बोझिल सांसें | Bojhil saansein ghazal
बोझिल सांसें
( Bojhil saansein )
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रोज़ निकली दिल से ही आहें बहुत
आजकल बोझिल रहती सांसें बहुत
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ढूंढ़ता ही मैं रहा राहें वफ़ा
बेवफ़ा मिलती रही राहें बहुत
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जख़्म कुछ ऐसे मिले अपनों से है
रोज़ अश्कों में भीगी आंखें बहुत
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प्यार की बातें नहीं वो करते है
अपने करते नफ़रत की बातें बहुत
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मैं भुलाना चाहता हूँ जीतना
रुलाती दिल को उतना यादें बहुत
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जान पे बन आयी है रब अब मेरी
हो गये घर में दुश्मन अपनें बहुत
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की हंसाने कोई भी आता नहीं
जिंदगी में रुलाने आयें बहुत
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क्या ख़ुशी आज़म मिलेगी जीस्त में
जीस्त में ग़म के भरे सायें बहुत
शायर: आज़म नैय्यर
(सहारनपुर )
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