रूप में किया जाता है। जड़ और चेतन सभी प्रकार की रचनाओं में भूतों की भूमिका होती है। यह संख्या में पांच हैं आकाश , वायु , अग्नि, जल तथा पृथ्वी। अतः इन पांचो को पंचमहाभूत कहा जाता है।
यहां भूत शब्द की उत्पत्ति सत्तायाम अर्थ रखने वाले ‘भू’ धातु से हुई है। जब भू धातु में ‘क्त’ प्रत्यय लगता है तो भू शब्द बनता है । भूत शब्द पंच महाभूत के लिए व्यवहार किया जाता है। जिससे सृष्टि रचना होती है तथा प्रत्येक कार्य द्रव्यो के कारणीभूत होते हैं।
आयुर्वेद में भूत शब्द का एक अन्य अर्थ है देव योनी विशेष ( पिसाचादी) ग्रहण किया गया है। यह भूतादि जिस तरह की रचना चाहते हैं उसी का रूप अपने को बना लेते हैं। या जो पसंद करते हैं वैसे ही रचना कर डालते हैं। अतः इन्हें भूत कहते हैं तथा यह कार्य देवों द्वारा संपन्न होने के कारण इन्हें देव योनी कहा गया है।
सुश्रुत संहिता में कहा गया है कि आयुर्वेद के जिस अंग में देव, असुर , गंधर्व , पितृ , पिशाच, नाग, मन की चिकित्सा , शांति कर्म , बलि ,आदि ग्रह के समन वाले उपाय की जाए उस विद्या का नाम भूत विद्या है।
यहां पर भी भूत शब्द का अर्थ है देव योनी विशेष या ग्रह है।
यह सभी ग्रह मानव के मन को ही ग्रसित करते हैं। अर्थात इन ग्रहों द्वारा उत्पन्न रोग का अधिष्ठान मन ही है। इसका संबंध शरीरगत् भावों से नहीं है।
ग्रह का शाब्दिक अर्थ है ग्रहण करना, पकड़ना, ग्रस लेना, बंदी बना लेना आदि। यह भूतादि मनुष्य को पकड़ते हैं या बंदी बना लेते हैं ।यह अपने आप पर से स्व नियंत्रण समाप्त हो जाता है । या मनुष्य को अपने व्यवहार से युक्त कर देते हैं ।इसलिए इन भूतादि को ‘ग्रह’ कहा जाता है।
सामाजिक लोक मान्यता में आज भी बहुत से रोगों के कारण रूप में भूत प्रेत आदि माने जाते हैं । विशेष कर बाल रोगों में । इस स्थिति में अभिभावक किसी चिकित्सक के पास न जाकर झाड़ फूंक को करने वाले किसी ओझा के चक्कर में पड़े रहते हैं। जिसके परिणाम स्वरुप बालक की अकाल मृत्यु हो जाती है। जिसे अभिभावक दैविक प्रकोप मानकर संतोष कर लेते हैं।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि भूत प्रेत आदि एक प्रकार का मानसिक विकार है। जिसे उचित प्रकार से चिकित्सा करने पर ठीक हो जाता है। अशिक्षा के कारण इसे लोग ऊपरी बवाल समझ लेते हैं।
जिसके कारण समस्या और बढ़ती जाती है। यदि किसी धंधैबाज ओझा सोखा सियाने आदि के पास जाते हैं तो वह किसी प्रकार का भी रूप हो उसे भूत प्रेत आदि का चक्कर मानकर ओझाई सोखाई आदि करने लगते हैं ।
जिसके कारण समस्या और बढ़ती जाती है । इन चक्करों में जब एक बार व्यक्ति फसता है तो फंसने के तो रास्ते दिखाई पड़ते हैं लेकिन निकलने के कोई रास्ता नहीं दिखता है।
इसलिए मनुष्य की समझदारी इसी में है कि इस प्रकार के किसी भी झाड़ फूंक आदि से दूर रहते हुए ऐसे रोगी की उचित चिकित्सा करायें।
भाग- ६९
मनुष्य के जीवन में यदि किसी स्त्री का सबसे ज्यादा प्रभाव होता है तो वह मां होती है। एक प्रकार से प्रत्येक बालक मां की ही प्रतिकृति होता है। जैसा मन होती है वैसा ही बालक होता है। यही कारण है कि कुछ वर्षों पूर्व यदि किसी लड़की को देखने जाते थे तो कहते थे इसकी मां को देख लो बेटी को देख लिया।
अक्सर जीवन में माता-पिता की याद तब आती है जब वह हमसे दूर चले जाते हैं। जब तक वे हमारे नजदीक रहते हैं हमें उनकी याद नहीं आती है। सच्चे अर्थों में माता-पिता का महत्व तभी समझ में आता है।
न जाने क्यों
अम्मा याद आईं,
मेरे पास कोई ऐसा भी नंबर होता,
जो उससे भी बात हो पाती ,
उस देश का पता होता,
जहां वो चली गई है,
तो जरूर उसे,
एक चिट्ठी लिखता,
उसे लिखता कि,
तेरे बिन यह जिंदगी,
बड़ी सूनी सूनी सी हो गई हैं मां ।
उसे लिखता कि ,
तेरे जाने के बाद
तेरी बहू भी,
तेरी तरह बिन भोजन किए,
कभी भूखे पेट नहीं जाने देती हैं।
बताता कि,
तेरे जाने के बाद,
एक प्यारी सी गुड़िया ने,
जन्म लिया है,
जो आपको बहुत याद करती हैं,
बाबू तो तेरी सूरत,
हर बूढ़ी मां में देखता है,
कही वह हमारी माई तो नहीं हैं।
जिंदगी में आज सब कुछ है,
बस तेरी सूरत नहीं दिखाई देती हैं मां।
मैं लिखता कि,
तेरे जाने के बाद,
छोटी दीदी की मांग सूनी हो गई,
रो रो कर,
उसके चेहरे का रंग उतर गया है।
उसे लिखता कि,
भैया, भाभी, बच्चे सब
बहुत याद करते हैं।
उसे लिखता कि,
जिस आशियाने को बनाने में,
तूने सारी जिंदगी लगा दी थी,
जिसका गृहप्रवेश देखें बिना,
तू चली गई,
वह विकास के नाम पर,
टूटने वाला है।
उसे लिखता कि,
जब से तू गई है,
कुछ कुछ सुधरने का,
प्रयास कर रहा हूं -मां!
जब जब भी जीवन में,
दुःख बढ़ जाता है,
तू ही याद आती है मां।
मां के जीवन पर एक संस्मरण याद आता है। एक बार मैं गांव में घर के बाहर लगे पौधों से फूल की कलियां तोड़ लाया। मां ने देखा तो कहां – ‘ यह क्या किया?
बेचारी इन कलियों को मां से ठीक खुराक भी नहीं मिली और तूने तोड़ लिया जैसे किसी बच्चे को उसकी मां से अलग कर दो तो वह कैसे जिएगा वैसे ही यह कलिया मर जाएंगी। फिर तूने चोरी की। बिना पूछे किसी की चीज नहीं लेनी चाहिए ।”
और फिर मैंने यह गलती कभी नहीं की। आज भी भगवान को दीपक अगरबत्ती जलाकर पूजा कर लेता हूं । फूल जल्दी नहीं चढ़ाता और कलियों को कभी नहीं तोड़ता। कितनी अलौकिक है मां की दृष्टि । पेड़ पौधों में भी जीवन दर्शन देखा करती थी।
भाग -७०
प्रत्येक मनुष्य आज एक मुखौटा लगाए जी रहा है। वह होता कुछ है। दिखता कुछ है और करता कुछ है। यही कारण है कि मनुष्य का जीवन आज विभिन्न प्रकार की परेशानियों में गुजर रहा है।
पहले के लोग बहुत सरल एवं सहज थें। जो दिखते थे वैसा ही कहते थे। उनकी कथनी और करनी में ज्यादा अंतर नहीं था। लेकिन वर्तमान समय में मनुष्य की कथनी और करनी में जमीन आसमान का अंतर आ गया है। यही कारण है कि लोग एक दूसरे का विश्वास करना छोड़ रहे हैं।
हर मानव आज,
मुखौटा लगाए हुए हैं ,
सामने से वह हंसता है ,
वाह वाह भी करता है,
फिर भी न जाने क्या ?दर्द छुपाए रखता है ,
उसके आंसू बहना चाहते हैं, लेकिन सभ्यता की आड़ में,
खो जाता है।
दूसरी ओर ,
ऐसे भी इंसान है,
जिनकी शरीर पर ,
मांस चढ़ती है तो ,
हजारों की मांस उतर जाती है। इन मांसल सी मुस्कुराहटों ने,
न जाने कितनों के,
मांस उतार लिए ।
सभ्यता जितनी बढ़ी ,
मनुष्यता मरने लगी ,
मनुष्य रूप में बन गया दानव, जिसका आंचल अब ,
पड़ोसी के दुख से,
नहीं होता दुःखी ,
इस अपनों के चक्कर में ,
न जाने कितने घर बर्बाद किया, सारे संसार को यदि ,
मान सके हम अपना,
तब फिर होगी,
चारों ओर,
खुशियां ही खुशियां ,
सब होंगे अपने,
और हम होंगे सबके।
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने चेहरे पर लगाए हुए मुखौटे से स्वयं को मुक्त करें। जो जैसा है उसी रूप में दिखाई दे। तभी वह अपना मान सम्मान एवं इज्जत को बचा पाएगा।
भाग- ७१
वर्तमान समय में मैनेजमेंट के गुण सीखाने के लिए बड़े-बड़े इंस्टिट्यूट बन गए हैं । परंतु सबसे बड़ी इंस्टीट्यूट तो घर की मां है। जिससे यदि हम मैनेजमेंट के गुण को सीख सके तो जीवन सफल हो सकता है।
आधुनिक माताएं जहां कारपोरेट जगत में सफलता के परचम लहरा रही हैं वहीं परिवार का मैनेजमेंट भी बखूबी निभा रही हैं। एक कामकाजी मां को यदि ध्यान से उसकी दिनचर्या का अवलोकन करें तो हम समझ सकते हैं की मां स्वयं में एक चलती फिरती यूनिवर्सिटी ही है।
बच्चों को उठाना , उन्हें स्कूल जाने के लिए तैयार करना, पति के ऑफिस के टिफिन की तैयारी के साथ ही स्वयं को उसी के साथ आफिस जाने को तैयार करते रहना, दिनभर ऑफिस वर्क करके आने पर भी पति तो थकान का बहाना करके बिस्तर पकड़ लेता है, वही मां कितनी भी थकीं हुईं क्यों न हो फिर भी पति के लिए भोजन बनाना,बच्चों की फरमाइशें पूरी करती है। यह सब कार्य वह अपार धैर्य के साथ करती है ।
विपरीत परिस्थितियों में वह कभी भी विचलित नहीं होती। तनाव में जहां सामान्य पुरुष आपा खो देता है । मां कभी भी नाराज नहीं होती । यही कारण है कि आत्महत्या करने में पुरुषों की अपेक्षा मां की संख्या शून्य हैं ।
पति की मृत्यु हो जाने पर भी किस प्रकार से बच्चों को सही मार्ग दिखाती है मां इस विषय पर प्रबंधन की एक पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है । किसी भी मां का जीवन एक सफल मैनेजमेंट गुरु के जीवन से किसी भी रूप में कम नहीं आंका जा सकता है।
यही कारण है कि मां को ईश्वर का साकार रूप माना जाता है। जिसको बचपन में मां का प्यार नहीं मिलता उसकी जिंदगी सूनी सूनी रह जाती है।समाज में फैली घृणा, द्वेष , नफरत की जड़ को मां की ममता भरी छांव में ही आनंद , शांति , प्रेम, करुणा से बदला जा सकता है।
आज स्त्री तो है लेकिन मां नहीं है। मां जिंदगी का वह अनोखा तोहफा है, जिसके नजदीक आने से सहज में शांति का सौंदर्य बरसने लगता है।
आधुनिकता की लहर में आज स्त्रियां अपने वजूद को भूलतीं जा रही हैं। आज माताओं के पास बच्चों के लिए प्रेम भरे दो शब्द कहने की भी फुर्सत नहीं है।
आज हम हम गांधी , शिवाजी, सुभाषचंद्र बोस, विवेकानंद जैसी संतानों की कल्पना तो करते हैं परंतु पुतलीबाई , जीजाबाई जैसी मां तो हो।
सड़े गले बीज से कैसे सुडौल वृक्ष की कल्पना की जा सकती है। वर्तमान समय में यदि युवा पीढ़ी का चारित्रिक पतन हो रहा है तो उसका मूल कारण हमारे माता-पिता एवं गुरुओं की कमी है।
मां के गर्भ से ही जब बच्चों को घृणा, द्वेष , नफरत , ईर्ष्या पिलाया जा रहा हो तो कैसे श्रेष्ठ एवं योग्य पीढ़ी के कल्पना की जा सकती है। सीखाने से जब पेड़ पौधे की प्रकृति बदली जा सकती है तो मनुष्य की क्यों नहीं बदल सकती हैं।
आवश्यकता है अभिभावक अपनी गलती को समझें । बच्चों को कीमती खिलौने, मोटर गाड़ियों के साथ ही मां-बाप का प्यार भी चाहिए इसे ना भूले।
भाग -७२
मां को ईश्वर का साकार रूप माना गया है। कितना सुंदर शब्द जिसके उच्चारण मात्र से ही मातृत्व प्रेम वात्सल्य रूपी अमृत झरने लगता है । रक्त के हर बूंद से शिशु के जेहन को सींचती हुई 9 माह गर्भ में धारण कर सुरक्षा का घेरा प्रदान करती है।
शिशु की मधुर किलकारी की झलक पाने के लिए दुःखों ,क्लेशों को मुस्कुराते हुए सहन करती हैं। अजन्मे शिशु की श्वास के साथ अपनी सांसों को एकाकार करती ,संसार में मोतियों सी चमकती हैं मां।
मां का एहसास जीने का सहारा हैं, मां प्रेम है, दया है, करुणा है ,ममता है ,तो दुनिया के शब्दकोश में जितने भी सुंदर शब्द हैं उनसे भी सुंदर है मां । मां शब्दातीत है ,संसार का कोई भी व्यक्ति मां के अहसानों को नहीं चुका सकता है।
मां का नाम निराश व्यक्ति के जीवन में आशा का प्रकाश है। मां क्लांत ,अशांत, तथा थके पथिक के लिए शीतल छायादार पेड़ की तरह विश्राम स्थली है। मां की गोद स्वास्थ्य, सुख , समृद्धि ,शांति समता एवं सौजन्य की आहट है।
अपने दिल का दरवाजा खोले, मां की दिव्य ऊर्जा का प्रवेश होने दे। मां प्रेम की भाषा है, जो हर प्रांत देश-विदेश में बोली जाती है सद्भावना संदेश है। मां की ममता गैरों को अपना बनाने का गुरु मंत्र है। मां की गोद एक ऐसी उर्वरा भूमि है जहां प्रेम के बीच अंकुरित होते हैं। करुणा के फूल खिलते हैं। व स्नेह सुरभि आती है।
मां का प्यार मिले तो लड़खड़ाती जिंदगी भी हंसी से खिल जाती है ।मौत भी हिल जाती है। मां की सेवा ही प्रभु की सच्ची सेवा है ।घर की मां को जो रूलाएं और मंदिर की मां को चुनरी उड़ायें तो याद रखना मंदिर की मां तुझ पर खुश तो नहीं खपा जरूर होगी।
मां से बड़ा कोई धर्म नहीं है मां से बड़ी कोई इबादत नहीं है मां प्रार्थना है एक दिव्य आराधना है पावन अर्चना है, अनोखी उपासना है, मां अदि्वतीय अरदास है ,प्यास की तृप्ति है, अलौकिक दीप्ती है , जीवन की प्यास है, निराशा रोगियों की आस है, परम प्रकाश है, मधुर हास्य है, मां की सेवा में ही चरम ज्ञान और विज्ञान है, मां की छांव में विचार विलीन हो जाता है, अहंकार मिट जाता है, जीने का अर्थ संपूर्ण हो जाता है , मन मंदिर में विराजमान प्रभु की स्मिति मुस्कान है।
मां आनंद एवं आरोग्य की संजीवनी है। मां की ममता अद्भुत संवेदना है। जितना बांटो उतना ही बढ़ती जाती है । जब भी हम अकेले हो, अकेलेपन का अभिशाप ढों रहे हो, कोई संगी साथी ना हो, हर तरफ अकेलापन एवं उदासी छा जाती हो, उस समय भी मां एक मित्र के भांति सदैव साथ रहती हैं, हमारी मार्गदर्शक बनकर आती है। अलौकिक आलोक बनकर जीवन के पथ को प्रशस्त करती है, मां की ममता की कोई कीमत नहीं है, फिर भी वह बेश कीमती है , यह मोल नहीं मिलती, फिर भी अनमोल है।
मां की ममता ना तो भीख में, ना खरीदने से, ना उधर मांगने से, और ना चुराने से मिलती है। हर किसी को मिलती है। हम अदि्वतीय हैं क्योंकि हमारे पास मां है ।
इसीलिए हम अमृत पुत्र हैं। मां की ममता कभी खत्म नहीं होती हैं। वह आज भी अहिंसा के साथ महावीर के चेहरे पर विराजमान है, करुणा के साथ बुद्ध को दुलार रही हैं, प्रेम का अमर गीत बनकर कृष्ण की बांसुरी से बह रही है , मां के साथ धोखेबाजी एवं देश के साथ गद्दारी कभी ना करें।
भाग ७३
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में प्रेम की यादें सदैव बनी रहती है यह यादें हैं कि भुलाए नहीं भूलती । यादें ऊर्जा होती है, शक्ति होती हैं, जिसके सहारे मनुष्य पहाड़ जैसा जीवन भी सहज में पार कर जाता है।
आज मौसम बड़ा रंगीन था। न जाने क्यों यह मन यादों में खोने लगा। ऐसा लग रहा था कोई है जो हौले-हौले हवा के झोंकों की तरह मन के तार को झंकृत कर रहा है।
बरसात के सुहाने झोंके में,
न जाने वो क्यों याद आते हैं,
उनका यू शर्माना,
यूं लजा कर ना ना करना ,
फिर मान जाना ,
सारे हथियार छोड़ देना,
आहों ही आहों में,
सब कुछ बयां कर जाना।
सांवली सूरत में लगती है ,
जैसे कान्हा के रूप हैं वे,
बातों को सत्य रूप में ऐसे कहतीं ,
जैसे सत्य का स्वरूप हों वे,
कभी कोई बात डर से छुपा ले तो, बाद में माफी मांग लेना,
कहना कि मैं तो भूल ही गई थी,
फिर आंचल से चेहरा छुपाने लगना ,
लगता जैसे लज्जा की मूरत है वो।
यादों में खोए हुए कब झपकी आ गई पता नहीं चला। यह यादें भी बड़ी अजीब चीज होती है। मनुष्य कितना उम्र का हो जाए लेकिन यादें हैं कि उसे पुनः जवां बना देती है।
ऐसा लगता है कि जवां दो दिलों की धड़कनें बढ़ गई हो। कहते हैं कि अल्हड़पन का प्रेम प्रेम होता है बाकी तो सब दुकानदारी चलती रहती है जीवन भर। शादी और प्रेम में कोई संबंध नहीं है। शादियां तो लोग हैसियत देखकर करते हैं।
वहां किसी को किसी से प्रेम की जगह नहीं बचती हैं। यही कारण है कि अधिकांश पति पत्नी बस एक दूसरे को ढोते हैं। यह ढोना एक मजबूरी बन जाती हैं।
शेष अगले अंक में
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )