लघुकथा: “चार बजे की माँ”
सुबह के चार बजे थे।बाहर अभी भी अंधेरा पसरा था, मगर प्रियंका की नींद खुल चुकी थी।अलार्म बजने से पहले ही उसकी आँखें खुल गई थीं — जैसे उसकी जिम्मेदारियाँ अलार्म से भी पहले जाग जाती हों। बिस्तर छोड़ते ही ठंडी ज़मीन पर पैर रखते हुए एक ही ख्याल —“आज कुछ भी छूटे नहीं…” रसोई…










