कागा की क़लम से | Kaga ki Kalam Se
शरद ऋतु
शीत लहर का क़हर जारी थार थर्रा उठा ,
ठंड में ठिठुरन क़हर जारी थार थर्रा उठा !
पोष माघ के दोनों महिने दहला देते दिल ,
कांप जाता तन मन भारी थार थर्रा उठा !
रेतिले धोरे टीले बालू जमी रेत कोहरा छाया ,
धूजणी छूटी जो़र बर्फ़ बारी थार थर्रा उठा !
जाड़े का मुंद शीत काल धुंध का धमाल ,
ओस की बूंदें बरसी फूहारी थार थर्रा उठा !
चमन में चहक रही चिड़िया महक रहे फूल ,
बुलबुल त़ोता मीना तितली फुलवारी थार थर्रा उठा !
अन्नदाता ने जलाये अलाव सैंक रहे अपने हाथ ,
सूरज की पहली किरन प्यारी थार थर्रा उठा !
पशु पक्षी जीव जंतु चुप चाप कोयल ‘कागा’
घरों में कांपे नर नारी थार थर्रा उठा !
कौन
तेरे बिना मेरा जग में कौन ,
मेरे बिना तेरा जग में कौन !
हम दो आंखें बीच में नाक ,
सू़रत एक हमारा जग में कौन !
चोट लगती एक को रोते दोनों ,
बहती अश्रु धारा जग में कौन !
हम दो दृष्टि एक देखते समान ,
दो होते तारा जग में कौन !
दोनों एक फिर भी मिलन नहीं ,
देखें दृश्य सारा जग में कौन !
नदी चलती बहती जल अमृत धारा ,
होते दो किनारा जग में कौन !
जिया जलन पिया मिलन समुंदर से ,
जिसका जल खारा जग में कौन !
सिक्का एक दो पेहलू ऊपर नीचे ,
होता एक पिटारा जग में कौन !
चांद चकोर की चाहत अधूरी ‘कागा’
मन चित्त हारा जग में कौन !
प्रकृति
प्रकृति से प्रेम नहीं वो मानव नहीं दानव ,
प्रकृति से हेत नहीं वो मानव नहीं दानव !
प्रथ्वी के पटल पर विभिन्न प्रकार के प्राणी ,
प्रकृति से प्यार नहीं वो मानव नहीं दानव !
आंधी त़ूफ़ान वर्षा ओले ओस प्रकृति की देन ,
प्रकृति से लगाव नहीं वो मानव नहीं दानव !
अकाल चक्रवात सुनामी भूकंप कोहरा प्रकृति की उत्पति ,
प्रकृति से मेल नहीं वो मानव नहीं दानव !
पहाड़ पठार धोरा टीला नदी नाला समुंदर खारा ,
प्रकृति पर भरोसा नहीं वो मानव नहीं दानव !
जल थल अग्न गगन पवन पांच तत्व पुतला ,
प्रकृति पर आस्था नहीं वो मानव नहीं दानव !
कीड़ी मकोड़ी सांप छछुंदर शेर सियार जंगली जानवर ,
प्रकति पर विश्वास नहीं वो मानव नहीं दानव !
पैड़ पौधे फल फूल पत्ते झड़ते बनते बिगड़ते ,
प्रकृति पर यक़ीन नही वो मानव नहीं दानव !
प्रकृति से होती छेड़-खानी आधुनिक दौर में ,
प्रकृति से मोह़ब्त नहीं वो मानव नहीं दानव !
कुल्हाड़ी से काटते वन वृक्ष आरा साथ उठाये ,
प्रकृति का क़द्र नहीं वो मानव नहीं दानव !
पर्यावरण को प्रदूषित करते मटिया मेट दरिंदे ‘कागा’
प्रकृति का एह़सान नहीं वो मानव नहीं दानव !
शीत लहर
ठंड में ठिठुर रहे हाड कांप रहे ,
स़ुबह धुंध शीत लहर में कांप रहे !
जाड़े का मौसम ऊनी वस्त्र ओढ़ रखे ,
बिस्तर में दुबक रजाई कम्बल ओढ़ रखे !
दांतों की कट कट मुठ्ठियां भींच धीमी आवाज़ ,
सिसक रहे शांत स्वभाव हवा सरसर करती आवाज़ !
खाने को मन करता गर्मा-गर्म व्यंजन चाय ,
घर से बाहर निकलते नहीं बिना काफ़ी चाय !
पैड़ पौधे ढक गये बर्फ़ जम गई परत ,
बूढे बच्चे जवान परेशान बर्फ़ जम गई परत !
‘कागा’ कांपे माल मवेशी थर्र धूजणी होने लगी ,
ग़रीबों की झुग्गी झौंपड़ी में धूजणी होने लगी !
मां बाप की सेवा
मां बाप की सेवा कर तन मन से ,
मां बाप की चाकरी कर मधुर वचन से !
अड़सठ तीर्थ यात्रा मात पिता के चरणों में ,
पाठ पूजा आराधना अर्चना प्रार्थना आरती चरणों में !
आशीष आशीर्वाद चिरंजीवी भव दया दुआ दिल में ,
जन्नत मन्नत मनो-कामना का परिणाम दिल में !
मां बाप की ममता क्षमता शक्ति का भंडार ,
अटूट अनूठी अखंड अनोखी उज्जवल शक्ति का भंडार !
गंगा जमना सरस्वती संगम मात पिता की सेवा ,
ब्रह्मा विष्णु महेश कृपा मात पिता की सेवा !
‘कागा’ धन सम्पति विधा मां बाप से मिलते ,
जब अंतर्रात्मा के कंवल मन प्रसन्न से खिलते !
दिल में आप
मेरी दिल में आप बसते ओर नहीं कोई ,
मेरे दिमाग़ में आप बसते ओर नहीं कोई !
तेरा ह़सीन चेहरा चमके जैसे चांद की चांदनी ,
मेरे ज़हीन मे़ आप बसते ओर नहीं कोई !
काजल बन आंखों की शन बढ़ाई हुए फ़िदा ,
मेरे नैनों में आप बसते ओर नहीं कोई !
नदी चलती बहती अमृत धारा कल कल करती ,
मेरे जीवन में आप बसते ओर नहीं कोई !
जिस्म में बहती रक्त धारा हर पल घड़ी ,
मेरी नसों में आप बसते ओर नहीं कोई !
हलचल होती हर अंग में बे-रोक टोक ,
मेरी सांसों में आप बसते ओर नहीं कोई !
खोया होशो ह़वास जोश जल्वा जुनून जवानी ‘कागा’
मेरे ख़्यालों में आप बसते ओर नहीं कोई !
दुनियादारी
दुनिया में बसते लोभी लालची लोग ,
भोले भाले चुस्त दुरस्त आलसी लोग !
दुनिया सागर स़ेहरा बहता हुआ दरिया ,
माणक मोत अंदर ज़रूरत का ज़रिया !
ऊंचे पहाड़ पर्वत पठार दलदल रन ,
जल जंगल झाड़ी हरियाली छाई वन !
बाग़ बग़ीचे गुलिस्तां खेत खलियान ख़ूब ,
इंसान का अंदाज़ ख़ून ख़राबा ख़ूब !
प्यार नफ़रत का पैमाना नहीं त़य्य ,
मह़फ़िल सजती पीते प्याला भर मय्य !
एशो अ़शरत के आ़दी बड़े दीवाने ,
खाने पीने के शोक़ीन मोज मस्ताने !
चोर लुटेरे चापलूस चाटते पराये तलवे ,
चाटुकारी कर चुग़ल दिखाते अपने जल्वे !
ख़ुद का वजूद नहीं बेज़मीर बेशऊर ,
रोब रुतब्बा वाला करते बड़ा ग़ुरूर !
‘कागा’ कोई पीर फ़क़ीर फक्कड़ क़लंदर ,
होते ह़ाकम दरबान घुमकड़ अकड़ सिकंदर !
कवि साहित्यकार: डा. तरूण राय कागा
पूर्व विधायक
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