बचपन के दिन | Kavita
बचपन के दिन
( Bachpan ke din )
कितने अच्छे थे – वे बचपन में बीते पल,
ना भविष्य की चिंता, ना सताता बीता कल;
खेल-खेल में ही बीत जाता पूरा दिन,
कोई तो लौटा दे मुझे-मेरे बचपन के दिन !
नन्हीं आंखों में बसती थी- सच्ची प्रेम करुणा
हमारे हिय के मद को क्या जाने कोई तरुणा;
हर बात का हम खुलकर लेते थे मज़ा,
भले ही कोई देता हमको कितनी भी सज़ा ।
जैसे नील गगन में उड़ते-पंछी पंख पसारे,
हमें भी ना रोक पातीं जात-धर्म की दीवारें;
जिस घर स्नेह संबंध बना उस घर ही जाते
सबके संग दाना-पानी मिल-बाँटकर खाते ।
रोटी,कपड़ा,मकान क्या होता हम ना जाने,
हमारे खेल-खिलौनें ही थे- हमारे ख़जानें;
जोड़-जोड़ धरने से क्या बढ़ती है माया !
ये सोच हम क्यों खोते जिंदगी का सरमाया।
माँ की गोद से, हर आंगन तक था जग अपना,
नित देखते जल्दी-जल्दी बड़े होने का सपना;
जब होंठों पर क्षण भर की मुस्कान है आती
संग हमारे ममतामयी प्रकृति भी खिलखिलाती ।
कवि : संदीप कटारिया
(करनाल ,हरियाणा)