चोरी कर के लिखता हूँ मैं

चोरी कर के लिखता हूँ मैं

चोरी कर के लिखता हूँ मैं

क्या लूटा है मैंने बतला, झूठे क़िस्से गढ़ा ना कर
जन्मजात दौलत वाला हूँ, तौहमत यूँ ही मढ़ा ना कर

भूखा-नंगा था ये कह कर, मियां बेइज्जती करता क्यों
तू भी रंग जा मेरे रँग में, तिल का ताड़ बड़ा ना कर

पहले ही से मैं बेचारा, मुश्किलात में घिरा हुआ
ज़ख़्मों पर यूँ नमक छिड़क कर, मुश्किल और खड़ा ना कर

मौक़ा देता हूँ तुझको, ऊपर वाले का शुक्र मना
आ कंधे से मिला ले कंधा, अपना रूख़ तू कड़ा ना कर

बड़े अदब से झुकाए सर को, हाथ जोड़ता रहता हूँ
थोड़ा अदब ओढ़ ले तू भी, बेमतलब ही लड़ा ना कर

मैं तेरा संगी-साथी हूँ, बुरे वक़्त में दूंगा साथ
ज़रा दूर की सोच रे मूरख, बात-बात पे अड़ा ना कर

थोड़ी सी तो शर्म बचा ले, कहीं काम आ जाएगी
पानी की दो बूंद न ठहरें, इतना चिकना घड़ा ना कर

बर्फ़ के तौंदे दिये दे रहा, ले अपना अहसान पकड़
बना धूप में घर ले अपना, मेरे सर पे चढ़ा ना कर

जुगनू पकड़ रौशनी करता, और दिखाता अकड़ बड़ी
चोरी कर के लिखता हूँ मैं, ग़ज़लें बेशक़ पढ़ा ना कर

देशपाल सिंह राघव ‘वाचाल’
गुरुग्राम महानगर
हरियाणा

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