भारत की वर्तमान दुर्दशा
भारत की वर्तमान दुर्दशा
बेरोज़गारी के अंधकार में,
भटक रहे हैं युवा इस द्वार में।
सपने सब कागज़ हो गए,
संघर्ष के पल और गहरे हो गए।
महंगाई की आग बढ़ी,
हर घर की थाली सूनी पड़ी।
रोटी के लिए मेहनत हार गई,
सुकून की नींद अब दूर हो गई।
नेताओं का गिरता स्तर,
वादे बनते जुमलों का सफर।
चुनावी भाषण झूठे निकले,
जनता के सपने फिर से फिसले।
शिष्टाचार का हुआ पतन,
स्वार्थी हो गए अब शासन।
राजनीति में नैतिकता खो गई,
धन-सत्ता की भूख बढ़ गई।
ग्रामीण भारत का हाल बुरा,
शहरों में भी हाल अधूरा।
खेती-बाड़ी संकट में डूबी,
गांवों की उम्मीदें भी टूटी।
गांवों में त्रासदी छाई,
शहरों में भी हालत आई।
खेती की खुशबू खो गई,
मजदूरों की मेहनत रो गई।
शिक्षा का दीपक मंद हुआ,
नैतिकता का अस्तित्व समाप्त हुआ।
भ्रष्टाचार ने ली हर सांस,
न्याय भी हो गया अब बिन आभास।
स्वास्थ्य सेवाएं ठप पड़ी,
हर समस्या अब और बड़ी।
कौन सुने जनता की पुकार,
शासन बस खेल रहा व्यापार।
फिर भी उम्मीद का दीप जलाओ,
सपनों का भारत फिर बनाओ।
सच्चाई की लौ को तेज़ करो,
भारत का भविष्य स्वर्णिम करो।

अवनीश कुमार गुप्ता ‘निर्द्वंद’
प्रयागराज
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