भड़ास | व्यंग्य रचना
भड़ास
( Bhadaas )
कंगाल देश को,
खंगाल रहा हूं!
माल और मलाई,
खा गए मुर्गे!
हाथ मेरे,
कुछ न आया,,
तो क्या करूं?
खोटा सिक्का,
उछाल रहा हूं!
कंगाल देश को,
खंगाल रहा हूं!
लूटकर भरी तिजोरी,
छोड़कर सदन और कुर्सी!
सियासत के मोहरे,
दफा हो गये!
मैं अकेला ही सबकुछ,
संभाल रहा हूं!
कंगाल देश को,
खंगाल रहा हूं!
अभी -अभी हाथ मेरे,
दो-चार लगे हैं!
खौलते पानी में सबको,
उबाल रहा हूं!
कंगाल देश को,
खंगाल रहा हूं!
,, भड़ास,,
अपने मन की,
सबके मन की,,
निकल रहा हूं!
कंगाल देश को,
खंगाल रहा हूं!
जमील अंसारी
हिन्दी, मराठी, उर्दू कवि
हास्य व्यंग्य शिल्पी
कामठी, नागपुर
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