एक शिक्षक की आत्मकथा
एक शिक्षक की आत्मकथा

भाग : 1

मैं बचपन से अंत: प्रवृति का व्यक्ति रहा हूं। जिसने बोल दिया तो बोल दिया मैं तो चुप रहना मैं ज्यादा धमाचौकड़ी भी नहीं करता था। हां लेकिन जब मुझे कोई परेशान करता था तो मैं उसकी धुनाई करने से भी बाज नहीं आता था ।

गांव में उस समय तक एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव बहुत था। आपस में लोग एक दूसरे के सहयोगी थे ।पड़ोस में यदि कहीं कोई वारदात को भी जाती थी तो सभी आपस में मिलकर उसे निपटाने का प्रयास करते थे। गांव में पंचायत थी जिसका एक सरपंच चुना जाता था ।

जिसे चौधरी कहते थे ।एक प्रकार से ही वह गांव का मुखिया होता था ।गांव के छोटे-छोटे झगड़े वह खुद निपटा देते थे ।कोर्ट कचहरी बहुत कम लोग जाते थे।

शहरों में जहां यह भी नहीं मालूम के पड़ोस में कौन रहता है जबकि लोग वर्षों से रह रहे होते हैं ।वही गांव में लोगों को एक दूसरे की पूरी खबर रखते थे । कुछ भी बात हो जाए पूरा गांव उमड़ पड़ता था कि क्या बात हुई बच्चे बड़े का आदर करते थे गांव के बड़े बुजुर्ग यदि किसी को गलत रास्ते पर जाते देखते थे तो उसे रोकते थे । वे इसे अपनी जिम्मेदारी समझते थे ।अपने और पराएपन में ज्यादा भेदभाव नहीं वर्त्तते थे।

मैं अब अपने जन्म के समय की घटना बताता हूं ।जैसा कि मैंने मां एवं दीदी के मुख से कहते सुना था। मेरे जन्म के समय घर के हालात बहुत खराब थे। मेरा जब जन्म हुआ था तो मां को भूखे रह जाना पड़ा था । मैं भी सूखकर कांटा हो गया था ।मां को जब खाने को कुछ मिलता ही नहीं था तो दूध कहां से होता ।

मां अपनी चिंता को भुलाकर हर पल मेरी चिंता ही किया करती थी ।जबकि वह भी भूख के मारे तड़प रही थी । लेकिन भारत की माताओं की महानता को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता बल्कि केवल अनुभव किया जा सकता है।
पिताजी भी बीमार चल रहे थे तो कैसे कमा कर लाते ।

जब भी वे स्वस्थ होते थे तो गांव में गल्ले अनाज की खरीदारी करके अच्छी कमाई कर लेते थे। गांव में उन्हें सभी महिलाएं बड़कू कहती थी । जो कि गांव में यह शब्द श्रद्धा का सूचक था। मेरी बड़ी बहन सीता दीदी एक दिन घर के बाहर चुपके से रो रही थी।वह भी भूख के मारे तड़प रही थी ।

वैसे कुछ होता तो गांव में ही कोई मजदूरी करके कुछ कमा लातीं लेकिन घर में ऐसे हालात में सब को छोड़कर व कैसे जा सकती थीं । उस समय उनकी शादी हो चुकी थी । मुझे कहने में कोई शर्म नहीं महसूस होती कि मेरी बहन गांव में कटाई बुनाई करके घर का पालन पोषण करती रही ।

जब कभी घर में मेरे जन्म के समय के हालात की चर्चा होती थी तो सुनकर ही आंखों में आंसू आने लगते हैं। दीदी को जब सीसकते हुए गांव के मगरू काका ने देखा तो उससे पूछा कि बिटिया तू रो क्यों रही है । उनके प्रेम भरे इस पर से दीदी की शिसकिया और बढ़ गई ।

फिर रोते-रोते उन्होंने घर के हालात बताएं । दीदी की बातों को सुनकर मगरू काका ने दीदी को अपने घर से अनाज लाकर दिया। उनसे यह भी कहा कि आगे भी कभी जरूरत हो तो ले जाना।

इस प्रकार से दीदी उस अनाज को घर की चकिया में पीसकर रोटी बनाई। घर में सभी को खिलाई स्वयं खाईं ।लेकिन मेरी तबीयत ठीक नहीं हो रही थी। मां बताती है कि तेरे जन्म के समय मैंने कितने दुःख झेले तू क्या समझेगा ? मां के दुखों को समझा नहीं जा सकता केवल अनुभव किया जा सकता है ।

धीरे-धीरे महीना हो गए फिर भी मेरी आंख खुली नहीं। शरीर तो सूखकर कांटा हो गया था । लोगों ने आशंका जताई कि कहीं लड़का अंधा तो नहीं हो गया । कौन से देवी देवता पीर मजार नहीं होगी जहां मां पिताजी ने मनौतियां न मांगी होगी कि यह ठीक हो जाएगा तो मैं तेरा दर्शन करूंगी।

मेरे पिताजी घर के कुल देवता के रूप में गाजी मियां बड़े पुरुष की पूजा किया करते थे। मेरे गांव के अधिकांश इलाकों में कुल देवता के रूप में यही पूजें जातें हैं । उनकी मजार घर से 20 किलोमीटर की दूरी पर सिकंदरा में स्थित है। मुख्य मजार बहराइच जिले में हैं जहां भी वर्ष में एक बार विशाल मेला लगता और बड़ी संख्या में लोग जाते हैं।

पिताजी के शरीर पर जब गाजी मियां प्रकट होते थे तो कहते थे-‘ तेरे बच्चे को कुछ नहीं होगा तुम लोग घबराओ मत उसकी आंख भी सही सलामत है वह ठीक हो जाएगा ” । बाद में मैं धीरे-धीरे ठीक होने लगा । मेरी आंखों को कुछ नहीं हुआ । मैं वैसे तो टुकुर-टुकुर ताक रहा था परंतु दीदी बताती है कि तू इतना कमजोर हो गया था कि लोग देखना पसंद नहीं करते थे ।

गोद में लेने में भी परेशानी होती थी। मां तो बीमार थी इसलिए दोनों बहने ही झाड़-फूंक कराने ले जाते। लोग कहते बच्चे को जन्म लेते ही मर जाता तो अच्छा था । आज सब को परेशान कर रहा है। पता नहीं कैसी दुष्ट आत्मा पैदा हो गया ।कैसे कर्म किए होंगे ।

मेरे माता-पिता मुझे प्रभु का प्रसाद मानते हैं । विशेष रूप से कुलदेवता गाजी मियां पीर बाबा की और आज भी बड़ी शिद्दत के साथ उनकी पूजा की जाती है । बड़े भैया अक्सर जाते रहते हैं। उनकी मजार पर उनके प्रति गांव में अजीब किस्से मशहूर हैं कि वह जब खुश हो जाते हैं तो पानी के दीए जला देते हैं वह मालामाल हो जाता है यदि नाराज हो जाए तो उसे नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता।

गांव की महिलाएं विशेष रूप से यह सब घटनाएं सुनाते रहते हैं कि कैसे उनके घर में खाने को भी नहीं थी लेकिन आज देखो तो मोटर गाड़ी बनकर क्या नहीं है उनके पास।

मेरे शरीर में बचपन को इस बीमारी का सर आज भी दिखाई देता है मुझे कुछ कमजोरी अक्सर बनी रहती है मैं चाहे कितना भी अच्छा से अच्छा भोजन करो कहावत है कि दुख के चलते व्यक्ति भूल जाता परंतु अपने दुखों के छोड़ो को बड़ा सजो कर रखता है । मेरा परिवार आज भी संकट से गुजर रहा है बस संतोष इसी बात का है कि प्रभु प्रेम से एक रोटी दे देता है भूखे पेट सोने की नौबत जल्दी नहीं आती।

भाग : 2

जैसा कि मैंने बताया है मैं परिवार में अंतिम संतान के रूप में हूं ।इसलिए कुछ ज्यादा प्यार दुलार मिला ।मेरी प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही तालाब के किनारे बगीचे में हुई है। वहां कोई कमरे नहीं बने थे बल्कि एकदम खुले में ही पढ़ाई होती थी ।मास्टरजी दूसरे गांव से आते थे। एक प्रकार से यह बगीचा दोनों गांव के मध्य में पड़ता था। ‌। ‌

मेरे गांव का नाम नरई है। नरई एक प्रकार की घास होती है जो जल में उगती है । पतली सी सीक की भांति । उसके अंदर पानी पाया जाता है। मेरा गांव पूरी तरह से चारों ओर से तालाब पोखरो से घिरा है । बीच में गांव है । एक प्रकार से वह टीला है।बरसात के समय गांव के चारों तरफ जल ही जल दिखता है।

उस समय का नजारा कुछ ऐसा खुशनुमा बन जाता है कि जैसे लगता है कि कश्मीर की वादियां यहां आ गई हो। ‌ मेरा फोटो संसदीय क्षेत्र प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का माना जाता है यहीं से जीतकर पंडित जी प्रधानमंत्री बने थे । द्वितीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी फूलपुर से ही सांसद रह चुके हैं।

पंडित जी का एक वाक्या मैं सुनाना चाहूंगा जो कि मैंने लोगों के मुख से सुना है। ‌ जब पंडित जी फूलपुर से चुनाव लड़ रहे थे तो उनके विरोध में प्रयागराज के सुप्रसिद्ध संत प्रथम पूज्य प्रभु दत्त ब्रह्मचारी जी महाराज खड़े हो गए । हालांकि उनको राजनीति से कुछ लेना नहीं था । बस उनकी जिद थी कि भारत में गौ हत्या का प्रतिबंध लगाना होगा नहीं तो तुम्हें मैं जीतने नहीं दूंगा ।बाद में वे चुनाव हार गए परंतु पंडित जी भी उनका बहुत सम्मान करते थे ।

उनकी शर्तों को उस समय मान तो लिया लेकर राजनीति के गलियारे में लगता है उसे भूल से गए। ‌ आज भी गोवंश बड़ी मात्रा में काटे जा रहे हैं । एक दिन मैं मेरठ के कमीलो की बस्ती से गुजर रहा था तो देखा कि रक्त की धार जो नाले में बह रही है। उसे देखकर ह्रदय जैसे चीत्कार सा उठा । यह कैसा देश है कि जिस गोवंश की रक्षा के लिए स्वयं प्रभु कृष्ण ने अवतार लेकर गोवंश के साथ खेलें खाए उस की ऐसी दुर्दशा उनके देश में हो रही है ।

गोहत्या बंदी के न जाने कितने आंदोलन हुए परंतु नेताओं ने कुर्सी के लालच में हिंदुओं की भावनाओं की कद्र नहीं की ।सदा दोगली नीति अपनाई । शक्ति के साथ कानून पास कर दिया जाता तो कोई कारण नहीं कि गौ हत्या रुक ना जाती। अब हम फिर लौटते हैं अपने गांव की स्कूल की ओर ।

मुझे तो लगता है कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सपनों का था मेरा प्यारा बगीचे में बना स्कूल। गुरुदेव को कभी बंद कमरों में बैठकर पढ़ना अच्छा नहीं लगा । कमरों के अंदर उन्हें घुटन सी होती थी। यही कारण रहा है कि अपने सपनों को साकार करने के लिए उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना प्रकृति के सानिध्य में किया।

जहां अध्ययन करने दुनिया की महान हस्तियां स्वयं आकर रहीं। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शांतिनिकेतन में रहकर पढ़ाई की थी । ‌ संसार में एक से एक विद्यालय रहे होंगे परंतु शांतिनिकेतन जैसा दूसरा नहीं था । प्रकृति के सानिध्य में रहकर जो संस्कार हमारे अंदर आ सकता है उसे बंद कमरों में नहीं पाया जा सकता ।बगीचे के पास ही तालाब था ।

बरसात में अक्सर पानी भर जाता था तो मास्टर जी को बहुत घूम कर आना पड़ता था ।वहां पढ़ने का आनंद कुछ और था। उस सुख को घुटन भरे गाड़ियों की कड़वाहट के बीच पढ़ने वाले बच्चे केवल कल्पना भर कर सकते हैं ।

मेरे गांव में मुस्लिम भाई भी बहुत बड़ी संख्या में रहते हैं परंतु हिंदू और मुसलमानों के बीच कभी दंगे फसाद नहीं हुए। सभी बहुत मिलकर रहते हैं हमारे घर के पास ही हजारों वर्षों पुरानी बड़ी मस्जिद है जहां पर हर शुक्रवार को नमाज पढ़ने मुस्लिम भाई आते हैं ।

अब तो मस्जिद को तोड़ कर नए सिरे से उसका निर्माण करवा दिया गया है। ईद का त्यौहार हो या फिर होली का सभी मिलकर मनाते हैं। मैं भी में ताजिया मोहर्रम के समय मेला देखने जाया करता था । ताजिया निकालने के पहले दुलदुल घोड़ा निकलता था उसमें मुस्लिम बच्चों के साथ बड़ी मात्रा में हिंदू बच्चे भी शामिल होते थे ।

कभी ऐसा नहीं लगा कि हम सब अलग-अलग कौम के हैं। गांव में सब्बर मियां के यहां मुख्य रूप से ताजिया का निर्माण होता था। वह बहुत नेक दिल इंसान थे । अभी दो-तीन वर्ष पहले उनका देहांत हो गया । उनके अच्छे कर्मों की चर्चा आज भी गांव में होती है। उनका छोटा लड़का ज़ो कि मेरे साथ ही लेकिन दूसरे स्कूल में पढ़ता था ।

वह पढ़ने में बहुत तेज था। मैं भी कम नहीं था परंतु मेरे कभी ज्यादा नंबर नहीं रहे। मैंने कभी ज्यादा रटा नहीं बल्कि विषय को समझने का प्रयास किया। उसी के साथ मैंने भी इंजीनियरिंग की तैयारी की थी। परमात्मा को लगता है मुझसे और कुछ काम कराना था इसलिए वह सब छुड़वा दिया । आज भी गांव वालों को इस बात का मलाल है कि देखो फलाना का लड़का इंजीनियर हो गए ।

एक यह है कि पंडितों के चक्कर में पड़कर द्वारे द्वारे किताब बांटते फिरता है । मां आज भी अफसोस जताती है लेकिन होनी को कौन टाल सकता है जो होनी होती है वह होकर रहती है। जब मां मुझसे कहती है तो कि मैं यही उन्हें समझाने का प्रयास करता हूं कि देखो अम्मा! आज भले हमारे पास कुछ ज्यादा पैसा नहीं है परंतु उनको पहचानता कौन है? खाना-पीना पैसा कमाना फिर सब छोड़कर मर जाना क्या यह मात्र यही है जीवन का लक्ष्य। नहीं ना फिर ज्यादा सोक संताप करने से क्या फायदा? ‌‌

भाग : 3

 

मुझसे बड़ी बहन अनीता और मैं एक ही क्लास में पढ़ते थे दीदी को पढ़ने लिखने की अपेक्षा चित्रकारी, कढ़ाई बुनाई ,सिलाई ज्यादा पसंद था। मेरी चारों बहनों में केवल अनीता दीदी मात्र आठवीं तक पढ़ सकीं हालांकि उनकी पढ़ने की बहुत इच्छा थी लेकिन परिस्थित बस उनकी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी।

गांव के स्कूल में पढ़ने के पश्चात प्राथमिक विद्यालय बाबूगंज में अपना नाम लिखवाया। गांव के बगीचे में जो पढ़ाई चल रही थी वह आगे सही तरह से प्रबंध नहीं होने के कारण बंद हो गई थी। बिना दूरदृष्टि के विद्यालय खोलकर चलाना बच्चों की जिंदगी से खिलवाड़ ही करना है।

मेरे पड़ोसी मनोज भाई ने तो कई जगहों से सरस्वती शिशु मंदिर खोले बच्चे भी आए फिर कमाई अच्छी ना होने के कारण यह किसी ने बताया कि वहां चल जाएगी तो वहां भी खोल दिया लेकिन सफल नहीं हुए। वैसे मनोज व्यक्तिगत रूप से बहुत ही नेक दिल इंसान हैं। पिछले तीन-चार वर्षो से उन्हें लकवा मार गया है जिसके कारण वे ठीक से बातचीत भी नहीं कर पा रहे हैं। अब वे कहीं आते-जाते नहीं हैं घर पर ही रहते हैं।

स्कूल खोलने में उनकी कोई कमी नहीं थी। बात यह है कि आजकल स्कूल खोलना दुकानदारी हो गई है । जिसमें प्रबंधक का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना होता है । बच्चों की पढ़ाई लिखाई दूसरे नंबर पर आती है। जिनके पास पैसा है थोड़ी जमीन है उस पर छप्पर डालकर स्कूल खोल ले रहा है ।

चल गई तो ठीक नहीं चले तो उनका क्या जाता है बंद कर दो विद्यालय। ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा नुकसान बच्चों के भविष्य का होता है जिसके कारण उनकी वर्षों का मेहनत मिट्टी में मिल जाती है।

मेरी जानकारी में ऐसे ना जाने कितने विद्यालय खोले और बंद किए गए। किसी का घर किराए पर लेकर कोई चला रहा है तो यदि विद्यालय चल गया तो मकान मालिक उसे कब्जियाने का प्रयास करता है । यदि प्रधानाचार्य प्रबंधक के पास कोई उचित व्यवस्था नहीं है तो विद्यालय बंद करने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता।

इस प्रकार से खुलने वाले विद्यालयों में सबसे बड़ी दिक्कत बच्चों को होती है । अभिभावक भी परेशान की कहां पढ़ायें । किताबें जो खरीद ली गई हैं वह भी रद्दी की टोकरी में डाल दी जाने वाले हैं। क्योंकि उसे कोई नहीं पूछता। इसका कारण यह है कि प्राइवेट विद्यालयों की पुस्तकों के पाठ्यक्रम का कोई मापदंड नहीं है ।

सभी अपनी मनमर्जी से किताबें चलाते हैं। सभी विद्यालय प्रबंधन उसी की पुस्तक लगाने का प्रयास करता है जो ज्यादा कमीशन दे । बच्चों के हित की बात को सारा नजरअंदाज कर दिया जाता है। मुझे भी कुछ लोगों ने सलाह दी कि आप भी विद्यालय खोलकर प्रधानाचार्य बन जाइए। मैंने कहा इतने कम पैसे में खर्च कैसे चलेगा। तब उन्होंने सारा कमीशन खोरी का तामझाम समझाया फिर मैंने मना कर दिया है कि मुझसे नहीं होगा यह सब।

इंग्लिश मीडियम की स्कूलों की हालत तो पूछो ही मत। कुछ उंगली पर गिने जा सकने वाले विद्यालयों को छोड़कर सभी मात्र इंग्लिश के नाम पर खुलेआम लूट रहे हैं।

अभिभावकों को इंग्लिश मीडियम पढ़ाने का जो पागलपन सवार है उसकी भरपूर कीमतें इंग्लिश मीडियम के स्कूल वसूलते हैं। इंग्लिश मीडियम पढ़ने वाले बच्चे अधिकांश ट्रांसलेटर ही बनकर के रह जाते हैं। विषयों की समझ उनमें नगण्य मात्र होती है।

इसका नतीजा यह हुआ कि बच्चों को दो कैटेगरी में बांट दिया गया है ।एक तो सामान्य प्राइमरी विद्यालयों में पढ़ने वाले जहां के अध्यापक /अध्यापिका के बच्चे । मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई प्राइमरी की स्कूल का शिक्षक नहीं चाहेगा उसका बच्चा प्राइमरी में पढ़े।

हो सकता है कि हमारी बातें शत प्रतिशत सही ना हो लेकिन यही है भारतीय सरकारी विद्यालयों की सच्चाई। इसमें सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक की सभी सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय के अध्यापकों के बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के लिए बाध्य ना किया जाए।

इसका दूसरा कारण यह भी है कि प्राइमरी अध्यापकों से ही सरकार कभी वोटिंग तो कभी जनगणना ना जाने क्या से क्या कार करा रही है अब तो मिड डे मील ने तो विद्यालय को आश्रम बना दिया ।

जहां बच्चे मुफ्त का भंडारा खाने आते हैं। यह एक प्रकार से सरकारी कुटीर चाल है जिसे गरीबों के बच्चों को उनके शिक्षा के अधिकार का हनन किया जाता है ।दूसरी और प्राइवेट विद्यालय हैं जहां अध्यापकों से तो खूब काम लिया जाता लेकिन वेतन के रूप में कुछ पैसे देकर टरका दिया जाता है।

यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था की विडंबना ही कही जाएगी कि प्राइवेट सरस्वती शिशु मंदिर या पब्लिक स्कूल के अध्यापकों के दुख को सुना जाए तो हृदय कांप जाएगा। यह बच्चों को ज्ञान देने वाले शिक्षकों को अपनी जरूरतों को पूरा करने तक के लिए जब पैसे नहीं है तो वह घर परिवार की आवश्यकता की पूर्ति कैसे करेगा?

ऐसे अध्यापकों को सारी जिंदगी कलम घिस्ते घिस्ते खत्म हो जाती है लेकिन अंत में लगता है कि जहां से शुरू किया था जिंदगी अभी वही की वही है। ऐसी स्थिति भारत के कुछ विद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो सभी प्राइवेट विद्यालयों की है। जहां का शिक्षक अपनी आवश्यकता की पूर्ति अपने वेतन से कभी नहीं कर सकता।

सरकार को चाहिए कि प्राइवेट पब्लिक स्कूलों के अध्यापकों के लिए भी वेतन की एक स्कीम तैयार की जाए। जिस प्रकार से मजदूरों के लिए भी एक न्यूनतम मजदूरी निर्धारित है अध्यापकों को तो उससे भी कम गई गुजरी स्थित में वेतन मिल रहा है। आर्थिक रूप से कमजोर अध्यापक बच्चों को कैसे श्रेष्ठ शिक्षा दे सकता है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है।
शेष अगले अंक में

नोट – इस आत्मकथा में जो भी बातें कहीं गई है वह सार्वजनिक हैं। कोई भी शिक्षक व्यक्तिगत रूप से ना लें। शिक्षक समाज का दर्पण है। यदि कोई शिक्षक न्यूनतम वेतन में भी शिक्षण कार्य श्रेष्ठ तरीके से करा रहा है उससे महान इस दुनिया में कोई व्यक्ति नहीं हो सकता। इस देश की विडंबना ही कही जाएगी कि आज भी हजारों अध्यापक दैनिक मजदूरों से भी कम वेतन में शिक्षण कार्य करने को मजबूर हैं।

भाग : 4

 

प्राथमिक शिक्षण किसी भी व्यक्ति को जीवन निर्माण की नींव तैयार करता है। नींव जितनी कमजोर होगी तो भवन का निर्माण कैसे मजबूती से हो सकेगा? भारत सरकार उच्च शिक्षा पर तो अत्यधिक जोर दे रही है परंतु प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षण का स्तर इतना घटिया दर्जे का है कि उसे भुक्तभोगी ही समझ सकता है।

विद्यालयों का कोई नियम ही नहीं होता । यदि ऐसा विद्यालय पिछड़ी तपको में है तो उसकी हालत और भी खस्ताहाल होगी। एक तो छोटे-छोटे बच्चे ज्यादा विरोध तो कर नहीं पाते हैं इसलिए ऐसे विद्यालयों में अध्यापकों की और मौज हो जाती है।

यही प्राथमिक कक्षाओं में जो बच्चे सताए जाते हैं वही बड़े होने पर अध्यापकों से जमकर बदला लेते हैं । ऐसे में बच्चों को यही कहा जाता है कि वह नालायक है, जो किसी की नहीं सुनते परंतु अध्यापकों को नहीं लगता कि इसकी जड़ कहीं न कहीं हमने ही बचपन में बोई थी जो आज जाकर फल फूल रही हैं। मैंने हैदर पब्लिक स्कूल, मेरठ में अध्ययन के दौरान अनुभव किया कि बड़े बच्चों को कितना भी मारा जाए वह किसी की नहीं सुनते।

शिक्षा पद्धति की यह बहुत बड़ी खामी है कि बच्चों को आज भी डंडे के बल पर हांका जा रहा है । कुछ अध्यापक तो बच्चों को पीटना अपना अधिकार समझते हैं। हाथ से तो ज्यादा नहीं मारते हैं क्योंकि चोट आ जाने का डर है परंतु मारने के लिए विशेष तौर से डंडा रखते हैं।

शहरी क्षेत्र की अपेक्षा गवई क्षेत्र में ज्यादा बच्चों की पिटाई होती है। उन्हें ऐसा मारा जाता है जैसे जानवरों को भी नहीं मारा जाता होगा। जो विद्यालय दादा टाइप के हैं उनकी तो पूछो ही मत। ऐसे विद्यालय में छात्र कितनी भी शिकायत करता रहे परंतु उसकी कोई नहीं सुनता ।यदि माता-पिता से कहता भी है, तो यही कहकर अभिभावक अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि तेरी ही गलती रही होगी और बच्चों को ही ऊपर से डांटते हैं ।

मैंने अनुभव किया है कि जो अध्यापक अपने घर परिवार के समस्याओं से ज्यादा परेशान होते हैं वही बच्चों को खूब मारते हैं। घर का सारा गुस्सा बच्चों पर उतार देते है।

मेरी प्राइमरी कक्षा के कुछ अध्यापक बच्चों को मारने में बहुत एक्सपर्ट थे । सभी का नाम तो नहीं पता लेकिन चेहरे जरूर याद है। एक थे- सत्यम मास्टर । गुस्सा आने पर पूछो ही मत । ऐसी धुनाई करते थे कि बच्चों की जान लेकर ही छोड़ते थे। दूसरे थे पंडित जी (नाम याद नहीं ) वह मारते तो कम थे , लेकिन जब पारा चढ़ जाता था तो वह भी आगे पीछे नहीं देखते थे और पिल पड़ते थे फट्टा लेकर । फिर बिना बच्चों का कचूमर निकल नहीं छोड़ते थे।

एक हरिजन जाति के गुरुजी थे ।वह एक दिन वह हम सब को समझाने लगे कि -“देखो बच्चों! सभी का शरीर चमड़ी से ही तो बना है इसलिए सभी चमार हैं । ना कोई ऊंचा है ना नीचा बल्कि परमात्मा ने सभी को सामान बनाकर ही इस दुनिया में भेजा है। इसलिए भेदभाव हमें नहीं कभी किसी से नहीं करना चाहिए। भेदभाव बरतना परमात्मा का अपमान करना है।

निम्न जाति का होने के कारण अक्सर उनका मजाक उड़ाया जाता लेकिन वह सबको नजर अंदाज करके अपने काम में लगे रहते । मानवीय एकता का पाठ पढ़ाना जैसे उनका एकमात्र उद्देश्य हो।

बड़े होने पर अनुभव करता हूं कि उनकी मार में भी प्रेम छुपा होता था। माता-पिता एवं गुरुजनों की मार जो व्यक्ति सह लेता है वही जीवन में एक महान इंसान बनता है।

आज हमारे सभी प्राथमिक विद्यालयों के अधिकांश शिक्षक नहीं है लेकिन उनके डांट डपट मार का प्रभाव है कि हम जीवन की सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचा दिया ।

विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का विशेष महत्व है। अनुशासित विद्यार्थी जीवन की सफलता प्राप्त कर सकता है।योग का प्राथमिक सूत्र भी अनुशासन है। जिस बच्चे को बचपन में अनुशासन बद्ध रखा जाता है उसका प्रभाव उसके संपूर्ण जीवन पर पड़ता है। अनुशासन के बिना जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता पाना मुश्किल है।

इसके बाद हमारा नाम कक्षा चार में अशर्फीलाल जायसवाल जूनियर हाई स्कूल में जो बाबूगंज बाजार के अंत में स्थित है लिखाया गया । वास्तव में देखा जाए हमारी शिक्षा का श्री गणेश यहीं से हुआ क्योंकि गांव के प्राथमिक विद्यालय में एक प्रकार से मेरा समय ही बर्बाद हुआ। मुझे ठीक से अक्षर ज्ञान भी नहीं हो पाया था।

यहां के एक अध्यापक थे श्री राम बहादुर गुरुजी जो की गणित पढ़ाते थे। वह गणित को खेल-खेल में ही समझा देते थे। उनका वरद हस्त आज भी हमें प्राप्त हो रहा है । जब भी घर जाता हूं तो उनसे जरूर मिलने का प्रयास करता हूं । वे ऐसी बातचीत करते हैं जैसे एक मित्र हों । वह हमारे एक अच्छे मार्गदर्शक की भांति थे । कोरोना काल में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन उन्होंने जो प्रेम अपनत्व दिया वह आज भी हृदय की गहराइयों में अनुभव करता हूं।

राम सिंह गुरु जी संस्कृत पढ़ाया करते थे । वह एक छोटी सी छड़ी रखते थे ।नहीं आने पर पिटाई कर देते थे । मैं संस्कृत में बहुत कमजोर था। श्लोक वगैरा मुझे रटा नहीं जाते थे इसलिए अक्सर मैं पीट जाता था। लेकिन वह संस्कृत बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे ।

वह कहते हैं -“हमें संस्कृत भाषा का ज्ञान अवश्य करना चाहिए। जितने भी हमारे प्राचीन साहित्य हैं सभी संस्कृत में ही लिखे गए हैं ।मंत्र भी सभी संस्कृत में है। यदि तुम लोग संस्कृत नहीं पढ़े हुए हैं तो कैसे अपने प्राचीन धरोहर को बचा सकोगे।

बेटा जिस देश के नागरिक को अपनी संस्कृति सभ्यता से प्रेम नहीं होता उसे नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता । हमें संस्कृत पढ़ने लिखने एवं बोलने पर गर्व होना चाहिए।

आज सोचता हूं कि कितनी सत्य थी उनकी बात । आज पछताता हूं की कास अगर अच्छी तरह से संस्कृत पढ़ा होता तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सुर लय ताल के साथ वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर पाता। गीता पाठ थोड़ा-थोड़ा कर लेता हूं।

महेंद्र प्रताप गुरु जी भूगोल पढ़ाते थे । वे स्कूल से सात आठ किलोमीटर साइकिल से आते थे। मैंने देखा कि आज भी साइकिल से ही आते हैं । वहीं के अधिकांश अध्यापक अब रिटायर हो चुके हैं ।

प्रधानाचार्य जी बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे । वे जीवन की अंतिम समय तक प्रधानाचार्य रहे ।कुछ वर्षों पूर्व उनका देहांत हो जाने के पश्चात राम जियावन गुरु जी प्रधानाचार्य बने , उसके पश्चात राम बहादुर मास्टर साहब प्रधानाचार्य बने, उसके बाद राम सिंह मास्टर साहब प्रधानाचार्य बने वर्तमान समय में सभी अध्यापक रिटायर्ड हो चुके हैं।

प्रधानाचार्य जी द्वारा बताया गया अंधविश्वासों के प्रति एक किस्सा आज भी याद आता है ।वह एक बार बच्चों से कहने लगे कि -“आज मैं भूत प्रेत पैदा करने की दवाई बताता हूं ।”

फिर वह कहने लगे -“देखो जिस रास्ते से स्त्रियां प्रातः काल शौच जाती हैं उसी चौराहे पर तुम एक लोटा में जल लेकर उसमें फूल माला डाल दो और वहीं पर जल डालकर ऊपर से फूल चढ़ा दो माला चढ़ा दो नींबू काट दो तो तुम देखोगे कि सुबह 10:20 औरतें भूत से ग्रसित मिलेंगी ।जिस भी स्त्री का पैर उस पर पड़ेगा वह बीमार हो जाएगी।”

उन्होंने बताया कि ऐसा इसलिए होता है कि -“उनके मन में एक भय बैठ जाता है कि कोई निकारी कर दिया है ।इस डर से वह बीमार पड़ जाती हैं।”

उन्होंने आगे बताया कि -“भूत प्रेत नाम की कोई चीज नहीं होती है । जब कोई व्यक्ति वहां से निकलता है तो उसके मन-मस्तिष्क भय व्याप्त हो जाता है। यदि बच्चों को बचपन से ही इस प्रकार के वहम से दूर रखा जाए तो वह एक स्वस्थ नागरिक बन सकते हैं।

विद्यालय में शौकत अली गुरुजी थे जो की बहुत अच्छा पढ़ाते थे ।मुस्लिम होते हुए भी वे हनुमान जी के भक्त हैं और हर रविवार को अपने घर में छुआ मंतर भी करते हैं ।जिसमें बहुत सी स्त्री पुरुष उनके यहां भूत प्रेत उतारने के लिए आती हैं ।ऐसा वे बहुत सालों से कर रहे हैं।

विद्यालय में एक चपरासी राम आधार यादव जी थे जो की अंतिम समय तक वहां चपरासी थे ।वह भी एक बहुत दिल नेक इंसान थे।

इस विद्यालय को कोई सरकारी अनुदान नहीं मिलता था। प्रबंधक भी कभी विद्यालय के विकास के बारे में नहीं सोचा। यही कारण रहा है कि जिस प्रकार से पिछले 25- 30 वर्षों पूर्व विद्यालय था आज भी उसी हालत में है । एक भी कमरे का निर्माण नहीं हो सका है आज तक।

सच्चे अर्थों में देखा जाए तो इसे कहते हैं तपस्वी का जीवन। जीना । घर परिवार छोड़कर घने जंगल में तपस्या करने की अपेक्षा अभाव में रहते हुए बच्चों को जीवन निर्माण की कला सीखलाना क्या किसी तपस्या से कम है।

एक दिन राम जियावन गुरुजी चर्चा करते हुए बताया कि -“मेरी पत्नी रोज लड़ती की कौन सा स्कूल में फूल चुवत है जो तुम छोड़ नहीं देते । सारी जिंदगी कलम घिस्ते बीत गए। सर के सारे बाल सफेद हो गए लेकिन क्या मिला तुम्हें ।तो पढ़ाने का नशा सवार है ।कभी इन बाल बच्चों का भी ख्याल रखा होता।”

उन्होंने बताया कि घर में खेती बाड़ी का काम कर लेने के कारण जिंदगी कट जा रही थी। हालांकि आज जाकर विद्यालय को सरकारी अनुदान मिलने लगा है परंतु सारी जवानी तो खत्म हो गए।

आज की व्यावसायिक विद्यालयों को सीख लेनी चाहिए कि दुनिया में आज भी त्यागी तपस्वी शिक्षक हैं जिनकी बदौलत शिक्षा की गरिमा बनी हुई है।

 

भाग-5

हमने गांव में रहते हुए अनुभव किया कि महिलाएं पुरुष की अपेक्षा ज्यादा व्रत- उपवास रखती हैं । मेरी मां भी कई वर्षों से मंगलवार रखती रहीं । इसके अलावा पूर्णिमा ,एकादशी, अमावस , नवरात्रि आदि भी वह बहुत नियम से रखती।

अक्सर वह दिन भर भूखी रह जाती है। दिनभर काम भी घर के सारे करतीं ।यदि बड़े भैया फल नहीं ले तो चाय पीकर ही सो जाती परंतु किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं करती।

मां के संस्कारों का ही प्रभाव है कि हम सभी भाई-बहन कोई ना कोई व्रत उपवास करते रहे हैं। सद्गुरु ओशो कहते हैं कि मनुष्य को समृद्धशाली होना चाहिए । जिस व्यक्ति के मन में धन के उपभोग के प्रति वितृष्णा उत्पन्न नहीं हो जाती है उसे कोई महान वस्तु साधना उपासना से नहीं मिलने वाली। वह भगवान से मांगेगा भी तो धन दौलत बेटा बेटी ही मांगेगा।

मां भी भगवान के सामने यही कामना करती कि घर में सुख शांति हो, आर्थिक समृद्धि हो, घर में आर्थिक अभाव सदैव बना रहा। घर में कमाई का कोई बड़ा जरिया नहीं था । रोज कुआं खोदो और रोज पानी पियो जैसी स्थिति रही ।

भैया जो अनाज खरीदते थे उसे तुरंत बेच देते थे। उसी से जो भी पैसा मिला बाजार से सब्जी वगैरह लाने में खर्च हो जाते थे । भैया का बैंक में खाता खुलवाने के पश्चात भी उसमें एक पैसा नहीं जमा कर सके आखिर जब बचे तब तो जमा करें ना।

बचपन से गरीबी क्या होती है इसका अनुभव मैं बहुत नजदीक से किया। मेरा घर मिट्टी एवं खपरैल का बना बहुत पुराना था । बरसात में पानी टपकने से घर पानी से भर जाता। कभी-कभी दीवारें फट जाती ।एक दिन बरसात में तो घर की दीवार का पिछला हिस्सा गिर गया सारा पानी पूरे घर में भर गया। किसी तरह बरसात रुकने पर पानी को बाहर फेंका जा सका।

घर की दीवार क्या गिरना शुरू हुई कि धीरे-धीरे पूरा घर ही गिर गया । घर में तो बचत के कोई पैसे थे नहीं की अपना नया घर बनाया जा सके इसीलिए भैया ने एक बास को काटकर प्लास्टिक के पनियों द्वारा छोटी सी मढ़िया बना दिया ।

अब वही परिवार के सारे लोगों के आराम गाह बन गए। प्रभु की क्या लीला है वही जाने। कहते हैं विपत्ति जब आती है तो चारों ओर से आती है । इसी बीच मझले भैया ने बैंक से कुछ कर्ज ले लिया था । कर्ज लेते समय उन्होंने किसी को घर में नहीं बताया।

पैसे को जहां भी लगाया सारा का सारा डूब गया। कुछ लोगों ने ले लिया तो दिया ही नहीं। उन्होंने कर्ज की कोई किस्त भी नहीं भरी थी । उसकी जब इंक्वारी आए तो घर की इज्जत बची रहे भैया को दिक्कत ना हो खेत को गिरवी रखकर सारे कर्ज चुका दिए गए।

खेत का एक हिस्सा मेरे हरिद्वार में अध्ययन के दौरान पैसा ना रहने पर रखा जा चुका था ।अब तो सारा खेती गिरवी हो चुका था। खेत था तो इस बात की चिंता नहीं करनी पड़ती थी कि क्या खाया जाएगा। खाने की चीज खेत में उगा ली जाती थीं ।साथ ही मां भाभी लोग उसी में व्यस्त रहती थीं।
गरीब आदमी हर तरफ से मारा जाता है।

अमीरों को कुछ नहीं कहता। लाखों करोड़ों करोड़ रुपए अमीर डकार कर विदेश भाग जाते हैं और सरकारें भी अमीरों का ही साथ देते हैं । एक प्रकार से देखा जाए तो सरकारें अमीरों की गुलाम होती हैं। उन्हें डिफॉल्ट दिखाकर अधिकांश उनका कर्ज माफ भी कर दिया जाता है।

वही गरीबों की जान की आफत आ जाती है । यही कारण है कि बहुत से किसान , मजदूर आदि कृषि में घाटा लगने पर आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में मां के धैर्य को दाद देनी पड़ेगी। किस प्रकार से इतनी विपरीत परिस्थितियों के बीच परिवार को चला रही थी यह उन्हीं से सीखा जा सकता है।

मुझे लगता है कि मां जरूर पूर्व जन्मों की कोई दिव्य आत्मा रही है। उनका तो संपूर्ण जीवन ही जैसे दुखों की कहानी है । जिंदगी का सुख क्या होता है जैसे उन्होंने जाना ही नहीं। पिताजी की मृत्यु के बाद उनको सुख की एक रोटी कभी नहीं मिल सकीं।

अब सोचिए जिसका सारा खेत गिरवी पड़ा हो, घर गिर गया हो, मढ़ैया बनाकर उसमें वह यायावर की तरह सरण लिया हो उसकी सुख क्या मिल सकता है? कभी-कभी तो उन्हें घर पर अकेले रह जाना पड़ता था । मन में आया तो बना कर खा लिया नहीं तो वैसे ही सो गई।

प्रभु का शुक्रगुजार है कि घर के पास ही प्राथमिक विद्यालय है। जब कोई मेहमान आता तो उन्हें स्कूल में ही रोकना पड़ता। कभी-कभी तो नए मेहमान आना चाहते हैं उन्हें घर पर बुलाने में शर्म सी महसूस होती है ।उन्हें कैसे बुलाए।

अधिकांश लोगों को कोई न कोई बहाना बता कर टाल दिया जाता। बच्चे भी बड़े हो रहे थे । बड़े भैया जहां रहते थे वहां पत्थर तोड़ने वाले बाहर के घुमंतू लोग रहते थे। वह दिन रात लड़ते झगड़ते थे ।गंदी-गंदी गाली भी बकते थे। उनके बच्चे भी उसी प्रकार हैं महिलाएं भी नशेड़ी है पुरुष तो नशा करते ही हैं।

उस समय बड़े भैया की बेटी की शादी नहीं हुई थी। भैया को बेटी की शादी की चिंता सताए जा रहे थी। भगवान का शुक्रगुजार है क्या एक अच्छा रिश्ता मिला और बेटी की शादी एक अच्छे परिवार में हो गई। जो आज एक खुशहाल जिंदगी जी रही हैं।

भाग-6

मेरे गांव में मेरा सबसे प्रिय दोस्त धर्मेंद्र था । जो केवल मुझसे दो दिन ही बड़ा है। वह रविवार को पैदा हुआ तो हम मंगलवार को। उसके घर वाले से मेरे घर वालों में खूब पटती है। मेरी मां और उसकी मां बहुत अच्छी सहेली भी हैं ‌। दोनों सहेलियां भी अक्सर समय मिलने पर अपने सुख-दुख की बातें करने लगते हैं। वर्तमान समय में दोनों की माताएं स्वर्गवासी हो चुकी है। अब उनकी केवल स्मृति सेष ही है।

अक्सर उसके घर में ही मैं पढ़ता था और कभी-कभी तो वही सो भी जाता था । मेरे घर में बिजली नहीं थी । मां बिजली का तार नहीं खींचते देती थी।वह कहती थी कि कच्चे घरों में करंट उतरने का डर रहता है । बचपन से ही मैं किताबी कीड़ा था जो कि आज भी हूं । किताबों से मित्रता हमारे बचपन से ही रही ।

मेरी बहन शकुंतला दीदी के घर में बाल योगेश्वर जी महाराज की लिखित किताबें एवं मासिक पत्रिका ‘शब्द ब्रह्म’ आती थी। जिसे मैं छठवीं आठवीं कक्षा से ही पढ़ता रहा हूं । उनकी बातें मुझे बहुत ही अच्छी लगती हैं।

महाराज जी का मुख्य संदेश है कि ज्ञान तुम्हें कहीं बाहर नहीं मिलेगा जितना तुम बाहरी दुनिया में भटकोगे उतना ही उलझ और जाओगे। सच्चा ज्ञान पाने के लिए तुम्हें हृदय के द्वार को खोलना पड़ेगा। पानी पानी कहने से प्यास नहीं बुझेगी बल्कि पानी पीने से बुझेगी ।

तुम्हें इतनी प्यास होनी चाहिए कि बस पानी का ख्याल रह जाए । यह ना रहे की बर्तन साफ है कि जूठ ,किस जाति का है ,बस पानी पीने की तड़प हो यदि हृदय से इतनी तड़प होगी तो अवश्य पानी बहुत मीठा लगेगा इसी प्रकार ज्ञान पाने की तड़प होनी चाहिए।

महाराज जी बहुत ही सादे कपड़ों में रहते हैं। कभी भी उन्होंने गेरूआ वस्त्र धारण नहीं किया । उनके बड़े भाई हैं सतपाल जी महाराज सभी संत हैं। सभी अपना अपना प्रवचन देते हैं। बचपन में महाराज जी पर बहुत श्रद्धा थी ।परंतु बाद में देखा कि सब दुकानदारी है । आखिर सभी भाइयों को महाराज बनने की क्या जरूरत थी।

लेकिन महाराज गिरी का धंधा भी भारत में बहुत चोखा है। जिसको थोड़ा बोलना आता है। जनता को बरगलाने की कला आती है ।वह बन जाता है महाराज । विभिन्न प्रचार के साधन उपलब्ध होने से बाबागिरी बहुत फलने फूलने लगी है ।

सुबह यदि किसी चैनल को खोलो तो कोई ना कोई आपके भविष्य का निर्णय करते जरूर दिखेगा की ऐसा करो तो यह हो जाएगा । आज का दिन ऐसा होगा वैसा होगा बस केवल दुकानदारी ही कर रहे हैं। जिनको अपने ही भविष्य का नहीं पता वे संसार का भविष्य बताने लगते हैं।

आप फिर लौट कर चलते हैं गांव की ओर। मैं अपने गांव में बचपन से ही है अच्छा बच्चा माना जाता रहा हूं क्योंकि मैं शांत प्रवृत्ति का रहा हूं। कभी ज्यादा किसी से लड़ाई झगड़े में भाग नहीं लेता था । कभी-कभी मेरे सीधेपन का गलत फायदा उठाया जाता रहा है जो कि आज भी लोग नहीं चूकते।

मेरी मां तो कहती है कि मुझसे तो अच्छे अनपढ़ गवार हैं देखो कितने चालाक हैं । क्या मजाल उनको कोई वस्तु तुम्हें दें दें।लेकिन एक तू है कि घर की चीज भी लुटाया फिरता है। मुझे बचपन से ही फकीरीपन की आदत पड़ गई थी । कोई भी वस्तु खाने पीने की यदि घर के लिए लाना चाहे परंतु रास्ते में बच्चों की टोली मिल जाए तो घर के लिए बचाना मुश्किल होता है।

यही कारण है कि आज भी मैं एक भी पैसा नहीं बचा सका । मेरा बैंक बैलेंस शून्य है । बैंक में एक बार खाता खोला भी था परंतु उसमें पैसा नहीं डालने के कारण लगता है बंद हो गया है क्योंकि वर्षो से उसको पता भी नहीं किया ।

मेरे पिताजी दो भाई थे लेकिन उनके छोटे भाई का देहांत बिना बाल बच्चों के ही हो गया था पड़ोस के बद्री चाचा जी के एक लड़का एवं एक लड़की है जिनके दो बच्चों की शादी हो गई है। लड़के का नाम राजेंद्र प्रसाद जो मुझे 6 –7 वर्ष छोटा है उसके चार लड़के हैं।

हमारे दूसरे पड़ोसी के तीन लड़के एवं दो लड़कियां हैं । उनके पिताजी बचपन में गुजर गए थे सभी की शादी विवाह हो चुकी है। पड़ोस के गुलाब भाई की मां को सफेद दाग था। जिसके कारण शादी विवाह में दिक्कते होती थीं ।आज भी सफेद दाग को समाज में अच्छा नहीं माना जाता है। जिसके घर में किसी को सफेद दाग की बीमारी हो जाती है उसकी कई कई पीढियां को फजीहत उठाने पड़ती है।

मेरा परिवार उनसे आनुवंशिक रूप से भी अलग होते हुए भी कई बार शादी विवाह में दिक्कतें आए मेरे मजले भईया की शादी पक्की होने के बाद भी टूट गई छोटी-मोटी दिक्कतें आती रहे।

गांव में वैसे सभी मिलकर रहते हैं। मेरे गांव में 90 के दशक तक कोई विद्यालय नहीं था। इसलिए अधिकांश बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते थे । इस्लामिक बस्ती में तो शिक्षा का स्तर बहुत ही कमजोर है। पूरी मुस्लिम बस्ती में एक दो लोग एम.ए. किए हैं ।जो कि शहर में रहते हैं लेकिन गांव में स्कूल खुलने से उनके भी बच्चे पढ़ने लगे हैं।

अब तो शिक्षा के प्रति जागरूकता बड़ी हैं। हमारे क्षेत्र में तीन चार डिग्री कॉलेज भी खुल गए हैं । छोटे मझले विद्यालयों की कमी ही नहीं है । परंतु दुख इस बात का है कि शिक्षा तो बढ़ रही है लेकिन संस्कार खत्म हो रहे हैं। जिसका परिणाम समाज में उडनडता के रूप में दिखलाइ पड़ रहा है।

 

भाग-7

 

मेरे पड़ोस में एक सालिकराम चाचा हैं जो कि अपने समय के कक्षा 8 तक पढ़े हैं। वे अक्सर तर्क करते रहते हैं कि आज की पढ़ाई भी कोई पढ़ाई है। ना आज का इंटर, बी ए, ना हमारे जमाने का जूनियर हाई स्कूल । विशेष कर बच्चों से वें गणित के कठ बैठी सवाल पूछते यह सवाल बड़े उलझन भरें होते थे । जिनका किताबों से कोई सरोकार नहीं होता।

यदि आप उनके सवालों को बता लिए तो ठीक नहीं तो कहते देख लिया ना, चलो हम तुम्हें बताते हैं और फिर उनकी गणित निकल आती । उनको गांव में पंडित भी कहते हैं। वैसे वो पटेल है।

वह किसी पंडित के यहां पत्रा पूछने नहीं जाते बल्कि स्वयं देखते हैं । पूरे गांव के लोग उनसे शाइत , शुभ दिन , वार भी पूछने आते हैं । हमारी बस्ती में पंडित नहीं रहते इसलिए गांव की माताएं बहने उन्हीं से पूछ लेती हैं।

वैसे वह बहुत अच्छे इंसान हैं। हमारी उनसे बहुत पटती भी है। वे कर्म पर विश्वास रखने वाले इंसान हैं । आज भी लगभग 80 वर्ष के होने के पश्चात भी बाजार से सब्जी बेचकर अपना खर्च स्वयं चलाते हैं।

मेरे पड़ोस में लाला भाई और रमाकांत भाई हैं । दोनों में खूब पटती है परंतु दोनों लोग जमकर शराब पीने वाले रहे । लेकिन बचपन में मैं देखता था कि वह बहुत अदब के साथ बोलते थे। कभी ज्यादा गाली गलौज नहीं करते थे परंतु लाला भाई अपनी पत्नी को गुस्सा चढ़ने पर मार दिया करते थे । उनके बच्चे छोटे थे जिससे ज्यादा विरोध नहीं कर पाते थे।

एक बार उनका एक्सीडेंट हो गया जिससे उनके शरीर में बहुत गहरी चोट आई। लंबे समय तक प्लास्टर चढ़ा रहा परंतु पिछले कुछ सालों पूर्व उनका देहांत हो गया। इसी प्रकार रमाकांत भाई को भी पेट में जल भर जाने के कारण आज वह भी जीवित नहीं बचे।

मैने पड़ोस में देखा था कि किसी की चिट्ठी आतीं थी तो उन्हें पढ़वाने ले जाते थे। मेरे बड़े भैया जब कमाने के लिए जाते थे तो अम्मा चिट्ठी उन्हीं से लिखवाती थी और चिट्ठी आने पर अक्सर उन्हीं से पढ़वाती थी।

भाग्य के थपेड़ों ने उनको आजीवन ठोकर मारता रहा। कभी ठेकेदारी, कभी पुलिस में नौकरी परंतु कहीं स्थाई नहीं हो सके। शराब ने उनका जीवन बर्बाद कर दिया । शराब है ही ऐसी डायन जो बड़े-बड़े की बुद्धि को नष्ट कर देती है।

बचपन में मैं मिट्टी के खिलौने खूब बनाता था । तालाब से मिट्टी लाकर उससे मोटर गाड़ी, चिड़िया, हाथी, तोता, गणेश, लक्ष्मी आदि बनाया करता था। दिवाली में छोटा सा घर बनाता था। उसे अच्छी प्रकार से सजाता था । कुछ गांव के उजड्ड बच्चे घरों के अंदर पटाखे फोड़ देते थे। जिससे घर टूट कर तहस-नहस हो जाता था। मैं उन्हें खूब बिगड़ता था। लेकिन मां लड़ने से मना करती।

जो सुख और आनंद हमें मिट्टी के खिलौने एवं घर बनाने में आता था वह सुख महगे -महगे खिलौने से हमें नहीं प्राप्त हो सकेगा। अपने हाथों द्वारा बनाए वस्तु का आनंद ही कुछ और होता है उसका आनंद बनाने वाला ही जानता है।

अब तो शहरों के डॉक्टर भी बंगले में रहने वाले बच्चों को बीमार होने पर हिदायत के तौर पर कहने लगे हैं कि यदि आपको अपने बच्चों को स्वस्थ रखना है तो उसे मिट्टी में खेलने दीजिए।

मिट्टी में खेलने से उसकी इम्युनिटी पावर बढ़ेगी जिससे वह अंदर से मजबूत होगा । देखा गया है कि ज्यादा सुख सुविधा में पलने वाले बच्चे अत्याधिक बीमार होते हैं । जबकि खुले आसमान में नंगे बदन टहलने वाले गरीब घरों के बच्चे उतना बीमार नहीं होते । ऐसे मां-बाप जो बच्चों को खुली हवा में प्राकृतिक रूप से खेलने नहीं देते वें उनके बहुत बड़े दुश्मन है ।बच्चों का स्वस्थ विकास प्रकृति के सानिध्य में ही होता है।

बचपन में बिताए मस्ती के छणों को यदि एक-एक कर लिखने लगू तो उसके लिए अलग ग्रंथ ही बनाना पड़ेगा। घर में सभी मुझे बाबा कहकर बुलाते थे। जिससे लगता है कहीं ना कहीं बाबापन का संस्कार हमारे मन में बहुत गहरा गया है ।

गांव में गुल्ली -डंडा खूब पहले खेला जाता रहा। प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी ‘गुल्ली डंडा’ प्रसिद्ध है उसे कमरे में बैठकर वीडियो गेम खेलने वाले बच्चों से उसकी तुलना नहीं की जा सकती।

इन खेलों से जहां शरीर स्वस्थ और मजबूत होता था वही मन में प्रसन्नता आती है । कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही शांत मन का वास होता है । परंतु कमरे में बैठकर वीडियो गेम खेलने या टीवी देखने से जहां एक ओर शरीर बीमार हो जाता है। वहीं सर में तनाव बढ़ जाता है । मन बोझिल व गुस्सैल हो जाता है। टीवी पर अश्लील चित्र देखने से भाव में उत्तेजक विचार आने लगते हैं।

यही कारण है कि आज भी युवा पीढ़ी में हताशा निराशा के लक्षण स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। बच्चों के बीच जो आज इतनी हिंसा बढ़ रहे हैं । उसमें से एक बहुत बड़ा कारण बच्चों का हिंसक फिल्में देखना, वीडियो गेम खेलना, गंदी नेट की साइड देखना है । जाने अनजाने कितना उनका इससे नुकसान होगा यह वे नहीं जानते।

मेरे गांव में राम अचल जी जो की सर्व समाज जूनियर हाई स्कूल में प्रधानाचार्य थे । उनसे मेरी खूब पटती थी । वैसे हमारे सामान उनके बच्चे थे। परंतु हम लोग मित्रों जैसे ही बातें करते थे। उन्हें अपनी ससुराल में जायज़ाद मिले हुए थे इसलिए वह अक्सर वही रहते थे।

बाद में उन्हें हृदय रोग हो गया जिससे वे अब अपने गांव में आकर रहने लगे थे ।वह इतने सरल इंसान थे कि बाद में उन्होंने मुझसे ही गुरु दीक्षा लिया । इस प्रकार से हमारे गुरु भाई बन गए।
वे अपने जीवन से असंतुष्ट थे।

इसका एक प्रमुख कारण था कि उनके पिताजी ने उनकी शादी धन के लालच में ऐसी लड़की से कर दिया था जिसको कोई भाई नहीं था । उन्हें ससुराल में रहना रास नहीं आया । जिसके कारण बड़े-बड़े दाढ़ी बाल बढ़ाकर बाबा जी की तरह रहने लगे थे । इसी गम ने उन्हें हृदय रोगी बना दिया।

बच्चों को पढ़ाने का उन्हें अच्छा अनुभव था। एक दिन हृदयाघात हो जाने के कारण अचानक उनकी मृत्यु हो गई । उनके मरने के बाद में मुझे गांव जैसे सूना सूना सा लगने लगा है । मैं गांव में जाता भी हूं तो थोड़ी देर टहल घूम कर लौट आता हूं।

उनके मरने के बाद हमने उनकी जीवनी भी लिखी लेकिन उसकी छपाई के लिए ना तो उनके भाई तैयार हुए ,ना ही बीवी बच्चे। जिस स्कूल में प्रधानाचार्य थे उन्होंने भी पल्ला झाड़ लिया। दुनिया कितनी खुदगर्ज है इसका आभास मुझे हुआ ।

उन लोगों को लग रहा था कि इसमें मेरा कोई स्वार्थ है ।धीरे-धीरे वर्षों प्रयास करने के पश्चात भी उसे छपा नहीं सका। लेकिन मैं उसे छपा करके ही रहूंगा । वह पुस्तक मेरी मित्रता की मिसाल होगी।

भाग-8

मैंने हाईस्कूल सीताराम सिंह इंटर कॉलेज बाबूगंज बाजार से किया। सीताराम सिंह जी आटा गांव के ठाकुर परिवार के थे। पहले विद्यालय का नाम महाराणा प्रताप इंटर कॉलेज था जो कि उनकी मृत्यु के पश्चात बदलकर उनके नाम पर कर दिया गया । वे आजीवन प्रधानाचार्य रहे । लेकिन जब मैं पढ़ रहा था तो श्री वंश बहादुर सिंह प्रधानाचार्य थे। ठाकुर परिवार के होने के कारण किसी से डरते नहीं थे । विद्यालय में बहुत सख्त पहरा था।

किसी की गलती होने पर फट्टो से पिटाई करते थे । कभी कभी तो घंटों मुर्गा बना कर धूप में खड़ा करवा देते और उस पर ईंट रखवा देते थे। कोई ज्यादा इधर-उधर करता तो पीठ पर फट्टो से सोटे लगाते थे। मैं उनसे बहुत डरता था । उनसे बात करते हुए थर-थर कांपने लगता था।

परंतु अनुशासन को डंडे के बल पर नहीं सिखाया जा सकता। भयभीत बालक और गलतियां करता है । मार खा खा कर कुछ दोस्त पक्के हो गए थे । जिन्हें कितना भी मारा जाए कुछ असर ही नहीं होता था।

किसी लड़के को यदि लड़की से बातचीत करते देख ले तो पूछो ही मत। लड़कियां तो बच जाती थी । लेकिन लड़कों की तो जान आफत में पड़ जाती थीं । उसको मार- मार कर हड्डी पसली एक कर देते थे।

हाई स्कूल की कक्षा में आते-आते लड़के लड़कियों में किशोरावस्था आ जाती है। विपरीत लिंग के प्रति सहज में आकर्षण बढ़ने लगता है । लड़कों और लड़कियां में सहज में आकर्षण बढ़ने लगता है। लड़के तो अपनी इच्छाएं व्यक्त कर देते थे लेकिन लज्जाशील स्वभाव के कारण लड़कियां व्यक्त नहीं कर पाती थी।

बाबूगंज बाजार का एकमात्र इंटर कॉलेज था इसलिए छात्राएं भी बड़ी मात्रा में पढ़ने आती थी । लड़के तो और भी जगह पढ़ने चले जाया करते थे । सह शिक्षा के अपने लाभ भी हैं हानियां भी हैं। मेरी समझ से प्रेम पर इतना प्रबंध न लगाया जाता तो समाज में इतनी दुश्चरित्रता न फैलती।

कहते हैं जिसका विरोध किया जाता है । प्रतिबंध जिस पर लगाया जाता है वह और बढ़ता है। प्रेम पर प्रतिबंध लगाने का ही परिणाम है कि दुनिया में जो भी फिल्में प्रेम पर बनती हैं उनमें भारत सबसे आगे है।

भारत में तो बिना प्रेम के कोई फिल्म भी हो सकती है इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती हैं।मनोविज्ञान के जन्मदाता फ्रायड के जीवन की एक घटना है। जो इस प्रकार है —

एक बार उनका लड़का खो गया। बहुत खोजबीन के पश्चात भी नहीं मिला तो उनकी पत्नी ने उनसे कहा कि-” कितने निर्दयी बाप हो, बच्चा कब से ग़ायब है तुम खोज नहीं सकते।”

तब फ्रायड ने पूछा कि -“बताओ क्या तुमने उसे कहीं जाने के लिए रोका तो नहीं था “। उनकी पत्नी ने कहा-” रोका तो था। पीछे फाल के पास जाने के लिए।”
फ्रायड ने कहा -“फिर जाकर देखो बच्चा वही होगा।”
अंत में जब उनकी पत्नी खोजने गई तो बच्चा उनको वही मिला।

फिर पत्नी ने पूछा कि-” आखिर तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि बच्चा वही होगा , जबकि तुम यहां काम में व्यस्त थे।”
फ्रायड ने कहा कि -” मैं जान लिया कि तुमने बच्चों को जहां मना किया है वहीं गया होगा। क्योंकि बच्चों का यह स्वभाव है कि उन्हें जिस काम के लिए रोका जाता है उसी को और करते हैं।”

मेरी क्लास में एक मोटा ताजा लड़का आता था। उनकी बाजार में परचून की दुकान थी ।वह सबसे पहले आकर सबसे आगे सीट पर बैठता था लेकिन वह पढ़ने लिखने में बहुत कमजोर था। जिसके कारण खूब मार खाता था।

मेरी कक्षा में तेज तर्राक लड़कों में हिंदी वाले गुरुजी मुन्नी लाल यादव का लड़का अजय था। उसकी राइटिंग गजब की थी।
पूरी क्लास में फर्स्ट अधिकांशत वही आता था। बाद में वह अमेरिका में साइंटिस्ट भी हुआ। लेकिन कुछ वर्षों पूर्व किसी हादसे में उसकी मृत्यु हो गई। कहते हैं परमात्मा जिन्हें ज्ञान देता है उनकी उम्र भी कम कर देता है। अजय यदि आज होता तो भारत के महान वैज्ञानिकों में उसका भी नाम होता।

अन्य दोस्तों में जो पढ़ने में तेज थे वह थे धर्मेंद्र ,आनंद, सतीश, सच्चिदानंद आदि। कमजोर छात्रों में एक रामपाल था ।जिसकी बचपन में ही हाई स्कूल में शादी हो गई थी । वह बहुत मजाकिया भी था । बहुत से दोस्तों का नाम याद नहीं आ रहा है ।कमलेश कुमार भारतीय जो हमारे अच्छे दोस्त तो में रहे जिनके साथ आज भी खूब अच्छी दोस्ती है।

लड़कियों में किसी का नाम याद नहीं आ रहा। चेहरे तो यादों के झरोखे में कुछ-कुछ झलक रहे हैं । मेरी पता नहीं क्या बचपन से ही आदत रही की लड़कियों से ज्यादा बात नहीं करता था। मैं झेंपू टाइप का था। मैं इतना पढ़ने में तेज तर्राक भी नहीं था की लड़कियां मेरे पीछे पड़ती । एक तरह से प्रेम के मामले में मैं फिसड्डी सिद्ध होता था।

यदि किसी से किया भी होगा तो एकांगी प्रेम करना रहा। उनके मन में क्या है कभी सोचा नहीं। यही कारण है कि हमारे जीवन में प्रेम कभी परवान नहीं चढ़ सका। इसका एक कारण मुझे यह भी लगता है कि मेरे परिवार की अति मर्यादा। मेरी मां अक्सर हिदायत देती रहती कि किसी के द्वार पर मत बैठा करो।

जिनके घरों में हम उम्र लड़कियां होती थी तो उनसे बात करने पर डाटा करती थी। आज भी मैं प्रेम के मामले में असफल हूं । कभी ज्यादा बातचीत नहीं करता । किसी से कोई कभी बोल दिया तो ठीक नहीं तो चुप बैठा रहता हूं । कुछ लिखता पढ़ता रहता हूं।

कहते हैं संसार में जितनी श्रेष्ठ रचनाएं हैं वह सब प्रेम में असफल प्रेमियों ने की है। प्रेम ऊर्जा है, शक्ति है, प्रेम की ऊर्जा जहां भी होती है वही अपना सौंदर्य बिखेरती है । हिटलर जैसा तानाशाह शासक को कहा जाता है कि यदि उसे उसकी प्रेमिका का सानिध्य मिल गया होता तो इतना क्रुर नहीं होता।

ऊर्जा नष्ट नहीं होती बल्कि केवल उसके रूप में परिवर्तन किया जा सकता है ।‌प्रेम रूपी ऊर्जा को नष्ट करने की मूर्खता का ही दुष्परिणाम है कि यह दुनिया रहने लायक भी नहीं रही ।यदि प्रेमी प्रेमिकाओं को मिलने दिया जाता तो क्यों वह छुप-छुप कर मिलते ।

पुरुष की अपेक्षा स्त्री का शरीर जल्दी विकसित होता है। हाई स्कूल की कक्षा में पहुंचते हुए लड़कियां युवा हो जाती हैं लेकिन लड़के इतनी परिपक्व नहीं हो पाते। पहले के जमाने में तो इतना टीवी, मोबाइल, इंटरनेट आदि का प्रचलन गांव में नहीं था जिससे वह कुछ ना कुछ ऐसे दुष्प्रभाव से बचे रहते थे । मेरे बाबूगंज में आज भी टॉकीज नहीं बना है।

आज कल बच्चों में बढ़ती दुष्ट प्रवृत्तियों के कारण को देखा जाए तो वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रमुख दोषी है। दिन रात टीवी के सामने बैठकर आपका बच्चा लूट, हत्या, बलात्कार ,झूठ, फरेबी, मारधाड़ देख रहा है तो हम कैसे कल्पना कर ले कि हमारा बच्चा सच चरित्र बन जाएगा।

अब पुनः चलते हैं विद्यालय की ओर। विज्ञान में भौतिक विज्ञान संतोष कुमार जायसवाल सर पढ़ाते थे। जो कि बाद में प्राथमिक विद्यालय में सरकारी अध्यापक हुए। रसायन विज्ञान श्री कृष्णा राम मौर्य सर पढ़ाते थे। जो कि इफको में साथ ही ट्यूशन भी पढ़ाते रहे । आज उन्होंने अपना स्वयं का डिग्री कॉलेज, इंटर कॉलेज, पॉलिटेक्निक कॉलेज आदि खोल लिया है।

वे इस बात के उदाहरण है कि व्यक्ति के पास लगन और कुछ करने की चाहत हो तो एक न एक दिन वह मंजिल पाकर ही रहता है। पुरुषार्थ करना हमारा कर्तव्य है जिसे हमें हर संभव तरीके से करने का प्रयास करना चाहिए।

उनके विद्यालयों में आज 10000 की संख्या में बच्चे अध्ययन करते हैं । उनके सफल होने में एक बड़ा कारण यह भी रहा है उनके स्वयं की बहुत सी जमीन थी। राजनीतिक रूप से भी उनकी अच्छी पकड़ थी । भाग्य भी अनुकूल चल रहा था जिसके कारण वह सफल इंसान बन सके।

जीव विज्ञान उमाशंकर मौर्य सर पढ़ाते थे । बचपन में एक दो बार मैंने मेंढक का चीर फाड़ भी किया परंतु बाद में बंद कर दिया । इंटर में मैथ लेने के कारण सब छूट गया। वह बहुत अच्छा पढ़ाते रहे स्कूल छोड़ने के पश्चात वे राजनीति में आ गए । वह अपने गांव चिलौडा के प्रधान भी रहे।

सामाजिक विज्ञान शारदा प्रसाद शुक्ला जी सर पढ़ाते थे। वे दुबले पतले थे। वे बच्चों को कान बहुत उमेठते थे।

एक बार पढ़ाते हुए उन्होंने बताया कि एक बार क्या होता है कि एक बच्चे को चिट्ठी पढ़ने को दी ।चिट्ठी में लिखा था कि पिताजी अजमेर गए और उसने पढ़ा कि पिताजी आज मर गए । अब क्या होता है सारे घर में रोना पीटना मच जाता है। आज के बच्चों का यही हाल है।

इंग्लिश राम प्रताप पटेल सर पढ़ाते थे। वह इंग्लिश बहुत अच्छी प्रकार से पढ़ाते थे। पढ़ाते पढ़ाते अक्सर वह कुछ कहानियां भी बताने लगते थे जिससे कि बच्चे ऊबे ना।

हिंदी मुन्नी लाल यादव सर पढ़ाते थे। जिनका बेटा अजय भी हमारे ही क्लास में पढ़ता था। वह हिंदी को बहुत समझा करके पढ़ाया करते थे।

गणित को रामराज पांडे सर पढ़ाते थे। उन्हें गणित में महारत हासिल थी। सैकड़ो निरमेय प्रमेय उन्हें जबानी याद थे। रिटायर्ड होने के पश्चात उन्होंने योग साधना का मार्ग अपनाया और आज भी पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं।
उसे समय भले हम बहुत डरते रहे हो परंतु अब जब भी विद्यालय जाता हूं या जब भी अपने गुरुजनों से मुलाकात होती है तो बहुत सम्मान पूर्वक बात करते हैं।

भाग-9

 

यादों का प्रवाह है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा है । मैं वहां से हाई स्कूल करने के पश्चात इंटरमीडिएट गोमती इंटर कॉलेज फूलपुर से किया। गंगापार क्षेत्र का कहा जाता है कि वह सबसे पुराना विद्यालय है।

वहां पर मात्र लड़के ही पढ़ते थे लड़कियों को राजकीय बालिका इंटर कॉलेज अलग से बना हुआ था। यहां मैंने पहले तो जीव विज्ञान विषय लिया था । बाद में गणित बदलवा दिया।

मेरे गणित के अध्यापक राय साहब थे । वह गुलाब जैसे गौढ बदन के बहुत ही सुंदर थे। कुछ-कुछ नाटे कद के शरीर से थुल थुल थे। उनकी आदत पढ़ते पढ़ते बीच-बीच में कोई ना कोई चुटकुले सुनाने की थी । गणित जैसे नीरस विषय को पढ़ाते हुए जब देखे कि बच्चे अब पढ़ नहीं रहे हैं तो कहानी चुटकुलों का दौर शुरू हो जाता था।

जहां सीताराम सिंह इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य का वर्चस्व था। उनके नाम से बच्चे थर-थर कांपते थे । वहीं यहां के प्रधानाचार्य एलपी मिश्रा की बात को कोई नहीं सुनता था । वह एक ओर चिल्लाते रहते थे तो दूसरी और बच्चे निकल भागते थे। स्कूल के अध्यापक भी उनका कोई सम्मान नहीं करते थे । सब अपनी मर्जी के मालिक थे।

विद्यालय में कोई ज्यादा सख्ती नहीं थी। इसी बीच मुझे फिल्म देखने का चस्का लग गया था । मैं उपन्यास भी खूब पढ़ने लगा था। कोई भी फिल्में नहीं छोड़ता था। घर में छोटी सी किराने की दुकान थी । कभी-कभी मैं दुकान पर बैठता था ।

थोड़े बहुत पैसे चुराने से कभी नहीं बच पाया । एक तो घर से विद्यालय सात आठ किलोमीटर दूर था । हमारे गांव का दूसरा सहपाठी नहीं पढता था कि जो मेरी शिकायत कर दे। इसलिए फिल्मों के प्रति दीवानगी बढ़ती ही जा रहे थी।

इसी बीच उपन्यास पढ़ने का चस्का लग चुका था। एक-एक दिन में दो-दो उपन्यास पढ़ डालता था । उपन्यास मैं अर्धरात्रि में पढ़ता था या जब भैया नहीं रहते थे। मां को तो मालूम नहीं कि मैं क्या पढ़ रहा हूं क्या नहीं? भाभी भी अनपढ़ थी इसलिए मेरी ललक बढ़ती ही जा रही थी।

एक दिन सुबह के समय दिन चढ़ आया फिर भी मैं उपन्यास पढ़ता रहा। पीछे के घर की कोठरी में । भैया ने बाहर द्वार से बुलाया की जो पढ़ रहे हो लेकर आ। मैं छुपाना चाहता था लेकिन उन्होंने देख लिया। फिर मैं उपन्यास को लेकर बाहर आया भैया ने गुस्से में उपन्यास फाड़कर टुकड़े-टुकड़े करके मां के सामने फेंक दिया।

फिर गुस्से में कहने लगे कि देख ली क्या पड़ता है यह रात रात भर । फिर दो तीन थप्पड़ जड़ दिए गाल पर । मेरी आंखों से आंसू झरने लगे , फिर भी डर के मारे रो नहीं पा रहा था।

वैसे भैया जल्दी मुझे मारते नहीं थे उसका कारण था कि लोग कहेंगे कि देखो बिना बाप का है इसलिए मार रहा है। मां का मैं दुलारा बेटा था । इसलिए मार खाने से बच जाता था।

उस दिन के बाद मेरे बैग की तलाशी होने लगी जिससे उपन्यास नहीं पढ़ने में ही भलाई समझी। मैं उपन्यास खरीदता नहीं था बल्कि किराए पर लाता था । ऐसे बाजारू उपन्यासों से होता जाता कुछ नहीं बस टाइम पास की रहस्यात्मक कहानी गढ़ी रहती हैं।

अब तो चाह कर भी ऐसे उपन्यास पढ़ने की इच्छा नहीं होती । मैं ऐसे कई उपन्यास लेखक से मिल भी चुका हूं । कई ऐसे लेखक जिनका एक बार नाम चल गया फिर उनके नाम से दूसरों से लिखवा कर प्रकाशक एवं पूर्व लेखक नाम और शोहरत कमाते हैं । लेकिन लूटता है तो गरीब लेखक जो मजबूरी बस पैसे के खातिर अपनी कलम को बेचने के लिए उसे अभिशप्त होना पड़ता है।

भाग-10

मेरे बड़े भैया की जब शादी हुई थी तो मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था । उन्हीं के दो-तीन दिन के अंतर पर मझली बहन तीजा की भी शादी हुई। मेरे गांव में लड़कियों की शादी १५ -१६ वर्षों में कर दिया जाता था।

अभी भी गांव में बाल विवाह की स्थिति व्याप्त थी। जिसमें लड़के लड़की की शादी तो बचपन में कर देते थे परंतु गौना छः सात वर्ष बाद लाते थे। भैया की शादी में मैं बलहा बना था। उस समय पिताजी जीवित थे चूंकि घर में बड़े लड़के की बहू आ रही थी इसलिए रौनक ज्यादा थी।

उस समय गांव में शादी विवाह के पहले महीनों तक रात्रि में महिलाएं लोकगीत गाती थी ।जो कि सुनने में बहुत मधुर होते थे । कुछ महिलाएं गाने बजाने में बहुत माहिर होती थी। कुछ तो गाते गाते नाचने भी लगती थी।

उनकी वह सरलता अल्हड़पन की मस्ती देखते ही बनती थी। लेकिन धीरे-धीरे शहरों की हवा जैसे गांव को भी लग गई हो । गांव में अब धीरे-धीरे गाने बजाने की परंपराएं खत्म होने लगी है।

अब तो बस डीजे की धुन पर गला फोड़ू संगीत रह गया है। उसमें अल्हड़पन कैसे आ सकती है । आधुनिक लड़कियां तो ऐसे गीतों को पुराने जमाने की कहकर मुंह बिचकाने लगी हैं। उन्हें केवल डीजे की धुन पर कमर मटकाना ही दिखाई देता है।

मेरे बड़े भैया का बदन बहुत गठीला था । 100 किलो का वजन उठाकर फेंक देते थे । भैया को देखकर गांव की औरतें मां से कहती कि पता नहीं महजइनिया क्या अपने लड़कों को खिलावत है की मोटाई के कोल्हू जैसे होइ गंवा है। लेकिन मैं बचपन से शारीरिक रूप से बहुत कमजोर रहा।

मेरे भैया खाने-पीने के बहुत शौकीन रहे हैं। घर में भैंस थी। वह कभी ग्वाले को दूध नहीं बेचने देते थे । कहते थे कि मैं मेहनत करता हूं तो दूध भी पीने को ना मिले तो सब बेकार है।

कहते हैं कि परिस्थितियां बड़े बड़ों को तोड़ देती हैं। आज बड़े भैया में वह ताकत नहीं रही।
भैया की शादी में तांगा गया था बारात में । क्या बांका घोड़ा था कि पूछो ही मत। बारात घर से 40 कमी के लगभग दूरी पर जाने थे। बांका जवान एक बार दौड़ लगाई तो दुल्हन के घर पर ही जाकर रुका।

भारत में हिंदूओं की शादी होने के पहले महीना तक लड़के लड़कियों को सरसों को पीस कर सारे बदन पर मालिश की जाती थी । विशेष तौर पर लड़कों को ज्यादा । एक माह की मालिश के बाद लड़कों का मुरझाया चेहरा भी खिल जाता था। चेहरे के दाग, धब्बे, झुर्रियों का तो पता ही ना चलता था।

कभी-कभी हल्दी भी मिलाकर लेपन किया जाता है। हल्दी शादी विवाह में बड़ा ही शुभ माना गया है। स्त्री के प्रसव के उपरांत भी हल्दी के दूध के साथ गर्म करके अन्य मेवे वगैरा मिलकर दिया जाता है । कहा जाता है कि इससे बच्चे पैदा होते समय जो स्त्री के शरीर में खून की कमी आई है वह दूर हो जाती है।

वैसे लड़कों की मालिश उसकी बुआ करती हैं। लेकिन हमारी बुआ नहीं होने के कारण बड़ी दीदी ने भैया की मालिश की थी। बड़ी दीदी भैया से 10 वर्ष बड़ी होने के बाद भी आज तक अदब रखती हैं।

शादी विवाह के अवसर पर गांव में कुल देवता की पूजा की जाती है। मेरे घर में कुल देवता के रूप में गाजी मियां और बड़े पुरुष के रूप में पूज्य थे। उनकी पूजा कहां से कैसे प्रारंभ हुई इसके इतिहास में न जाते हुए हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि भारत देश श्रद्धालुओं का देश है। कहते हैं कि मेरे पिताजी को वाणी सिद्धि थी ।

जब उनके शरीर पर देवता प्रकट होते थे तो जो भी पूछिए बता देते थे। गाजी मियां को लोग बकरा बकरी मुर्गा आदि की बलि चढ़ाया करते हैं।

कहते हैं कि किसी झूठ को यदि हजारों बार बोला जाए तो वह सत्य होने लगता है। यही बात हिंदू समाज का मजारों दरगाह आदि की पूजा करना है। हमारे गांव में हिंदुओं में कोई भी व्यक्ति ऐसा मिलना मुश्किल होगा जो कभी न कभी गाज़ी मियां की मजार पर नहीं गए हों।

हिंदूओं में जितना लोगों में मूढ़ता व्याप्त है उतना दूसरे किसी समाज में व्याप्त हो। बचपन में कहां जाता है कि मेरी एक महीना तक आंख नहीं खुली। बीमारी से पूरा शरीर सूखकर कांटा हो गया था ।

अम्मा बताती थी कि जब पिताजी के शरीर पर ऐसे देवता प्रकट होते थे तो कहते थे कि बच्चे को कुछ नहीं होगा । इसकी आंख खुलेगी और कुछ दिनों बाद मैं ठीक हो गया। बचपन की इस बीमारी का प्रभाव हमारे शरीर पर आज भी देखा जा सकता है।

भाग 11

शादी विवाह के पूर्व गांव में कुल देवता की पूजा की जाती है। मेरे घर में कुल देवता के रूप में गाजी मियां की पूजा की जाती रही। इनकी पूजा कहां से कैसे आरंभ हुई इसके इतिहास में न जाते हुए हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि भारत देश श्रद्धालुओं का देश है।

कहते हैं मेरे पिताजी को वाणी सिद्ध थी। जब उनके शरीर पर यह देवता प्रकट होते थे तो जो भी पूछिए बता देते थे । इनको लोग बकरा ,बकरी, मुर्गा आदि की बलि चढ़ाया करते हैं।

पिताजी जब वर्ष में एक बार विशेष पूजा करते थे तो बकरा बकरी मुर्गा सभी की बलि देते थे, शराब भी चढ़ाते थे । हम भाई-बहनों में कोई भी मांस नहीं खाता था। अम्मा भी नहीं खाती थी। इसके लिए नाते रिश्तेदारों को बुलाया जाता था।

एक प्रकार से यह अंध परंपरा है जो कि गांव में आज भी चली आ रही है । पिताजी के पश्चात वैसे घर में कभी मांस मछली का प्रयोग नहीं किया गया। बड़े भैया ने पूजा करने का प्रयास भी किया लेकिन वह उनके शरीर पर नहीं आए । कहते हैं कि पिताजी तुम्हारे उनकी बलि देते थे तो तुम भी दो लेकिन भैया कहते हैं कि यदि मैं नहीं खाता हूं तो कैसे चढ़ाऊं।

कुल देवता के पूजन के उपरांत बारात गई । मेरे पिताजी के चेहरे पर खुशी देखते ही बनती थी । वह धोती कुर्ता पहनते थे ऊपर से सदरी (एक प्रकार की कोट) पहनते थे।

शादी में पुराने तरीके के बाजे वाले गए थे जो नाच नाच कर गाया करते थे । कभी-कभी विशेष कलाबाजियां भी दिखाया करते हैं। दुबराचार के पश्चात सभी ने भोजन किया।

हिंदू विवाहों में शादियों के कर्मकांड दो-तीन बजे रात्रि से शुरू होते हैं जो की तीन-चार घंटे तक चलते रहते हैं। पहले के पुरोहित बहुत शांत मन से पूजा पाठ करते रहे हैं । जजमानों के प्रति बहुत आत्मीयता रखते थे। वर और कन्या दोनों से संकल्प बुलाया जाता है ।

जिसका मुख्य सूत्र है कि अपने मन में कोई दुराव छिपाव नहीं रखेंगे । जो भी बात होगी पति-पत्नी आपस में उसे सुलझाने का प्रयास करेंगे। लड़की के लिए उसकी ससुराल ही अब उसका घर है । जो भी बात होगी पति-पत्नी आपस में ही सुलझाने का प्रयास करेंग। लड़की के लिए उसकी ससुराल ही अब उसका घर है । इसलिए मायके से मोह त्याग कर पति के घर में ही मन लगाना चाहिए।

सुबह नाश्ते के बाद मुंह दिखाई का कार्यक्रम हुआ। जिसमें घर की महिलाएं सीसे कंघी,तौलिया माला आदि दूल्हे को देती हैं। उसको विभिन्न प्रकार के इतर आदि लगाते हैं। दूल्हा किसी किसी महिला को आंचल पकड़ लेता था मुख्य रूप से सलहज का फिर कुछ बिना दिए नहीं छोड़ता है। यह परंपराएं मुख्य रूप से दोनों परिवारों में हंसी एवं आत्मिता को बनाए रखने के लिए किया जाता है।

इन क्रियाओं को विस्तार पूर्वक इसीलिए बता रहा हूं कि धीरे-धीरे जितना हम पाश्चात्य संस्कृत की ओर बढ़ रहे हैं वही हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को भूलते जा रहे हैं। जो मिट्टी की खुशबू परंपरागत शादी विवाहों में आती थी वह सुगंध जैसे खोती जा रही हैं। यदि उन परंपराओं को जैसे लगता है कि यदि बचाया नहीं गया तो भारत का मूल अस्तित्व ही समाप्त होकर निश्प्राण हो जाएगा।

मेरी भाभी गौर वर्ण की दुबली पतली कद की बहुत सुंदर हैं। वे अनपढ़ हैं अक्षर भी नहीं पहचान पाती लेकिन दिल में चलने वाले अक्षरों को बखूबी पहचान लेती हैं।

उस समय मैं बहुत छोटा था। वह बच्चों जैसा प्यार करती थी। वह भोजन बनाती रहती और मुझे पास में बैठा कर दुनिया भर की कहानी सुनाया करती। अधिकांश बेतुकी बातें होती थी। मैं कुछ समझता कुछ नहीं लेकिन हूं , हां करता जाता।

मां डाटती के पढ़े लिखेगा भी की वहीं बैठा रहेगा। लेकिन भाभी बिना भोजन खिलाई नहीं आने देती । कैसे-कैसे वे बचपन में अपनी सहेलियों के साथ हठखेलियां करती थी सब बतातीं थी । कोई भी बात मन में नहीं छुपाती थी।

उनके आने से घर में जैसे रौनक आ गई हो। वह सब को खुश रहे ऐसे ही काम करती थी।मेरे भैया भाभी से बहुत प्रेम करते थे। यदि भाभी मायके चली जाती तो भैया दो-तीन दिन में ही पहुंच जाते क्योंकि पास में मझली दीदी का भी घर है जिससे उनकी चोरी छुप जाती थी।

बड़े भैया और मझली दीदी में खूब पटती थी। दीदी कहती है कि मेरे भाई भले गरीब हैं परंतु उनके जैसा दुनिया में ढूंढे नहीं मिलेगा। बड़े भैया भी सभी बहनों को कुछ भी बात हो तुरंत उनके ससुराल जाते हैं। उनका अधिकांश समय बहनों के सुख-दुख के कामों में ही खर्च हो जाता है।

जब मैं छोटा था तो तीनों भाई एक ही चारपाई पर लेटते थे ।दोनों भाइयों के बीच में मैं घुस जाता था । उस समय कितना प्यार था भाइयों में जिसकी कल्पना नहीं कर सकते। मां जब भोजन बनाती तो जैसे ही एक रोटी भी बनाई की बुला लेती थीं खाने के लिए। एक-एक रोटी बनाती जाती थी और परोसती जाती थी ।वह स्वर्गिक सुख काश एक बार फिर लौटा आता।

मां के हाथ की बनाई गरमा गरम रोटियां का स्वाद हम पांच सितारा होटल में हजारों रुपए खर्च करने के बाद भी नहीं पा सकते । प्रभु सबको मेरी जैसी मां दें। मां का प्यार ही वह औषधि है जो शोक संतप्त मानव को रोगों से मुक्ति दिला सकता है।

आज हम भाइयों के पास सब कुछ है लेकिन कुछ नहीं है तो मां। अम्मा जब से गई है जैसे जीने की सुगंध ही खत्म हो गई हो। जिंदगी में आनंद तभी तक रहते हैं जब तक मां-बाप का साया सिर पर होता है। उसके बाद तो जिंदगी बस काटनी पड़ती है। जिंदगी का रस जैसे खो सा जाता है।

भाग -१२

मैं विद्यालय के किसी भी कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेता था बचपन में मुझे मंच पर जाने पर डर लगता था मुझे याद नहीं है कि मैं कभी कोई वार्षिक उत्सव में भाग लिया हो परंतु पढ़ने लिखने में औसत था कभी ज्यादा नंबर आए इसके लिए परेशान नहीं हुआ स्वयं तो मैं गाने नहीं गए पता लेकिन दूसरों से सुना बड़ा अच्छा लगता था।

जिस व्यक्ति में जो कमी होती है उसे वह दूसरों में खोजने का प्रयास करता है मेरे क्लास में आनंद अजय बहुत अच्छा गाते थे छात्राओं में एक किरण चौधरी थे उसका स्वर इतना सुरीला था कि पूछो ही मत उसके गए गए जीत के बोल मुझे अब तक याद हैं। मेरे भारत माता की शान निराली है हर तरफ खुशियों के बारिश होने वाली है गाड़ी हो या नेहरू हो या सुभाष चंद्र वरदानी हो।

सीताराम सिंह इंटर कॉलेज में पिकनिक कार्यक्रम की यादें तो फिल्म की भांति जैसे आंखों के सामने नाच रहे हैं पिकनिक का कार्यक्रम पास के चीलोदा गांव में उसर क्षेत्र में था गांव की ओर से मैं अकेला था परंतु फिर भी साइकिल में खाने बनाने के सारे बर्तन लेकर पहुंच गया वहां का नजारा देखते ही बनता है जिधर देखो उधर चुल ही फुके जा रहे थे किसी की सब्जी कच्ची रह गए तो किसी में नमक ज्यादा हो गया लेकिन सभी बनाने में जुटे हैं पानी गुट हुए मेरे आते में पानी ज्यादा गिर गया अब सारे पाइथन रूप में बचाए आते मिलने के बाद भी अशोक नहीं रहा था।

2 से लेकर किसी तरह बनाया मेरे साथ में किसी लड़की की कोई टोली नहीं थी जिनके साथ लड़कियां थी वह बहुत अच्छी तरह से बना रहे थे मेरी तरह जिनके साल लड़कियों की टीम नहीं थी सभी में कुछ ना कुछ कमी रही जाती थी।
परंतु जो लड़कियां खाली थी वह किसी न किसी की मदद में लग जाते थे मेरा आटा गीला होने के कारण सर हथेली में लपट गया था पूरी भी नहीं बन पा रहे थे मन में आ रहा था कि कोई सहायता कर दे तो अच्छा रहे।

मुझे परेशान देखकर एक बहन को जैसे दया आ गई वाइफ को की कॉलोनी से आई थी उसके साथ उसका भाई भी पड़ता था दोनों पढ़ने में बहुत होशियार थे उसकी सहायता किसी प्रकार भोजन बना उसकी हेल्प करना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था अब मेरी सारी रसोई पर उसने कब्जा जमा लिया था वह इतनी सतर्कता से जल्दी-जल्दी पूरियां काट रहे थे कि मैं उसकी पूर्ति देखता रह गया।

मेरे मन में है विचार आ रहे थे कि काश ऐसी पिकनिक का प्रोग्राम रोग होता तो मैं आते जिला रोज करता और यह मेरी सहायता करते वह भोजन बनाती जाती थी और डांटती भी जाती थी तुम लड़कों को आखिर क्या करना आता है ठीक से भोजन भी नहीं बना सकते।

उसकी डांट भी इतनी प्यारी लग रही थीकि जैसे भजन सुना रहे हो अध्यापकों का भजन कुछ तो जिन बच्चों ने अच्छा बनाया था वहां से आया और कुछ अलग से भी बना लिया था।

बच्चों में बोर्ड मचे थे कौन-कौन गुरु जी लोगों को खिला है सभी अध्यापक थोड़ा-थोड़ा लेकर छोड़ देते थे उसे तो कल सुख की कल्पना करना कटनी है वह आनंद वह मस्ती फिर कभी जीवन में मिल पाएगी कि नहीं कहना मुश्किल है ताश पिकनिक रोज मनाई जाती तो क्या बात होती।

भाग -१३

इंटरमीडिएट करने के पश्चात घर वालों की इच्छा थी कि मैं इंजीनियरिंग की तैयारी करूं परंतु पारिवारिक परिस्थित ऐसी थी कि ठीक से खाने रहने को व्यक्ति को उपलब्ध हो जाए यही बहुत था। दोनों बड़े भाई पढ़ाई छोड़कर काम धंधे में लग गए थे । उनकी इच्छा थी कि चाहे जैसा भी हो बाबा (मेरा घर का प्रिय नाम )को पढ़ाया जाए। एक दिन मां से बड़े भैया ने पूछा कि बताओ क्या करें ।

मां ने कहा -“देखो जैसे हिम्मत हो करो अब मैं क्या जानू मुझे तो कमा कर देना नहीं है कामना तो तुम ही लोगों को है।”
भैया ने कहा -“सबका अपना-अपना भाग्य होता है। यदि बाबा के जीवन में पढ़ाई लिखी है तो उसे कोई रोक नहीं सकता । ऐसा करते उसका एडमिशन शहर में करवा दिया जाए।

अब तक मैं गांव में रहा था। अब शहर में कमरा लेकर रहने लगा। मुझे भोजन बनाना तो आता नहीं था। पड़ोस के एक भाई के रिश्तेदार विजय कुमार पटेल को पार्टनर बनाया। वह बहुत अच्छे इंसान थे।

वह मेडिकल की तैयारी करते थे और मैं इंजीनियरिंग का। इसलिए भौतिक और रसायन विज्ञान विषय दोनों के मिलते थे। अक्सर वे मुझे पढ़ाते थे । कमरे का किराया ₹400 था ₹30 बिजली का बिल लेते थे । इस प्रकार 430 रुपए में से आधा ₹215 देना पड़ता था।

इसके अलावा भी शहर में रहने के अनेकों खर्च थे। गांव में जहां बहुत सी चीज वैसे ही मिल जाती थी वहीं शहर में पग -पग पर पैसों की जरूरत होती थी। सबसे ज्यादा खर्च दैनिक भोजन में होता था।

हम लोग जो भी सामान आदि खरीदते थे उसे एक डायरी में नोट करते जाते थे। महीने के अंत में उसका हिसाब कर लिया जाता था । जिसका ज्यादा निकलता उसको बकाया दे दिया जाता।

मेरा कमरा शोहबतिया बाग मोहल्ले में था । जहां से घूमने के लिए संगम तट की तरफ आराम से जाया जा सकता है । मेरी आदत प्रकृति के खुले आसमान में टहलने घूमने की ज्यादा थी।जब भी मौका मिलता जरूर जाते थे।

संगम तट तक प्रतिदिन नहीं जाया जा सकता परंतु उसके नजदीक ही बहुत बड़ा खुला क्षेत्र है, जहां शहर के लोग प्रातः भ्रमण के लिए आते हैं। शहर में पढ़ने वाले विद्यार्थी के मन को थोड़ा पढ़ाई लिखाई से सुकून मिल सके इसलिए टहलना स्वभाव बना लिया था।

वैसे भी प्रातः भ्रमण स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद होता है। ऑक्सीजन शुद्ध मिलती है जिससे दिन भर ताजगी के साथ बिताया जा सकता है।

मैं इंजीनियरिंग की कोचिंग करना चाहता था इसलिए लोगों की सलाह थीं कि रेगुलर किसी जगह प्रवेश न लिया जाए । कई लोग इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्राचार विभाग से बीए बीकॉम कर रहे थे । मैंने भी बी ए में प्रवेश ले लिया । हमारे विषय थे – हिंदी, शिक्षा शास्त्र और दर्शनशास्त्र।

पत्राचार कार्यालय से नोट मिल जाया करता है। जिसे पढ़कर परीक्षा दिया जा सकता है। जो विद्यार्थी किसी कंपटीशन की तैयारी करते हैं उनके लिए पत्राचार द्वारा पढ़ाई करना सुविधाजनक होता है क्योंकि मार्कशीट इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ही मिलती है। जिसमें रेगुलर ही लिखा होता है।

इलाहाबाद में मेडिकल इंजीनियरिंग के साथ ही अन्य राजकीय सेवा की परीक्षाओं जैसे आइएएस पीसीएस रेलवे बैंक आदि के लिए भी अनुकूल है। बड़ी मात्रा में अन्य जिलों से विद्यार्थी आकर यहां रहकर तैयारी करते हैं।

देश के अलावा प्रमुख रूप से बिहार राज्य के विद्यार्थी यहां बड़ी संख्या में रहते हैं। इलाहाबाद शहर के लोग जिन्होंने दो चार कमरा बना लिए हैं एक दो कमरे किराए पर उठाकर घर का खर्चा आराम से चला सकते हैं।

विश्वविद्यालय में हॉस्टल भी है परंतु इतनी बड़ी संख्या में तो लोग वहां रह नहीं सकते इसलिए कमरा लेकर रहना ही पड़ता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के आसपास जैसे तेलियरगंज, कीटगंज ,बघाड़ा, अल्लापुर ,दारागंज सोहबतिया बाग आदि हर मोहल्ले में विद्यार्थी रहते हुए मिल जाएंगे।

 

भाग -१४

 

शहर में रहने की जो सबसे बड़ी समस्या थी वह तो हल हो चुकी थी । अब थी पढ़ाई लिखाई की। बीए में प्रवेश ले लिया था। इंजीनियरिंग के लिए यह विचार किया गया कि किसी बड़े इंस्टिट्यूट में प्रवेश लेने से पहले किसी ट्विटर से पढ़कर सेल्फ स्टडी कर लिया जाए तो अच्छा रहेगा।

इसलिए सेल्फ स्टडी करने लगा। अब विद्यालय तो जाना नहीं रहता था आखिर कोई पढ़ें तो कितना पढ़ेगा परंतु यहां और तो कोई काम ही नहीं था। पढ़ाई करो , भोजन बनाओ खाओ।

जहां हॉस्टल में विद्यार्थियों पर एक नियम होता था परंतु कमरे में रहने वालों के लिए तो स्वयं में नियम कानून बनाने पड़ते हैं कि कैसे क्या कब करना है ?

वैसे कमरा लेकर रहने में जो आनंद है वह प्रतिदिन के आने-जाने में नहीं है।
वैसे मेरा घर शहर से नजदीक ही है । बहुत से विद्यार्थी प्रतिदिन पढ़ाई के लिए आते हैं। और सायं काल अध्ययन कर लौट जाते हैं। उनका अधिकतर समय यात्रा में ही खर्च हो जाता है। कमरा लेकर रहने के एक बढ़ा फायदा होता है कि आपको सारी जानकारियां होती रहती हैं। विभिन्न प्रकार के दोस्तों के साथ बातचीत आप अपने विषय को लेकर कर सकते हैं।

लेकिन कमरे लेकर रहने के नुकसान भी कम नहीं हैं। एक तो यहां आपको कोई रोकने टोकने वाला नहीं होता है। घर में तो कम से कम यह तो घर वालों को खबर रहती है कि आप क्या कर रहे हैं? कहां आ जा रहे हैं? परंतु यहां ऐसी तो कोई बंधन रहता नहीं।

‌‌कई बार विद्यार्थी कभी-कभी गलत सोहबत में पड़कर बिगड़ भी जाते हैं। नशा की लत पकड़ना सामान्य सी बात है। दोस्तों के साथ मटरगश्ती करना गपबाजी में समय गवाना , पार्टी बाजी में मां-बाप के मेहनत की कमाई को फूकना सामान्य बात है।

मेरा पार्टनर कुछ अजीब प्रकार का था । जब उसकी मौज आती थी तो पढ़ता था। नहीं तो बातचीत ही करता रहता। वे गुटखा पान भी खाते थे। सिगरेट भी पीते थे लेकिन कभी मुझे दबाव नहीं बनाया कि मैं भी पीयू । बल्कि वहीं इसके नुकसान ही बताया करता कि कितना पैसा फालतू में खर्च हो जाता है।

मैं नशा तो नहीं किया परंतु फिल्म देखने का शौक बना रहा। अब घर से तो सीमित पैसे ही मिलते थे। शहर की टाकीजो के टिकट महंगे होते थे । इसलिए कभी कभार ही देखते थे।

मेरे पड़ोस में तीन सगे भाई रहते थे। जो कि तीनों लोग आईएएस पीसीएस की तैयारी करते थे। सबसे बड़े भाई के तो बालों में सफेदी ही आने लगे थे। उनकी उम्र 30- 32 वर्ष रही होगी उनके सामने मैं बच्चा था।

लाल बत्ती का ख्वाब बड़ा आकर्षण होता है। हो सकता है कि इस बार हो जाए इसी इंतजार में वर्ष के वर्ष बीतते जाते हैं? जब तक अंतिम चांस भी समाप्त नहीं हो जाता लगे रहते हैं तैयारी में।

एक प्रकार से यह किसी योग साधना से कम नहीं है । आखिर विद्यार्थी तप ही तो करता है। जिसमें असीम धैर्य चाहिए ।जीवन लक्ष्य पाने में अधिकांश विद्यार्थियों का जिनका जीवन लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता वह भटकते रहते हैं।

जिसने जो भी सलाह दी उस तरफ अपने को मोड़ देते हैं । कभी यह किया तो कभी वह किया । लेकिन सफलता का असली स्वाद वही चख पाता है जो एक दिशा में ही अपनी सारी ऊर्जा को लगा देता है।

इसमें विद्यार्थियों की भी ज्यादा गलती नहीं है । भारतीय सामाजिक ढांचा ही ऐसा बनाया गया है कि यहां बच्चों की मर्जी से जीवन लक्ष्य नहीं निर्धारित किए जाते बल्कि पड़ोस में देखकर किया जाता है कि यदि पड़ोस का लड़का इंजीनियर डॉक्टर की तैयारी कर रहा है तो तुम क्यों नहीं करते।

ऐसी स्थिति में बच्चों की सारी रुचियों अभिरुचियों को नजर अंदाज कर दिया जाता है। ऐसे में बालक अभिभावकों के ख्वाब को पूर्ण करने के लिए मात्र बंधुआ मजदूर बनकर रह जाता है। जिसका एकमात्र जीवन का उद्देश्य रहता है कि अभिभावक जिसमें खुश रहे वह कार्य करना।

ऐसे में बालकों की प्रतिभा भी कभी-कभी कुंठित हो जाती है । मैं अपने जीवन में आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो यही दिखाई पड़ता है कि मेरे व्यवहार को न कभी यह नहीं जानने का प्रयास किया कि मैं क्या करना चाहता हूं। उन्हें आज भी इस बात का मलाल है कि मैं इंजीनियर नहीं बन पाया।

मैं अपनी अभिरुचि के बारे में आपसे चर्चा करना चाहूंगा ।जिससे यह समझा जा सके कि मेरे जीवन में इतने मोड़ कैसे आए कि आज भी मंजिल की खोज में भटक रहा हूं ? 10 वर्षों पूर्व जिस स्थिति में था उसी में आज भी हूं। हालांकि सोच , विचार , अनुभव आदि जरूर बढ़े हैं।

मेरी बचपन से ही रुचि आध्यात्मिक साहित्य पढ़ने की रही है । जिसे मैं बहुत लगन से पढ़ता था । जैसा कि पूर्व के विषयों पर चर्चा कर चुका हूं कि शब्द ब्रह्म जैसी अध्यात्मिक पत्रिका नवी कक्षा से ही पढ़ रहा हूं। ऐसी जो भी पुस्तक मिलती मैं पढ़ता रहता।

वैसे इसमें बड़े भैया की भी गलती नहीं है । वह तो ज्यादा जानते नहीं थे कि क्या पढ़ाई होती है? बस लोगों ने जैसा बताया वैसे ही सलाह देते गए इसलिए उनको ही मात्र दोषी नहीं मान सकता।

मुझे तो लगता है की बचपन से ही विशेष रूप से इंटरमीडिएट की कक्षाओं के बाद कोई अच्छा सलाहकार मिला होता तो जो अंदर छुपी हुई प्रतिभा को समझ सका होता तो आज मैं ऐसी स्थिति में ना होता।

लेकिन कहते हैं कि ना व्यक्ति को ठोकर खाने के बाद भी यदि समझ आ जाए तो अच्छी बात है। मैं आज भी अपनी मर्जी से नहीं जीवन गुजार पा रहा हूं। मैं वही कर रहा हूं जैसा समाज के लोग चाहते हैं । बल्कि ऐसा नहीं की जैसा मैं स्वयं को बनाना चाहता हूं।

मैं अभिभावकों को यही सलाह देना चाहूंगा कि वह अपने बच्चों को समझने का प्रयास करें। उनकी रुचियां को समझें और इस दिशा में उसे बढ़ाने दे । हालांकि उसे बताते रहे की रुचियां के साथ जीवन में बेसिक पढ़ाई भी जरूरी है जिसे पढ़ने के बाद अपनी रुचि की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।

भाग- १५

मनुष्य के जीवन में अन्न का विशेष प्रभाव पड़ता है। हराम की कमाई खाने वाला इंसान दुनिया में कोई श्रेष्ठ कार्य नहीं कर सकता है।

मुझे गर्व है इस बात का की मेरे भाइयों ने मुझे हाड़ मांस तोड़कर कड़ी मेहनत की पसीने की कमाई ही मुझे खिलाएं । आज मैं हमारे अंदर जो पवित्रता का दिव्य भाव है वह सब उसी का नतीजा है।

एक घटना आंखों के सामने नाच रही है । एक बार मुझे पैसे की सख्त जरूरत थी परंतु घर में भैया के पास उस समय नहीं थे।
उन्होंने कहा कि दो-चार दिनों में व्यवस्था कर दूंगा। परंतु मैंने आव देखा न ताव क्रोध में जो बनियान पहने था उसको टुकड़ों में चीड़ फाड़ कर फेंक दिया।

मेरे भाई ने मुझे मारा तो नहीं परंतु अफसोस के साथ कहा कि अभी तू नहीं जानता कि पैसा कैसे कमाया जाता है जब तू कमायेगा तो पता चलेगी की कैसे आता है पैसा।

भैया की बातें आज भी याद आती है कि पैसा कमाने के लिए सामान्य मनुष्य को कितना पापड़ बेलने पड़ता है तब जाकर उसकी जेब में कुछ पैसे इकट्ठे हो पाते हैं।

भैया गल्ले का व्यवसाय करते थे। गांव से अनाज खरीद कर उसे बाजार में बेचते थे। उससे जो भी कुछ पैसे मिल जाते हैं उसी से घर का खर्च चलता। उसी में से मेरी पढ़ाई के लिए भी कुछ पैसे बचाकर मां को दे देते।

आजकल किसान भी चालाक हो गए हैं। वे बाजार भाव का पता किए रहते हैं। इसलिए आप उन्हें ज्यादा बेवकूफ नहीं बना सकते । चार पैसे ज्यादा बच जाए इसलिए भैया अनाज को ट्राली में न लादकर साइकिल से ही बाजार में ले जाकर बेचते।
कभी-कभी तो दो कुंतल 200 किलोग्राम भी रख लेते थे साइकिल में । हमारे भैया का शरीर हमारी तरह कमजोर नहीं बल्कि बहुत गठीला था । 100 किलो का भरा हुआ उठाकर फेंकने की क्षमता रखते हैं।

पिताजी के गुजर जाने के पश्चात परिवार की जिम्मेदारियां ने उन्हें मजबूर कर दिया । नहीं तो क्या मजाल किसी की उनसे हाथ मिल सके। मेरी भाभी भी बहुत अच्छी इंसान है । भैया के पैसे देते समय कभी भी उन्होंने नहीं रोका की क्यों दे रहे हो । तनिक जरा अपने बच्चों का ख्याल रखो। भैया को गांव में उनके त्याग के कारण कहते हैं कि ऐसा भाई दुनिया में ढूंढे नहीं मिलेगा। आखिर समाज में आज के जमाने में कौन किसी का कहां हुआ है? सब स्वार्थ में खोए हैं लेकिन देखो तो आज भी वह भाई की सहायता में लगा हुआ है।

मेरे छोटे भैया भी कभी इंकार नहीं किया पैसे देने में। कभी-कभी मुझसे कहते हैं देखो इस महीने का सारा खर्च मुझसे ले लेना । नहीं तो मां से पूछते कि कितना पैसा चाहिए बाबा को। और वे मां को दे देते। मां वह पैसे लेकर बड़े भैया को जो दे देती दोनों मिलाकर दे देती।

मैं जो कुछ भी हूं उसमें मेरी मां भाई बहन की वजह से ही हूं। मेरी बहने भी समय-समय पर मुझे पैसे से सहायता करती रही है।वह भी जीजा जी इसे छुपा कर की कहानी वह जान न जाए कुछ तो बचा कर रखती जाति की मायके जाएंगे तो लिए जाएंगे। आखिर मेरा भी तो यह हक बनता है कि नहीं कि मैं भी अपने भाई के लिए कुछ करूं।

दीदी लोग जब आती तो उनकी गुप्त गुल्लक देखते ही बनती थी । नोटों को ऐसा मोड़ तोड़कर रखी रहती की जैसे कूड़ा कटकर हो । फिर बड़े प्रेम से गिनती और सब मां के हाथ में सुपुर्द कर देते और कहती देखो जब भी बाबा को जरूरत हो देती रहना।मां उसमें से अपने लिए एक भी पैसा नहीं खर्च करती बल्कि सब बचा कर रखती।

कई बार जब पैसों की जरूरत मुझे पड़ी यदि किसी कारण भैया के पास पैसे नहीं रहे हो तो वह मां की गुप्त गुल्लक खुल जाती थी।कभी-कभी वह बहुत जरूरी होने पर भैया को भी दिया करती।

मुझे याद आ रहा है कि इंजीनियरिंग की कोचिंग के लिए एक मुस्त ₹5000 की आवश्यकता थी । भैया के पास बैलेंस इतना नहीं था कि वह दे सके। लेकिन यह भी चाहते थे कि भाई की पढ़ाई रुके ना।

मझली बहन शकुंतला दीदी से जब कहा तो उन्होंने बिना कुछ कहे जीजा जी से पूछे बिना ही ₹5000 दे दिए। बाद मे इसके लिए ताने भी खाने पड़े होंगे परंतु ऐसी बहनें भी केवल भारत जैसे देशों में ही पाई जा सकती हैं। धन्य है भारत माता जो आज भी ऐसी त्यागी महिलाओं को जन्म देकर अपने को धन्य महसूस कर रहे हैं।

एक दिन दीदी फोन पर मुझे कहने लगी की तू नहीं जानता कि लोग कितना ताना मारते हैं मुझे। कहते हैं कि इसके मायके में ठीक से ना रहने को है , ना खाने को तीन-तीन सांड है लेकिन एक घर भी नहीं बना सके।
कहते-कहते दीदी सुबकने लगीं । उनके दुख को अनुभव किया जा सकता है बस उसे शब्दों में व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है जिसके माध्यम से उसे व्यक्त कर सकूं।

प्रभु मेरे भाई बहनों जैसे ही सबको भाई बहन दे। ऐसी ही बातें अन्य बहने भी कह चुकी हैं। अब उनके दुख को कैसे दूर किया जाए सोच रहा हूं । यदि जीवन में इतना दुख कष्ट ना हुआ होता तो आपके सामने मैं यह आत्मकथा ना लिख रहा होता।

आखिर हमारी उम्र ही क्या है जो जिंदगी के अनुभव आपके सामने बयान करू परंतु इतनी कम उम्र में है जिंदगी की वास्तविकता क्या होती है मैं समझ गया हूं।

अक्सर लोगों के चेहरों पर मास्क लगा हुआ होता है जो कि दिखते कुछ है और होते कुछ। चेहरों के पीछे छिपे चेहरों की सच्चाई को देखकर दिल कभी दहल जाता है। कभी प्रेम से भर भी जाता है । समाज में अच्छे बुरे दोनों प्रकृति के लोग होते हैं।यह हमारे पर निर्भर है कि हम किसे अपनाते हैं।

भाग १६

भाई बहन का प्यार भी अटूट होता है । जिसे पवित्र बंधनों में बांधने के लिए राखी जैसा पवित्र त्यौहार मनाया जाता है।
जैसा कि मैं पूर्व में बताया भी कि मैं परिवार में सबसे छोटा हूं। इसलिए सभी भाई-बहन मुझे कुछ ज्यादा ही प्यार करते हैं ।बड़ी बहनों के तो हम बच्चों के जैसे हैं।

मैं जब राखी में दीदी आती तो मैं यही कहता की मैं जब कमाने लगूंगा तो आप सबको एक साथ ही खूब दूंगा । किसी को सोने जंजीर बनाने को कहता तो किसी को अगुंठी।

मेरी बड़ी बहन सीता दीदी के परिवार की भी आर्थिक हालात अच्छे नहीं हैं । चार लड़कियां एक लड़का है। मेरा भांजा मुझसे उम्र में बड़ा है। कमाई भी इतनी नहीं हो पाती है कि जिससे ठीक प्रकार परिवार का खर्च चल सके।

मैं दीदी से यही जब वह राखी बांधने आती तो कहता कि मैं कमाने लगूंगा तो तुम्हारे बेटियों की शादी कर दूंगा परंतु आज तक मैं इतना नहीं कमाया की चार पैसे बचा कर रख सका होता । जो कि प्रतिकूल परिस्थितियों में काम आता है फिर भांजियों की शादी कैसे करता?

किसी भी प्रकार से दीदी ने बेटियों की शादी कर दिया है। सभी भाजी हंसी-खुशी से रह रही हैं।
सपना भांजी तो बचपन से ही मेरे घर में ही रहीं हैं। उसे मैं ही नहला धुला के स्कूल भेजता था। धीरे-धीरे जब वह शादी योग्य हो गई तो इच्छा हुई कि उसका विवाह अपने घर से करूं परंतु नहीं कर सका। आज उसके एक लड़का और एक लड़की है। कभी जब मिलती है तो कहती है-” मामा अभी आपने अपना वादा पूरा नहीं किया। मैं सुनकर मुस्कुरा देता हूं । बात टालने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है मेरे पास।

मनुष्य को यदि कोई सबसे अधिक कठिन कार्य लगता है तो वह है भोजन बनाना। अब तक घर में मां के हाथों का बनाया गरमा गरम भोजन खाने को मिलता था लेकिन अब तो यदि पेट की भूख मिटाने है तो भोजन बनाना ही पड़ेगा।

बचपन में मुझे इतना क्रोध आता था कि यदि भोजन में कुछ कमी दिख जाए तो थाली बाहर फेंक देता था । जल भुनकर कहता है कि क्या ऐसे भोजन बनाया जाता है। अब तक तुम लोगों ने भोजन बनाना भी नहीं सीख सके।

पहली बार आता गूंथने लगा तो मां का चेहरा सामने घूम गया की मां होती तो साथ में कितना अच्छा होता । आंखों से मां की याद करते-करते लाल हो गए ।मेरी मां कभी भी घर से बिना खाए नहीं जाने देती थी।

वह कहती -“बेटा घर से खा पी करके निकलोगे तो बाहर भी मिलेगा नहीं तो बाहर भी भूखे रह जाना पड़ेगा “।
मैंने कई बार अनुभव भी किया कि जब घर से बिना खाए जाता तो दिन भर कहीं कुछ खाने को नहीं मिलता था।
ठंड के दिनों में भी घर में कंडे जलते रहते उसी में आटा गूथ कर भंवरी( मोटी रोटी ) बना देती । वह मुझे बहुत प्रिय थी । उसे ही नमक मिर्च अचार आदि के साथ खाकर मैं चला जाता था। लेकिन कभी भूखे पेट गया हूं ऐसा ध्यान में नहीं आता है।

घर में कभी देर से भी लौटूं तो मां कुछ ना कुछ बनाकर खिलाएं बिना नहीं सोने देती।कुछ ना सही तो रोटी बनाकर दूध के साथ ही खाने को दे देती ।

वह कहां करती-” बेटा ! भूखे पेट नींद नहीं आती ।पेट में चूहा कूदते रहे तो बताओ कैसे नींद आएगी।”
फिर उसमें और आटें डालकर कुछ सूखा किया परंतु आटा पूरी तरह से नहीं सूख सका। रोटी बनाया तो कभी चौकोर बनती तो कभी पंच कोर परंतु सीधी गोल आकार की बन नहीं पाती थी इसके लिए भी डांट पड़ती।

लेकिन एक बात थी मेरा पार्टनर डाटता तो भले था पर वह दिल का बड़ा अच्छा था। शुरू-शुरू में कई दिनों तक उसने बना कर खिलाया फिर मैं धीरे-धीरे सीखने लगा।

पहली बार ऐसे ही जब सब्जी बना रहा था तो जल गई । पूरे कमरे में जलने की भयानक गंध फैल गए । उस समय पार्टनर बगल के कमरे में बातचीत कर रहा था । जल्ती सब्जी देखकर उसका पारा फिर गर्म हो गया। उसके चेहरे को देखकर मैं सहम गया।

उसने फिर सारी सब्जी फेक कर दूसरी बनाई । मुझे साथ बैठा कर दिखाने लगे कि देखो कितना तेल गर्म हो जाए तो प्याज मिर्च डालना चाहिए। फिर जलने ना पाए उसके पहले ही सब्जी दाल देनी चाहिए । फिर थोड़ा चलाने के बाद मसाला डालना चाहिए।

वह पहले छौका लगाने के बाद जल में घोलकर मसाला डालते थे । मसाले को पकाने के पश्चात सब्जी डालते । ऊपर से सब्जी पकने को होती तो लहसुन मसल कर डाल देते जिससे सब्जी की खुशबू बढ़ जाते हैं।

लेकिन कभी आटा गीला होने सब्जी जलने या नमक ज्यादा पड़ने आदि कमियों होती रही परंतु अपने हाथ की बनाई जली रोटी भी स्वादिष्ट लगती है। जो भी बन जाता खा लेते। अब तो भोजन में जैसे कमियां ढूंढने की आदत ही छूट गई।
कभी-कभी नमक ज्यादा हो जाता तो उसमें पानी ऊपर से मिलाकर खा लेता। इससे दाल या सब्जी का स्वाद बिगड़ तो जाता है परंतु खाने के अलावा दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था।

जो लोग घर में काम करने वाली स्त्रियों को कहते हैं कि तुम करती क्या हो घर में बैठकर बस खाना बनाओ खाओ बर्तन धुलो। भारत में गृह कार्य को कोई ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है।

घर में स्त्री का उतना ही महत्व है जितना कि किसी कंपनी में मैनेजर का होता है। घर की गृहणी को ही यह मालूम होता है कि किसको क्या पसंद है वह सब को खुश करने का हर संभव प्रयास करती है।

जब से स्त्री घर के बाहर काम करने लगी घर जो कभी स्वर्ग था वह नरक बन गया है। कहते हैं कि जैसा खायें अन्न, वैसा बने मन । काम पर जाने वाली स्त्री कभी शांत मन से भोजन बनाकर नहीं खिला सकतीं हैं। इस प्रकार स्त्री का व्यक्तित्व भी दो पाटों में बटकर रह गया।

मनुष्य को जब घर के खाने से शांति नहीं मिली तो वह बाहर होटल में खाने-पीने लगे।
पूज्य आचार्य महाप्रज्ञ जी कहते हैं कि-” दुनिया की जितनी भी समस्याएं हैं उन्हें मात्र भोजन में परिवर्तन करके दूर की जा सकती है । मनुष्य न जाने कहां-कहां इन समस्याओं का समाधान ढूंढता फिर रहा है। परंतु सही मायने में संसार की सारी समस्याओं का समाधान उसकी थाली में छुपा हुआ है।

भाग- १७

संगम तट पर टहलने का आनंद इतना अलौकिक है कि जिससे धरती पर स्वर्ग की तुलना की जा सकती है। मां गंगा यमुना और सरस्वती का मिलन स्थल पर आने के पश्चात ऐसा लगता है कि जैसे संसार के सारे लोगों के विचार भाव मिलकर एक हो गए हो।

प्रति रविवार को विशेष रूप से संगम के घाट पर जाने का प्लान होता। जो लोग हनुमान जी के भक्त हैं वह मंगलवार की सायं भी जाते हैं। मंगलवार को तो लेटे हनुमान जी के दर्शन करने वालों की जैसे सारा शहर उमर पड़ा हो।

कहते है कि सम्राट अकबर किला बनवाना चाहता था ।हनुमान जी की मूर्ति बीच में बाधा उत्पन्न कर रही थी। वह उसे उखाड़ कर फेंकवाना चाहता था। परत मूर्ति जमीन के अंदर धसती जा रही थी ।अंत में निराश होकर उसे अपने इरादे को बदलना पड़ा।

हनुमान जी महाराज की शक्ति और सामर्थ्य को यहां सहज में देखा जा सकता है। किले की दीवार मंदिर के बगल से निकालना पड़ा । मूर्तियों के प्रति द्वेष भाव रखने वाले को सोचना चाहिए कि मानो तो देव नहीं तो पत्थर।

एक घटना है । एक बार विवेकानंद जी किसी राजा के यहां राज्य अतिथि थे। वहीं पर राजा ने मूर्तियों की बुराई करना शुरू कर दिया। स्वामी जी सुनते रहे फिर उन्होंने सामने टंगे राजा की मूर्ति उतरवा कर उस पर थूकने के लिए कर्मचारियों को कहे लेकिन कोई भी कर्मचारी तैयार नहीं हुआ।

फिर स्वामी जी ने कहा कि यह मूर्ति भी तो कागज की बनी हुई है लेकिन तुम लोग इस पर थूक नहीं सके क्योंकि तुम मानते हो कि इससे राजा का अपमान होगा। इसी प्रकार सभी हिंदू भी मूर्तियों में भगवान के दिव्य स्वरूप का दर्शन करता है । उसे वह पत्थर नहीं समझता।

स्वामी जी की बात सुनकर सभी मूर्तियों के श्रेष्ठता पर मुग्ध हो गए। आगे से राजा या उसके कर्मचारियों ने कभी मूर्तियों का अपमान नहीं किया।

मैं जब सातवीं आठवीं कक्षा में पढ़ता था तभी से हनुमान जी महाराज की भक्ति करता था ।मेरी मां भी हनुमान भक्त थी। उनकी देखा देखी मुझ में भी सहज में भक्ति जागृत हो गए। लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा लगता था कि यह सत्य नहीं है । सत्य स्वरूप तो कोई और है।

मैं लोगों से अनेक तर्क वितर्क करता। कभी-कभी लोग झल्ला जाते कि तुम ऐसे प्रश्न मत पूछा करो । अभी पढ़ने लिखने की उम्र है। पढ़ो लिखो बेकार की बातों में सिर खपाने से कोई फायदा नहीं निकलने वाला है।

मैं घंटों संगम तट पर जाकर चिंतन मनन करता की जीवन का सत्य क्या है ? यहां तो कोई पूछने वाला भी नहीं था कि जो पूछे कि मैं कहां जाता हूं ? पार्टनर जब गांव जाता तो मैं दिन-दिन भर सुबह यदि कमरे में भोजन करके निकला तो सायंकाल ही लौटता था।

मेरी भूख प्यास जैसे खत्म सी हो गई। मुंह का स्वाद बिगड़ने लगा । भइया ने जब सुना तो घर बुलाकर डॉक्टर से इलाज भी करवाया । परंतु जब कोई शारीरिक बीमारी हो तब ठीक हो ना। मुंह का कौर बाहर निकल आता था। जो भी खाता उल्टी कर देता।

ऐसे में मेरी हालत दिनों दिन बिगड़ती जा रही थी। परंतु एक दिन ऐसा लगा कि कोई दिव्य मूर्ति प्रकट होकर कह रहे हैं कि-” बेटा! यह सारा संसार मेरा ही प्रतिरूप है। तुम हर कमजोर ,बेसहारा का सहारा बनो सभी में मेरा ही प्रतिबिंब देखो।’

उस दिन से मेरे जीवन की धारा ही जैसे बदल गई । मुझे अपाहिज, कोढ़ी रोगी आदि से कोई घृणा नहीं होती । पास में ही पुल के नीचे कुष्ठ आश्रम था।

कुछ समय बचाकर मैं उनके बच्चों को पढ़ाने जाता। पास में मंगते हैं उनके बच्चे भी रहते थे। वह भी आ जाते।
पास में ही गंदा नाला था।

उसमें से ऐसी बदबू आती थी कि 1 मिनट भी रूकना मुश्किल होता। यह लोग पुल के नीचे की जगह पर मिट्टी में मकान बनाकर रहते थे । मुझे जिंदगी में पहली बार ऐसा लगा कि क्या ऐसी भी जिंदगी लोग गुर्जर करते हैं ?उनके दुःख को देखकर लगा कि मेरा तो दुख जैसे उनके सामने कुछ नहीं है। वे लोग मांस को आग में पका कर खाते थे। उनके बच्चों में भी वैसे संस्कार आ गया था।

शिक्षा क्या होती है उनको जैसे पता ही नहीं हो। सुबह उठकर बच्चे या तो भीख मांगने निकल जाते या कूड़ा कटकर बिनते । लेकिन कई बच्चे बहुत अच्छे संस्कारी थे। जैसी संगत में पड़ जा गए हैं उसी में ढलने के अलावा कोई उनके सामने मार्ग भी तो नहीं था।

मैं उन लोगों के पास तीन माह तक पढ़ाने गया । उनके बच्चों से कभी एक पैसा फीस नहीं ली। बल्कि किताबें कापी स्वयं से खरीद कर देता। मुझे इससे जो खुशी मिलती थी कि उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता।

कहते हैं कि जो व्यक्ति स्वयं अभाव दुखों में रहता है वही दूसरों की परेशानी को समझ सकता है । पता नहीं गरीबों की सेवा में मुझे इतना आनंद आता है कि पूछो मत। मैं जहां भी रहता कोई न कोई सेवा का मौका जरूर ढूंढ लेता।

भाग – १८

मैं दो सगे भाइयों से ट्यूशन पढ़ता था । एक से रसायन तो दूसरे से भौतिक एवं गणित। रसायन पढ़ाने वाले सर बहुत हैंडसम थे । वे आशिक मिजाजी भी थे ।‌ वह अभी बीएससी सेकंड वर्ष में ही थे लेकिन उनके समझाने का ढंग बहुत निराला था । परंतु दूसरे वाले सर के साथ बहुत नीरस लगते थे । उन्हें ज्ञान तो बहुत था लेकिन पढ़ाने का ढंग अच्छा नहीं था।
ज्ञान होने के बाद भी उसे बच्चों को कैसे पढ़ाना है इसको भी आना चाहिए।
पहले वर्ष में उत्साह भी बहुत होता है । ऊर्जा नई नई रहती है। मेरी तैयारी तो अच्छी नहीं थी। फिर भी पॉलिटेक्निक एवं एम एल एन आर आदि की परीक्षाओं में बैठा परंतु सफलता किसी में नहीं मिल सकीं।

मैं एक बार निराशा के गहरे शोक में डूब गया । लेकिन भइया ने समझाया कोई बात नहीं । पुनः मेहनत करो जरूर सफल होंगे । धीरे-धीरे मैं और उत्साह से पढ़ने लगा।

इस बार विचार था कि किसी अच्छी कोचिंग क्लास को ज्वाइन किया जाए परंतु बड़ी कोचिंग क्लासों की फीस उस समय भी 5 से 7000 सालाना थे। मैं जानता था कि घर में भैया के पास पैसे नहीं हैं। मैं घर की स्थिति देखकर उनसे कह दिया की कोचिंग नहीं करूंगा सेल्फ स्टडी करूंगा। भैया ने कहा लेकिन रहने खाने कमरे के पैसे तो फिर भी देने ही पड़ेंगे । समय भी ऊपर से जाएगा।

लेकिन किया क्या जा सकता है या तो खेत गिरवी रखा जाए तभी इतना पैसा मिल सकता है। लेकिन खेत को रखने से खाने-पीने की भी घर में दिक्कत होने लगती है।

मां ने कहा एक बार मझली बहन से बात करके देखो हो सकता है वह कुछ करें परंतु मां और भैया दोनों दीदी से पैसा नहीं लेना चाहते थे। लेकिन मजबूरी में आदमी को कभी-कभी वह करने पर मजबूर होना पड़ता जिसे वह करना नहीं चाहता।
हमारे यहां बेटी के यहां से कुछ लेना अच्छा नहीं माना जाता है।

कुछ लोग तो बेटी के घर का पानी भी नहीं पीते। कितना दिव्य भाव था हमारे पूर्वजों का। इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारे पड़ोस की ही भाभी के जी के पिताजी जब आते थे तो बिना पानी पिए जो कुछ सामान देना होता था देकर चले जाते परंतु बेटी के घर का पानी नहीं पीते थे।

भैया ने और कोई चारा न देखकर दीदी से इसकी चर्चा की परंतु पैसे के लिए जीजा जी से पूछना जरूरी था । हजार 500 की बात होती तो सहज में दे देती 5000 की बात थी।

जीजा जी मना भी कर सकते थे । उस समय वह मुंबई में थे । ऐसे में दीदी ने पैसा बिना पूछे ही देना उचित समझा । क्योंकि एडमिशन की तारीख भी खत्म हो रही थी। दीदी का मैं शुक्रगुजार हूं कि मैंने जो भी शिक्षा प्राप्त कर सका उनमें उनका भी एक बड़ा सहयोग रहा।

मैं वंदना कोचिंग में प्रवेश लेकर पढ़ने लगा । जिसे इवनिंग क्रिश्चियन कॉलेज के प्रोफेसर लोग मिलकर पढ़ाते थे । सभी शिक्षकों के पढ़ाने का तरीका बहुत ही अच्छा था।

रसायन के सर इतनी तेजी से बोलते या लिखते थे कि मैं पीछे रह जाता था । कोचिंग में भीड़ भी बहुत ज्यादा थी । जितनी सीट थी उससे अधिक बच्चों ने प्रवेश ले लिया था । ऐसे में बहुत से बच्चों को खड़े होने की भी जगह नहीं थी।
कोचिंग का व्यवसाय इस समय पूरे सवाब पर है।

जो अच्छे संस्थान है कई करोड़पति बन चुके हैं । उनका एकमात्र उद्देश्य पैसा बनाना होता है। बच्चों की शिक्षा सुविधा से कोई सरोकार नहीं रहता उनके।

आखिर हर मां बाप की इच्छा होती है कि उसका बेटा इंजीनियर या डॉक्टर बने । यह दो धाराएं पहले नंबर पर है । यदि कोई बच्चा गणित विषय लेकर इंटर पास किया है तो जरूर वह इंजीनियरिंग ही बनना चाहेगा इसी प्रकार जीव विज्ञान पढ़ने वाला डॉक्टर।

वाणिज्य कला विषय इसके बाद ही आते हैं। माता-पिता कभी इस बात की परवाह नहीं करते की उनका बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर बनने लायक है या नहीं। बस अपनी इच्छाएं लादने की कोशिश करते हैं । ऐसे में जो प्रबद्ध वर्ग देश के कार्यों में लगनी चाहिए थी वह बाद में निराशा एवं कुंठा भरा जीवन जीने के अलावा उसके सामने कोई दूसरा मार्ग नहीं बचता।

दूसरी मैंने एक समस्या है कि जो इंजीनियर है डॉक्टर बनने के बाद आई ए एस, पीसीएस होते हैं वह भी 10 लाख रुपए खर्च करने के साथ समय और श्रम को व्यर्थ में गंवा देते हैं । साथ ही उनको यदि डॉक्टर इंजीनियर नहीं बनना था तो पहले निर्णय करना चाहिए था।

उनकी जगह कम से कम दूसरे की जगह तो पढ़ने को मिलता है। कोचिंग संस्थानों के करने से लाभ भी होते हैं । बच्चों को मार्गदर्शन अच्छा मिल जाता है। नोटिस भी सटीक होते हैं जो अधिकांश परीक्षाओं से मेल खाते हैं।

मुझे कोचिंग करने का लाभ भी मिला । इस वर्ष मैंने जो भी परीक्षाएं दी थी जैसे पालीटेक्निक एम एल एन आर आर । सिलेक्शन भी हुआ। एम एल एन आर में भी रैंक कुछ कम थी इसलिए प्रवेश उसमें नहीं मिल सका।

मैंने सोचा पॉलिटेक्निक में प्रवेश ले लिया जाए। मेरा प्रवेश हाथरस के पास नया जिला बना महामाया नगर में हुआ पंरतु इस बीच एक घटना घट गई। मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए भी कर रहा था । 2 वर्ष पूर्ण हो चुके थे । मैं फिर एफीडेविड लगा दिया था । साक्षात्कार के समय जब मुझसे पूछा गया तो एक बार मैं झूठ बोल दिया परंतु झूठ पकड़ में आ गए।

बाद में बीए करने की बात स्वीकार करनी पड़ी । मैं 2 वर्ष को बर्बाद नहीं करना चाहता था इसलिए प्रवेश नहीं ले सका। मेरी इस प्रकार से दो नावों की सवारी करना मेरे लिए ही घातक सिद्ध हुई।

भाग- १९

कहां जाता है की मनुष्य जीवन में सफलता के मौके बार-बार नहीं आता यदि एक बार मौका हाथ से चुक जाए फिर तो कितनी भी प्रयास को करें मिलने वाली नहीं। मुझसे एक बार प्रवेश लेने का मौका छूट गया। सोचा अगले वर्ष और अच्छा प्रयास करूंगा तो अच्छा ट्रेड और विद्यालय भी अच्छा मिल जाएगा।

परंतु मनुष्य का सोचा यदि ऐसे होने लगे तो फिर बात ही क्या? अगले वर्ष मेरा प्रवेश किसी में भी नहीं हुआ । नहीं होना था नहीं हुआ। इसी बीच बीए कंप्लीट करने के पश्चात एम ए हिंदी साहित्य में छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर से किया।

एम ए करने के पश्चात लोगों ने सलाह दिया कि आईएएस पीसीएस की तैयारी करो । फिर उसकी करने लगा । एक तो मैं इतिहास कभी पढ़ा नहीं था परंतु इतिहास विषय में इतनी तिथियां याद करनी थी कि पूछो ही मत।दो-तीन वर्षों तक इसमें भी तैयारी करने के पश्चात छोड़ दिया।

फिर सलाह लेकर डीएम एलटी लैब टेक्नीशियन का डिप्लोमा कर लिया जाए। यदि कहीं पैथालॉजी लैब खोल लेते हैं तो रोटी पानी का जुगाड़ हो ही जाएगा।

मेरे ननिहाल के सुरेंद्र भैया का दिल्ली में कॉपरेटिव बैंक है। सुरेंद्र भैया ने कहा कि यदि मैं कॉमर्स में कुछ किया होता तो नौकरी लगवा देता । अब मां पीछे पड़ गई कि यदि मैं कामर्स से कोई कोर्स कर लूं तो समझो नौकरी पक्की । अब फिर क्या था राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय से पीजीडीएफएम में प्रवेश भी ले लिया।

क्या कोर्स में लिखा है मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया ।अंत में जो होना था वही हुआ। यहां भी असफलता हाथ लगी। सारा पैसा यहां भी डूब गया।

अब मुझे डॉक्टरी का चस्का लगा। मेरे पास के डॉक्टर नरेंद्र कुमार की होम्योपैथिक की क्लीनिक थी । मैं उसे सीखने लगा। इसी बीच एक दुकान पर डॉक्टर दरबारी की बायोकेमिक पर लिखी पुस्तक मिली जो उनके अनुभव पर आधारित है
फिर क्या था दवाओं को जैसा डॉक्टर दरबारी ने लिखा था वही समिश्रित मिलाकर लोगों को देने लगा।

लोगों को आराम भी मिलने लगा । फिर बात ही क्या थी । बन गया मैं डॉक्टर । थोड़ा अनुभव लेने के साथ ही मैं एलोपैथ की दवाएं देने लगा । मेरी दवाखाना चल निकली । 100 ₹200 बड़े आराम से कम लेता था ।

उसका कारण है हमारे गांव में मुस्लिम बस्ती ज्यादा है जहां पुरुष सभी मुंबई है उन शहरों में काम करते हैं महिलाएं घर में बीड़ी बनातीं है। वह पैसे देने में आनाकानी नहीं करतीं थीं। फिर मैं अपने गांव का डाक्टर बन गया ।

भाग- २०

मेरे गांव में लोग मुझे बहुत मान सम्मान करते थे क्योंकि उनकी नजरों में मैं एक अच्छा लड़का गिना जाता था। बचपन में मां कभी किसी के यहां आने जाने नहीं देती थी। उन्हें लगता था मैं कहीं बिगड़ ना जाऊं।

गांव में अभी भी चरित्र को प्रमुखता दी जाती है। दुनिया में आज किसी पर प्रतिबंध है तो प्रेम पर। गांव वाले यदि इस प्रकार की कोई घटना होती थी उसकी पूरी पंचायत बुलाते हैं । गांव के अधिकांश झगड़ा गांव के चौधरी सुलझा दिया करते थे।

प्रेमी युगल को मरने मारने की घटनाएं अक्सर हम सुनते रहते हैं। यदि हम ध्यान से पढ़े तो पेपर की अधिकांश खबरें प्रेम पर आधारित मिलेगी । भारतीय फिल्मों का मुख्य आधार देखा जाए तो प्रेम ही है।

यदि मनुष्य को सहज स्वाभाविक रूप से जीने दिया जाता रहता तो समाज में इतनी अराजकता नहीं फैलती। प्रेम पर लगाए प्रतिबंध का ही नतीजा है की नित्य प्रति ऐसी घटनाएं होती रहती है। मैंने कभी अपने गांव में ऐसी घटनाएं को होते नहीं सुना।

मेरी यह समझ में नहीं आता है कि लोगों को व्यक्ति की बुराई ही क्यों दिखती है । समाज में अच्छे काम भी तो होते हैं । परंतु उसकी चर्चा कोई नहीं करता। समाज में यदि अच्छी बातों को प्रोत्साहन दिया जाए तो वहीं से अच्छे लोग आगे आ सकते हैं।

मेरे गांव के मोड पर कुछ चाय पान की दुकानें हैं। जहां 10-5 लोग नियमित बैठे हुए आपको मिल जाएंगे । जो केवल बेकार की बातें करते हुए अपने दिन काट देते हैं। या तो ताश के पत्ते खेलते रहते हैं। मेरे गांव में लोग शराब भी खूब पीते हैं । मैंने कई परिवारों को शराब पीने से बर्बाद होते अपनी आंखों से देखा।

पीने के बाद व्यक्ति परिवार में लड़ाई झगड़ा शुरू कर देते थे। मेरे पड़ोस के भैया अपनी पत्नी को शराब पीने के बाद इतना मारते थे जितना लोग जानवरों को भी नहीं मारते होंगें । अधिकांश में वे ऐसा नशे की हालत में करते थे। जिसमें व्यक्ति अपने होशो हवास खो बैठता है।

हमने देखा है कि लोग शराब के नशे में करोड़ों की संपत्ति गवा देते हैं। भगवान बुद्ध शराब को सभी बुराइयों की जड़ माना है। सभी संतो ने शराब से बचने के लिए कहा है।

शराब पीने वाला व्यक्ति स्वयं तो बर्बाद होता है। साथ ही पड़ोसी और पूरे समाज को बर्बाद कर देता है। मेरे साथ के पढ़ने वाले गांव के दोस्त का शरीर नशे के कारण खराब हो चुका है। गांव में छोटे-छोटे बच्चे भी शराब पीने लगे हैं।

गांव में जो लड़के बचपन से ही बाहर के लोगों से ज्यादा संपर्क में रहे , काम की तलाश में गए उन्हें कुछ मिला हो या ना मिला हो परंतु शराबी अवश्य बना दिया है।

मैं गांव के बहुत से बच्चों को शराब छुड़ाने का प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हो पाया। इसका कारण यह भी रहा की सामने से वे संकल्प ले लेते थे, लेकिन जब पूरा गांव ही शराब में डूबा हो तो फिर वे उसी में डूब जाते थे।

भाग २१

पार्टनर के साथ रहते हुए एक ओर जहां सुविधा होती हैं वही समस्याएं भी होती है । समान विचारों का नहीं होने पर दिक्कतें भी कम नहीं आती है । मनुष्य स्वतंत्र रहने का इच्छुक सदा से रहा है क्योंकि मैं बचपन से ही अतः प्रवृत्ति का व्यक्ति रहा हूं इसलिए सोचता था कि यदि अलग से कमरा लेकर रहा जाए तो सुविधा होगी।

मैं कमरे को तलाश भी रहा था कि वह मिल भी गया। कीडगंज मोहल्ले में कमरा छोटा था लेकिन बहुत अच्छा था। मेरा बाथरूम सेफ्टी था जिसे केवल मैं ही प्रयोग करता था।

दूसरी सुविधा यहां यह हुए कि पास में पुस्तकालय था। क्योंकि पुस्तक पढ़ने के संस्कार मुझे बचपन से ही रहे हैं। मैं पुस्तकालय का सदस्य बन गया। प्रेमचंद्र ,रविंद्र नाथ टैगोर ,जय शंकर प्रसाद आदि के साहित्य को मैं पढ़ गया।

मैं नियमित इस पुस्तकालय जाने लगा । पत्र पत्रिकाएं तो वहीं पर लेकर पढ़ लेता लेकिन साहित्यिक पुस्तक को घर लाकर पढ़ता था। सही मायने में मेरी पुस्तकों के प्रति भूख कुछ यही मिट सकी।

कमरे से यमुना घाट नजदीक पड़ता था । जिसे 10 मिनट में केवल पैदल जाया जा सकता है। मैं प्रातः भ्रमण के लिए जाता तो रास्ते में मदन मोहन मालवीय पार्क पड़ता है। रुकने के बाद सरस्वती घाट पर कुछ देर तक बैठता।

घाट पूरी तरह पक्का बना हुआ है क्योंकि यह मिलिट्री एरिया में आता है । इसलिए भी साफ सफाई ज्यादा रहती है । घाट पर सीढ़ियां बनी हुई हैं । जहां बैठने पर लगता है कि स्वर्ग धरा पर उतर आया हो।

प्रेमी प्रेमिकाएं के जोड़े भी यहां देखे जा सकते हैं जो प्रकृति के मदमस्त भरे आंचल में एक दूसरे को समेट लेना चाहते हैं । वह घंटो घंटो बातें करते रहते। अधिकांश युवा जोड़े ही होते। परिवार के लोग विवाहित भी आते थे लेकिन दोनों के आने के मकसद अलग-अलग होते।

जहां एक तरफ युवा जोड़ों में एक होने की बेताबी दिखती वही विवाहित जोड़े शांत और निश्छल रहते थे । शादी के पश्चात शरीर के प्रति उतना मोह नहीं रह जाता है। बेताबी तो मिलने के बाद पूरी हो जाती है।

जोड़ों में आने वालों में अधिकांशत उच्च घरानों के लड़के लड़कियां होते हैं । जो बाप की हराम की कमाई हराम में ही खर्च कर रहे होते हैं। परीक्षा की तैयारी करने वाले तो हम जैसे लोगों की तरह अकेले ही आते थे।

शहरों में कमरा लेकर अधिकांशतः लड़के ही रहते हैं। लड़कियों की संख्या नगण्य हैं। यदि रहती भी है तो वह मात्र हॉस्टलों तक ही सीमित है। वह वहां से उतनी मनमौजी नहीं टहल घूम सकते।

इंटरमीडिएट के पश्चात मैं किसी कॉलेज में रेगुलर विद्यार्थी नहीं रहा जहां व्यक्तित्व निखर सकता हों। अधिकांश मैं प्राइवेट किया है । यदि मैं रेगुलर इलाहाबाद विश्वविद्यालय का छात्र होता तो व्यक्तित्व और अच्छा खिल सकता था। किसी के प्रति मन मे जो झिझक के भाव थे वह दूर हो जाते।

क्योंकि इंटर के पश्चात थोड़ी-थोड़ी विचारों में परिपक्वता आने लगती है । रैंकिंग के माध्यम से बच्चों के अंदर व्याप्त हेजीटेशन को दूर किया जा सकता है । हालांकि कभी-कभी यह भद्रता की सीमा तक बढ़ जाती है । जो कि कभी-कभी घातक सिद्ध होती है । परंतु थोड़ी-थोड़ी जिंदगी में छेड़खानी जरूरी भी होती है जहां दो दिल मिलकर भविष्य के सपने बुनते हो।

संस्कृत साहित्य में रचित जो अधिकांश ग्रंथ है प्रेम पर ही आधारित है । कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम प्रेम प्रधान साहित्य का उत्कृष्ट नमूना है और तुलसी, मीरा, कबीर सभी प्रेम के ही गुणगान गा रहे हैं । बस अंतर इतना है कि उनका प्रेम अलौकिक सत्ता के प्रति जुड़ गया है।

भगवान कृष्ण से बड़ा कौन प्रेमी होगा जिन्होंने राधा रानी को पत्नी रुक्मणी से भी ज्यादा मान्यता दी है। आज भी सभी कृष्ण भक्त राधा कृष्ण ही कह कर उनका भजन करते हैं । कोई रुक्मणी कृष्ण नहीं कहता । काश कृष्ण नाम का भजन करने वाले कृष्ण के दिव्य प्रेम स्वरूप का प्रचार प्रसार समाज में कर सके तो दुनिया इतनी विरान ना होती।

स्वयं बाल ब्रह्मचारी आदि गुरु शंकराचार्य जी ने भी आनंद लहरी और सौंदर्य लहरी जैसा दिव्य प्रेम ग्रंथ रचे । उन्हें मालूम था कि बिना प्रेम के जीवन नीरस है। यदि हम उनको पढ़ें तो हमें विश्वास नहीं होगा कि एक संन्यासी इतना कामुक वर्णन भी कर सकता हैं।

उन्होंने माता पार्वती के एक-एक अंग की सुंदरता का ऐसा वर्णन किया है कि पूछो ही मत। माता पार्वती के नैनों के साथ ही हृदय, वक्षस्थल आदि सबका उल्लेख किया है । क्या हम उन्हें घटिया आदमी कह सकते हैं ।

घटिया वे नहीं बल्कि हमारी सोच है। हमारे मन में प्रेम के प्रति इतनी नफरत भर दी गई है कि यदि हम सगे भाई-बहनों को भी साथ में बातचीत करते देख ले तो यही सोचेंगे कि जरूर दाल में कुछ काला है।

इस समाज में प्रेम को इतना बदनाम कर दिया है कि यदि वह कोई लड़के लड़कियां बातचीत कर रहे हो तो हम सोच ही नहीं सकते कि वह कुछ अच्छी बातें करते होंगे। हमारे मन में शंका जरूर उत्पन्न हो जाती है क्या हम इस समाज की स्वस्थ मानसिकता का सकते हैं।

एक प्रकार से देखा जाए तो हमारा सारा सामाजिक ढांचा ही रोग ग्रस्त है। जिसकी आज समाज को चिकित्सा करने की जरूरत है । समाज में प्रेम के प्रति जो फोड़ा निकल आया है उसका चीर-फाड़ करने की जरूरत है।

आखिर किसने प्रेम नहीं किया कृष्ण ने भी किया ,राम ने भी किया ,महावीर ने किया, बुद्ध ने किया ऐसा संसार में कोई देवी देवता नहीं है जो प्रेम न किए हो। हमारा चिंतन हमारे देश हमारी धारणा गलत है जिसे बदलने की आवश्यकता है।

ओशो को सेक्स गुरु कह कर बदनाम किया जाता है परंतु मैंने देखा है कि भारत में जितना उन्हें पढ़ा जाता है, हो सकता है किसी को इतना पढ़ा जाता हो । भारत में हजारों की संख्या में अच्छे संत हैं परंतु किसी की पत्रिका एकमात्र ओशो को छोड़कर सार्वजनिक बुक स्टॉल पर नहीं मिलेगी । यदि मिलेगी भी तो उनके मात्र चेलों के पास।

मैंने ओशो साहित्य को पढ़कर जानने का प्रयास किया कि आखिर उसमें ऐसा क्या है कि लोग उनके पीछे पड़ गए और अमेरिका जैसे खुली सोच रखने वाला देश भी उन्हें सलाखों के पीछे डालने को मजबूर हो गया।

उनके साहित्य में प्रेम के पुष्प खिलते देखा। अपने प्रवचनों में प्रेम की व्याख्याएं दी । सेक्स जैसे घृणित समझे जाने वाले विषय को सार्वजनिक मंचों पर प्रवचन मालाएं आयोजित की। उन्होंने समाज को नया चिंतन देने का प्रयास किया परंतु मुझे लगता है कि लोग उन्हें समझ ही नहीं सके।

वे अंधों के देश में आंख वाले बनकर आए और अंधों ने उन्हें भी अंधा बना दिया । आखिर एक बार हमें इस बात को सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि क्यों जो भी महापुरुष समाज की सड़ी गली मान्यताओं पर आवाज उठाता है तो उसको मौत के घाट उतार दिया जाता है।

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी को कहा जाता है कि 17 बार जहर दिया गया और स्वामी जी अपने योग बल से उसे बाहर कर दिया करतें थे। अंत में नन्ही बाई के द्वारा दिया गया ज़हर उनकी जान का दुश्मन बन गया। ना जाने कितनों को मौत की नींद सुलाता रहेगा यह समाज।

क्या हमने कभी यह सोचा है कि यदि हम किसी को याद करते हैं तो आंखों में एकदम से नूर आने लगता है, चेहरा गुलाबी हो जाता है, शरीर शक्ति से भर जाता है, कलम सहज में काव्य सुमन रचने लगता है।

भाग – २२

हरिद्वार में अध्ययन के दौरान जीवन में पहली बार मैं हॉस्टल में रहा । मेरा वाह्य व्यक्तित्व पूरी तरीके से यही खिल सका। मन में जो हेजिटेशन थी कुछ क्षण तक कम हुए। क्योंकि हम यहां साथ साथ बातचीत करते, खाते पीते रहने से मन में उनके प्रति जो विकार थे वह कुछ कम हुए।

मेरी क्लास में एक छात्रा थी। उसे जब मैं प्रवेश परीक्षा के समय देखा था तभी जैसे उसने जादू सा कर दिया हो। पता चला कि उसका प्रवेश भी हमारे क्लास में हुआ है।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय में फूलों के बागान बहुत सुंदर हैं । मैं क्लास में खिड़की के पास बैठता जहां से हिमालय की प्राकृतिक छटा का नजारा सहज में दिखलाई पड़ता था।

मैंने अपनी जिंदगी में जितनी कविताएं रची है उस समय की ही हैं। वह दूसरी साइड में बैठती थी । उसे देखकर सहज में कविताएं उतरने लगती थी। परंतु यहां भी मैं प्रेम में धोखा खा गया।

मैंने कभी उससे प्रेम मोहब्बत की बात ही नहीं कि जब कभी बातें करता तो केवल पढ़ाई-लिखाई की करता। मैं उसे एक तरफा प्यार करता रहा परंतु यह जानने का प्रयास नहीं किया कि वह करती है या नहीं।

उससे खुलकर प्रेम का इजहार इसलिए भी नहीं कर पा रहा था उस समय मेरा पुराना मकान गिर चुका था। खेत गिरवी रखे थे । घर के हालात बहुत खराब चल रहे थे । जबकि उसके रहन-सहन से लगता था कि वह अच्छे समृद्ध परिवार से है । उसके एक बार भैया भाभी भी आए थे । उनसे बातचीत भी की थी।

मुझे लग रहा था कि उसे मैं वह सुख नहीं दे पाऊंगा जो किसी के परिवार वाले रखते है। उस समय हमारे कई दोस्तों के प्रेम अपने सवाब पर थे।

राजा , मनीष तो खुलकर इजहार कर चुके थे जिनकी चर्चा शिक्षकों तक भी पहुंच चुकी थी। बाद में राजा ने जो गाजीपुर के रहने वाले हैं उसे अपना प्यार मिल गया । उनकी पत्नी वंदना जी भी बहुत मजाकिया थी । वह बहुत मोटी और गौणवर्ण की सफेद चांदनी जैसी है। वह अंग्रेजों जैसी दिखती है।

मनीष भाई भी बड़े मस्त मौला किस्म के थे। उनका चक्कर भी सीनियर क्लास के किसी लड़की से चल रहा था । वह भी कभी-कभी क्लास में बैठे-बैठे अक्सर वे उसके लिए कविताएं लिखा करते । वह ओशो के भक्त थे। जिसके कारण भी अक्सर चर्चा में रहते थे।

उनका प्रेम परवान तो चढ़ा लेकिन शादी में नहीं बदल पाया। इसी प्रकार हमारी क्लास में भरत थे । वह भी मस्त फकीर जैसे थे। कभी तो दाढ़ी बाल बढ़ाकर बाबा बन जाते तो कभी सफाचट । उन्हें बाबा जी भी कहते थे सभी।

उन्हें क्लास से निकाल दिया गया था लेकिन परीक्षा देने के अनुमति गई थी । एक प्रकार से अधिकांश लड़के लड़कियां ऐसे थे हमारे कक्षा में जो सामाजिक बंधनों को मानने को तैयार नहीं थे। वे स्वतंत्र जीवन जीना चाहते थे । समाज की सड़ी गली मान्यताएं उन्हें पसंद नहीं थी। वह सभी जीवंत और जागृत आत्माएं थे । लेकिन समाज के लिए ऐसे लोग सदा से ही घातक सिद्ध हुए हैं।

 

समाज को मुर्दे लोगों की जरूरत है । एक प्रकार से देखा जाए तो जो बच्चा ज्यादा तेज होता है । बात-बात में प्रश्न पूछता है । उसे डांटकर बैठा दिया जाता है । कभी-कभी तो उसका नाम काटकर स्कूल से निकाल दिया जाता है। जो बालक कुछ नहीं बोलता, ना अध्यापकों से प्रश्न करता है।

ऐसे मुर्दे बच्चों को कहा जाता है कि कितना अच्छा बच्चा है। मरे हुए समाज को मुर्दे बच्चे ही तो अच्छे लगेंगे। मैंने देखा कि जब मैं प्रश्न पूछता था तो हमें डांट कर बैठा दिया जाता था।

पूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी पर एक पेपर था। जिसे चारु दीदी पढ़ाती थी ।वैसे उनकी पकड़ तो अच्छी थी वह पढ़ाती भी अच्छी थी। परंतु हमारे प्रश्न विषय से हटकर थे जो वह नहीं बता पा रही थी।

वह एक बार हाथ जोड़कर बोलीं ऐसे प्रश्नों को जितेन्द्र भैया से पूछना। प्रैक्टिकल में मुझे उन्होंने पेपर में जीरो नंबर दिया। जिसे मैं क्रोध में फाड़ डाला। वार्षिक परीक्षा में मैं उस विषय में असफल हो गया।

जिसके कारण मेरा एक वर्ष और बर्बाद हो गया। मेरी यह नहीं समझ में आया कि जिस विषय में दीदी ने हाथ जोड़ लिए उस विषय के लिए मैं इतना नकारा सिद्ध हुआ कि जीरो नंबर देना पड़ा।

प्रेम करना सदा से एक खतरा समझा जाता रहा है । सामने से लोग तो मिलने जुलने देते नहीं थे। इसलिए चुप-चुप कर मिला करते । विद्यालय में ही महाकाल का मंदिर है। सायं काल के समय लड़के लड़कियां वही एकत्रित होते ।

आपस में वार्तालाप करते। भविष्य के सपने भी देखे जाते। हमारे गुरु जी अमृतलाल है ।वह बहुत मस्त मौला थे। वे बच्चों से हिल मिलकर रहते थे । हम लोग कोई भी बात उनसे छुपाया नहीं करते थे । प्रेम प्रसंग की चर्चा भी उनसे कर लेते थे।

उनकी अभी शादी नहीं हुई थी। एक दिन उनसे जब इस प्रेम पर चर्चा किया तो वह मुस्कुराने लगे । उन्होंने प्रेम पर आधारित अखंड ज्योति पत्रिका का एक संकलन बनाया हुआ था वह दिखाया। मुझे वह प्रेम के अवतार लगे।

मैंने एक बात का जीवन में अनुभव किया कि जिस बात का हम ज्यादा विरोध करते हैं वही ज्यादा फैलती है । लड़के लड़कियों से मिलने के लिए विद्यालय में जितना प्रतिबंध लगाया जाता था वह उतना ही उग्र रूप लेने लगा।

नित नए-नए प्रतिबंध लगने लगे। परंतु उसका कोई ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा । मेरी कक्षा का बदनाम कक्षाओं में गिनती होती है। छुप छुप कर आज तो कल लगा रहा परंतु हमारे कक्षाओं के साथियों ने तो कुछ आती ही कर दी थी।

होली का त्यौहार आने वाला था । सब घर जाने की तैयारी में थे । ऐसे में यह प्लान बनाया गया की जमकर होली मिलन समारोह किया जाए। मनीष भाई उसके अगुआ थे।

होली का प्रोग्राम इतना गुपचुप बनाया गया कि किसी को भी खबर नहीं हो सके । क्लास में सभी लड़के लड़कियों ने खूब एक दूसरे पर अबीर गुलाल लगाया ।हमारी कक्षा में सबसे ज्यादा उम्र की अंजू दीदी थी उन्होंने भी खूब होली खेली सबसे होली। खेलने के बाद भी दिल किसी को खोज कर रहा था।

मैं सबसे होली तो खेल लिया अंतिम में उनसे खेलने में संकोच हो रहा था । लेकिन अचानक जब सामने आए तो मौका देखकर उसके चेहरे पर भी लगा ही दिया । लगा जीवन के जैसे कोई आस पूरी हो गई हो। उन्होंने भी थोड़ी सी अबीर लगा दिया।

नजर एक दूसरे से मिली तो मुस्कुराने लगे। दिलों के बीच दूरियां खत्म हो गई । यह होली हमारे जीवन की यादगार रही ।जिसको याद करके आज भी दिल को सुकून महसूस होता है।

बाद में शिक्षकों द्वारा डांट ना पड़े इसलिए कमरे की अच्छी तरह से सफाई कर दी गई ।लेकिन बाद में फिर भी कुलपति जी द्वारा डांट सभी को खाने पड़ी। लेकिन फिर भी सभी के चेहरे पर संतोष का भाव व्याप्त था।

कुलपति जी बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे। उन्होंने कहा कि होली खेलते हुए भी शालीनता बनाए रखनी चाहिए । इससे नहीं तो समाज में गलत संदेश जाता है। हालांकि तुम लोग समझदार हो सही गलत को समझ सकते हो।

भाग- २३

देव संस्कृत विश्वविद्यालय हरिद्वार में अध्ययन करना हमारे जीवन के अमूल क्षणों में था। वे पल अभी भुलायें नहीं भूलते ।जैसे कृष्ण को वृंदावन गोकुल नहीं भूलता था। वैसे मुझे नहीं भूल रहा है।

वास्तव में देखा जाए तो धरती पर ईश्वर कहीं है तो वह यही मुझे लगा । वहां के प्राकृतिक छटाएं सहज ही व्यक्ति के मनो मस्तिष्क को मोह लेती हैं।

हम लगभग प्रतिदिन सायं काल के समय गंगा के घाट पर जो 1 किलोमीटर के लगभग था जाया करते। हरिद्वार में अधिकांश घाट पक्के सीमेंट ईटों के बनाए गए हैं। गंगा मां का जल यहां इतना शीतल है कि जैसे बर्फ हो । गंगा घाट पर बैठे हुए इतनी शांति मिलती थी की मन प्रेम एवं आनंद से भर जाता था । कल कल बहती नदी की धाराओं के बीच के नजारे को देखकर ऐसा लगता था जैसे धरती पर स्वर्ग उतर आया हो।

 

जब तक किसी के जीवन में समस्याएं नहीं आते तब तक सही मायने में उसके व्यक्तित्व में निखार नहीं आता। समस्याएं दुख परेशानी या हमारी परीक्षा लेने के लिए ही आती है । यदि हम उसे सकारात्मक ले तो वही हमारे लिए वरदान सिद्ध होती हैं।

मैं जब अपनी जिंदगी में पीछे मुड़कर देखता हूं तो मन एक तरफ तो दुखित होता है कि प्रभु इतनी मुसीबत किसी को ना दे जितनी मुझे दिया। परंतु दूसरी तरफ एक बात की खुशी भी होती है कि यदि जिंदगी में इतनी समस्या है ना आए होती तो हमारा जीवन इतना ना खिलता।

मैं देखता हूं हमारे अधिकांश दोस्त सामान्य रूप से 10वीं या 12वीं तक ही पढ़ सके । उनके घर परिवार में सारे सुख साधन था यदि चाहते तो जो भी पढ़ना चाहते पढ़ सकते थे। मां बाप ने हर संभव प्रयास भी किया कि बच्चा पढ़ जाए परंतु यह नहीं पढ़ सके।

मेरा भांजा विकास मेरी बहन का इकलौता लड़का है। उसके माता-पिता ने बहुत प्रयास किया कि वह थोड़ा पढ़ लिख ले परंतु हाई स्कूल भी नहीं पढ़ सका। ऐसे ही मैंने कई लोगों के जीवन में देखा है।

ज्ञान को मां सरस्वती के रूप में पूजन की परंपरा हमारे समाज में व्याप्त है । कहते हैं कि मां की कृपा विरले लोगों पर ही बरसती है । एक लेखक अपनी कृतियों के माध्यम से जीवित रहता है । आज सूर, कबीर, तुलसी , मीरा नहीं है परंतु उनकी कृतियां पढ़ने के पश्चात लगता है जैसे जीवंत हो।

मैंने अपने जीवन में यह अनुभव किया है कि हमारा पूरा का पूरा सामाजिक ढांचा शोषण पर आधारित है । हर उच्च व्यक्ति अपने से निम्न को शोषण करने की ही सोचता है। कोई अमीर व्यक्ति किसी गरीब की सहायता नहीं करता बल्कि यही सोचता है कि इसका उपयोग भविष्य में किस तरीके से किया जा सकता है।

हमारे धर्म गुरुओं ने शास्त्रों की आड़ लेकर सामाजिक मान्यता भी प्रदान कर दिया है।जिसके कारण समाज विभिन्न वर्गों एवं जातियों में बटकर रह गया है। उच्च समझे जाने वाले जातियों में निम्न वर्गों का हजारों वर्षों से शोषण किया है और आज भी शास्त्रों की आड़ में कर रहे हैं।

मैं बहुत से संस्थाओं के लोगों से मिला उनके साथ रहा परंतु कहीं ऐसा नहीं लगा कि कोई हृदय से हमारी सहायता करना चाहता है । या किसी ने कोई सहायता की भी तो उसकी भरपूर कीमत भी वसूली।

धार्मिक संस्थाओं में रहते हुए अनुभव किया कि अधिकांश लोगों ने हमें भावनात्मक शोषण का ही शिकार बनाया। मुझे लगता है कि इसीलिए कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम की गोली कहा है।

किशोरावस्था में अभी कदम रखा ही था। उस समय मुझे सही गलत की तरकीब नहीं थी । उस समय बस जिसने जैसा बताया मैं करता गया । मैं दिन को दिन एवं रात को रात नहीं समझता था। और सेवा कार्यों में लगा रहता था मैं दीवार लेखन भी छुपाकर करता था । घर वाले नाराज होते हैं इसलिए चोरी से दीवारों में लिखता था।

यदि मुझे अपने किसी रिश्तेदारी में जाना होता तो बैग में छुपा कर लिखने की सामग्री रख लेता और फिर निकालकर रास्ते भर लिखता और सायं काल जिसके घर जाना होता पहुंच जाता। घर परिवार की समस्याओं को भी नजर अंदाज करके मैं सेवा करता था । परंतु इस सेवाओं के बीच में देखा की जो मठाधीश बनकर बैठे हुए हैं वे एक सामान्य नौकरों जैसा सलूक करते हैं।

कार्यकर्ता चाहे समाज में जितना कार्य करें उसकी कोई गिनती नहीं होती। बस यही कह कर थोड़ी शाबाशी दे दी जाती है कि आप बहुत अच्छा कर रहे हैं। परंतु यदि आप कोई स्वतंत्र विचारधारा देना चाहे तो जलील करके ऐसा चुप करा दिया जाता है कि आप दोबारा अपना मुंह खोलने की हिम्मत नहीं जुटा सकते।

हमारे साथ कार्य करने वाले कई कार्यकर्ताओं को जो कि गरीब परिवार से है चाहे जितनी मेहनत करते हो उनकी कहीं कोई ज्यादा पूछ नहीं होती थी। यही हालात लगभग सभी धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं की है। इसलिए मैं किसी पर व्यक्तिगत रूप से आक्षेप नहीं लगाना चाहता । जब समाज बना हुआ ही है शोषण के लिए तो किसी की क्या गलती हो सकती है।

हो सकता है कि शोषण आधारित सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन करने के लिए समाज के कुछ ऐसे चिंतकों का जन्म हो जो शास्त्रों में की गई शोषण आधारित व्यवस्थाओं को नए सिरे से परिभाषित कर सके।

भाग – २४

मेरे मन में किसी के प्रति भी कोई द्वेष भाव नहीं है। मैं यह सब केवल हजारों वर्षों से दास्तां की जंजीरों में जकड़े उन देशवासी भाइयों के लिए लिख रहा हूं जिन्होंने दूसरों की सेवा करना, उनके साफ-सफाई करना, मलमूत्रो की सफाई करने में कभी संकोच नहीं किया।

फिर भी हमारे समाज के कर्णधारों ने उन्हें अछूत कह कर सदा दूर रखा है। यह शास्त्रकार कुत्ते , बिल्ली का जूठन तो खा सकते हैं पर निम्न जातियों का दर्शन करना भी अशुभ मानते हैं।

मैंने स्वयं बचपन में ऐसा होते हुए अनुभव किया है । दुनिया चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो परंतु भारतीयों की मानसिकता में बदलाव अभी भी कोई कहीं परिवर्तन आया हो ऐसा मुझे नहीं लगता।

एक दिन सफाई करने वाला सुंदर भाई भी अपने दुखड़े को कहने लगा कि लोग मुझे वाल्मीकि समाज का कहकर तिरस्कार करते हैं। आखिर मेरे समाज के लोग दूसरों का मैला ना उठाए तो सोचिए क्या स्थिति होगी?

उसके दुखों को केवल अनुभव किया जा सकता है शब्दों में व्यक्त करना मेरे बस की बात नहीं। मुझे तो लगता है कि यदि तीसरा विश्व युद्ध होगा भी तो इस शोषण आधारित सामाजिक व्यवस्था के विरोध में ही होगा। इसलिए आवश्यकता आ पड़ी है कि हम अपनी सोच में परिवर्तन लाए।

जिंदगी यूं ही अपनी गति से बढ़ती जा रहे थी । उसका कहां मुकाम होगा कहां रुकेगी या यू ही चलती रहेगी कुछ भी नहीं पता चल पा रहा था। मैं भी अबोध शिशु की भांति उसका आनंद ले रहा था। कभी प्रसन्न होता तो कभी दुखों में डूब जाता।

कहां भी तो गया है कि सुख-दुख के थप्पड़ों के बीच जूझते रहने का ही नाम जिंदगी है। कोई कोई प्रभु के प्यारे भक्त ही बच पाते हैं । आनंद स्वरूप तो एक मात्र प्रभु ही है । जिसकी चरण यदि हमें मिल जाए तो यह जिंदगी निहाल हो सकती थी। परंतु सांसारिक माया इतनी लुभावनी होती है कि उसे बचना सरल नहीं है।

हिंदी साहित्य से एम ए कर लेने के पश्चात भी लगता था कि जिंदगी में कुछ कमी है। मैं उस समय बड़ा शांत रहता था। कभी-कभी घंटे-दो घंटे गंगा तट पर बैठकर नदी की जलधारा को निहारा करता। उसके बीच ऐसा शांति मन में सहज विराजने लगती थी कि कहना मुश्किल है।लोगों से बातचीत करना अच्छा नहीं लगता था। इसलिए अक्सर मैं अकेले ही रहता था।

पार्टनर के साथ भी पट नहीं रहा था। इसलिए कमरा भी छोटा सा अकेले ले लिया जहां चिंतन मनन में किसी प्रकार का व्यवधान ना हो । मन में बार-बार यह प्रश्न गूंजता की क्या है जिंदगी के मायने?
आखिर जब स्कूली शिक्षा से शांति नहीं मिल पा रही है तो कोई न कोई ज्ञान जरूर होगा जिसको पाकर जिंदगी आनंद से परिपूर्ण हो सकता है।

इसी बीच बाल योगेश्वर जी महाराज के प्रवचनों पर आधारित शब्द ब्रह्म पत्रिकाएं बहुत सी पढ़ गया था । रामबाग प्रयागराज की पुरानी दुकान पर पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य की पुरानी अखंड ज्योति पत्रिका की एक प्रति मुझे मिला । उसको मैंने बड़े चाव से पढ़ा । उसमें उनके प्रवचनों के दिए गए थे । उस प्रवचन की भाषा शैली बहुत ही सुन्दर और सरल था कि कोई सामने से उसे बैठकर सुना रहा है।

प्रवचन के एक-एक शब्द ऐसे थे जैसे मेरे लिए ही लिखी गई हो। आज जहां व्यक्ति चार अक्षर क्या जानने लगता है उसका भाव ही नहीं मिलता । वही उनके प्रवचन में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे ऐसा लगता हो कि प्रवचन करता ज्ञान के डींगे हांकते हो।

लगता है सद्गुरु स्वयं मेरे घर आ गए हो । हमारी प्यास को बुझाने। हमारे घर परिवार से भी कोई व्यक्ति इस प्रकार से किसी कार्यक्रम में कभी शामिल नहीं हुआ था। हमारे घर में तो पिताजी गाजी मियां के पुजारी रहे। उन्हें सत्संग प्रवचन से ज्यादा कोई लगाव नहीं रहा।

हमारे गांव में भी कोई सत्संगी नहीं था । जो हमारी जिज्ञासों को शांत कर सकता हो । एक दो बड़े बूढ़े लोगों से चर्चा भी की परंतु जो व्यक्ति जिंदगी भर संसारी माया के पीछे भागा हुआ क्या बता सकता है ‌। अक्सर लोग नकारात्मक विचार ही देते जिस निराश होने के अलावा कोई चारा नहीं था।

लोगों का तर्क रहता था कि तुम इन बाबाओं के चक्कर में कहां फंसकर अपनी जिंदगी तबाह करने पर तूले हो । पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी पाने का प्रयास करो । जेब में जब पैसे होंगे तो सभी पूछेंगे । उन लोगों का पढ़ाई का अर्थ मात्र नौकरी करना है। उन सबकी बातों से मुझे कोई संतुष्टि नहीं मिली।

मेरी मकान मालकिन भी खूब पूजा पाठ करती थी । परंतु बाबाओं को नहीं मानती थी । उनसे भी मैं खूब तर्क वितर्क करता । वैसे वह बहुत अच्छी इंसान थी । उनके घर में रहते हुए लगता था जैसे अपने ही घर में हो। कभी-कभी उनके घर में भोजन भी कर लिया करता था।

उनकी बहू भी पूजा पाठ किया करती थी । उनसे प्रश्न पूछने पर मुस्कुरा देती लेकिन कोई सार्थक उत्तर नहीं दे पातीं ।कभी-कभी अपनी समझ से बताने का अभी प्रयास करती है वह बहुत ही सालीन महिला थी।

उनके पति बच्चा भैया बहुत ही मोटे तगड़े थे । जैसा नाम वैसे ही उनके गुण थे । एकदम उनका स्वभाव बच्चों जैसा ही था। मैंने देखा है कि नाम का प्रभाव मनुष्य के जीवन में होकर रहता है। इसीलिए व्यक्ति के नाम बहुत सोच समझ कर रखे जाते रहे हैं।

इन प्रश्नों में ऐसा उलझा के मेरी तबीयत खराब हो गई । लोग समझते कि इन प्रश्नों में कोई फायदा नहीं है । मकान के सामने की तरफ बरामदा था। जहां मोहल्ले की महिलाएं इकट्ठा होकर अपनी राम कहानी छेड़ देती थी।उनसे भी मैं कभी-कभी तर्क वितर्क करता लेकिन अन्ततः कोई समाधान नहीं निकल सका।

भैया घर बुलाकर डॉक्टर को दिखाया कि क्या हो गया है मुझे? नीम हकीमो से झाड़ फूंक भी करवाई गई। हमारा गांव पिछड़े क्षेत्र में होने के कारण इस प्रकार के अंधविश्वास ज्यादा प्रचलित थे।

यदि कोई बीमार हो जाता है तो लोग उसे डॉक्टर को दिखाने की अपेक्षा झाड़-फूंक करवाना ज्यादा उचित समझते हैं । मेरी मां तो पूर्णत ऐसी अन्य परंपराओं की भक्तिन थी । पिताजी तो जब तक पूजा करते रहे थे। वह तो मैं बचपन में देखा था कि बकरा बकरी मुर्गा मुर्गी जैसे जानवरो की बलि भी चढ़ाते थे।

हमारे गांव में ऐसे 5-10 पुजारी थे जो ऐसे देवताओं की पूजा किया करते थे । मुझे झड़ने के लिए सोखा बाबा बुलाए गए। जो हमारे दादा लगते थे ।उन्होंने हमारे पिताजी को पुजवाया था। इस प्रकार से हमारे पिताजी के गुरु थे । जब भी पिताजी मृत्यु के पश्चात कोई बीमार होता तो वही बुलाए जाते थे।

मेरा उस समय पुराना घर था । उसी में एक कमरा अलग से पूजा के लिए छोटा सा था ।जिसमें गाजी मियां के त्रिशूल गाड़ कर स्थापना की हुई थी । उसमें बिना कार्य किसी को जाना माना था । अक्सर उस कमरे में ताला बंद रहता था जब कोई विशेष कार्य होता तभी उसे खोला जाता था।

सोखा बाबा जाति के यादव थे। वे लगभग 70 वर्ष के बूढ़े हो चुके थे । फिर भी यदि कोई उनके घर दुख तकलीफ सुनाने पहुंच जाता तो उसको मना नहीं करते थे। बल्कि हर संभव उसकी सहायता ही करने का प्रयास करते । यह कार्य वह निस्वार्थ भाव से करते थे । लेकिन कुछ लोग इसे व्यवसाय भी बना लेते हैं।

एक बात मैंने विशेष रूप से अनुभव किया के जिन घरों में इन देवी देवताओं की पूजा होती है उनके घरों में अक्सर कोई न कोई बीमार परेशान ही रहता था । मेरे परिवार में भी बचपन से ही मैं देख रहा हूं कि कभी दीदी तो कभी भाभी बीमार होती रहती थी।

एक बार तो बड़े भैया भी बीमार हो गए थे । वह पागलों की तरह हो गए थे । ऐसी बीमारी को गांव में झाड़ मारना कहते हैं। एक प्रकार से यह एक दूसरे के प्रति नफरत के भाव से किया जाता है। महिलाओं को इसका शिकार ज्यादा बनाया जाता है।

मुझे इस प्रकार की कोई समस्या नहीं कह कर हमें झाड़-फूंक से मुक्त कर दिया गया। मेरी मां फिर भी बार-बार पूछते कि मलिक आखिर सेवक को क्या हुआ है ?
वह क्यों बीमार है ?

मेरी मां जब किसी के शरीर पर ऐसे देवी देवता प्रकट होते तो ऐसे ही प्रश्न पूछा करती थी?उन्हें इन सब बातों पर पूर्ण विश्वास था। झाड़ फूंक से मुक्त होने के पश्चात भी मेरी बीमारी ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी। इस प्रकार से महीना बीत गए । दवाएं खाता धीरे-धीरे स्थिति सामान्य होने लगी।

स्वयं के जानने के प्रति हमारे मन की जिज्ञासा फिर भी शांति होने का नाम नहीं ले रही थी ।कहते हैं कि व्यक्ति दुनिया का चाहे जितना ज्ञान प्राप्त कर ले परंतु जब तक स्वयं को नहीं जान पाए तो सारा ज्ञान अधूरा माना जाता है । जो व्यक्ति स्वयं को जान लेता है वही सच्चे अर्थों में सांसारिक ज्ञान को समझ सकता है।

ऐसा व्यक्ति देखने में तो सामान्य सा दिखता है परंतु उसके क्रिया कलाप सांसारिक मनुष्यों से बहुत अलग होते हैं । जैसे नांव यदि जल में तैरती रहे तो कोई परेशानी नहीं परंतु नाव में यदि जल आ जाए तो उसे डूबने से कोई नहीं बचा सकता संसार में हमें नदी नाव की भांति व्यवहार करना चाहिए।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहते हैं कि संसार में हमें जैसे कटहल काटते समय यदि हाथ में तेल लगा लिया जाए तो उसका रस हमारे हाथ में नहीं चिपकता है। इसी प्रकार यदि हमें ब्रह्मज्ञान हो जाए तो संसारी भोग विलास हमें परेशान नहीं कर सकते।

भाग- २५

सच्चा और अच्छा लेखन वही होता है जो आजीवन शिष्य की भांति जिज्ञासु बना रहता है जहां व्यक्ति के लगने लगे कि वह सब कुछ जानता है उसकी उन्नति वहीं से खत्म हो जाती है।

कहते हैं साहित्यकार संत होता है जो कि अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को रोशनी प्रदान करता है । साहित्यकार साधक होता है जो कि अपनी सतत साहित्यिक साधन के माध्यम से परमात्मा के सौंदर्य का गुणगान किया करता है।

साहित्यकार दार्शनिक होता है जो समाज को दृष्टि प्रदान करता है। साहित्यकार समाज सुधारक होता है जिसकी लेखनी समाज में नई क्रांति की सृष्टि प्रदान करती है।साहित्यकार योगी तपस्वी ध्यानी होता है जो कि अपनी साहित्यिक योग साधना की तपस्या के माध्यम से उसे परमात्मा का साक्षात्कार करता है जो की एक योगी तपस्वी करने के प्रयास में लगा रहता है।

हमारे जीवन में जिन महान लेखकों का विशेष प्रभाव पड़ा उनमें से एक थे– महान लेखक, योगी, तपस्वी, समाज सुधारक है आबिद रिजवी। देखा जाए तो आबिद रिजवी सभी अर्थों में खरे उतरते हैं क्योंकि लगातार पिछले 40 वर्षों की गहन साधना से उन्होंने वह सभी कुछ पा लिया है जो की एक योगी तपस्वी समाज सुधारक दार्शनिक पाना चाहते हैं। इसके साथ ही वह एक श्रेष्ठ गृहस्थी योगी भी हैं उनका परिवार के प्रति समर्पण समाज के लिए दिशा प्रदान करता है।

उनका जन्म 6 फरवरी 1942 को प्रयागराज के कर्नलगंज कस्बे में हुआ था। उनके पिता का नाम जब्बार हुसैन एवं मां का नाम एजाज बानो था। उनके माता-पिता बहुत नेक दिल इंसान थे।

जन्म के समय बालक की आंखें इतनी नशीली थी कि एक बार नजर पड़ जाए तो हटने का नाम नहीं ले। बालक ऐसे एक टक देखता रहता था जैसे दिल में समाना चाहता हो , ईद के चांद की तरह बालक बढ़ने लगा।

अपने बचपन को याद करते हुए आबिद रिजवी कहते हैं मेरे लिए मेरी पहली शिक्षिका मां थी। मां के संस्कार बच्चों को आजीवन प्रभावित करता है। एक आदर्श मां सौ टन धर्म गुरुओं से भी महान होती है। बच्चा वही बनता है जो मां उसे बनाती है ।इसीलिए नेपोलियन बोनापार्ट कहता है कि तुम मुझे एक आदर्श मां दो मैं तुम्हें नए राष्ट्र दूंगा।

बचपन में मां को कभी किसी के साथ लड़ते झगड़ते नहीं देखा। खुदा की इबादत पांचो वक्त नमाज अता करती । वह मुझ पर कभी दबाव नहीं डालते थी कि मैं भी नमाज पढ़ूं। मेरे अब्बा जान भी बहुत जिंदादिल इंसान थे।

गरीबों असहायों की सहायता करना उनके स्वभाव का हिस्सा था । वह मस्त मौला फकीर की तरह थे । कभी-कभी वह अपने तन के वस्त्र भी दे देते थे। अम्मी को जब मालूम होता तो समझाती परंतु अगले दिन फिर वही फकीरी धारण कर लेते थे।

लगता है वही फकीरी आबिद रिजवी के जीवन में भी आ गई थी । बाल्यावस्था से ही वे मस्त मौला थें ।जो भी मिला खा लिया जहां जगह मिली सो गए कभी ज्यादा सोच विचार नहीं किया।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा मोहल्ले के मदरसे से शुरू हुई। एक हाफिज जी पढ़ाने आते थे ।बच्चों की संख्या 30- 40 थी। इस प्रकार की रटन्तु विद्या उन्हें रास नहीं आ रहे थे। उन्हें लगता था कि इस प्रकार से पढ़ लिखकर क्या होगा ?

वह जिंदगी की किताब पढ़ना चाहते थे। जिंदगी का एक-एक क्षण क्या हमें कुछ नहीं सिखा सकता? प्रकृति सबसे बड़ी पुस्तक है । जो व्यक्ति यदि सीखना चाहे तो प्रकृति की पाठशाला में इतना कुछ सीख सकता है जितना वह स्कूलों में भी नहीं सीख सकता।

आबिद रिजवी मानते हैं कि जो मौज मस्ती मैंने मदरसे की पढ़ाई के समय किया वह आनंद कभी नहीं आया । कुरान पाक का ज्ञान हमारे जीवन को पवित्र बनाता है । हालांकि मैंने वेद , उपनिषद , बाईबल, गुरु ग्रंथ साहिब आदि को भी पढ़ने समझने का मौका मिला। क्योंकि मुझे लिखना पड़ता था ।

मैंने सभी धर्म के पवित्र ग्रंथों के अध्ययन के पश्चात देखा कि सभी सत्य मार्ग पर चलने, गरीब असहायों के प्रति दयालु बनने, जीवन को पवित्र पाक साफ रखने ,जिस खुदा ने जीवन दिए हैं उसे कुछ छड़ो तक याद करने की सलाह देते हैं । कोई यह नहीं सिखाता की झूठ बोलों , चोरी करो ,दूसरों को सताकर उसका छीन ले।

अब तो मजहब भी कोई ऐसा चलाया जाए,
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
उनकी उच्च शिक्षा कर्नलगंज इंटर कॉलेज प्रयागराज से हुई। यहीं से उन्होंने इंटरमीडिएट किया।
इसी बीच वह कुछ-कुछ लिखने लगे थे। प्रयागराज के दारागंज मुहल्ले में ही छायावाद के सुप्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी भी रहते थे। निराला का फक्कड़पन युवा आबिद के दिल को मोह लिया था।

आबिद जी ने कुछ कविताएं लघु कथाएं आदि लिखी थी । उनकी इच्छा थी कि निराला जी को इन रचनाओं को सुनाएं। परंतु इसका मौका उन्हें नहीं मिल पाया। आबिद जी कहते हैं कि मैं संकोच बस भी उन्हें नहीं सुनाना चाहा ।

निराला जी का शरीर इतना आकर्षण था के देखने वाला देखते ही रह जाता, बड़ी-बड़ी दाढ़ी मूछ घुंघराले लंबे बाल, कुर्ते पजामे के ऊपर दूसाला ओढ़े ऐसे लगते थे जैसे कोई देव दूत।

आबिद रिजवी जी ने अपने जीवन में बहुत खूब लिखा । इतना लिखा कि उन्हें खुद भी पता नहीं है कितना लिखा। साहित्य की कोई ऐसी विधा नहीं है जिस पर उन्होंने कलम न चलाई हो। उत्तर प्रदेश का कोई भी बस अड्डा रेलवे स्टेशन ऐसा नहीं मिलेगा जहां पर उनके द्वारा लिखित साहित्य ना उपलब्ध हो।

उनके द्वारा लिखा गया विशाल लुगदी साहित्य आम जनमानस के पहुंच के अंदर था। यह इतना सस्ता है कि एक गरीब से गरीब व्यक्ति भी सहज में खरीद सकता है। उनके द्वारा लिखे साहित्य को मैंने दिल्ली के बाजारों में तौल के भाव बिकते देखा है।

एक प्रकार से वे जमीन से जुड़े हुए साहित्यकार हैं। उनके व्यक्तित्व को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि कोई एक अकेला व्यक्ति इतना महान साहित्य लिख सकता है।

भाग- २६

हमारे गांव में एक राम अचल जी थे। वह अधिकांश अपने ससुराल में रहा करते थे। क्योंकि उनके साले नहीं थे। बिना साले की शादी के वह विरोध में थे लेकिन माता-पिता ने दबाव में उनकी शादी कर दिया था ।

जिसके कारण अक्सर वे अपने माता-पिता से नाराज रहा करते थे। वह ऐसा मानते थे कि दूसरे को मिले धन से बरक्कत नहीं होती है लेकिन उनकी मजबूरी बन गई थी उनका ससुराल में रहना।

एक बार में ससुराल में बहुत बीमार हुए। इसके बाद वह अपने गांव आ गए और यही रहने लगे। गांव में वह एक विद्यालय में प्रधानाचार्य भी हो गए लेकिन इसी बीच उनकी तबीयत भी बिगड़ती जा रही थी।

वह बच्चों को बहुत ही आत्मीयतापूर्ण अध्ययन कराया करते थे। उनके विद्यालय में जाने से बच्चों की संख्या लगभग दोगुनी हो चुकी थी। वे समय के बहुत ही पक्के थे। स्कूल में यदि कोई अध्यापक देर से आया करता था तो उस पर बहुत नाराज होते थे।

वे अध्यापकों से कहा करते–” देखो यदि आप ही लोग देर से आएंगे तो बच्चों पर इसका गलत असर पड़ेगा । बच्चों को सिखाने के पहले हमें स्वयं में परिवर्तन लाना होगा। आचार्य वही जो अपने आचरण से शिक्षा दें। इसलिए हमें छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना चाहिए। ”

विद्यालय में उनका आचरण बहुत सालीन हुआ करता था। जिसके कारण सभी बच्चे उनसे बहुत खुश रहा करते थे। उनके विद्यालय में आ जाने से विद्यालय में बहुत परिवर्तन हो गया था।

हमारे साथ अक्सर वे मित्रवत व्यवहार रखते थे। जबकि हमारी उम्र उनसे बहुत कम थी । हमारे जैसे उनके बच्चे थे। वे अध्यापकों द्वारा स्कूलों में नशाखोरी के प्रबल विरोधी थे।

उनका कहना था कि एक नशेड़ी बाज अध्यापक चाहे जितना अच्छा पढ़ाता हो लेकिन उसका प्रभाव बच्चों में श्रेष्ठ नहीं पड़ सकता है। इसी प्रकार वह विद्यालयों में शिक्षकों द्वारा दुश्चरिता के भी विरोधी थे। अधिकांश विद्यालयों में शिक्षक शिक्षिकाओं में ही इश्क बाज़ी होने लगती हैं। जिसका प्रभाव बच्चों में बहुत गलत पड़ता है।

आज कल विद्यालय में महिला शिक्षक की बढ़ोत्तरी होने से यह समस्या है और अधिक बढ़ने लगी है। जिसकी देखा देखी बच्चे भी इश्क बाज़ी करने लगते हैं।

उनके विद्यालय में एक अध्यापक जो कि हमारे ही गांव के थे इश्क के चक्कर में अपनी जान गवा चुके थे। उनकी उम्र मुश्किल से 20-22 साल रही होंगी।

इस घटना से अक्सर वे बहुत व्यथित रहा करते थे। वह अध्यापक बहुत ही होनहार था लेकिन क्या करें आज इश्क में एक और आशिक़ की जान जा चुकी थी।

हमारे एक परिचित अध्यापक जो पिछले 20-22 वर्षों से विद्यालय चला रहे हैं उन्होंने बताया कि स्कूलों में यह समस्या बहुत गंभीर है। ऐसे में उन अध्यापकों की स्कूल से निकालना बड़ा कठिन हो जाता है।

स्कूल की बदनामी ऊपर से होती है। वे बताते हैं कि नए-नए लड़के लड़कियां स्कूलों में अध्यापकीय करते-करते आपस में ही इश्क बाज़ी शुरू कर देते हैं। इसलिए स्कूलों में अध्यापक रखते हुए बहुत सावधानी बरतनी चाहिए।

पूर्व में उनको दो बार ह्रदयाघात हो चुका था। इसलिए राम अचल जी अपने को बहुत खाने-पीने में सावधानी बरता करते थे। अभी सुबह-सुबह का ही वक्त रहा होगा।

राम अचल जी सुबह भोजन करने के बाद विद्यालय जाने के लिए तैयार हुए। अभी घर से निकले ही नहीं थे कि अचानक फिर ह्रदयाघात हुआ। चारों तरफ भाग दौड़ शुरू हो गए लेकिन इस बार उन्हें बचाया नहीं जा सका और उनके प्राण पखेरू उड़ गए।

सारा गांव विद्यालय के लोग स्तब्ध रह गए। सब बच्चों को ऐसा लगता था कि कोई अपना एक आत्मीय चला गया हो। अब उनको कौन दुलार प्यार करेगा?

आज राम आचार्य नहीं है लेकिन उनकी स्मृतियां सदैव ही याद की जाएंगी। उन्होंने कई डायरियां लिखी हुई थी। उसको आधार बनाकर हमने उनकी एक संक्षिप्त जीवनी तैयार किया। लेकिन उनके परिवार एवं बच्चों की उपेक्षा के कारण वह छप नहीं सकीं।

अक्सर हम अपने बच्चों के लिए जिंदगी भर मरते रहते हैं लेकिन वही हमारे बच्चे हमारे ना रहने पर हमारी चीजों को कोई तवज्जो नहीं देते हैं। एक माता पिता अपने बच्चों के लिए अपनी जवानियां कुर्बान कर देते हैं। लेकिन अधिकांश बच्चे अपने माता-पिता की विरासत को बचाने में नाकाम रहते हैं।

भाग- २७

हमारा गांव पिछड़े क्षेत्र में होने के कारण गांव में किसी बच्चे के बीमार होने पर अक्सर डॉक्टरी सलाह नहीं लेकर के अधिकांश झाड़ फूंक एवं ओझाई सोखाई कराया जाता है।

मैंने बचपन में देखा था कि हमारे पिताजी भी इन सब बातों में बहुत विश्वास करते थे। हमारे घर के पास बास की कोठी थी जिसमें कहा जाता था की चुड़ैल रहती है। हम लोग डर के मारे रात्रि में वहां पेशाब करने से डरते थे।

इसी प्रकार से थोड़ी दूर पर एक तालाब है। जहां अक्सर बचपन में डरा दिया जाता था कि वहां एक चुड़ैल रहती है जो रात्रि में वहां जाता है वह उसे छल करके मार डालती है।

जिस महिला को चुड़ैल के नाम से डराया जाता है वह गांव की एक महिला थी जो जलकर के मर गई थी उसे वहां पर गाड़ दिया गया था। कहते हैं कि जो व्यक्ति विशेष कर स्त्रियां उसके आसपास से गुजरती हैं तो वह उन्हें पकड़ करके बीमार कर दिया करती है।

वास्तव में देखा जाए तो ऐसा कुछ नहीं है । मनुष्य के मन में भूत- प्रेत के प्रति ऐसा भय भर दिया जाता है कि वह व्यक्ति यदि वहां से गुजरता है तो डर के मारे बीमार हो जाता है।

पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को ज्यादा बीमार होने का कारण यह भी है कि महिलाएं इन सब में ज्यादा विश्वास करती हैं । दूसरी मुख्य बात यह है कि महिलाएं अंधविश्वासी भी ज्यादा होती हैं यही कारण है कि बच्चों में वह अंधविश्वास भर दिया करते हैं और इस अंधविश्वास की जड़ पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है। अंततः इस अंधविश्वास से निकलना बड़ा कठिन हो जाता है।

वास्तविक रूप से देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति इन सबसे बीमार नहीं हुआ करता है। भूत प्रेत के प्रति जिस प्रकार के भाव वह मन में लाता है उसी प्रकार की घटनाएं होने लगती है ।

अधिकांश लोग अपने मन में भूत प्रेत के प्रति नकारात्मक भाव एवं सुनी सुनाई बातों के कारण बीमार पड़ जाया करते हैं। अक्सर देखा गया है कि जिस व्यक्ति को भूत का डर चढ़ जाता है तो उसकी सांसे तेज चलने लगती है।

हृदय की धड़कन बढ़ जाती है।‌ डर के मारे वह अब स्वयं को ही नोचने लगता है । कभी-कभी ऐसा होता है कि हृदय की धड़कनें बढ़ने से उसको अटैक पड़ जाता है तो यह अफवाह फैला दिया जाता है कि उसे भूत ने मार डाला । लेकिन वास्तविकता यह है कि व्यक्ति का डर ही उसे मार डालता है।

कई बार भूत के डर से वह व्यक्ति इतनी तेज वहां से भागता है कि उसकी श्वास बहुत तेज चलने लगती है । वह चिल्लाता जाता है कि वहां भूत है, वहां भूत है और हांफते हांफते वह भाग जाता है ।

डर के मारे उसकी तबीयत ऐसी स्थिति में कभी-कभी खराब हो जाती है तो लोग अफवाह फैला देते है कि वह व्यक्ति भूत से डर गया है उसे भूत ने पकड़ लिया है।

ऐसी स्थिति में उसके मन में बैठे वहम को जब तक नहीं निकाला जाता है तब तक उस पर किसी प्रकार की दवाओं का भी असर नहीं होता है। एक प्रकार से उसकी स्थिति अर्ध विक्षिप्त जैसी हो जाती है। कभी तो वह चीखता चिल्लाता है। कभी रोने लगता है तो कभी हंसने लगता है।

उसे व्यक्ति को जब किसी ओझा सोखा द्वारा या किसी किसी अन्य झाड़ फूंक के द्वारा उसके मन से भूत के वहम को निकाल दिया जाता है तो वह कहता है कि मुझे बहुत आराम हो गया है।

एक प्रकार से यह व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार हुआ था। उसे किसी प्रकार के भूत प्रेत ने नहीं पड़ा था बल्कि वह व्यक्ति अपने मन में बैठे भूत प्रेत के डर से बीमार हो गया था। जब उसके मन से वह वहम या डर निकल गया तो वह ठीक हो गया।

वास्तविक रूप से देखा जाए तो यह ओझा- सोखा , मुल्ले- मौलवी आदि व्यक्ति के मन में बैठे डर को भगाने का प्रयास करते हैं। वह कहते नहीं है बल्कि ऐसी झाड़ फूंक आदि की क्रियाएं करते हैं जिससे व्यक्ति के मन में बैठा डर भय निकल जाता है । उसे लगने लगता है कि उसे भूत प्रेत ने जो पकड़ा था वह भाग गया है।अब जब भूत प्रेत का वहम खत्म होता है तो उस व्यक्ति को थोड़ा सा आराम होने लगता है।

हमने अपने गांव में देखा कि जिस बांस की कोठी में चुड़ैल आदि का डर दिखाया जाता था कुछ दिनों पहले वहां पर विद्यालय बनने के कारण उसे काट दिया गया और पूर्ण रूप से साफ कर दिया गया । अब सारा भूत -प्रेत, चुड़ैल, डायन ,साइन सब भाग गई है।

अधिकांश गांव में देखा जाता है की जो माताएं इन सब में ज्यादा विश्वास करती हैं वह जब उनका बच्चा बीमार होता है तो दुनिया भर की काली -काली ताबीज बच्चों को पहना देती हैं।

मैंने स्कूलों में योग अभ्यास के दौरान देखा कि यदि एक बच्चा ऐसी ताबीज पहना है तो जितने भाई बहन होते हैं सभी पहने रखते हैं । ऐसे बच्चे बड़े होने पर भी इस प्रकार की मान्यताओं से बच नहीं पाते हैं चाहे वह जितना उच्च शिक्षित हो जाएं। इस प्रकार से यह अंधविश्वास पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।

भाग – २८

एम ए करने के पश्चात कोई स्थाई नौकरी नहीं मिल रहीं थी।इसी बीच घर चलाने में दिक्कतें होने लगी । अब क्या किया जाए कुछ समझ नहीं रहा था। हमारे पास में एक भाई की पंखे आदि बनाने की दुकान थी ।

भैया ने कहा–” सुबह सायं वहां बैठा करो! तो कुछ धीरे-धीरे सीख जाओगे।”
लेकिन मेरा मन उस दुकान में नहीं लगा । एक-दो दिन गया फिर छोड़ गया । बड़े भैया बोले –“अब तू ही सोच मुझे क्या करना है? नौकरी मिल नहीं रही तो कुछ ना कुछ तो करना ही है । जीवन चलाने के लिए कोई छोटा-मोटा रोजगार कर ले।”

‌ मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था। इसी बीच डॉक्टर नरेंद्र वर्मा जो कि हमारे गांव के दूसरे मोहल्ले में उनका घर था वह सहसों बाजार में अपनी होम्योपैथिक की क्लीनिक डाले हुए थे।

मैं उनके पास जाने लगा। वे बहुत अच्छे इंसान हैं । उनका स्वभाव बहुत अच्छा था। धीरे-धीरे सुबह शाम हम अपने गांव मोहल्ले में भी दवाई लाकर देने लगे ।

हमारे गांव में मुस्लिम बस्ती भी है। जहां पर अधिकांश पुरुष शहरों में कमाने गए हुए थे। अधिकांश स्त्रियां ही रहती थीं ।धीरे-धीरे मैं पूरे मोहल्ले का डॉक्टर बन गया। मुस्लिम औरतें पैसे देने में कभी कोताही नहीं बरतती थी । अधिकांश वे नगद पैसे दे दिया करती थी।

यदि कोई ज्यादा बीमार होता था तो मैं उसके लिए मेडिकल स्टोर से दवाई लाकर दे देता था। वह सब एक प्रकार से मुझ पर निर्भर हो गई थी । इस प्रकार से मैं अपने गांव में दवाई देकर जेब खर्च निकाल लेता था । जो कुछ बचत होती थी वह पुस्तक खरीदने में खर्च करता था या फिर मां को दे दिया करता था।

हमारे दोस्त बचपन से ही अच्छे थे जिसके कारण मैं नशे आदि से बच गया । मैंने देखा कि हमारे गांव में लोग शराब आदि का नशा जमकर करते हैं। अधिकांशतः शराब के नशे में अपनी पत्नियों को जब वह रोकतीं थी तो मार दिया करते थे। कई बार हमारे घर तक भी आ जाती थी।

फिर अम्मा उसे व्यक्ति को बहुत डांटती थीं कि -” तुझे शर्म नहीं आती औरतों पर हाथ उठाते हुएं तू बहुत बड़ा पहलवान बन गया है ।‌ औरतों को मार कर ही पहलवानी दिखाएगा। “और जाली भूमि सुनते हुए भगा देते थे फिर उस औरत को समझाया करतीं थीं।

अधिकांश औरते मार खा जाती थी गाली देती थीं लेकिन पुरुषों पर हाथ नहीं उठाती थी यदि गांव की औरतें एकजुट होकर प्रतिरोध करती तो आज गांव में शराब की नदिया न बहतीं । वर्तमान समय में मैंने देखा कि जो लोग खूब शराब पीकर लड़ाई झगड़ा आदि किया करते थे उनके बच्चे शराब आदि का नशा किया करते हैं।

भारत में युवाओं की बर्बादी का एक बड़ा कारण शराब भी है। अधिकांश शराबियों के बच्चे भी शराबी ही निकलते हैं । बहुत कम बच्चे ऐसे होते हैं जो कि नशे से बच जाए । हमारे गांव में कई लोग नशाखोरी के चलते अपना खेत आदि गिरवी रख दिया या फिर बिक गया लेकिन नशाखोरी नहीं छोड़ा।

गांव के मुख्य समस्याओं में एक नशाखोरी है तो दूसरा अंधविश्वास है । हमारे संपूर्ण गांव में घर-घर में अंधविश्वास फैला हुआ है। हिंदू देवी देवताओं की अपेक्षा अधिकांश लोग गाजी मियां की पूजा किया करते हैं ।गांव से 10- 12 किलोमीटर दूर सिकंदरा में एक मजार गाजी मियां की है ।

जहां पर पूरा गांव के हिंदू रविवार के दिन सिन्नी प्रसाद चढ़ाने जाता है। मुसलमान नाम मात्र के जाते हैं। हिंदू जैसा मूड़ और अंधविश्वासी व्यक्ति अन्य किसी धर्म में नहीं दिखलाई पड़ते हैं। हिंदुओं की नसों में मूढ़ता एवं अंधविश्वास भर गया है और पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है।

हमारे पिताजी भी गाजी मियां की पूजा किया करते थे। उनके ना रहने पर बड़े भैया करने लगे । बड़े भैया भी एक नंबर के अंधविश्वासी है । उनको बहुत समझाया कि यह सब अंधविश्वास मजारों को पूजने से कुछ नहीं होगा लेकिन भैया मानने के लिए तैयार नहीं हुए उल्टा हमें ही सिखाया करते — ” क्यों तू नहीं मानना है तो मत मान लेकिन मुझे क्यों रोकता है । फिर वह कहते हैं देख भाई जिसको इतने दिनों से खिलाया पिलाया है उसको कैसे छोड़ दें?

बचपन से पारिवारिक संस्कारों की वजह से भैया ने नहीं छोड़ा तो नहीं छोड़ा । मां भी पिताजी के न रहने पर इस प्रकार की बातों में विश्वास करती रही ।घर में मां और बड़े भैया ही सर्वे सर्वा हैं । हम और मझले भईया से कोई कुछ पूछता ही नहीं था।

कहा जाता है कि किसी के मन में यदि एक बार गलत संस्कार पड़ जाए तो उसे निकालना बहुत मुश्किल हो जाता है । मैंने अपने घर- परिवार एवं गांव में लोगों को बहुत समझाने का प्रयास किया लेकिन उनके मन में जब एक बार यह संस्कार बैठ गया था तो निकलना मुश्किल था।

वैसे हमारे भैया बड़े अच्छे इंसान हैं। पिताजी के न रहने पर उन्होंने हमारी पढ़ाई में कभी व्यवधान नहीं आने दिया । आज जो कुछ भी अक्षर ज्ञान हमें मिल सका है उनमें बड़े भाइयों का बहुत बड़ा योगदान है।

एक घटना याद आती है – एक बार हमने मंझले भईया से कुछ पैसे मांगे तो हो सकता है उनके पास ना रहा हो इसलिए बोला कि एक-दो दिन में ले लेना।

मैं गुस्से में बनियान को फाड़कर फेंक दिया। भैया कुछ बोले नहीं बस इतना कहा -” तुझे अभी पता नहीं पैसा कैसे आता है। जब कमायेगा तो पता चलेगा कि पैसे के लिए कितना पापड़ बेलने पड़ता है तब कुछ पैसे इकट्ठे हो पाते हैं।”

आज जब हम स्वयं कमाते हैं तो पता चल रहा है पैसा कमाने के लिए कितना पापड़ बेलने पड़ता है। मां-बाप एक-एक पैसे कैसे बचत करके अपने बच्चों के लिए सुरक्षित रखा करते हैं। आज जब हम स्वयं पिता बन गया हूं तो सोचता हूं कोई चीज खाने ने या पहनने से पहले बच्चों के लिए ले लिया जाए।

भाग -२९

जिन होम्योपैथी डॉक्टर नरेंद्र के साथ मैं प्रेक्टिस किया करता था । उनके सबसे छोटे भाई डॉक्टर राजेंद्र जी हैं। उन्होंने प्रयागराज के कीटगंज में आर्य समाज मंदिर में डीएमएलडी कोर्स करा रहे थे । उन्होंने कहा-” इसको कर लो रोटी दाल का जुगाड़ हो जाएगा । ”

फीस के पैसे नहीं होने पर कहा-” धीरे-धीरे देते रहना”। और उन्होंने मेरा प्रवेश वहां करवा दिया।
लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह आई कि मैं इंटर में मैथ पढ़ा था। जीव विज्ञान मात्र हाई स्कूल में पढ़ाई किया हुआ था । उन्होंने हमें जीव विज्ञान की बारीकियां बताया करते थे। ऐसे बच्चों के लिए एक एक्स्ट्रा क्लास भी लगाया करते थे।

आर्य समाज मंदिर का संचालन प्रमोद जी एवं संतोष जी दो भाई संभाला करते थे । संतोष जी अधिकांशत पुरोहित आदि का कार्य ही देखते थे । वहां पर वैदिक रीति से शादी हुआ करती थी। जो कि वह एक प्रमाण पत्र दिया करते थे। इन शादियों में अधिकांशतः प्रेमी प्रेमिकाएं ही हुआ करते जो की मां बाप के बिना अनुमति के घर से भाग कर शादी किया करते थे।

अधिकांशत देखा जा रहा है कि आर्य समाज अपने मूल उद्देश्य से भटकता जा रहा है ।आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने जो दिव्य लक्ष्य समाज में फैले अंधविश्वास एवं पाखंड से मुक्ति कर वैदिक सत्य सनातन की स्थापना करना रखा था । वह उस दिव्या लक्ष्य से भटकता दिखलाई दे रहा है । एक प्रकार से अब आर्य समाज को कुछ लोग अपनी व्यक्तिगत संपत्ति मानकर उस पर अपना धंधा चलाने लगे हैं।

आर्य समाज मंदिर में एक मैडम आतीं थी । उनके मामा जी शिव जी का भंडारा परेड ग्राउंड में किया करते थे । जिनमें वहां बहुत ज्यादा भीड़ इकट्ठा हुआ करती थी। उसे वे लोग शिव दरबार या फिर शिव चर्चा कहां करते थे।

वहां पर महिलाएं कुछ ज्यादा आती थी। वास्तव में देखा जाए तो अंधविश्वास एवं पाखंड को जिंदा रखने में महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है । कोई बाबा आया नहीं कि महिलाएं मधुमक्खी की तरह उसको घेर लेती हैं।

पाखंड में महिलाएं भाग ना ले तो यह अंधविश्वास बहुत जल्दी खत्म हो सकता है । लेकिन महिलाओं के लिए अंधविश्वास चोली दामन के साथ जुड़ा हुआ है।

तो हम आते हैं अपने विषय पर। वहां पर हमने डीएमएलडी कर लिया। प्रैक्टिकल की व्यवस्था नहीं थी इसलिए थोड़ा बहुत किसी पैथोलॉजी में प्रैक्टिस कर लिया करता था । कुछ दिनों तक ही यह हो पाया।

डीएमएलडी करने के पश्चात् मैं हरिद्वार घूमने चला गया। वहां पर देव संस्कृति विश्वविद्यालय जो अभी नया नया खुला था । वहां पर जोगड़ा विषयों में एंट्रेंस की परीक्षा होने वाली थी। हमने योग में एंट्रेंस दिया और एडमिशन भी हो गया।

योग साधना मार्ग में आने पर ऐसा लगा जैसे वर्षों वर्षों की तपस्या पूर्ण हो गई हो।इसके पश्चात कभी पुनः पैथोलॉजी की ओर मन नहीं गया । एक प्रकार से यहां भी हम असफल हुए। पैथोलॉजी कोर्स का पैसा डूब गया।

अधिकांश जीवन में हम अक्सर ऐसे निर्णय लिया करते हैं जिससे हम पूर्ण नहीं कर पाते हैं। जिसके कारण जीवन में असफल होते जाते हैं। दूसरी बात यह है कि मां पिता के दबाव में लिए गए निर्णय अधिकांशत सफल नहीं हुआ करते हैं। इसके कारण धन एवं समय दोनों बर्बाद हो जाता है।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय में प्रवेश तो ले लिया गया था लेकिन घर में एक मुस्त पैसे नहीं थे कि तुरंत दिया जा सके। गरीब व्यक्ति को कोई उधर भी नहीं देता। यह समाज बड़ा पाखंडी हैं । यहां सच्चे लोगों की कदर नहीं होती है।

जीवन में संघर्ष के दिनों को कोई नहीं पूछता है लेकिन जब वही व्यक्ति सफल हो जाता है तो क्या मंत्री, क्या संत्री , क्या समाज के ठेकेदार टूट पड़ते हैं उसकी अगवानी करने के लिए। यह संसार केवल सफल लोगों को देखता है । संघर्ष के दिनों में अधिकांश में व्यक्त अकेला पड़ जाता है।

बड़े भैया ने बहुत प्रयास किया कि पैसा कहीं सुधार मिल जाए धीरे-धीरे लौटा देंगे । लेकिन मिला नहीं । अंत में मजबूर होकर मात्र ₹12000 में खेत को गिरवी रखना पड़ा । मैंने एक बार मां से मना कर दिया कि मुझे नहीं पढ़ाई करनी । आगे मैं और कोई काम कर लूंगा।

लेकिन भैया को लगा कि मेरा मन पढ़ने का है । मैं केवल पैसे ना होने के कारण मना कर रहा हूं तो उन्होंने कहा-” पढ़ ले तुम्हारी इच्छा हरिद्वार में पढ़ने की है तो जमीन धीरे-धीरे छुड़ा लेंगे।”

बड़े सौभाग्यशाली वे लोग हैं जिन्हें ऐसे भाई मिले। त्रेता युग के राम को हमने भले ही ना देखा हो लेकिन इस कलयुग के राम को मैंने साक्षात अपनी आंखों से देखा है । बड़े भैया का नाम वास्तव में रामचंद्र ही है जो अपने नाम को सार्थक करते हैं।

बड़े भैया के बारे में अधिकांश गांव में यह कहा जाता है कि इस कलयुग में इतना बड़ा त्याग बहुत कम भाई लोग अपने भाई के लिए किया करते हैं । वह कलयुग का राम हैं जो अपने भाइयों के लिए इतना बड़ा त्याग कर रहा है।

आज मैं जो कुछ उच्च शिक्षा आदि प्राप्त कर सका उसमें बड़े भैया लोगों का बहुत बड़ा योगदान है । क्योंकि पिताजी बचपन में ही गुजर गए थे ।

भैया यदि साथ नहीं देते तो हो सकता है मैं इतनी उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाता। हमारी भाभियों भी बड़ी अच्छी निकली जो कभी पैसा देने के लिए भाइयों को मना नहीं किया। इस कलयुग में ऐसी दैवीय स्त्रियों का मिलना बड़ा मुश्किल है।

भाग -३०

फिर मैं हरिद्वार में पढ़ाई करने लगा। यहां सबसे पहले जिस शिक्षक से मुलाकात हुई वह थे अमृतलाल गुरुजी । वह बहुत अच्छे इंसान हैं । उन्होंने सर्वप्रथम हॉस्टल के लान में कक्षाएं लिया।

यह उसी प्रकार से कक्षाएं थी जैसे प्राचीन काल में गुरु लोग अपने शिष्यों के लिए लिया करते थे। हम लोग सभी जमीन पर बैठे हुए थे । चारों ओर घास थी ।

पक्षी कलरव कर रहे थे। बड़ा सुहावना मौसम था। ऐसा लगता था त्रेता युग इस कलयुग में उतर आया हो। अमृतलाल गुरुजी ने हॉस्टल में रहने के सारे नियम कानून समझा दिया कि क्या करना है? क्या नहीं करना है?

अमृतलाल गुरुजी वास्तव में अमृत की खान हैं । उनके मुख से जैसे अमृत झरता हो। वे बहुत कम उम्र से गुरुदेव की सेवा में आ गए थे । उन्होंने मथुरा में भी आवासीय युग निर्माण विद्यालय में अध्ययन किया था । एक प्रकार से वह पूर्ण रूप से गुरुदेव के प्रति समर्पित थे। पूरे अध्ययन काल में उनके जैसा समर्पण मैंने किसी में भी नहीं देखा।

आज दो दशकों बाद में भी उनका एक प्रकार से स्नेह बना रहता है। इसके पहले मैं ने कभी भी हॉस्टल में रहकर के पढ़ाई नहीं किया था। हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करना मेरा पहला अनुभव था। जीवन में घर परिवार से दूर तो रहता था लेकिन अधिकांशतः मैं कमरे लेकर के रहा। कहीं भी हॉस्टल में नहीं रहा।

कमरा लेकर रहने में जहां स्वच्छंदता होती है वहीं हॉस्टल में हमें एक नियम के तहत रहना होता है । अधिकांश हम अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकते । जो नियम होता है उसी को हमें मानना पड़ता है।

हमारे ही साथ प्रयागराज के अंजनी कुमार पुंडरीक भाई भी थे। उन्होंने एम ए योग में एडमिशन लिए हुए थे । वह पहलवान टाइप के थे । जिसके कारण उन्हें अधिकांश बच्चे बजरंगी कहा करते थे ।

वास्तव में वह बहुत तगड़े हैं। 100 – 50 दंड बैठक करना, सूर्य नमस्कार आदि करना उनके लिए सामान्य बात है। वे गुरुदेव के पक्के भक्त हैं। पूरे हॉस्टल में सुबह 4:00 बजे उठकर एक-एक कमरे को खटखटाकर उठा दिया करते थे। कोई व्यक्ति यदि सो रहा हो तो उसे बड़े प्रेम से जगाया करते थे सुबह योग की क्लास में जाने के लिए।

हमारे साथ हॉस्टल में अनुज एवं पूरन नाम के दो साथी और रहते थे । हॉस्टल के कमरे में चार लोगों की रहने की व्यवस्था थी। दो आगे के कमरे में दो पीछे के कमरे में बीच में लैट्रिन बाथरूम था।

अनुज बहुत मस्त मौला व्यक्ति था। वह अधिकांश लकीर के फकीर नहीं था बल्कि अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने चाहता था। यही कारण है कि अधिकांश यज्ञ हवन जप आदि में बहुत कम भाग लेता था। वह इसे पाखंड मानता था।
पूरन भी उसी के साथ मिला हुआ था । अधिकांश में मैं अकेले पड़ जाया करता था ।

वह सब मुझे प्रज्ञा पुत्र कह करके चिढ़ाया करते। देखो आ गया है- प्रज्ञा पुत्र। उस समय मैं गायत्री परिवार से नया-नया जुड़ा था । गुरुदेव के प्रति बहुत श्रद्धा थी । इसलिए जप हवन यज्ञ नियमित रूप से किया करता था। अनुज एवं पूरण गायत्री मंत्र जप यज्ञ हवन आदि नहीं किया करते थे।

वह बस बहुत जरूरी होने पर हाथ जोड़ लिया करते लेकिन जब मैं अंत में प्रसाद दिया करता था तो बड़े प्रेम से माथे चढ़ा कर खा लिया करते थे।

वास्तव में देखा जाए तो हॉस्टल का जीवन बहुत ही दिव्य जीवन था। किसी भी व्यक्ति के लिए हॉस्टल में रहना उसके व्यक्तित्व में एक प्रकार का निखार लाता है। चीजों की समझने की शक्ति बढ़ जाती है।

शिक्षा तो आप वैसे भी प्राप्त कर सकते हैं लेकिन शिक्षा का व्यावहारिक स्वरूप- किस प्रकार से रहना है? कैसे बात करनी है ?कई लोगों के साथ कैसे एडजस्टमेंट करना है? किसी को कोई दिक्कत ना हो कोई परेशानी ना हो आदि बातों को ध्यान रखते हुए आप जीवन को कैसे सुव्यवस्थित रूप से जी सकें यह हॉस्टल में रहकर हमें सिखाया जाता है।

हॉस्टल जीवन बड़ा व्यवहारिक होता है । वास्तव में हॉस्टल व्यवहारिक जीवन की‌ व्यवस्था का ज्ञान हमें देता है। मैंने पूर्व में जो भी ज्ञान प्राप्त किया लगता है यदि हॉस्टल में रहकर नहीं किया होता तो आज हमें इतनी चीजों की समझ ना होती।

भाग – ३१

देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जो की गायत्री परिवार के संस्थापक हैं उनकी स्मृति में स्थापित किया गया है। उन्होंने अपने जीवन काल में विश्वविद्यालय बनाने की कल्पना किया था लेकिन जीवन काल में विश्वविद्यालय स्थापित नहीं हो सका।

उन्होंने गायत्री जयंती 2 जून 1990 को इस मानवीय काया का त्याग कर दिया था विद्यालय की स्थापना उनके जीवन के एक दशक बाद २००१ में स्थापित किया गया। प्रारंभ में देव संस्कृत महाविद्यालय के रूप में एक दो वर्षों तक रहा उसके बाद विश्वविद्यालय की मान्यता मिल गई।

आचार्य श्री बड़े दिव्य दृष्टा थे। वे केवल गाल बजाने वाले मात्र बाबा जी नहीं थे बल्कि उन्होंने स्वयं अपने जीवन में त्याग तप समर्पण का अभ्यास करके दिखाया। उनका जन्म आगरा जिले के जलेसर नामक रोड पर आंवलखेड़ा नामक गांव में ११ सितंबर १९११ को हुआ था। उस समय संपूर्ण देश में स्वतंत्रता का बिगुल बज रहा था।

उनके पिता एक वेदपाठी ब्राह्मण थे। जिसके कारण बचपन से ही उनके परिवार में पूजा पाठ संध्या हवन आदि के संस्कार पड़ गए थे। मात्र नव वर्ष की बाल्यावस्था में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय जी के द्वारा उनका जनेऊ संस्कार किया गया। बाद में 1926 की बसंत पंचमी के दिन हिमालय वासी स्वामी सर्वेश्वरानंद जी महाराज द्वारा उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई।

अभी तक वें सामान्य रूप से गायत्री मंत्र आदि का जप पूजन किया करते थे लेकिन अब उन्होंने विशेष रूप से निर्देशित 24 वर्ष के 24 लक्ष्य के महान पुरुषचरण करने का संकल्प लिया। उस समय उनकी उम्र मात्र 15 वर्ष थी। ध्रुव की बातें आचार्य श्री ने भी गायत्री विद्या को जन जन तक पहुंचाने के लिए महान तप करने का संकल्प ले चुके थे।

इस संकल्प में उन्हें 24 वर्षों तक नियमित रूप से 66 माला गायत्री मंत्र का जप करना होता था। इसके साथ ही मात्र गाय को जौ खिलाया जाता था और गोबर से जो जौ निकलता था उसको छान कर उससे बनी रोटी एवं इसी गाय के मठ्ठा का सेवन करना होता था।

यह संकल्प सुनने में बड़ा सरल लगता है लेकिन करना उतना ही कठिन था। इसके बीच में उन्हें किसी भी प्रकार के मीठा नमकीन खट्टा तीखा आदि कोई भी पदार्थ नहीं खाना था। यह एक प्रकार से अन्न शुद्धि की प्रक्रिया थी।

इस संकल्प को पूर्ण करते-करते उनकी उम्र लगभग 40 वर्ष हो गई। अर्थात जिस उम्र में लोगों की जीभ ज्यादा लपका करतीं है । उल्टी सीधी चीज खाने का मन करता है उस उम्र में आचार्य श्री ने अपनी जिह्वा पर पूर्ण रूप से संयम कर लिया था।

इस आत्मकथा के पाठक यह बात गांठ बांध ले कि बिना तप किये सोने में चमक नहीं आती है। उसी प्रकार से जीवन साधना भी बिना कठोर तप किये नहीं प्राप्त हो सकती है। ऐसा नहीं है कि माला घूमाते रहे हो उल्टी सीधी चीज खाते रहे ।

मन में राम बगल में छुरी का विचार भी चलता रहे । ऐसे लोग ही साधना को बदनाम किया करते हैं। इस प्रकार के त्याग तपस्या के साथ ही आचार्य श्री ने विशाल साहित्य की रचना भी करते रहे हैं। कहां जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में 32 00 छोटी-छोटी लघु पुस्तकों की रचना की थी।

इसके साथ ही आर्ष ग्रन्थों का उन्होंने भाष्य किया था। एक प्रकार से देखा जाए तो आचार्य श्री सच्चे अर्थों में संत थे।
पूर्व काल में सभी महान व्यक्तित्व भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान विष्णु आदि गृहस्थ रहे। इसके साथ ही प्राचीन काल के ऋषि भी गृहस्थ थे ।

इस परंपरा का निर्वाह करते हुए आचार्य श्री ने भी गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया था। यही कारण रहा है कि उन्होंने अपने आश्रम को गायत्री परिवार की संज्ञा दी । उनका आश्रम एक परिवार था । जिसमें लोग परिवार की तरह मिल बांट कर रहा करते हैं।

वर्तमान समय में पारिवारिक विघटन एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है। ऐसे लोगों के लिए आचार्य श्री ने एक रोल मॉडल हरिद्वार के शांतिकुंज में स्थापित किया । जहां पर हजारों लोग अपनी पत्नी बच्चों के साथ मिलकर रहते हैं।

आचार्य श्री ने मात्र कहा नहीं बल्कि उन्होंने करके दिखाया। बातूनी गाल बजाने वाले तो हजारों मिल जाते हैं लेकिन व्यावहारिक धरातल पर उतार कर दिखाना विर्ले लोगों के बस की बात होती है।

जहां एक ही घर में चार भाई एक साथ नहीं रह सकते हैं। वहां अलग-अलग परिवारों के हजारों लोगों को एक साथ रखना सामान्य बस की बात नहीं है। विश्व राष्ट्र में जब पारिवारिक एकता की बात उठेगी तो आचार्य श्री द्वारा स्थापित परिवार व्यवस्था विश्व की अलौकिक व्यवस्था होगी।

भाग ३२

देव संस्कृति विश्वविद्यालय वास्तव में दिव्य है । यहां की दिनचर्या प्रातः 4:00 बजे जागरण से प्रारंभ हो जाती है । स्नान आदि करने के पश्चात 5:00 बजे तक योगाभ्यास के लिए जाना होता है।

फिर यज्ञ हवन करना। उसके बाद भोजन करना , फिर क्लास में जाना। सायं काल भोजन 6:00 बजे तक कर लेना फिर जीवन जीने की कक्षाएं उसके बाद विश्राम।

वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य यदि इस दिनचर्या का प्रयोग अपने जीवन काल में करें तो वह कभी बीमारियों से ग्रस्त नहीं होगा । आइए हम दिनचर्या की समीक्षा करते हैं –सर्वप्रथम प्रातः काल जागरण। प्रातः का समय ब्रह्म बेला अर्थात सर्वोत्तम समय माना गया है ।

इस कालखंड में जो कार्य किए जाते हैं वह बहुत जल्द सफल हो जाते हैं । इस काल खंड में किया गया योगाभ्यास अति फलदाई होता है। हमारे ऋषि मुनियों द्वारा 100 वर्षों तक स्वस्थ एवं बलिष्ठ रहने का राज यही था कि वह नियमित रूप से योग की क्रियाएं का अभ्यास किया करते थे ।

योग शरीर को संतुलित करता है । योग मात्र शरीर को ही स्वस्थ नहीं करता बल्कि यह मन को भी शांत रखता है साथ ही भावनाओं में संतुलन लाता है। साथ ही आध्यात्मिक उन्नति का पथ भी प्रशस्त करता है।

सामान्य रूप से बाहर व्यक्ति बलिष्ठ दिखलाई पड़ता है परंतु उसका मन अशांत हो, दुखित हो पीड़ित हो तो हम उसे स्वस्थ व्यक्ति नहीं कह सकते हैं । ऐसा शारीरिक रूप से स्वस्थ दिखने वाला व्यक्ति समाज में ज्यादा उपद्रव मचाता है।
यही कारण है कि जिस व्यक्ति में मात्र शारीरिक बल होता है।

वह अहंकारी भी उतना ही अधिक हुआ करता है । मात्र शारीरिक बल अहंकार को ही बढ़ाता है । शारीरिक बल के साथ है मनुष्य को आत्मिक बल भी चाहिए । आत्मिक बल योगाभ्यास ध्यान से ही आता है। यही समत्व बुद्धि की प्राप्ति को गीता में योग की संज्ञा दी गई है। समत्व है –जो भी काम किया जाए उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम है।

गीता में कहा गया है- ऐसा समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्ति हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा । यह समत्व रूपी योग है -कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।

इस प्रकार से हम देखते हैं कि योग मात्र व्यक्ति को शरीर से ही नहीं स्वस्थ रखता है बल्कि व्यक्ति को कर्म बंधनों से भी मुक्त करता है। हमारी दिनचर्या में यज्ञ हवन करना भी शामिल था । यज्ञ एक प्रकार की धूम्र चिकित्सा है। नियमित यज्ञ करने से व्यक्ति का जीवन संतुलित होता है क्योंकि इससे उसे शुद्ध प्राण मिला करती थी।

वर्तमान समय में बढ़ते वायु प्रदूषण के द्वारा होने वाले रोगों से कुछ हद तक यज्ञ के द्वारा रोका जा सकता है । यज्ञ के अंत में शुद्ध गोमूत्र पीने के लिए रखा रहता था । गोमूत्र को पीना सबके लिए आवश्यक नहीं था बल्कि जिस व्यक्ति की इच्छा होती थी वही मात्र पीता था।

गोमूत्र को सर्वरोगनाशक माना गया है । गोमूत्र पीने से कब्ज, एसिडिटी, गठिया, सर दर्द आदि बीमारियां ठीक हो जाती हैं। लगता है प्राचीन काल से इसी कारण गोमूत्र को इतना महत्व दिया जाता रहा है। गोमूत्र को शोधित करके बोतल में भरकर भी बिकता है जो कि लंबे समय तक पिया जा सकता है।

यज्ञ हवन के बाद 8:00 बजे तक भोजन मिलता था । नाश्ते में अंकुरित अनाज विशेष रूप से मिलता था । उस समय मात्र एक रुपए में हम सबको प्राप्त हो जाता था। यह बहुत पौष्टिक होता है । इसमें मूंग चना मूंगफली मेथी दाना आदि मिलाकर भिगोया जाता था । जब अंकुरित हो जाता था तो सबको दिया जाता था । यह शरीर के पोषण के लिए सबसे अच्छा नाश्ता है।
दूसरी मुख्य चीज जो वहां पर थी वह प्रज्ञा पेय थी । यह चाय का विकल्प है जिसमें 16 जड़ी बूटियां को मिलाकर बनाया जाता है। अन्य प्रकार की चाय जहां नुकसानदेय हुआ करती है वही यह प्राकृतिक चाय बहुत ही लाभकारी हुआ करती है । यह मात्र शांतिकुंज के शक्तिपीठों या उनके कार्यकर्ताओं के पास मिलती है।

मैं भी चाय छोड़कर प्रज्ञा पेय पीने लगा था । प्रज्ञा पेय से नस नाड़ियों में स्फूर्ति का संचार भी होता है । शरीर के सभी नस नाड़ियां खुल जाया करती हैं।

तीसरी खाने में अनिवार्य रूप से गेहूं की दलिया होती थी । यह भी बहुत पौष्टिक होती है । यदि व्यक्ति और कुछ भी ना खाए मात्र दलिया ही खाकर रहे तो उसको पूर्ण रूप से पोषण की प्राप्ति हो जाती है।

यह बहुत ही पौष्टिक होता है। बच्चों को यह नियमित खिलाया जाए तो बच्चों को कुपोषण के खतरे से बचाया जा सकता है। यही कारण है कि भारत सरकार बच्चों के बाल पुष्टाहार में दलिया को अनिवार्य रूप से निशुल्क बांटा करती है।

भाग- ३३

देव संस्कृति विश्वविद्यालय में सायं काल 6:00 बजे के पूर्व भोजन कर लेना होता था । उसके बाद रात्रि में भोजन किसी को नहीं मिलता था। पूर्व काल में हमारे यहां सायं काल सूर्य डूबने के पूर्व भोजन करने की परंपरा रही है।

लेकिन जैसे-जैसे आधुनिकता बढ़ी है । तो लोग देर रात्रि में भोजन करने लगे हैं। भोजन का संबंध मुख्य रूप से‍ सूर्य से है । जितना जल्दी हम भोजन कर लेंगे उतना ही वह पाचन में सहयोगी होगा।

दूसरी मुख्य बात यह है कि सायं काल भोजन जल्दी कर लेने से कुछ समय तक व्यक्ति जागता रहता है ।सोने और भोजन करने में कम से कम 2 घंटे का अंतर होना चाहिए। लेकिन होता इसका उल्टा है अधिकांश भोजन के तुरंत बाद हम सोने चले जाते हैं जिसके कारण भोजन आंतों में सड़ने लगता है ।

अधिकांश हमारे देश की माताएं बहने भी बच्चों को सोते से जगा कर भोजन कराने के बाद फिर सुला दिया करती हैं जो के उनके लिए बहुत ही घातक होता है । यही कारण है कि जितने लोग भोजन के अभाव में नहीं मरते हैं उससे ज्यादा खा खा करके मर जाते हैं।

वर्तमान समय में बाजार भी रात्रि के 10- 11:00 तक खुले रहते हैं । जहां पर व्यक्ति 11:00 बजे तक कुछ न कुछ खाता रहता है। देर रात्रि से खाएंगे तो वह देर रात्रि में सोयेगा भी । जिसके कारण उसके शरीर की पूरी दिनचर्या खराब हो जाती है।

वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति गैस, कब्ज, एसिडिटी, कच्ची डकार आना ,अपच जैसी पेट की बीमारियों से ग्रसित पाया जाता है। धीरे-धीरे यह बढ़ने पर बवासीर, भगंदर आदि रोग भी होते है या फिर आतों में सड़न होने लगती है। लीवर खराब होने लगता है। यह बीमारियां वर्तमान समय में महामारी का रूप लेती जा रही हैं। यदि व्यक्ति अपनी दिनचर्या में सुधार कर ले तो वह बहुत सी बीमारियों से बच सकता है।

आज भी जैन परंपरा में भोजन सायं काल के पूर्व कर लिया जाता है। जैसे-जैसे व्यक्ति अपनी जड़ों से दूर होता जा रहा है। उसी प्रकार से जीवन की समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं।

भोजन के पश्चात हम लोगों को जीवन जीने की कला की कक्षाएं लगती थी जो की मुख्य रूप से जितेन्द्र तिवारी सर लिया करते थे। जितेन्द्र तिवारी सर शांतिकुंज के समर्पित कार्यकर्ता थे। वह एक बार जब शांतिकुंज आए तो दोबारा वह अपने घर नहीं गए। कहा जाता है कि उन्होंने अपनी सारी डिग्रियां जो अध्ययन किया था गंगा में प्रवाहित कर दिया। इस घटना को एक बार उन्होंने स्वयं जीवन जीने की कला की कक्षाओं के बीच किया था।

वर्तमान समय में बढ़ती समस्याओं का कारण यह भी है कि मनुष्य जीवन जीने की कला को भूलता जा रहा है। यही कारण है कि आज प्रत्येक व्यक्ति चिंता, तनाव, अवसाद जैसी महामारियों का शिकार हो गया है। जिसके कारण हृदय रोग, मधुमेह, किडनी फेल हो जाना, लीवर की समस्याएं जैसी बीमारियों से लोग ग्रसित होते जा रहे हैं।

जीवन तो सभी जीते हैं लेकिन जीना कैसे है यह बहुत कम लोगों को पता होता है। यही कारण है कि बहुत से लोग जीवन को जीते नहीं बल्कि ढोते हैं। ऐसे लोगों के लिए जिंदगी एक प्रकार की आफत बन जाती है। वर्तमान समय में व्यक्ति व्यस्त नहीं बल्कि अस्त-व्यस्त हो गया है। वह केवल जिंदगी में भाग रहा है। उसे कहां जाना है क्या करना है खुद भी उसे पता नहीं होता है। बस भागता जा रहा है। मंजिल कहां पहुंचेगी यह पता नहीं है।

जीवन जीने की कला जो व्यक्ति सीख जाता है उस व्यक्ति के लिए जीवन सौभाग्य बन जाता है। जो व्यक्ति जीवन जीने की कला नहीं सीखता है । उसके लिए जीवन एक भार स्वरूप बोझ बना रहता है।

एक प्रकार से देखा जाए तो देव संस्कृति में जो हम अध्ययन कर रहे थे वहां एक संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण हो रहा था। वर्तमान समय में योग अभ्यास अधिकांश बच्चे केवल सर्टिफिकेट प्राप्त करने के लिए करते हैं। जिन्हें प्रैक्टिकल का कोई ज्ञान नहीं होता है।

ऐसे बच्चे जब किसी को अभ्यास कराते हैं तो वह सही प्रकार से योग अभ्यास न करा करके मात्र उछल कूद कराते हैं। जिसके कारण योग जैसा दिव्य ज्ञान भी वर्तमान समय में बदनाम होता जा रहा है । इसके बहुत बड़े जिम्मेदार वे अज्ञानी योग शिक्षक भी हैं जो कि पूर्ण रूप से बिना ज्ञान के लोगों को अभ्यास स्वार्थ के लिए कराया करते हैं।

भाग ३४

प्रत्येक बुधवार को गीता की क्लास लगती थी। जो कि वहां के कुलाधिपति डॉक्टर प्रणव पंड्या द्वारा ली जाती थी। जहां पर सभी बच्चों को एक साथ उपस्थित रहना अनिवार्य होता था।

गीता मुख्य रूप से जीवन संघर्ष में मुंह मोड़ते अर्जुन को भगवान कृष्ण द्वारा दिये गये उपदेशों पर आधारित है। भगवत गीता में मानवीय विचारों का श्रेष्ठतम वर्णन हुआ है क्योंकि वर्तमान की परिस्थितियों का निराकरण कर सकता है ।‌इससे शोषित खंडित परिताणित अर्जुन को जीवन की राह मिली थी।

उसके व्यक्तित्व को खत्म किया जा रहा था। कौरव उसके व्यक्तित्व को कुचल रहे थे । ऐसी परिस्थिति में भगवान श्री कृष्ण ने उसे मार्गदर्शन देकर एक महा विजेता बनाया था।‌ एक सफल योद्धा बनाया था । जीवन जीने की कला सिखाती है भगवत गीता। इसमें भारतीय एक विधा का वर्णन नहीं हुआ प्रयुक्त भारत की संपूर्ण विद्या का वर्णन इसमें हुआ है।

ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग, हठयोग, पतंजलि योग, यहां तक कि आयुर्वेद के नियमों का भी इसमें वर्णन, दर्शनों के तत्वों का वर्णन किया गया है।अतः यह संपूर्ण भारतवर्ष का प्रमाण पत्र जीवन चरित्र है ।इसका प्रत्येक सनातनी को अध्ययन करना चाहिए।

यह श्रीमद्भागवत गीता की कक्षा का स्वरूप मुख्य रूप से डॉक्टर साहब युग गीता के नाम से कहते थे। उनका कहना था कि हम सब की स्थिति आज अर्जुन जैसी है जो अपने कर्तव्य से भागना चाहता है ।

अपने जीवन संघर्षों से भागना चाहता है । श्री कृष्ण भगवान यही समझाते हैं कि तुम्हें जीवन संघर्ष से भागना नहीं जीवन संघर्षों से जूझना है। भागना किसी समस्या का समाधान नहीं है।

पलायनवादिता व्यक्ति को नपुंसक बनाती है। अक्सर व्यक्ति जब देखता है कि सामने समस्या बहुत बड़ी है तो वह हाथ डाल देता है । उसे लगता है कि इस कार्य में हमें विजय नहीं प्राप्त हो सकती है।

मानसिक रूप से वह हार जाता है वहीं परिस्थित अर्जुन के साथ बना रही थी। अर्जुन युद्ध से इसलिए छोड़ देना चाहता है कि यह युद्ध उसके ताऊ मामा अन्य बंधों बांधओ के बीच लड़ा जा रहा था। जिसके कारण उनके प्रति उसे मोह हो जाता है वह धर्म अधर्म की बातें भूल जाता है।‌

वर्तमान समय में गीता की प्रासंगिकता और बढ़ गई हैं। गीता निराश हताश मानव में आशा का संचार जागती है। स्वतंत्रता के समय स्वतंत्रता सेनानियों के लिए गीता माता के समान थी। गीता के द्वारा ही वह ऊर्जा पाते थे।

ऐसा कहा जाता है कि एक बार किसी अंग्रेज ने गीता को जप्त करने के जिंदा पकड़ने की ऐलान कर दिया। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था यह गीता कौन है? जो सभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों , प्रत्येक भारतीयों की प्रेरणा स्रोत बनी हुई है। उन्हें जब पता चला कि यह कोई स्त्री नहीं बल्कि एक पुस्तक है तो अपना सिर पीट लिया।

वर्तमान समय में युवाओं में जिंदगी के सफर में जूझ न पाने के कारण आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही है । ऐसे युवाओं के लिए गीता अमृत के समान सिद्ध हो सकती है।

जीवन में प्रत्येक हताश निराश व्यक्ति को गीता से प्रेरणा लेनी चाहिए । गीता हर युग में प्रासंगिक थी और रहेगी। डॉक्टर प्रणव पंड्या की क्लास बहुत आनंदमय हुआ करती थी। लगता है इस क्लास के कारण ही गीता हमारे लिए सदैव रहस्य का विषय बनी रहीं हैं।

उसके पश्चात जब हम मेरठ के ट्रांसलेट इंटरनेशनल एकेडमी में शिक्षक हुए तो श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन यह विचार हुआ कि यदि भगवान कृष्ण आज होते तो आधुनिक समस्याओं का समाधान किस प्रकार से करते । इसी उधेड़बुन में रात बीत गए। और सुबह आधुनिक गीता की कल्पना लिपिबद्ध हो चुकी थी।

आज भी हमारी सबसे प्रिय पुस्तकों में गीता है। गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित एक छोटी सी पुस्तक को हमेशा अपने बैग में रखे रहते हैं । जब समय मिलता है उसका स्वाध्याय अवश्य करते हैं। समय और काल परिस्थितियों कितनी भी बदल जाए लेकिन गीता की प्रासंगिकता कभी कम होने वाले नहीं है।

भाग – ३५

आज का मनुष्य जीवन में बड़ा हताश निराश दिखाई पड़ता है। बचपन की उन्मुक्त हंसी जैसे उसकी जिंदगी से खो सी गई है। यही कारण है कि वह विभिन्न बीमारियों की चपेट में आता जा रहा है।

इसी को ध्यान में रखते हुए योग में एक हास्य योग का प्रचार प्रसार बहुत तेजी से फैल रहा है। एक अध्ययन के अनुसार जो लोग अक्सर हंसते हैं । वह अधिक समय तक जीवित रहते हैं बेहतर, समृद्ध और खुश रहते हैं। उनकी ऊर्जा भी काफी सकारात्मक होती है।

वर्तमान समय में जैसे-जैसे हम बड़े हो रहे हैं हमारा हंसना कम होता जा रहा है । आज का इंसान अपनी मुस्कुराहट और हंसी को भूलता जा रहा है। जिसके फलस्वरूप तनावजन्य बीमारियां जैसे उच्च रक्तचाप, शुगर, माइग्रेन, डिप्रेशन आदि को निमंत्रण दे रहा है।

हंसने से ऊर्जा और ऑक्सीजन का संचार अधिक होता है । शरीर में से दूषित वायु बाहर निकल जाती हैं। हमेशा खुलकर हंसना शरीर के सभी अवयवों को ताकतवर और पुष्ट बनाता है।

शरीर में रक्त संचार की गति को भी बढ़ाता है । पाचन तंत्र अधिक कार्य करता है । इसलिए डॉक्टर ह्रदय की बीमारी के रोगी के लिए हास्य को उपयोगी बताते हैं।

मनुष्य को चाहिए कि यदि उसे लंबी जिंदगी जीना है तो जीवन में हास्य को कभी ना भूले। हंसना ऐसा सकारात्मक भाव एवं ऊर्जा है जो व्यक्ति के न केवल आंतरिक बल्कि बाहरी स्वरूप को भी प्रभावी, समृद्धशाली एवं तेजस्वी बनाता है।

हम भी अक्सर जब विद्यालयों में योगाभ्यास की कक्षाएं लेते हैं तो उसमें बच्चों को खूब हंसने की क्रियाएं भी कराते हैं। जिससे बच्चों के अंदर योग करने के प्रति सकारात्मक भाव विकसित होता है। हास्य के साथ अध्ययन करने से बच्चों में अध्ययन के प्रति रुचि भी जागृत होती है। पढ़ी-लिखी बातें उन्हें ज्यादा समझ में आती है।

हंसने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है । जिससे व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है । मेडिकल प्रयोग में पाया गया है कि 10 मिनट तक हंसते रहने से 2 घंटे की गहरी नींद आती है। हंसने वाले व्यक्ति के कई सारे मित्र बन जाते हैं और इस प्रकार उनमें भाईचारा एवं एकता की भावना कब उत्पन्न होती है, पता ही नहीं चलता।

बच्चों में यदि नियमित रूप से हास्य की क्लास लगाई जाए तो पढ़ने लिखने से जो ऊब होती है उसे सहज में दूर किया जा सकता है। इससे बच्चे पढ़ाई को बड़े सहज तरीके से लेने लगेंगे।

अपने देश की शिक्षा पद्धति बहुत ही उबाऊ है। यही कारण है कि छोटे बच्चे स्कूल में जब जाते हैं तो बहुत रोते हैं और जाने में नखरे करते हैं और जल्दी स्कूल नहीं जाते हैं ।

बच्चों को मार मार कर अभिभावकों को स्कूल भेजना पड़ता है। क्या विद्यालय जाना आनंद का विषय बन सकता है? इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है।

कहते हैं जापान जैसे देश में लोग अपने बच्चों को प्रारंभ से हंसते रहने की शिक्षा देते हैं ताकि उनकी भावी पीढ़ी सक्षम एवं तेजस्वी हो। कहां जाता है के जापान में भगवान बुद्ध के शिष्य थे – होतेई । बड़े अलमस्त स्वभाव के भिक्षुक थे ।

बेहद निर्लिप्त और निरपेक्ष भाव से जीवन जीने में विश्वास रखते थे । जिस कार्य को करते उसमें पूरी तरह डूब जाते थे। तन्मय हो जाते थे।

जापान में मान्यता है कि एक बार होतेई मेडिटेशन करते-करते इतने रोमांचित हो गए कि ध्यान अवस्था में जोर-जोर से हंसने लगे। इस अद्भुत घटना के उपरांत ही लोग उन्हें लाफिंग बुद्धा के नाम से संबोधित करने लगे। घूमना-फिरना , देशाटन करना, लोगों को हंसाना और खुशी प्रदान करना लाफिंग बुद्धा के जीवन का उद्देश्य बन गया।

इसी प्रकार चीन में उन्हें ऐसे भिक्षुक के नजरिए से देखते हैं जो एक हाथ में धन-धान्य का थैला लिए चेहरे पर खिलखिलाहट बिखेरे ,अपना बड़ा पेट और थुल थुल बदन दिखाकर सभी को हंसते हुए सकारात्मक ऊर्जा देते हैं । वे समृद्धि और खुशहाली के संदेश वाहक और घरों के वास्तु दोष निवारक के प्रतीक भी माने जाते हैं।

एक खुश चेहरा आपका खराब मूड को भी अच्छा कर सकता है । क्योंकि शोध में पाया गया है कि चेहरे पर 500 मिली सेकंड यानी आधा सेकंड की मुस्कान पैदा करना भी खुशी के लिए अंदर से प्रेरित करने में पर्याप्त होता है।
यदि हम जीवन में निरोगी रहना चाहते हैं तो अपनी मुस्कुराहटों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। मुस्कुराहट है हुस्न का जेवर, मुस्कुराना ना भूल जाया करो।

किसी ने यहां तक कहा है कि रोजाना एक सेब खाना ही नहीं रोजाना अपने चेहरे पर हंसी सजाना भी आपको डॉक्टर से दूर रखता है।

हंसी सिर्फ आपके चेहरे को ही चमकाती नहीं है । यह आपके मस्तिष्क को अच्छा महसूस करने वाले एंडोर्फिन से भर देती है और खुली बाहों से खुशी का स्वागत करती है। इसलिए यदि हमें लंबी जिंदगी जीना है तो जीवन को हंसी खुशी के साथ जीना चाहिए।

शेष अगले अंक में

 

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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