जंगल में चुनाव
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व्यंग्यात्मक लघुकथा | जंगल में चुनाव

जंगल में चुनाव ( व्यंग्यात्मक लघुकथा )

( Jangal Mein Chunav )

शहर की भीड़-भाड़ से दूर किसी जंगल में एक शेर रहता था । जिसका नाम शेरख़ान था । अब वह बहुत बुढ़ा हो चुका था इसलिए उसे अपने खाने-पीने  व शिकार करने में बहुत परिश्रम करना पड़ता था।

परन्तु शेरख़ान के जवानी के दिनों में सारे जंगल पर उसी का राज चलता था,जंगल के सभी जानवर उससे भयभीत रहते थे। लेकिन अब उससे कोई नहीं डरता था । बढ़ती उम्र और समय पर भोजन ना मिलने के कारण उसका शरीर कमज़ोर होता जा रहा था ।

फ़िर एक दिन उसका पुराना साथी मोती भेड़िया उससे मिलने आया । उसकी हालत भी कुछ ज़्यादा अच्छी नहीं थी । शेरख़ान ने अपने पुराने दोस्त मोती भेड़िए का हाल-चाल पूछने के बाद कहा-“अरे मोती ! अब मैं बहुत बुढ़ा हो गया हूँ । मुझसे अच्छे से शिकार भी नहीं होता । बस अब तो जैसे-तैसे दूसरे जानवरों की जूठन खाकर ही दिन काट रहा हूँ ….”

मोती भेड़िए ने गंभीर स्वर में कहा-“हू शेरख़ान जी !…आपसे क्या छुपाऊ ! अपनी हालत भी आजकल कुछ ऐसी ही है । जब से मैं शहर से आया हूँ, शिकार पकड़ने में अपने को भी बहुत दिक्कत पेश आती है। …शहर वालों के बीच रहकर मैं भी बहुत आलसी हो गया हूँ !”

शेरख़ान ने आश्चर्य से पूछा,”क्या कहा-शहर !…शहर वालों ने तुम्हें पहचाना नहीं क्या ?”
मोती ने उत्तर दिया,”अजी ! वे भला मुझे कहाँ पहचानते…वे तो ख़ुद इतने अंधभक्त हैं ! जो भेड़ की खाल में भेड़िए बने बैठे अपने ही नेताओ,व्यपारियों और अधिकारियों को नहीं पहचानते…!”

“क्या इतनी अंधेरगर्दी चल रही है-उधर ?…” शेरखान ने चिंतित होते हुए पूछा ।

“बस मेरा मुँह मत खुलवाओ सा’ब !…नहीं तो मेरे पीछे भी जंगल की ईडी और सीबीआई लग जाएगी ।” मोती ने अपना पल्ला झाड़ते हुए कहा ।….

फिर शेरख़ान ने उत्साह से कहा – “अरे ! तुम तो शहर में पढ़े-लिखे, समझदार लोगों के बीच रहकर आए हो । इसलिए ज़रा कोई युक्ति लगाओ । जिससे हम दोनों का खाने-पीने का जुगाड़ हो सके और हमारा बुढ़ापा भी बिना किसी श्रम के आराम से कट सके ।

“भेड़िए ने कुछ देर सोचकर कहा- “क्यों ना उस्ताद जंगल में चुनाव कराए जाएँ ?…” “चुनाव !…” शेरख़ान ने आश्चर्य से हल्का मुस्कराते हुए मोती भेड़िए की ओर देखा, “…पर हम जैसे अपराधी प्रवृत्ति के बदनाम लोगों को वोट कौन देगा ?… और जंगलवासियों के बीच हमारा पुराना रिकॉर्ड भी कुछ अच्छा नहीं है !…”

भेड़िए ने उत्तर दिया- “उसकी चिंता आप मत कीजिए। हम चुनावों के समय जंगल में दंगें भड़का देंगे । जंगल के जानवरों को जात-धर्म के नाम पर लड़ा देंगे ।

फिर हम सब जानवरों के अलग-अलग मोर्चें बनाकर उनके छुटभैय्या नेताओं और सरदारों को अपनी पार्टी में कर लेंगे । उनसे बड़े-2 चुनावी  वादें करेंगे । इस तरह हम आसानी से चुनाव जीत जाएँगे । फिर बाद में हम संवैधानिक पद पर रहकर ख़ुद भी खाएँगे और अपने समर्थकों को भी खिलाएँगे । तब किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी ।”

“वो तो ठीक है, परन्तु हमारे ‘जंगल राज’ को लेकर, यदि जंगल के मीडिया वालों या यहाँ के बुद्धिजीवियों ने विरोध करना शुरु कर दिया तो…?” शेर ख़ान ने थोड़े चिंता भरे स्वर में प्रश्न किया ।

“उसकी कोई दिक्कत नहीं है – मेरे भावी महाराज ! मीडिया प्रमुखों को तो हम राज्य-सभा या लोकसभा की सीट दे देंगे । और वैसे भी हमारा सारा चुनाव-प्रचार ये मीडिया वाले ही तो करेंगे ।

और रही बात बुद्धिजीवी और समाजसेवियों कीं, उन्हें भी कोई लाभ का पद दें देंगे या फिर जंगल के सारे कामों के ठेके उनको और उनके रिशतेदारों को ही दिलवा देंगे ।”मोती भेड़िए की यह बात सुनकर शेर खान थोड़ा ख़ुश हुआ ।

“यदि फिर भी किसी ने ज़्यादा ही देशभक्त या समाजसेवी बनने की कोशिश की तो हम उसे देशद्रोही,आतंकवादी या नक्सली साबित कर देंगे या फिर उन पर ई.डी.और सी.बी.आई.की रेड डलवा देंगे…”- भेडिए ने और अधिक उत्साह से कहा ।

“तुम्हें लगता है-ये तरीक़ा काम करेगा ?…”शेर ख़ान ने गंभीरतापूर्वक सवाल किया ।

“महाराज ! ये तरीका मैंने खुद थोड़ी बनाया है । ये तो बड़े-बड़े नेताओं और अपराधियों का सैकड़ों बार आजमाया गया नुस्ख़ा है । कई गुंडों, चोर-उचक्कों और भ्रष्ट नेताओं ने इसी तरह कई देशों और राज्यों पर बरसों-बरस राज किया है । और कुछ महारथी तो अब भी शासन कर रहे हैं”-मोती भेड़िए ने शेर ख़ान के सभी संशयों को दूर करते हुए कहा ।

फिर कुछ दिनों के बाद महंगे प्रचार और बड़ी-2 चुनावी घोषणाओं के बाद सुनियोजित ढंग से जंगल में चुनाव कराए गएँ । अंततः उस बुढ़े शेर को जंगल का राजा चुन लिया गया ।

अब शेर ख़ान और उसके सभी साथी जिन्होंने चुनाव में फंडिंग की थी जंगल में अपनी मर्ज़ी से शिकार करते हैं । कोई उनका विरोध नहीं करता क्योंकि राजा का हरेक काम संवैधानिक होता है ।

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कवि : संदीप कटारिया

(करनाल ,हरियाणा)

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