अस्तित्व की लड़ाई | Astitva kavita
अस्तित्व की लड़ाई
( Astitva ki ladai )
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सूखी टहनियों सा
मैं हो गया हूं
नाज़ुक हल्का और कमजोर
ज्यादा ना लगाओ
तुम मुझ पर अपना ज़ोर
टूट जाऊंगा
बन तिनका
बिखर जाऊंगा
तेरे किसी काम
अब न आ पाऊंगा
सिवाए जलावन के
ले आओ
माचिस और मटिया तेल
खत्म कर दो
सारा यह खेल
छिड़क कर मुझे जला दो
बन अंगीठी
थोड़ी गर्मी दे जाऊंगा
इस सर्द रात में
कुछ तो राहत दे पाऊंगा
नफरतों के बीच तुझे भाऊंगा ?
बस इतना ही अब
मैं काम आ पाऊंगा
जाते जाते रहेगा इतना संतोष
कि अंतिम क्षण में कुछ तो कर पाया
नहीं रहेगा तब कोई पछतावा
फिर
बनकर ढ़ेर राख का
खाक में मिल जाऊंगा
उत्तम गति को पाकर
निवृत हो जाऊंगा।