Dussehra
Dussehra

दशहरा!

( Dussehra ) 

 

दशहरा सदा यूँ मनाते रहेंगे,
कागज का रावण जलाते रहेंगे।
फूहड़ विचारों को कहाँ छोड़ पाए,
रस्मों-रिवाज हम दिखाते रहेंगे।

चेहरा मेरा एक दिखता जगत को,
बाकी वो चेहरा छुपाते रहेंगे।
भ्रष्ट रहनुमाओं से क्या मुक्ति मिलेगी,
नहीं तो बजट वो चबाते रहेंगे।

करते हैं पाप, तन धोते हैं गंगा,
बिना मन को धोए, नहाते रहेंगे।
रावण मिटा न, मिटेगा धरा से,
पुतला बस उसका जलाते रहेंगे।

अपनों में राम जैसा कोई नहीं है,
अपनी वासना हम छुपाते रहेंगे।
ज्ञानी था रावण पर था विलासी,
नई नस्ल को समझाते रहेंगे।

विश्व व्यापी जो भी बनेगा विध्वंसक,
उसे आईना हम दिखाते रहेंगे।
करो नष्ट अमृत जो रावण पिया था,
नहीं फिर वो सीता उठाते रहेंगे।

 

लेखक : रामकेश एम. यादव , मुंबई
( रॉयल्टी प्राप्त कवि व लेखक )

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