
कशिश
( Kashish )
एक कशिश सी होती है
तेरे सामने जब मैं आता हूं
दिलवालों की मधुर बातें
लबों से कह नहीं पाता हूं
मन में कशिश रहने लगी
ज्यों कुदरत मुझे बुलाती है
वर्तमान में हाल बैठकर
दिल के मुझे सुनाती है
प्रकृति प्रेमी बनकर मैं
हंसकर पेड़ लगाता हूं
हरी-भरी हरियाली देख
फूला नहीं समाता हूं
जाने कैसा रिश्ता दिल का
अपना फर्ज निभाता हूं
हर कविता हर रचना में
मैं पेड़ लगाओ गाता हूं
जीवन में पथ की पगडंडी को
अब फूलों सा महकाओ यारो
जीवन को खुशहाली से भर लो
सब मिलकर पेड़ लगाओ यारों
जाने कितने मोड़ मिलेंगे
मोड़ मोड़ पर पेड़ लगाओ
आओ चले कुदरत की ओर
एक कशिश यह भी जगाओ
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )