भ्रम | Bhram
भ्रम
( Bhram )
जो गति तेरी वो गति मेरी,जीवन भ्रम की छाया है।
नश्वर जग ये मिट जाएगा, नश्वर ही यह काया है।
धन दौलत का मोह ना करना, कर्म ही देखा जाएगा,
हरि वन्दन कर राम रमो मन,बाकी सब तो माया है।
यौवन पा कर इतराता हैं, बालक मन से भोला है।
रूग्ण हुआ तन यौवन खोकर,जीवन को जब तोला है।
क्या खोया क्या क्या पाया है, इसका कोई मोल नही,
कर्म लेखनी लिखी हुई है, वो ही तो बस मेरा है।
कर ले तू निर्माण भवन का, वो भी जर्जर होता है।
एक समय ऐसा भी आता, जब वो बिखरा होता है।
माया मे डूबा मन मेरा, लोभ मोह मे जकडा है।
नाम भी मिट जाता है इक दिन,वक्त का ऐेसा फेरा है।
देने वाला जब हरि है तो, फिर कैसा मद् है तुममे।
वो ही सबकुछ देख रहा,छुपता है तू क्यो किससे।
मत कर अब अभिमान शेर,जग इक दिन झूट ही जाएगा।
जो गति तेरी वो गति मेरी, इसको ही देखा जाएगा ।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )