भटक रहा बंजारा सा मन | Bhatak Raha Banjara sa Man
भटक रहा बंजारा सा मन
( Bhatak raha banjara sa man )
आहत इतना कर डाला है,
तन-मन मेरा, गुलाबों ने,
कांटों के इस मौसम में हम,
क्या फूलों की बात करें।
सूरज आग उगलता रहता,
विद्रोही हो गईं हवाएं।
परछाईं भी साथ छोड़ दे,
तो फिर गीत कौन हम गायें।
जिसने इतना दर्द दे दिया,
वह भी कोई अपना ही था,
बन्धन इतना विवश हो गये,
फिर कैसे प्रतिघात करें।
भटक रहा बन्जारा सा मन,
शिथिल स्नेह के बन्धन सारे।
आॅखमिचौनी खेल रहे वे,
जो थे इन आॅखों के तारे।
हरा-भरा वन हुआ मरुस्थल,
रूठ गया है सावन कब से,
हिम सा पिघल उमड़ अंतर से,
आॅखों से बरसात करे।
अम्बर अवसादित सा लगता,
मटमैली हो रहीं दिशाएं।
अब न क्षितिज में राग-रंग है,
भाव विहंग कहां उड़ जाये।
सांय-सांय करता है समीरण,
सूनी हुईं रुपहली रातें,
सपने भी हो गये पराये,
किससे क्या संलाप करें।
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)