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मित्र कहां तक छुपोगे | Mitra Kahan tak

मित्र कहां तक छुपोगे

( Mitra kahan tak chupoge) 

लेखन की सुंदर वाटिका में,

मित्र कहां तक छुपोगे।

कब तक आंख मिचौली खेलोगे।

हम भवरे हैं एक कली के,

मंडराते हुए कभी मंच में,।

कभी कविताओं में, कभी आमंत्रित करोगे

कविता की चार पंक्ति में।

कभी कविता के मंच में, कभी अनुभवों में,

तो कभी शब्दों में,

हम टकरा ही जाएंगे कभी विषय सारणी में।

मगर लेखन की सुंदर वाटिका में मित्र कहां तक छुपोगे।

कभी तो प्रसंग बनकर निखरोगे,

कभी संदर्भ में, कभी काव्य में, कभी अर्थ में,

 

तो कभी शब्दों में टकराओगे।

मगर लेखन की सुंदर वाटिका में

मित्र कहां तक छुपोगे ।

कभी गद्य में, कभी पद्य में,

कभी तो मिलन होगा दोहे, छंदों में।

मिलने पर कभी अपनी बातों पर पूर्ण विराम लगाना,

कभी अल्पविराम में सब कुछ कह जाना,

कभी प्रश्न वाचक चिन्ह् लगाना?

कभी उपन्यास के पन्नों में,

कभी तो मुस्कराएंगे जीवन के हिस्से में।

मगर लेखन की सुंदर वाटिका में,

मित्र कहां तक छुपोगे।

 

लेखिका :- गीता पति ‌(प्रिया)

( दिल्ली )

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