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बेचारे मजदूर | Bechare Mazdoor

बेचारे मजदूर

( Bechare Mazdoor ) 

उजड़ी हुई दुनिया मजदूर बसाते हैं,
अपने पसीने से जहां सजाते हैं।

गगनचुंबी इमारतें बनाते हैं देखो,
मरुस्थल में फूल यही तो खिलाते हैं।

ईंट,पत्थर, सरिया के होते हैं ये बने,
यही तो बंगलों में उजाला फैलाते हैं।

ऐसा राष्ट्र-धन लोग कुचलते मनमाना,
ओढ़ते आसमां, ये धरती बिछाते हैं।

नींद की गोलियाँ न खाते हैं ये कभी,
धरती का बोझ मजदूर ही उठाते हैं।

आता है त्योहार, तीज, होली -दिवाली,
खिलौने बिना बच्चे बड़े हो जाते हैं।

चाहते हैं ये भी मिले हवेली -महल,
मगर अपना आंसू धूप में सुखाते हैं।

धरती का यह ईश्वर, धरती का देवता,
फुटपाथ पे बच्चे भूखे सो जाते हैं।

ले जाती है पेट की आग कहाँ -कहाँ,
ताजमहल,लालकिला ये उगा जाते हैं।

औकात नहीं किसी में वो कर्ज उतार ले,
भू -गर्भ से चमकते हीरे यही लाते हैं।

खाते हैं मेहनत की रूखी-सूखी रोटियाँ,
लाचारी के हाथ जवानी लुटा जाते हैं।

( 1 )

नहाने वाले तो रोज रोशनी में नहाते हैं,
बेचारे मजदूर चराग के लिए तरस जाते हैं।

इनकी उम्मीद की शाखों पे फूल खिलते नहीं,
अपने खून-पसीने से जहां का बोझ उठाते हैं।

झूठ बोलने वाले तो कहाँ से कहाँ पहुँच गए,
यही मीनार, महल, सड़क, अस्पताल बनाते हैं।

जहर पीने का हौसला सबको मिलता है कहाँ?
सूखे कांटे की भाँति खदानों में सो जाते हैं।

यही हैं देश की मजबूत नींव के असली पत्थर,
बहारों से दूर, दर्द की दरिया में डूब जाते हैं।

यूँ तो भूख होती है बड़ी ही बे-दर्द दोस्तों!
ये सब्र का ताला लगाकर रात बिताते हैं।

खूँ से रोज लिखते हैं,न जाने कितनी कहानियां,
कहीं न कहीं यही अमीरी का शजर लगाते हैं।

नहीं पहुँचती आवाज दिल्ली के सिंहासन तक,
पीके ख्वाहिशों का आंसू,आगे निकल जाते हैं।

हुश्न की नदी में जो मालिक उतारते कपड़े,
इधर खाली कटोरे से बच्चे बिलबिलाते हैं।

छज्जे पे आते तो हैं,परिन्दे कुछ खाने के लिए,
लेकिन बिना दाना-पानी के वो लौट जाते हैं।

क़ैद हैं ये, कुछ मुट्ठीभर इंसानों के हाँथों,
वो आधुनिक भगवान इनका लहू पी जाते हैं।

सांस लेने से जो बनाते हैं ये घेरेदार घर,
बिना सुख-शैया पे लेटे अलविदा कह जाते हैं।

Ramakesh

रामकेश एम.यादव (रायल्टी प्राप्त कवि व लेखक),

मुंबई

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