बरसा कभी सावन नहीं | Poem on sawan
बरसा कभी सावन नहीं !
( Barsa kabhi sawan nahin )
सच यही बरसा कभी सावन नहीं!
यार दिल का ही खिला गुलशन नहीं
ग़म मिलें है रात दिन बस अपनों से
प्यार फूलों से भरा दामन नहीं
हाथ कैसे वो मिलायेगा भला
दोस्ती करने का उसका मन नहीं
छीन सके कश्मीर दुश्मन क्या मेरा
है ज़वां ये हिन्द अब बचपन नहीं
ग़ैर हूं जिसके लिये मैं उम्रभर
बन गया सहरा मगर गुलशन नहीं
नफ़रते है सिर्फ़ हर दिल में यहां
प्यार की बातें जहां मधुवन नही।
नफ़रतें करनी उसे आज़म आती
प्यार से ही उसका भरा वो मन नहीं