बचपन के दिन | kavita
बचपन के दिन
( Bachapan ke din )
पलकों पे अधरों को रख कर, थपकी देत सुलाय।
नही रहे अब दिन बचपन के, अब मुझे नींद न आय।
सपने जल गए भस्म बन गई, अब रोए ना मुस्काए,
लौंटा दो कोई बचपन के दिय, अब ना पीड़ सहाय।
किससे मन की बात कहे, सब स्वार्थ में लिपटे हाय।
बन्धू बान्धव नात सघतिता, रह रह स्वार्थ दिखाय।
मोह का बन्धन टूटे ना, तोडत को नयन भर जाए,
लिख दे रे हुंकार कवि मन, काहे को अब पछताए।
भाग्य गढ़ा है पूर्व जन्म के, कर्मो का ही लेखा है।
अनुपम छवि सौन्दर्य वदन मन, कर्मो की ही रेखा है।
मानव तन में जन्म लिए, ईश्वर ने भी दुख झेला है।
क्यो उलझा हुंकार राम जप, सब कर्मो का मेला है।
पाप कटे ना काटे तेरे, उसको झेलना ही होगा।
सुख से जीना है जो तुझको, राम बोलना ही होगा।
जैसे कैकेयी देवकी बन कर, हरि को जन्म दिया था।
पूर्व जन्म के कर्मो को, द्वापर में आ झेला था।
चौदह वर्ष का कामना कर के राम को वन भेजा था।
चौदह वर्ष ही देवकी ने भी, दुख विपत्ति झेला था।
इसीलिए हुंकार राम जप, मोह त्याग कर बंधन से।
आएगी फिर नींद नयन में, उर्मिला जैसे अँखियन में।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )