दुपहरी जेठ की | Dupahari Jeth ki
दुपहरी जेठ की
( Dupahari Jeth ki )
जेठ की दुपहरी नंगे पांव चलती है,
जड़ हो चेतन सभी को ये खलती है।
सूख जाता है तब नदियों का पानी,
गरम -गरम लू चहुँ ओर चलती है।
बेचारे परिन्दे बुझायें प्यास कहाँ,
तवे की तरह धरती खूब तपती है।
झुलस जाता है कलियों का चेहरा,
ठंडी हवा के लिए वो तरसती हैं।
रेत के बवंडर रोज-रोज हैं उठते,
मुसाफिरों की मुसीबत और बढ़ती है।
टप -टप चूता है पसीना बदन से,
तब घड़ी -घड़ी प्यास खूब लगती है।
नीबू, शरबत, पन्ना लगता है अच्छा,
सूरज की चक्षु से अग्नि दहकती है।
तापमान गर्मी का बढ़ता है इतना,
घर की छत, क्या दिशाएँ भी जलती हैं।
रामकेश एम.यादव (रायल्टी प्राप्त कवि व लेखक),
मुंबई